चातुर्वर्ण्यस्य कृत्स्नोऽयं उक्तो धर्मस्त्वयानघः ।
कर्मणां फलनिर्वृत्तिं शंस नस्तत्त्वतः पराम् ।।12/1
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है PDF
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ऋषियों ने भृगुजी से कहा कि हे पाप मुक्त भृगुजी आपने यथा विधि चारों वर्णों के धर्मों को वर्णन कर दिया और अब पुण्य पाप के फल को वर्णन कर दीजिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (12/1-2) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. शैली- विरोध- (क) इन श्लोकों में महर्षियों द्वारा भृगु से प्रश्न करना और भृगु द्वारा उनका उत्तर देने से स्पष्ट है कि ये श्लोक मनु-प्रोक्त नही है । किन्तु भृगु से भी भिन्न किसी व्यक्ति ने बनाकर मिलाये हैं । (ख) इन श्लोकों की शैली भी मनु से भिन्न है । मनु से प्रारम्भ में ऋषियों ने प्रश्न कर अनपी जिज्ञासा प्रकट की है, किन्तु मध्य में प्रश्नोत्तर रूप में कही नहीं । अतः ये श्लोक मनु की शैली से विरुद्ध है । मनु तो एक प्रचतिल विषय को समाप्त करके अग्रिम-विषय का निर्देश अवश्य करते हैं, प्रश्नोत्तर रूप में नही । इस विषय में अध्यायों की समाप्ति अथवा विषय की समाप्ति पर मनु की शैली द्रष्टव्य है एतदर्थ 1/144, 3/286, 4/256, 6/1, 97, 7/1 इत्यादि श्लोक देखे जा सकते है । 2. अन्तर्विरोध- मनुस्मृति के 1/2-4 श्लोकों में महर्षियों द्वारा मनु से प्रश्न पूछना और मनु द्वारा उनका उत्तर देना, इस बात को सिद्ध करता है कि मनुस्मृति मनुप्रोक्त है । परन्तु इन श्लोकों में भृगु से प्रश्नोत्तर कराकर इस शास्त्र को भृगु-प्रोक्त सिद्ध करने का प्रयास किया गया है । 1/2 -4 श्लोकं से विरुद्ध होने से ये श्लोक परवर्ती प्रक्षिप्त है । और ऐसा प्रतीत होता है कि विषय-संकेतक मौलिक-श्लोक 11/266 है, जिसे किसी भृगु-भक्त ने निकालकर इन श्लोकों का मिश्रण कर दिया है । कुछ प्राचीन मनु-स्मृतियों मे 11/266 श्लोक उपलब्ध भी होता है । मनुस्मृति के अनुरूप तथा 12/82, 116 श्लोकों से सुसंगत होने से यह श्लोक मौलिक है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन्मानवो भृगुः ।
अस्य सर्वस्य शृणुत कर्मयोगस्य निर्णयम् ।।12/2
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मनु धर्मशास्त्र के लिखने वाले धर्मात्मा भृगु ने उनसे कहा कि हे ऋषियों सब कर्मों के द्वारा योग अर्थात् सम्बन्ध को हम वर्णन करते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (12/1-2) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. शैली- विरोध- (क) इन श्लोकों में महर्षियों द्वारा भृगु से प्रश्न करना और भृगु द्वारा उनका उत्तर देने से स्पष्ट है कि ये श्लोक मनु-प्रोक्त नही है । किन्तु भृगु से भी भिन्न किसी व्यक्ति ने बनाकर मिलाये हैं । (ख) इन श्लोकों की शैली भी मनु से भिन्न है । मनु से प्रारम्भ में ऋषियों ने प्रश्न कर अनपी जिज्ञासा प्रकट की है, किन्तु मध्य में प्रश्नोत्तर रूप में कही नहीं । अतः ये श्लोक मनु की शैली से विरुद्ध है । मनु तो एक प्रचतिल विषय को समाप्त करके अग्रिम-विषय का निर्देश अवश्य करते हैं, प्रश्नोत्तर रूप में नही । इस विषय में अध्यायों की समाप्ति अथवा विषय की समाप्ति पर मनु की शैली द्रष्टव्य है एतदर्थ 1/144, 3/286, 4/256, 6/1, 97, 7/1 इत्यादि श्लोक देखे जा सकते है । 2. अन्तर्विरोध- मनुस्मृति के 1/2-4 श्लोकों में महर्षियों द्वारा मनु से प्रश्न पूछना और मनु द्वारा उनका उत्तर देना, इस बात को सिद्ध करता है कि मनुस्मृति मनुप्रोक्त है । परन्तु इन श्लोकों में भृगु से प्रश्नोत्तर कराकर इस शास्त्र को भृगु-प्रोक्त सिद्ध करने का प्रयास किया गया है । 1/2 -4 श्लोकं से विरुद्ध होने से ये श्लोक परवर्ती प्रक्षिप्त है । और ऐसा प्रतीत होता है कि विषय-संकेतक मौलिक-श्लोक 11/266 है, जिसे किसी भृगु-भक्त ने निकालकर इन श्लोकों का मिश्रण कर दिया है । कुछ प्राचीन मनु-स्मृतियों मे 11/266 श्लोक उपलब्ध भी होता है । मनुस्मृति के अनुरूप तथा 12/82, 116 श्लोकों से सुसंगत होने से यह श्लोक मौलिक है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसंभवम् ।
कर्मजा गतयो नॄणां उत्तमाधममध्यमः ।।12/3
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मन, वाणी, देह से जो शुभा शुभ कर्म उत्पन्न होता है इससे मनुष्यों की उत्तम, मध्यम, अधम गति उत्पन्न होती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
मन, वचन और शरीर से किये जाने वाले कर्म (शुभ-अशुभ-फलम्) शुभ-अशुभ फल को देने वाले होते है, और उन कर्मों के अनुसार मनुष्यों की उत्तम, मध्यम और अधम ये तीन गतियाँ=जन्मावस्थाएं होती है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(मनो + वाग् + देह + संभवम् कर्म) मन, वाणी और शरीर से उत्पन्न हुआ कर्म शुभ और अशुभ फलवाला होता है। (नृणाम्) मनुष्यों की (कर्मजा गतयः) कर्म से उत्पन्न होने वाली गतियाँ तीन प्रकार की होती हैं। उत्तम, मध्यम और अधम।
तस्येह त्रिविधस्यापि त्र्यधिष्ठानस्य देहिनः ।
दशलक्षणयुक्तस्य मनो विद्यात्प्रवर्तकम् ।।12/4
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
आगे जो दस लक्षण कहेंगे उससे संयुक्त पुरुष शरीर स्वामी का मन जो मन वाणी देह से उत्तम, मध्यम, अधर्म कर्म में लिप्त करने वाला है उसको जानो।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(इह) इस विषय में मनुष्य के मन को उस उत्तम, मध्यम, अधम भेद से तीन प्रकार के; मन, वचन, क्रिया भेद से तीन आश्रय वाले और दशलक्षणों से युक्त कर्म का प्रवृत्त करनेवाला जानो ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(इह) इस विषय में (देहिनः) मनुष्य के (मनः) मन को (तस्य त्रिविधस्य अपित्र्यधिष्ठानस्य दशलक्षणयुक्तस्य) उस उत्तम, मध्यम, अधम तीन प्रकार के और मन, वाणी और शरीर तीन अधिष्ठान वाले तथा दश लक्षण वाले कर्म का (प्रवर्तकम्) प्रवर्तक समझना चाहिये। अर्थात् साधारणतया तो कर्म के तीन अधिष्ठान है मन, वाणी और कर्म, परन्तु मूलतः इन सब का अधिष्ठान मन है। क्योंकि शरीर और वाणी से होने वाले कर्म भी मूलतः मन से ही उत्पन्न होते हैं।
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