ও৩ম্ ভোগ্য ভবদথো অন্নমদদ্ বহু ।
যে দেবমুতরাবন্তমুপাসতৈ সনাতনম্ ।।
(অথর্ববেদ, ১০/৮/২২)
पदार्थान्वयभाषाः -वह (भोग्यः) [सुखों से] अनुभवयोग्य (भवत्) होगा (अथो) और भी (बहु) बहुत (अन्नम्) अन्न [जीवनसाधन] (अदत्) भोगेगा। (यः) जो [मनुष्य] (उत्तरवन्तम्) अति उत्तम गुणवाले (सनातनम्) सनातन [नित्य स्थायी] (देवम्) देव [स्तुतियोग्य परमेश्वर] को (उपासातै) पूजेगा ॥-[पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी]
भावार्थभाषाः -वह मनुष्य अनेक सुखों से युक्त होकर बहुत अन्नवान् होगा, जो जगत्पिता परमेश्वर की उपासना करेगा ॥
टिप्पणी:२२−(भोग्यः) सुखैरनुभवनीयः (भवत्) लेट्। भूयात् (अथो) अपि च (अन्नम्) जीवनसाधनम् (अदत्) लेट्। अद्यात् (बहु) (यः) पुरुषः (देवम्) स्तुत्यं परमात्मानम् (उत्तरवन्तम्) अ० ४।२२।५। अतिश्रेष्ठगुणयुक्तम् (उपासातै) आस उपवेशने−लेट्। पूजयेत् (सनातनम्) सायंचिरंप्राह्णेप्रगे०। पा० ४।३।२३। इति सना−ट्युल् तुट् च। सदाभवम्। नित्यं परमेश्वरम् ॥
পদার্থঃ— (যঃ) যে পুরুষ (দেবম্) ঐ প্রকাশময় (উতারাবন্তম্) শ্রেষ্ঠ গুনের চরমসীমারূপ (সনাতনম্) সদা বিদ্যমান প্রভুকে (উপাসাতৈ) উপসনা করি, এই (ভোগ্যঃ) উত্তমভোগকারী (ভবত) হয়, (অয়ো) এবং (বহু অন্নম অদত্) বড় লম্বা কাল পর্যন্ত অন্ন খানেয়ালা হয়। অর্থাৎ জীবকে প্রচুর অন্ন প্রদান পূর্বক সুদীর্ঘ জীবন প্রাপ্ত করায়।
অনুবাদ অর্থঃ— উতারাবান সনাতন দেবকে স্মরনকারী পুরুষ উত্তম ভোক্তা ও সুদীর্ঘকাল পর্যন্ত অন্নঅাদিকে প্রাপ্ত করিয়ে পুষ্ট করে থাকে।
स॑ना॒तन॑मेनमाहुरु॒ताद्य स्या॒त्पुन॑र्णवः। अ॑होरा॒त्रे प्र जा॑येते अ॒न्यो अ॒न्यस्य॑ रू॒पयोः॑ ॥
ও৩ম্ সনাতনমেনমাহুরুতাদ্য স্যাপ্তুনর্ণবঃ ।। অহোরাত্রো প্রজায়েতে অন্যো অন্যস্য রূপয়ো ।।
(অথর্ববেদ, ১০/৮/২৩)
পদার্থঃ— (এনম) এই প্রভুকে (সনাতনং অাহুঃ) সনাতন বলা হয়, পরন্ত (উত অদ্য) ও তো অাজই (পুনর্ণবঃ) ফিরে নতুনের নতুন হয়। যে ভাবে (অহোরাত্রো) দিন ও রাত (অন্যঃ অন্যস্য রূপয়োঃ) এক রূপ হতে অন্য রূপে রূপান্তরিত (প্রজায়েতে) উৎপন্ন হয়। দিন পর রাত এবং রাতের পর দিন হয় এ জন্য রাত দিন নতুন নতুন লাগে। এই প্রকার সনাতন হয়ে ও প্রভু নবীন হতে নবীন। প্রভু কখন ও জীর্ন হয় না।
पदार्थान्वयभाषाः -(एनम्) इस [सर्वव्यापक] को (सनातनम्) सनातन [नित्य स्थायी परमात्मा] (आहुः) वे [विद्वान्] कहते हैं, (उत) और वह (अद्य) आज [प्रतिदिन] (पुनर्णवः) नित्य नवा (स्यात्) होता जावे। (अहोरात्रे) दिन और रात्रि दोनों (अन्यो अन्यस्य) एक दूसरे के (रूपयोः) दो रूपों में से (प्र जायेते) उत्पन्न होते हैं ॥
भावार्थभाषाः -नित्यस्थायी परमात्मा के गुण जिज्ञासुओं को नित्य नवीन विदित होते जाते हैं, जैसे दिन रात्रि से और रात्रि दिन से नित्य नवीन उत्पन्न होते हैं ॥--[पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी]
टिप्पणी:२३−(सनातनम्) म० २२। सदा वर्तमानम् (एनम्) सर्वव्यापकं परमात्मानम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (उत) अपि (अद्य) वर्तमाने दिने। प्रतिदिनम् (स्यात्) (पुनर्णवः) वारं वारं नवीनः (अहोरात्रे) रात्रिदिने (प्र जायेते) उत्पद्येते (अन्योऽन्यस्य) कर्मव्यतिहारे सर्वनाम्नो द्वे वाच्ये समासवच्च बहुलम्। इति द्वित्त्वम्। असमासवद्भावे पूर्वपदस्थस्य सुपः सुर्वक्तव्यः। वा० पा० ८।१।१२। इति पूर्वपदात् सुपः सुः। परस्परस्य (रूपयोः) स्वरूपयोः सकाशात् ॥
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