देवता: अश्विनौ ऋषि: हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
त्रयः॑ प॒वयो॑ मधु॒वाह॑ने॒ रथे॒ सोम॑स्य वे॒नामनु॒ विश्व॒ इद्वि॑दुः ।
त्रयः॑ स्क॒म्भासः॑ स्कभि॒तास॑ आ॒रभे॒ त्रिर्नक्तं॑ या॒थस्त्रिर्व॑श्विना॒ दिवा॑ ॥
ঋগ্বেদঃ১।৩৪।২
(त्रयः) त्रित्वसंख्याविशिष्टाः (पवयः) वज्रतुल्यानि चालनार्थानि कलाचक्राणि। पविरिति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २।२०। (मधुवाहने) मधुरगुणयुक्तानां द्रव्याणां वेगानां वा वाहनं प्रापणं यस्मात्तस्मिन् (रथे) रमंते येन यानेन तस्मिन् (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य चन्द्रलोकस्य वा। अत्र षुप्रसवैश्वर्ययोरित्यस्य प्रयोगः। (वेनाम्) #कामिना यात्रां धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इत्यजधातोर्नः प्रत्ययः* (अनु) आनुकूल्ये (विश्वे) सर्वे (इत्) एव (विदुः) जानन्ति (त्रयः) त्रित्वसंख्याकाः (स्कम्मासः) धारणार्थाः स्तंभविशेषाः (स्कभितासः) स्थापिता धारिताः। अत्रोभयत्र ¤आजसेरसुग् इत्यसुगागमः। (आरभे) आरब्धव्ये गमनागमने (त्रिः) त्रिवारम् (नक्तम्) रात्रौ। नक्तमिति रात्रिनामसु पठितम्। निघं० १।७। (याथः) प्राप्नुतम् (त्रिः) त्रिवारम् (ऊँ) वितक्रे (अश्विना) अश्विनाविव सकलशिल्पविद्याव्यापिनौ। अत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (दिवा) दिवसे ॥२॥ #[कमनीयाम्। सं०] *[अजेर्व्यघञपोः अ० २।४।५६। इत्यनेन चाज्धातोः स्थाने व्यादेशः सं०] ¤[अ० ७।१।५०।]
अन्वय:
पुनस्ताभ्यां तत्र किं किं साधनीयमित्युपदिश्यते।
पदार्थान्वयभाषाः -हे अश्वि अर्थात् वायु और बिजुली के समान संपूर्ण शिल्प विद्याओं को यथावत् जाननेवाले विद्वान् लोगो ! आप जिस (मधुवाहने) मधुर गुणयुक्त द्रव्यों की प्राप्ति होने के हेतु (रथे) विमान में (त्रयः) तीन (पवयः) वज्र के समान कला घूमने के चक्र और (त्रयः) तीन (स्कम्भासः) बन्धन के लिये खंभ (स्कभितासः) स्थापित और धारण किये जाते हैं, उसमें स्थित और अग्नि और जल के समान कार्य्यसिद्धि करके (त्रिः) तीन बार (नक्तम्) रात्रि और (त्रिः) तीन बार (दिवा) दिन में इच्छा किये हुए स्थान को (उपयाथः) पहुंचो वहां भी आपके विना कार्य्य सिद्धि कदापि नहीं होती मनुष्य लोग जिसमें बैठके (सोमस्य) ऐश्वर्य की (वेनां) प्राप्ति को करती हुई कामना वा चन्द्रलोक कीइकान्ति को प्राप्त होते और जिसके (आरभे) आरम्भ करने योग्य गमनागमन व्यवहार में (विश्वे) सब विद्वान् (इत्) ही (विदुः) जानते हैं उस (उ) अद्भुत रथ को ठीक-२ सिद्ध कर अभीष्ठस्थानों में शीघ्र जाया आया करो ॥
भावार्थभाषाः -भूमि समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को योग्य है कि तीन-२ चक्र युक्त अग्नि के घर और स्तंभयुक्त यान को रचकर उसमें बैठ कर एक दिन-रात में भूगोल समुद्र अन्तरिक्ष मार्ग से तीन-२ बार जानेको समर्थ हो सकें उस यान में इस प्रकार के खंभ रचने चाहिये कि जिसमें कलावयव अर्थात् काष्ठ लोष्ठ आदि खंभों के अवयव स्थित हो फिर वहां अग्नि जल का संप्रयोग कर चलावें। क्योंकि इनके विना कोई मनुष्य शीघ्र भूमि समुद्र अन्तरिक्ष में जाने आने को समर्थ नहीं हो सकता इससे इनकी सिद्धि के लिये सब मनुष्यों को बड़े-२ यत्न अवश्य करने चाहियें ॥-[स्वामी दयानन्द सरस्वती]
-যারা স্থল,সমুদ্র এবং মহাকাশে যেতে ইচ্ছুক তাদের উচিত একটি তিন চাকার চক্র যুক্ত এবং একটি স্তম্ভযুক্ত যান তৈরী করতে এবং এতে বসে সমুদ্র-মহাকাশ দিয়ে একদিনে এবং রাত্রে দুই-তিনবার যেতে সক্ষম এই ধরনের পিলার সেই বিমান তৈরী করতে হবে।
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