ईश्वर का वैदिक स्वरुप - ধর্ম্মতত্ত্ব

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11 September, 2021

ईश्वर का वैदिक स्वरुप

 संस्कृत भाषा में परमात्मा = परम + आत्मा तथा जीवात्मा = जीव + आत्मा दो शब्द हैं।

परमात्मा शब्द का अर्थ है – सर्वश्रेष्ठ आत्मा


और जीवात्मा का अर्थ है प्राणधारी आत्मा


आत्मा शब्द दोनों के लिए आता है और बहुधा परम-आत्मा तथा जीव-आत्माओ का भेदभाव किये बिना समस्त जीवनतत्वो के लिए व्यवहृत किया जाता है।


परमात्मा और जीवात्माओं के कार्यो में इतनी समानता है [मगर दोनों के कार्य क्षेत्र निसंदेह अत्यंत विभिन्न हैं] की प्रायः इनके सम्बन्ध के विषय में भ्रम हो जाता है और इस भ्रम के कारन दर्शनशास्त्र तथा धर्म दोनों क्षेत्रो में बाल की खाल निकाली जाती है।


खासतौर पर ईश्वर को ना मानने वाले लोग मनुष्य को ही “सिद्ध” व “ईश्वर” का दर्ज देकर अपनी अल्पज्ञता के कारण ऐसा विचार लाते हैं –


वैदिक ईश्वर का स्वरुप कैसा है और जीव का स्वरुप कैसा है – जब इस प्रकार की चर्चा की जाती है तब आवश्यक हो जाता है इस प्रकृति के बारे में भी कुछ जाना जाए – तो आइये – इस विषय पर कुछ विचार करे –


इस कार्यरूप सृष्टि में तीन नियम बहुत ही स्पष्ट रूप से दीखते हैं :


पहिला – इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ नियमपूर्वक, परिवर्तनशील है।


दूसरा – प्रत्येक जाती के प्राणी अपनी जाती के ही अंदर उत्तम, माध्यम और निकृष्ट स्वाभाव से पैदा होते हैं।


तीसरा – इस विशाल सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है वह सब नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है।


पहिला नियम : सृष्टि नियमपूर्वक परिवर्तनशील है इसका अर्थ जो लोग सृष्टि को स्वाभाविक गुण से परिवर्तनशील मानते हैं वे गलती पर हैं क्योंकि स्वाभाव में परिवर्तन नहीं होता ऐसे लोग भूल जाते हैं की परिवर्तन नाम है अस्थिरता का और स्वाभाव में अस्थिरता नहीं होती क्योंकि उलटपलट, अस्थिर ये नैमित्तिक गुण हैं स्वाभाविक नहीं। इसलिए सृष्टि में परिवर्तन स्वाभाविक नहीं। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है की यदि प्रकृति में परिवर्तन स्वाभाविक माने तो ये अनंत परिवर्तन यानी अनंत गति माननी पड़ेगी और फिर एकसमान अनंत गति मानने से संसार में किसी भी प्रकार से ह्रासविकास संभव नहीं रहेगा किन्तु सृष्टि में बनने और बिगड़ने की निरंतर प्रक्रिया से सिद्ध होता है की सृष्टि का परिवर्तन नैमित्तिक है सवभविक नहीं, इसीलिएि इस परिवर्तनरुपी प्रधान नियम के द्वारा यह सिद्ध होता है की सृष्टि के मूल कारणों में से यह एक प्रधान कारण है जो खंड खंड, परिवर्तन शील और परमाणुरूप से विद्यमान है। परन्तु यह परमाणु चेतन और ज्ञानवान नहीं हैं इसकी बड़ी वजह है की जो भी चेतन और ज्ञानवान सत्ता होगी वो कभी दूसरे के बनाये नियमो में बंध नहीं सकती बल्कि ऐसी सत्ता अपनी ज्ञानस्वतंत्रता से निर्धारित नियमो में बाधा पहुचाती है – जहाँ तक हम देखते हैं परमाणु बड़ी ही सच्चाई से अपना काम कर रहे हैं – जिस भी जगह उनको दूसरे जड़ पदार्धो में जोड़ा गया – वहां आँख बंद करके भी कार्य कर रहे हैं जरा भी इधर उधर नहीं होते इससे ज्ञात होता है की इस सृष्टि का परिवर्तनशील कारण जो परमाणु रूप में विद्यमान है ज्ञानवान नहीं बल्कि जड़ है – इसी जड़, परिवर्तनशील और परमाणु रूप उपादान कारण को माया, प्रकृति, परमाणु मेटर आदि नामो से कहा जाता है और संसार के कारणों में से एक समझा जाता है


दूसरा नियम : सभी प्राणियों के उत्तम और निकृष्ट स्वाभाव हैं। अनेक मनुष्य प्रतिभावान, सौम्य और दयावान होते हैं, अनेक मुर्ख उद्दंड और निर्दय होते हैं। इसी प्रकार अनेक गौ, घोडा आदि पशु स्वाभाव से ही सीधे होते हैं और अनेक शेर, आदि क्रोधी और दौड़दौड़कर मारने वाले होते हैं यहाँ देखने वाली बात है की ये स्वभावविरोध शारीरिक यानी भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक है, जो चैतन्य बुद्धि और ज्ञान से सम्बन्ध रखता है। लेकिन ध्यान देने वाली है ये ज्ञान प्राणियों के सारे शरीर में व्याप्त नहीं है, क्योंकि यदि सारे शरीर में ये ज्ञान व्याप्त होता तो किसी का कोई अंग भंग यथा अंगुली, हाथ, पैर आदि कट जाने पर उसका ज्ञानंश कम हो जाना चाहिए लेकिन वस्तुतः ऐसा होता नहीं इसलिए यह निश्चित और निर्विवाद है की ज्ञानवाली शक्ति जो प्राणियों में वास करती है वो पुरे शरीर में व्याप्त नहीं है प्रत्युत वह एकदेशी, परिच्छिन्न और अनुरूप ही है क्योंकि सुक्षतिसूक्ष्म कृमियों में भी मौजूद है दूसरा तथ्य ये भी है की यदि पुरे शरीर में ज्ञानशक्ति मौजूद होती तो जैसे शरीर का आकर बढ़ता है वैसे उस शक्ति को भी बढ़ना पड़ता जबकि ऐसा होता नहीं और ये शक्ति परमाणुओ के संयोग से भी नहीं बनी क्योंकि ऊपर सिद्ध किया गया की ज्ञानवान तत्व, परमाणु संयुक्त होकर नहीं बन सकता और न ही ये हो सकता है की अनेक जड़ और अज्ञानी परमाणु एकत्रित होकर परस्पर संवाद ही जारी रख सकते हो। यदि कोई मनुष्य ब्रिटेन में जिस समय पर गाडी दौड़ा रहा है – तो उसी समय पूरी दुनिया में मौजूद इंसान उस गाडी और मनुष्य को नहीं देख पा रहे इसलिए प्राणियों में मौजूद ज्ञानवान शक्ति, अल्पज्ञ है, एकदेशी है, परिच्छिन्न है। इसलिए इस शक्ति को जीव, रूह और सोल के नाम से जानते हैं।


इस विस्तृत सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है, वह नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है। सूर्य चन्द्र और समस्त ग्रह उपग्रह अपनी अपनी नियत धुरी पर नियमित रूप से भ्रमण कर रहे हैं। पृथ्वी अपनी दैनिक और वार्षिक गति के साथ अपनी नियत सीमा में घूम रही है। वर्षा, सर्दी और गर्मी नियत समय में होती है। मनुष्य और पशुपक्ष्यादि के शरीरो की बनावट वृक्षों में फूलो और फलो की उत्पत्ति, बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज का नियम और प्रत्येक जाती की आयु और भोगो की व्यवस्था आदि जितने इस सृष्टि के स्थूल सूक्ष्म व्यवहार हैं, सबमे व्यवस्था, प्रबंध और नियम पाया जाता है। नियामक के नियम का सब बड़ा चमकार तो प्रत्येक प्राणी के शरीर की वृद्धि और ह्रास में दिखलाई देता है। क्यों एक बालक नियत समय तक बढ़ता और क्यों एक जवान धीरे धीरे ह्रास की और – वृद्धावस्था की और बढ़ता जाता है इस बात का जवाब कोई नहीं दे सकता यदि कोई कहे की वृद्धि और ह्रास का कारण आहार आदि पोषक पदार्थ हैं, तो ये युक्तियुक्त और प्रामाणिक नहीं होगा क्योंकि हम रोज देखते हैं एक ही घर में एक ही परिस्थिति में और एक ही आहार व्यवहार के साथ रहते हुए भी छोटे छोटे बच्चे बढ़ते जाते हैं और जवान वृद्ध होते जाते हैं तथा वृद्ध अधिक जर्जरित होते जाते हैं। इन प्रबल और चमत्कारिक नियमो से सूचित होता है की इस सृष्टि के अंदर एक अत्यंत सूक्ष्म, सर्वव्यापक, परिपूर्ण और ज्ञानरूपा चेतनशक्ति विद्यमान है जो अनंत आकाश में फ़ैल हुए असंख्य लोकलोकान्तरो का भीतरी और बाहरी प्रबंध किये हुए हैं। ऐसा इसलिए तार्किक और प्रामाणिक है क्योंकि नियम बिना नियामक के, नियामक बिना ज्ञान के और ज्ञान बिना ज्ञानी के ठहर नहीं सकता। हम सम्पूर्ण सृष्टि में नियमपूर्वक व्यवस्था देखते हैं, इसलिए सृष्टि का यह तीसरा कारण भी सृष्टि के नियमो से ही सिद्ध होता है। इसी को परमात्मा, ईश्वर खुदा और गॉड कहते आदि अनेक नामो से पुकारते हैं हैं जिसका मुख्य नाम ओ३म है।


सृष्टि के ये तीनो कारण स्वयंसिद्ध और अनादि हैं।


मेरे मित्रो, ज्ञान और विज्ञान की और लौटिए,


सत्य और न्याय की और लौटिए


वेदो की और लौटिए….


आओ लौट चले वेदो की और।

सगुण क्या निर्गुण क्या ?

– अबोहर के डी.ए.वी. कॉलेज में कुछ वर्ष पूर्व दो योग्य युवा हिन्दी प्राध्यापक नियुक्त हुए। कुछ पुराने अध्यापकों से लेखन व साहित्य सृजन की चर्चा करते समय उन्होंने अपने पुराने सहयोगियों से मेरे लेखन-कार्य के बारे में कुछ सुना। एक दिन फिर धूप में खड़े-खड़े वे कुछ ऐसी ही चर्चा कर रहे थे। पुनः मेरा नाम किसी ने लिया तो वे बोले- उनका निवास कॉलेज पुस्तकालय के पीछे ही तो है। वे प्रायः कॉलेज के डाकघर पत्र डालने व कार्ड आदि लेने आते रहते हैं। जो दुबला-पतला व्यक्ति चलते-चलते यहाँ से पढ़ता-पढ़ता निकले बस समझलो- वह राजेन्द्र जिज्ञासु ही हो सकता है। वे यह बात कर ही रहे थे कि मैं चलते-चलते उधर से निकला। कुछ पढ़ता भी जा रहा था। मेरी उनसे भेंट करवाई गई। कुछ चर्चा छिड़ गई। क्या लिख रहे हो? आजकल किस विषय की खोज में लगे हो? कुछ ऐसे प्रश्न पूछे।


मैंने उन्हें अपने निवास पर दर्शन देने के लिए कहा। वे निमन्त्रण पाकर प्रसन्न हुए और दो दिन में मिलने आ गये। मैं अपने लेखन-कार्य में व्यस्त था। बातचीत चल पड़ी तो उन दो में से एक ने कहा- आर्यसमाज तो निर्गुण, निराकार की उपासना को मानता है, जब कि भक्तिकाल के कई सन्त सगुण, साकार ईश्वर की उपासना को मानते हैं।


यह कथन सुनकर इस लेखक ने उनसे कहा- आपके कथन में आंशिक सच्चाई है। आर्यसमाज तो ईश्वर को निर्गुण व सगुण दोनों मानता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जो निर्गुण न हो और कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो सगुण न हो।


मेरे मुख से निकले ये शब्द  सुनकर वे दोनों चौंक पड़े। दोनों ही पीएच.डी. उच्च शिक्षित सज्जन थे। वे बोले हिन्दी साहित्य में तो अनेक लेखकों ने निर्गुण भक्ति को निराकार की उपासना और सगुण उपासना का अर्थ मूर्तिपूजा  ही माना है। कुछ सन्त महात्माओं के नाम भी लिए।


उनसे निवेदन किया गया कि सन्तों को इस चर्चा में मत घसीटें। मैं भी बहुत नाम ले सकता हूँ। आप यह बतायें कि सगुण व निर्गुण इन दो शब्दों  में जो ‘गुण’ शब्द  पड़ा है, इसका अर्थ क्या है? कोई-सा शब्दकोष  उठा लीजिये अथवा किसी ग्रामीण निरक्षर वृद्धा से पूछें कि ‘गुण’ शब्द  का अर्थ क्या है? यह शब्द देशभर में प्रयुक्त होता है। सर्वत्र इसका आशय क्वालिटी सिफ़त ही जाना, माना व समझा जाता है। सद्गुण, अवगुण सब ऐसे शब्द यही सिद्ध करते हैं या नहीं? उनको मेरी बात जँच गई। वे इसका प्रतिवाद न कर सके।


अब उनसे पूछा कि जब गुण का अर्थ आप क्वालिटी विशेषतायें मानते हैं तो फिर ‘सगुण’ ‘निर्गुण’ की चर्चा में काया अथवा शरीर-आकार कैसे घुस गया? वे बोले- यह बात तो हमने पहली बार ही सुनी है। आपका तर्क तो बहुत प्रबल है। मैंने कहा- आप चिन्तन करिये। स्वाध्याय करिये। बहुत कुछ नया मिलेगा। आप अन्ध परम्पराओं की अंधी गुफाओं से निकलें। वेद, दर्शन, उपनिषद् तक पहुँचे। सत्य का बोध हो जायेगा। मान्य सोमदेव जी के ‘जिज्ञासा समाधान’ में सगुण-निर्गुण विषयक चर्चा पढ़कर यह प्रसंग देने का मैंने साहस किया है। आशा है कि पाठकों को इससे लाभ मिलेगा, प्रेरणा प्राप्त होगा

ऋग्वेद का निम्नलिखित प्रसिद्ध मन्त्र है, जिसे हम स्वस्तिवाचन में पढ़ने के साथ ही यजमान आदि के दीर्घ आयुष्य, आशीर्वाद एवं शुभकामना प्रकट करने के लिए भी पढ़ते हैं-


भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।


स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।


(ऋ. वेद १.८९.८)


इस मन्त्र में ‘देवहित-आयु’ की प्रार्थना की गई है। अब प्रश्न होता है कि यह देवहित-आयु क्या है तथा इसका परिणाम कितना है? यही नहीं, अपितु अनेक वेदमन्त्रों में चक्षुरादि इन्द्रियों के सबल होने के साथ ही जीवन एवं स्वास्थ्य आदि की जब कामना की जाती है तो वहाँ भी विशेषण के रूप में ‘देवहित’ शब्द  प्रयुक्त होता है। जैसे-


तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ता…… पश्येम शरदः शतम्।


जीवेम शरदः शतं….. भूयश्च शरदः शतात्।


(माध्यन्दिन यजु. ३६.२४)


आचार्य सायण का अर्थः यज्ञमय जीवन :- चारों वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार आचार्य सायण ‘भद्रं कर्णेभिः’ आदि ऋग्वेदीय मन्त्र की व्याख्या में ‘देवहितं यदायुः’ इस पद का भाष्य करते हुए लिखते हैं-


‘यदायुः षोडशाधिकशत प्रमाणं विंशत्यधिकशत प्रमाणं वा’ अर्थात् ‘देवहित-आयु’ का तात्पर्य है- ११६ वर्ष की आयु अथवा १२० वर्ष की आयु।


अब प्रश्न होता है कि सायणाचार्य के इस अर्थ का आधार क्या है? ‘देवहित-आयु’ का प्रमाण ११६ या १२० वर्ष ही क्यों माना जाये? इसका उ ार हमें छान्दोग्य उपनिषद् के निम्न वाक्य से प्राप्त होता है-


पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विंशति


वर्षाणि तत्प्रातः सवनं चतुर्विशत्यक्षरा गायत्री


यानि चतुश्चत्वारिशद् वर्षाणि


तन्माध्यन्दिनं सवनं चतुश्चत्वारिशदक्षरस्त्रिष्टुप्


यान्यष्टाचत्वारिशद् वर्षाणि


तत् तृतीयं सवनम् इति।  (छान्दोग्योप. ३.१६.१.४)


अर्थात् मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही एक यज्ञ है। इस यज्ञमय जीवन के प्रारम्भिक २४ वर्ष प्रातः सवन है, जबकि अगले ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन है तथा अग्रिम ४८ वर्ष तृतीय सवन के रूप में समझना चाहिए। इस प्रकार इस का कुल योग ११६ वर्ष होता है।


यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सोमयाग के प्रातः, माध्यन्दिन एवं तृतीय सवन क्रमशः गायत्र, त्रैष्टुभ एवं जागत कहे जाते हैं। ये छन्द क्रमशः २४, ४४ एवं ४८ अक्षरों वाले होते हैं।


जहाँ तक १२० वर्ष का प्रश्न है, सम्भव है छान्दोग्योपनिषद् के किसी संस्करण में माध्यन्दिन सवन को भी ४८ वर्ष का स्वीकार किया गया हो।


मनुष्य की औसत आयु एक सौ वर्षः– वैदिक ग्रन्थों में मनुष्य की औसत आयु एक सौ वर्ष मानी गयी है। ऐतरेय आरण्यक में लिखा है-


शतं वर्षाणि पुरुषायुषो भवति। (ऐ.आर. २१२९)


अर्थात् पुरुष की सामान्य आयु एक सौ वर्ष होती है। अन्यत्र भी इसी प्रकार का भाव वैदिक ग्रन्थों में उपल      ध है-


शतायुर्वै पुरुषः शतवीर्यः (मैत्रायणी संहिता १६.४)


शतायुः पुरुषः शतेन्द्रियः (तै. संहिता २.३.११५)


माध्यन्दिन यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है-


कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।


अर्थात् मनुष्य कर्म करते हुए सक्रिय सबल स्वस्थ्य रहकर ही एक सौ वर्ष पर्यन्त जीवन की कामना करे। यहाँ एक सौ वर्ष से तात्पर्य औसत रूप में एक सौ वर्ष है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक सौ वर्ष से अधिक जीवन नहीं है, क्योंकि मन्त्रों में कहा भी है-


भूयश्च शरदः शतात्। (माध्यन्दिन यजु. ३६.४)


माध्यन्दिन शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है-


अपि हि भूयांसि शताद् वर्षेभ्यः पुरुषो जीवति।


(मा. शतपथ १९.३.१९)


सम्प्रति भारतवर्ष में औसत आयु ६५ वर्षः– भारतवर्ष में इस समय मनुष्यों की आयु औसत रूप में केवल ६५ वर्ष मानी गई है, जबकि संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन के १९९५ के आँकड़ों के हिसाब से अमेरिका, यूरोप तथा जापान प्रभृति विकसित देशों के मनुष्यों की औसत आयु ७५ वर्ष तक मानी गयी है। इन देशों में पौष्टिक भोजन एवं आम चिकित्सा सुविधाओं की अच्छी व्यवस्था होने से ऐसा है।


अफ्रीकी महाद्वीप के कई देशों जैसे- सोमालिया, इथियोपिया, युगाण्डा आदि में तो औसत आयु मात्र ४० वर्ष ही मानी गई है। इन देशों में अधिक गरीबी, कुपोषण के साथ ही चिकित्सा व्यवस्था की जर्जर स्थिति होने से मृत्यु दर भी अधिक है, अतः औसत आयु बहुत कम है।


इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अभी विश्व में वेद प्रतिपादित एक सौ वर्ष की औसत आयु कहीं भी परिलक्षित नहीं हो पा रही है।


‘जरा’ ही देवहित-आयु हैः- वास्तव में पूर्ण आयुष्य अर्थात् कम-से-कम एक सौ वर्ष की आयु के साथ ही स्वस्थ निरोग रहते हुए वृद्धावस्था के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना ही ‘देवहित-आयु’ की प्राप्ति है। रोग द्वारा अल्प समय में मृत्यु या दुर्घटना आदि के द्वारा आकस्मिक-मृत्यु की प्राप्ति का अभाव तथा पूर्ण निरोग रहते हुए वृद्धावस्था को प्राप्त कर मृत्यु की प्राप्ति की स्थिति का नाम ही देवहित-आयु की प्राप्ति है। इस सम्बन्ध में वैदिक ग्रन्थों के निम्न प्रमाण द्रष्टव्य हैं-


जरा वै देवहितम्-आयुः। (मैत्रायणी. १.७.५)


यही वाक्य काठक संहिता तथा कपिष्ठल कठसंहिता में भी प्राप्त होता है। जैसे-


जरा वै देवहितमायुः (काठक संहिता ९.२) तथा (कपिष्ठल कठ संहिता ८.५)


अभीष्ट आयु एवं आरोग्य प्राप्ति के लिए यज्ञः– श्रीमद्भगवतगीता में लिखा है-


सह यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।


अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक्।।


(श्रीमद्भगवद्. ३.१०)


अर्थात् यज्ञ की रचना के साथ ही प्रजापति का यह निर्देश भी हुआ कि जो मनुष्य निरन्तर यज्ञ का अनुष्ठान करता है, वह अभीष्ट कामनाओं को निरन्तर प्राप्त करता रहता है। अभीष्ट एवं यथाकाम आयु की प्राप्ति में यज्ञ सहायक होता है। अथर्ववेद में इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र द्रष्टव्य है-


न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते।


यं भेषजस्य गुग्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते।।


(अथर्ववेद १९.३८.१)


अर्थात् जो अग्नि होम में गुग्गुल का प्रयोग करता है, उसे क्षय आदि रोग नहीं होता।


चिकित्साशास्त्रों में जहाँ विविध रोगों के निवारण के लिए विविध प्रकार की औषधियों एवं उनके द्वारा चिकित्सा करते हुए रोगों से मुक्ति का उल्लेख है, वहीं इष्टियों एवं यज्ञों के सम्पादन का भी सङ्केत करते हुए इनके माध्यम से मनुष्य को निरोग होने तथा उसकी आयु में वृद्धि का उल्लेख प्राप्त होता है। जैसे-


प्रयुक्तया यया चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुरा जितः।


तां वेदविहिताम् इष्टिमारोग्यार्थी प्रयोजयेत्।।


(चरक चिकित्सा स्थान ८.१२१)


जो लोग यज्ञ नहीं करते, उनका चिन्तन, मनन याज्ञिकों के समान सा िवक नहीं हो पाता तथा वे सदाचार की ओर भी उन्मुख नहीं हो पाते। दुराचारी एवं अधर्मात्मा व्यक्ति की आयु भी अल्प सम्भावित है, अतः महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा है-


अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः।


(अनुशासन पर्व….)


जबकि चरित्रवान् एवं धार्मिक याज्ञिक प्रकृति के लोगों के बारे में वे कहते हैं-


‘शतं वर्षाणि जीवति’ वे स्वस्थ, सबली एवं निरोग होकर पूर्ण एक सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर जरावस्था के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करते हैं। यही वेद प्रतिपादित ‘देवहित-आयु’ भी है।


दीर्घ सन्ध्या से दीर्घ आयुः– मनुस्मृति के चतुर्थ अध्याय में लिखा है कि ऋषियों ने दीर्घकाल तक दीर्घ सन्ध्या एवं गायत्री जप के द्वारा दीर्घायु प्राप्त किया-


ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।


प्रज्ञां यशश्च कीर्तिच ब्रह्मवर्चसमेव च।।


(मनु. ४.९४)


अथर्ववेद के एक अन्य मन्त्र (१९.७१.१) से भी सङ्केत मिलता है कि गायत्री-जप से आयु, प्राण, कीर्ति आदि की प्राप्ति में वृद्धि होती है।


पञ्चमहायज्ञों में नृयज्ञ अर्थात् अतिथियज्ञ या घर में आये हुए विद्वान् सदाचार सफल अतिथि की पूजा का विधान भी ‘यज्ञ’ श     द से बोध्य है। ‘यज्ञ’ का अर्थ बहुत व्यापक है। ‘यज्ञ’ श   द पञ्चमहायज्ञों का वाचक है। इसका अर्थ केवल देवयज्ञ या अग्निहोत्र ही नहीं है। ब्रह्मयज्ञ अर्थात् सन्ध्या तथा अतिथि यज्ञ आदि भी यज्ञ में अन्तर्भूत है। इसी कारण विद्वान् अतिथि के प्रति नमन या सत्कार मात्र से तथा उनके द्वारा प्रयुक्त आशीर्वचन मात्र से भी मनुष्य की आयु की वृद्धि सम्भावित है। इसी कारण मनुस्मृति में कहा है-


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।


चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।


-मनुस्मृति २.११२


अस्तु! कुछ भी हो, वास्तव में ‘देवहित-आयु’ अर्थात् यज्ञमय जीवन का निर्माण करते हुए समस्त इन्द्रियों से स्वस्थ, सबल सक्रिय रहते हुए कम-से-कम ११६ वर्ष जीवन बिताकर जरावस्था द्वारा मृत्यु की प्राप्ति हो- हम इस वैदिक भावना को हृदयङ्गम कर सकते हैं। वेद ने हमें सङ्केतों में ही इसका उपदेश कर दिया है। हम वेद के इन सन्देशों को ठीक तरह से समझें तथा जीवन में क्रियान्वित करें तो निश्चय ही सार्थकता को प्राप्त कर सकते हैं। वेदमन्त्रों के उपदेश हमें जीवन की सफलता एवं उसके उद्देश्य के प्रति निरन्तर प्रेरित करते हैं।

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