ऋग्वेद0 मण्डल:1 सूक्त:34 मन्त्र:1
त्रिश्चि॑न्नो अ॒द्या भ॑वतं नवेदसा वि॒भुर्वां॒ याम॑ उ॒त रा॒तिर॑श्विना ।
यु॒वोर्हि य॒न्त्रं हि॒म्येव॒ वास॑सोऽभ्यायं॒सेन्या॑ भवतं मनी॒षिभिः॑ ॥
हे परस्पर उपकारक और मित्र (अभ्यायंसेन्या) साक्षात् कार्य्यसिद्धि के लिये मिले हुए (नवेदसा) सब विद्याओं के जाननेवाले (अश्विना) अपने प्रकाश से व्याप्त सूर्य्य चन्द्रमा के समान सब विद्याओं में व्यापी कारीगर लोगो ! आप (मनीषिभिः) सब विद्वानों के साथ दिनों के साथ (हिम्याइव) शीतकाल की रात्रियों के समान (नः) हम लोगों के (अद्य) इस वर्त्तमान दिवस में शिल्पकार्य्य के साधक (भवतम्) हूजिये (हि) जिस कारण (युवोः) आपके सकाश से (यंत्रम्) कलायंत्र को सिद्ध कर यानसमूह को चलाया करें जिससे (नः) हम लोगों को (वाससः) रात्रि, दिन, के बीच (रातिः) वेगादि गुणों से दूर देश को प्राप्त होवे (उत) और (वाम्) आपके सकाश से (विभुः) सब मार्ग में चलनेवाला (यामः) रथ प्राप्त हुआ हम लोगों को देशान्तर को सुख से (त्रिः) तीन बार पहुंचावे इसलिये आपका सङ्ग हम लोग करते हैं ॥१॥ यह अर्थ संस्कृत पदार्थ में नहीं है। सं०
अन्वय:
तत्रादिमेन मंत्रेणाश्विदृष्टान्तेन शिल्पिगुणा उपदिश्यतन्ते। (त्रिः) त्रिवारम् (चित्) एव (नः) अस्माकम् (अद्य) अस्मिन्नहनि। निपातस्य च इति दीर्घः। (भवतम्) (नवेदसा) न विद्यते वेदितव्यं ज्ञातव्यमवशिष्टं ययोस्तौ विद्वांसौ। नवेदा इति मेधाविनामसु पठितम्। निघं० ३।१५। (विभुः) सर्वमार्गव्यापनशीलः (वाम्) युवयोः (यामः) याति गच्छति येन स यामो रथः (उत) अप्यर्थे (रातिः) वेगादीनां दानम् (अश्विना) स्वप्रकाशेन व्यापिनौ सूर्य्याचन्द्रमसाविव सर्वविद्याव्यापिनौ (युवोः) युवयोः। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति ओसिच# इत्येकारादेशो न भवति (हि) यतः (यन्त्रम्) यंत्र्यते यंत्रयंति संकोचयंति विलिखन्ति चालयंति वा येन तत् (हिम्याइव) हेमंतर्तौ भवा महाशीतयुक्ता रात्रय इव। भवेश्छन्दसि*। इति यत्। हिम्येति रात्रिनामसु पठितम्। निघं० १।७। हन्तेर्हि च। उ० ३।११६। इति हन् धातोर्मक् ह्यादेशश्च (वाससः) वसन्ति यस्मिन् तद्वासो दिनं तस्य मध्ये। दिवस उपलक्षणेन रात्रिरपि ग्राह्या (अभ्यायंसेन्या) आभिमुख्यतया समंतात् यम्येते गृह्येते यौ तौ। अत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। अभ्याङ्पूर्वाद्यमधातोर्बाहुलकादौणादिकः सेन्यः प्रत्ययः। (भवतम्) (मनीषिभिः) मेधाविभिर्विद्वद्भिः शिल्पिभिः। मनीषीति मेधाविनामसु पठितम्। निघं० ३।१५। ॥१॥ # [अ० ७।३।१०४।] *[अ० ४।४।११०।]
भावार्थभाषाः -इस मंत्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये जैसे रात्रि वा दिन को क्रम से संगति होती है वैसे संगति करें जैसे विद्वान् लोग पृथिवी विकारों के यान कला कील और यन्त्रादिकों को रचकर उनके घुमाने और उसमें अग्न्यादि के संयोग से भूमि समुद्र वा आकाश में जाने आने के लिये यानों को सिद्ध करते हैं। वैसे ही मुझको भी विमानादि यान सिद्ध करने चाहिये। क्योंकि इस विद्या के विना किसी के दारिद्र्य का नाश वा लक्ष्मी की वृद्धि कभी नहीं हो सकती इससे विद्या में सब मनुष्यों को अत्यन्त प्रयत्न करना चाहिये जैसे मनुष्य लोग हेमन्त ऋतु में वस्त्रों को अच्छे प्रकार धारण करते हैं वैसे ही सब प्रकार कील कला यंत्रादिकों से यानों को संयुक्त रखना चाहिये ॥-[स्वामी दयानन्द सरस्वती]
[देवता: अश्विनौ ऋषि: हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः]
त्रयः॑ प॒वयो॑ मधु॒वाह॑ने॒ रथे॒ सोम॑स्य वे॒नामनु॒ विश्व॒ इद्वि॑दुः ।
त्रयः॑ स्क॒म्भासः॑ स्कभि॒तास॑ आ॒रभे॒ त्रिर्नक्तं॑ या॒थस्त्रिर्व॑श्विना॒ दिवा॑ ॥
ऋग्वेद0 मण्डल:1 सूक्त:34 मन्त्र:2
पदार्थान्वयभाषाः -हे अश्वि अर्थात् वायु और बिजुली के समान संपूर्ण शिल्प विद्याओं को यथावत् जाननेवाले विद्वान् लोगो ! आप जिस (मधुवाहने) मधुर गुणयुक्त द्रव्यों की प्राप्ति होने के हेतु (रथे) विमान में (त्रयः) तीन (पवयः) वज्र के समान कला घूमने के चक्र और (त्रयः) तीन (स्कम्भासः) बन्धन के लिये खंभ (स्कभितासः) स्थापित और धारण किये जाते हैं, उसमें स्थित और अग्नि और जल के समान कार्य्यसिद्धि करके (त्रिः) तीन बार (नक्तम्) रात्रि और (त्रिः) तीन बार (दिवा) दिन में इच्छा किये हुए स्थान को (उपयाथः) पहुंचो वहां भी आपके विना कार्य्य सिद्धि कदापि नहीं होती मनुष्य लोग जिसमें बैठके (सोमस्य) ऐश्वर्य की (वेनां) प्राप्ति को करती हुई कामना वा चन्द्रलोक कीइकान्ति को प्राप्त होते और जिसके (आरभे) आरम्भ करने योग्य गमनागमन व्यवहार में (विश्वे) सब विद्वान् (इत्) ही (विदुः) जानते हैं उस (उ) अद्भुत रथ को ठीक-२ सिद्ध कर अभीष्ठस्थानों में शीघ्र जाया आया करो ॥
अन्वय:
पुनस्ताभ्यां तत्र किं किं साधनीयमित्युपदिश्यते। (त्रयः) त्रित्वसंख्याविशिष्टाः (पवयः) वज्रतुल्यानि चालनार्थानि कलाचक्राणि। पविरिति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २।२०। (मधुवाहने) मधुरगुणयुक्तानां द्रव्याणां वेगानां वा वाहनं प्रापणं यस्मात्तस्मिन् (रथे) रमंते येन यानेन तस्मिन् (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य चन्द्रलोकस्य वा। अत्र षुप्रसवैश्वर्ययोरित्यस्य प्रयोगः। (वेनाम्) #कामिना यात्रां धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इत्यजधातोर्नः प्रत्ययः* (अनु) आनुकूल्ये (विश्वे) सर्वे (इत्) एव (विदुः) जानन्ति (त्रयः) त्रित्वसंख्याकाः (स्कम्मासः) धारणार्थाः स्तंभविशेषाः (स्कभितासः) स्थापिता धारिताः। अत्रोभयत्र ¤आजसेरसुग् इत्यसुगागमः। (आरभे) आरब्धव्ये गमनागमने (त्रिः) त्रिवारम् (नक्तम्) रात्रौ। नक्तमिति रात्रिनामसु पठितम्। निघं० १।७। (याथः) प्राप्नुतम् (त्रिः) त्रिवारम् (ऊँ) वितक्रे (अश्विना) अश्विनाविव सकलशिल्पविद्याव्यापिनौ। अत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (दिवा) दिवसे ॥२॥ #[कमनीयाम्। सं०] *[अजेर्व्यघञपोः अ० २।४।५६। इत्यनेन चाज्धातोः स्थाने व्यादेशः सं०] ¤[अ० ७।१।५०।]
भावार्थभाषाः -भूमि समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को योग्य है कि तीन-२ चक्र युक्त अग्नि के घर और स्तंभयुक्त यान को रचकर उसमें बैठ कर एक दिन-रात में भूगोल समुद्र अन्तरिक्ष मार्ग से तीन-२ बार जानेको समर्थ हो सकें उस यान में इस प्रकार के खंभ रचने चाहिये कि जिसमें कलावयव अर्थात् काष्ठ लोष्ठ आदि खंभों के अवयव स्थित हो फिर वहां अग्नि जल का संप्रयोग कर चलावें। क्योंकि इनके विना कोई मनुष्य शीघ्र भूमि समुद्र अन्तरिक्ष में जाने आने को समर्थ नहीं हो सकता इससे इनकी सिद्धि के लिये सब मनुष्यों को बड़े-२ यत्न अवश्य करने चाहियें ॥-[स्वामी दयानन्द सरस्वती]
देवता: अश्विनौ ऋषि: हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः छन्द: जगती स्वर: निषादः
स॒मा॒ने अह॒न्त्रिर॑वद्यगोहना॒ त्रिर॒द्य य॒ज्ञं मधु॑ना मिमिक्षतम् ।
त्रिर्वाज॑वती॒रिषो॑ अश्विना यु॒वं दो॒षा अ॒स्मभ्य॑मु॒षस॑श्च पिन्वतम् ॥[ऋग्वेद01/34/3]
पदार्थान्वयभाषाः -हे (अश्विना) अग्नि जल के समान यानों को सिद्ध करके प्रेरणा करने और चलाने तथा (अवद्यगोहना) निंदित दुष्ट कर्मों को दूर करनेवाले विद्वान् मनुष्यो ! (युवम्) तुम दोनों (समाने) एक (अहन्) दिन में (मधुना) जल से (यज्ञम्) ग्रहण करने योग्य शिल्पादि विद्या सिद्धि करनेवाले यज्ञ को (त्रिः) तीन बार (मिमिक्षितम्) सींचने की इच्छा करो और (अद्य) आज (अस्मभ्यम्) शिल्पक्रियाओं को सिद्ध करने करानेवाले हम लोगों के लिये (दोषाः) रात्रियों और (उषसः) प्रकाश को प्राप्त हुए दिनों में (त्रिः) तीन बार यानों का (पिन्वतम्) सेवन करो और (वाजवतीः) उत्तम-२ सुखदायक (इषः) इच्छा सिद्धि करनेवाले नौकादि यानों को (त्रिः) तीन बार (पिन्वतम्) प्रीति से सेवन करो ॥
अन्वय:
पुनस्ताभ्यां कृतैर्यानैः किं किं साधनीयमित्युपदिश्यते। (समाने) एकस्मिन् (अहन्) अहनि दिने (त्रिः) (त्रिवारम्) (अवद्यगोहना) अवद्यानि गर्ह्याणि निंदितानि दुःखानि गूहत आच्छादयतो दूरीकुरुतस्तौ। अवद्यपण्य० ३।१।१०१। इत्ययं निंदार्थे निपातः। ण्यन्ताद्गुहूसंवरण इत्यस्माद्धातोः। ण्यासश्रन्थो युच् अ० ३।३।१०७। इति युच्। ऊदुपधाया गोहः। अ० ६।४।८९। इत्यूदादेशे प्राप्ते। वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ती इत्यस्य निषेधः। सुपां सुलुग् इत्याकारदेशश्च। (त्रिः) त्रिवारम् (अद्य) अस्मिन्नहनि (यज्ञम्) ग्राह्यशिल्पादिसिद्धिकरम् (मधुना) जलेन। मध्वित्युदकनामसु पठितम्। निघं० १।१२। (मिमिक्षतम्) मेदुमिच्छतम् (त्रिः) त्रिवारम् वाजवतीः प्रशस्ता वाजा वेगादयो गुणा विद्यन्ते यासु नौकादिषु ताः। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (इषः) या इष्यन्ते ता इष्टसुखसाधिकाः (अश्विना) वन्हिजलवद्यानसिद्धिं संपाद्य प्रेरकचालकावध्वर्यू। अश्विनावध्वर्यू। श० १।१।२।१७। (युवम्) युवाम्। प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम्। अ० ७।२।८८। इत्याकारादेशनिषेधः। (दोषाः) रात्रिषु। अत्र सुपां सुलुग् इति सुब्व्यत्ययः। दोषेति रात्रिनामसु पठितम्। निघं० १।७। अस्मभ्यम् शिल्पक्रियाकारिभ्यः (उषसः) प्रापितप्रकाशेषु दिवसेषु। अत्रापि सुब्व्यत्ययः। उष इति पदनामसु पठितम्। निघं० ५।५। (च) समुच्चये (पिन्वतम्) प्रीत्या सेवेथाम् ॥
भावार्थभाषाः -शिल्पविद्या को जानने और कलायंत्रों से यान को चलानेवाले प्रति दिन शिल्पविद्या से यानों को सिद्ध कर तीन प्रकार अर्थात् शारीरिक आत्मिक और मानसिक सुख के लिये धन आदि अनेक उत्तम-२ पदार्थों को इकट्ठा कर सब प्राणियों को सुखयुक्त करें जिससे दिन-रात में सब लोग अपने पुरुषार्थ से इस विद्या की उन्नति कर और आलस्य को छोड़के उत्साह से उसकी रक्षा में निरन्तर प्रयत्न करें ॥
देवता: अश्विनौ ऋषि: हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः छन्द: जगती स्वर: निषादः
त्रिर्नो॑ र॒यिं व॑हतमश्विना यु॒वं त्रिर्दे॒वता॑ता॒ त्रिरु॒ताव॑तं॒ धियः॑ ।
त्रिः सौ॑भग॒त्वं त्रिरु॒त श्रवां॑सि नस्त्रि॒ष्ठं वां॒ सूरे॑ दुहि॒ता रु॑ह॒द्रथ॑म् ॥[ऋग्वेद01/34/5]
पदार्थान्वयभाषाः -हे (देवताता) शिल्प क्रिया और यज्ञ संपत्ति के मुख्य कारण वा विद्वान् तथा शुभगुणों के बढ़ाने और (अश्विना) आकाश पृथिवी के तुल्य प्राणियों को सुख देनेवाले विद्वान् लोगो ! (युवम्) आप (नः) हम लोगों के लिये (रयिम्) उत्तम धन (त्रिः) तीन बार अर्थात् विद्या राज्य श्री की प्राप्ति और रक्षण क्रियारूप ऐश्वर्य्य को (वहतम्) प्राप्त करो (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों (उत) और बल को (त्रिः) तीन बार (अवतम्) प्रवेश कराइये (नः) हम लोगों के लिये (त्रिष्ठम्) तीन अर्थात् शरीर आत्मा और मन के सुख में रहने और (सौभगत्वम्) उत्तम ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करनेवाले पुरुषार्थ को (त्रिः) तीन अर्थात् भृत्य, संतान और स्वात्म भार्यादि को प्राप्त कीजिये (उत) और (श्रवांसि) वेदादि शास्त्र वा धनों को (त्रिः) शरीर प्राण और मन की रक्षा सहित प्राप्त करते और (वाम्) जिन अश्वियों के सकाश से (सूरेः) सूर्य की (दुहिता) पुत्री के समान कान्ति (नः) हम लोगों के (रथम्) विमानादि यानसमूह को (त्रिः) तीन अर्थात् प्रेरक साधक और चाकन क्रिया से (आरुहत्) ले जाती है उन दोनों को हम लोग शिल्प कार्यों में अच्छे प्रकार युक्त करें ॥
अन्वय:
पुनस्तौ किं साधकावित्युपदिश्यते। (त्रिः) त्रिवारं विद्याराज्यश्रीप्राप्तिरक्षणक्रियामयम् (नः) अस्मान् (रयिम्) परमोत्तमं धनम् (वहतम्) प्रापयतम् (अश्विना) द्यावापृथिव्यादिसंज्ञकाविव। अत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (युवम्) युवाम् (त्रिः) त्रिवारं प्रेरकसाधक क्रियाजन्यम्। (देवताता) शिल्पक्रियायज्ञसंपत्तिहेतू यद्वा देवान् विदुषो दिव्यगुणान्वा तनुतस्तौ। अत्र दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।८८।# इति क्तः प्रत्ययः। देवतातेति यज्ञनामसु पठितम्। निघं० ३।१७। (त्रिः) त्रिवारं शरीरप्राणमनोभी रक्षणम् (उत) अपि (अवतम्) प्रविशतम् (धियः) धारणावतीर्बुद्धीः (त्रिः) त्रिवारं भृत्यसेनास्वात्मभार्यादिशिक्षाकरणम् (सौभगत्वम्) शोभना भगा ऐश्वर्याणि यस्मात् पुरुषार्थात्तस्येदं* सौभगं तस्य भावः¤ सौभगत्वम् (त्रिः) त्रिवारंश्रवणमनननिदिध्यासनकरणम् (उत) अपि (श्रवांसि) श्रूयन्ते यानि तानि वेदादिशास्त्रश्रवणानि धनानि वा। श्रव इति धननामसु पठितम्। निघं० २।१०। (नः) अस्माकम् (त्रिस्थम्) त्रिषु शरीरात्ममनस्सुखेषु तिष्ठतीति त्रिस्थम् (वाम्) तयोः (सूरे) सूर्यस्य। अत्र सुपां सुलुग् इति शे आदेशः। (दुहिता) कन्येव। दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा। निरु० ३।४। (आ) समंतात् (रुहत्) रोहेत्‡। अत्र◌कृमृहरुहिभ्यश्छन्दसि इति च्लेरङ्।¶ बहुलं छन्दस्य माङ्योगेपि इत्यडभावो लङर्थे लुङ्। च (रथम्) रमन्ते येन तं विमानादियानसमूहम् ॥५॥ #[उ० ३।९०।] *[तस्येदम्।अ० ४।३।१२०। इत्यण् प्र०।] ¤[तस्य भवस्त्वतलौ। अ० ५।५।११९। इति ‘त्व’ प्र०] ‡[रोहति,सं०।] ◌[अ० ३।१।५९।] ¶[अ० ६।४।७५।]
भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि अग्नि भूमि के अवलंब से शिल्प कार्यों की सिद्ध और बुद्धि बढ़ाकर सौभाग्य और उत्तम अन्नादि पदार्थों को प्राप्त हो इस सब सामग्री से सिद्ध हुए यानों में बैठ के देश देशान्तरों को जा-आ और व्यवहार द्वारा धन को बढ़ाकर सब काल में आनन्द में रहें ॥
[देवता: अश्विनौ ऋषि: हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः छन्द: विराड्जगती स्वर: निषादः]
त्रिर्नो॑ अश्विना दि॒व्यानि॑ भेष॒जा त्रिः पार्थि॑वानि॒ त्रिरु॑ दत्तम॒द्भ्यः ।
ओ॒मानं॑ शं॒योर्मम॑काय सू॒नवे॑ त्रि॒धातु॒ शर्म॑ वहतं शुभस्पती ॥[ऋग्वेद01/34/6]
पदार्थान्वयभाषाः -हे (शुभस्पती) कल्याणकारक मनुष्यों के कर्मों की पालना करने और (अश्विना) विद्या की ज्योति को बढ़ानेवाले शिल्पि लोगो ! आप दोनों (नः) हम लोगों के लिये (अद्भ्यः) जलों से (दिव्यानि) विद्यादि उत्तम गुण प्रकाश करनेवाले (भेषजा) रसमय सोमादि ओषधियों को (त्रिः) तीनताप निवारणार्थ (दत्तम्) दीजिये (उ) और (पर्थिवानि) पृथिवी के विकार युक्त ओषधी (त्रिः) तीन प्रकार से दीजिये और (ममकाय) मेरे (सूनवे) औरस अथवा विद्यापुत्र के लिये (शंयोः) सुख तथा (ओमानम्) विद्या में प्रवेश और क्रिया के बोध करानेवाले रक्षणीय व्यवहार को (त्रिः) तीन बार कीजिये और (त्रिधातु) लोहा ताँबा पीतल इन तीन धातुओं के सहित भूजल और अन्तरिक्ष में जानेवाले (शर्म) गृहस्वरूप यान को मेरे पुत्र के लिये (त्रिः) तीन बार (वहतम्) पहुंचाइये ॥
अन्वय:
पुनस्ताभ्यां किं कार्यमित्युपदिश्यते। (त्रिः) त्रिवारम् (नः) अस्मभ्यम् (अश्विना) अश्विनौ विद्याज्योतिर्विस्ता रमयौ (दिव्यानि) विद्यादि शुभगुणप्रकाशकानि (भेषजा) सोमादीन्यौषधानि रसमयानि (त्रिः) त्रिवारम् (पार्थिवानि) पृथिव्याविकारयुक्तानि (त्रिः) त्रिवारम् (ऊँ) वितर्के (दत्तम्) (अद्भ्यः) सातत्यगन्तृभ्यो वायुविद्युदादिभ्यः (ओमानम्) रक्षन्तम् विद्याप्रवेशकं क्रियागमकं व्यवहारम्। अत्रावधातोः। अन्येभ्योपि दृश्यन्त इति मनिन्। (शंयोः) शं सुखं कल्याणं विद्यते यस्मिँस्तस्य (ममकाय) ममायं ममकस्तस्मै। अत्र संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः। अ० ६।४।१४६। इति‡ वृद्ध्यभावः (सूनवे) औरसाय विद्यापुत्राय वा (त्रिधातु) त्रयोऽयस्ताम्रपित्तलानि धातवे यस्मिन् भूसमुद्रान्तरिक्षगमनार्थे याने तत (शर्म) गृहस्वरूपं सुखकारकं वा। शर्मेति गृहनामसु पठितम्। निघं० ३।४। (वहतम्) प्रापयतम् (शुभः) यत् कल्याणकारकं मनुष्याणां कर्म तस्य। अत्र संपदादित्वात् क्विप्। (पती) पालयितारौ। पष्ठ्याःपतिपुत्र०। अ० ८।३।५३। इति संहितायां◌ विसर्जनीयस्य सकारादेशः ॥६॥ ‡[अनया परिभाषया। सं०] ◌[शुभ् शब्दस्य। सं०]
भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये कि जो जल और पृथिवी में उत्पन्न हुई रोग नष्ट करनेवाली औषधी हैं उनका एक दिन में तीन बार भोजन किया करें और अनेक धातुओं से युक्त काष्ठमय घर के समान यान को बना उसमें उत्तम-२ जव आदि औषधी स्थापन अग्नि के घर में अग्नि को काष्ठों से प्रज्वलित जल के घर में जलों को स्थापन भाफ के बल से यानों को चला व्यवहार के लिये देशदेशान्तरों को जा और वहां से आकर जल्दी अपने देश को प्राप्त हों इस प्रकार करने से बड़े-२ सुख प्राप्त होते हैं ॥६॥ यह चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
[देवता: अश्विनौ ऋषि: हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः]
त्रिर्नो॑ अश्विना यज॒ता दि॒वेदि॑वे॒ परि॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वीम॑शायतम् ।
ति॒स्रो ना॑सत्या रथ्या परा॒वत॑ आ॒त्मेव॒ वातः॒ स्वस॑राणि गच्छतम् ॥[ऋग्वेद01/34/7]
पदार्थान्वयभाषाः -हे (नासत्या) असत्य व्यवहार रहित (यजता) मेल करने तथा (रथ्या) विमानादि यानों को प्राप्त करानेवाले (अश्विना) जल और अग्नि के समान कारीगर लोगो ! तुम दोनों (पृथिवी) भूमि वा अन्तरिक्ष को प्राप्त होकर (त्रिः) तीन बार (पर्य्यशायतम्) शयन करो (आत्मेव्) जैसे जीवात्मा के समान (वातः) प्राण (स्वसराणि) अपने कार्य्यों में प्रवृत्त करनेवाले दिनों को नित्य-२ प्राप्त होते हैं वैसे (गच्छतम्) देशान्तरों को प्राप्त हुआ करो और जो (नः) हम लोगों के (त्रिधातु) सोना चांदी आदि धातुओं से बनाये हुए यान (परावतः) दूरस्थानों को (तिस्रः) ऊंची नीची और सम चाल चलते हुए मनुष्यादि प्राणियों को पहुंचाते हैं उनको कार्यसिद्धि के अर्थ हम लोगों के लिये बनाओ ॥
अन्वय:
पुनस्तौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते। (त्रिः) त्रिवारम् (नः) अस्माकम् (अश्विना) जलाग्नी इव शिल्पिनौ (यजता) यष्टारौ संगन्तारौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (परि) सर्वतो भावे (त्रिधातु) सुवर्णरजतादि धातु संपादितम् (पृथिवीम्) भूमिमन्तरिक्षं वा। पृथिवीत्यन्तरिक्षमामसु पठितम्। निघं० १।३। (अशायतम्) शयाताम्। अत्र लोडर्थे लङ्। अशयातामिति प्राप्ते ह्रस्वदीर्घयोर्व्यत्ययासः। (तिस्रः) ऊर्ध्वाधः समगतीः (नासत्या) नविद्यतेऽसत्यंययोस्तौ (रथ्या) यौ रथविमानादिकं यानं वहतस्तौ (परावतः) दूरस्थानानि। परावतः प्रेरितवतः परागताः। निरु० ११।४८। परावत इति दूरनामसु पठितम्। निघं० ३।२६। आत्मेव आत्मनः शीघ्रगमनवत् (वातः) कलाभिर्भ्रामितो वायुः (स्वसराणि) स्व-२ कर्य्यप्रापकाणिदिनानि। स्वसराणीति पदनामसु पठितम्। निघं० ४।२। अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते (गच्छतम्) ॥
भावार्थभाषाः -इस मंत्र में उपमालङ्कार है। संसारसुख की इच्छा करनेवाले पुरुष जैसे जीव अन्तरिक्ष आदि मार्गों से दूसरे शरीरों को शीघ्र प्राप्त होता और जैसे वायु शीघ्र चलता है वैसे ही पृथिव्यादि विकारों से कलायन्त्र युक्त यानों को रच और उनमें अग्नि जल आदि का अच्छे प्रकार प्रयोग करके चाहे हुए दूर देशों को शीघ्र पहुंचा करें इस काम के विना संसारसुख होने को योग्य नहीं है ॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती
[देवता: अश्विनौ ऋषि: हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः छन्द: स्वराट्पङ्क्ति स्वर: पञ्चमः]
क्व १॒॑ त्री च॒क्रा त्रि॒वृतो॒ रथ॑स्य॒ क्व १॒॑ त्रयो॑ व॒न्धुरो॒ ये सनी॑ळाः ।
क॒दा योगो॑ वा॒जिनो॒ रास॑भस्य॒ येन॑ य॒ज्ञं ना॑सत्योपया॒थः ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे (नासत्या) सत्य गुण और स्वभाववाले कारीगर लोगो ! तुम दोनों (यज्ञम्) दिव्य गुण युक्त विमान आदि यान से जाने-आने योग्य मार्ग को (कदा) कब (उपयाथः) शीघ्र जैसे निकट पहुंच जावें वैसे पहुंचते हो और (येन) जिससे पहुंचते हो उस (रासभस्य) शब्द करनेवाले (वाजिनः) प्रशंसनीय वेग से युक्त (त्रिवृतः) रचन चालन आदि सामग्री से पूर्ण (रथस्य) और भूमि जल अन्तरिक्ष मार्ग में रमण करानेवाले विमान में (क्व) कहाँ (त्री) तीन (चक्रा) चक्र रचने चाहिये और इस विमानादि यान में (ये) जो (सनीडाः) बराबर बन्धनों के स्थान वा अग्नि रहने का घर (बन्धुरः) नियमपूर्वक चलाने के हेतु कोष्ठ होते हैं उनका (योगः) योग (क्व) कहाँ करना चाहिये ये तीन प्रश्न हैं ॥९॥
अन्वय:
पुनस्ताभ्यां किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।(क्व) कस्मिन् (त्री) त्रीणि (चक्रा) यानस्य शीघ्रं गमनाय निर्मितानि कलाचक्राणि। अत्रोभयत्र शेश्छंद०। इति शेर्लोपः। (त्रिवृतः) त्रिभी रचनचालनसामग्रीभिः पूर्णस्य (रथस्य) त्रिषु भूमिजलान्तरिक्षमार्गेषु रमन्ते येन तस्य (क्व) (त्रयः) जलाग्निमनुष्यपदार्थस्थित्यर्थावकाशाः (बन्धुरः) बन्धनविशेषाः। सुपांसुलुग् इति जसः स्थाने सुः। (ये) प्रत्यक्षाः (सनीडाः) समाना नीडा बन्धना धारा गृहविशेषा अग्न्यागारविशेषा वा येषु ते (कदा) कस्मिन् काले (योगः) युज्यते यस्मिन्सः (वाजिनः) प्रशस्तो वाजो वेगोऽस्यास्तीति तस्य। अत्र प्रशंसार्थ इतिः। (रासभस्य) रासयन्ति शब्दयन्ति येन वेगेन तस्य रासभावश्विनोरित्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। निघं० १।१५। (येन) रथेन (यज्ञम्) गमनयोग्यं मार्गे (नासत्या) सत्यगुणस्वभावौ (उपयाथः) शीघ्रमभीष्टस्थाने सामीप्यं प्रापयथः ॥
भावार्थभाषाः -इस मंत्र में कहे हुए तीन प्रश्नों के ये उत्तर जानने चाहिये विभूति की इच्छा रखनेवाले पुरुषों को उचित है कि रथ के आदि, मध्य और अन्त में सब कलाओं के बन्धनों के आधार के लिये तीन बंधन विशेष संपादन करें तथा तीन कला घूमने-घुमाने के लिये संपादन करें एक मनुष्यों के बैठने दूसरी अग्नि को स्थिति और तीसरी जल की स्थिति के लिये करके जब-जब चलने की इच्छा हो तब-२ यथा योग्य जलकाष्ठों को स्थापन, अग्नि को युक्त और कला के वायु से प्रदीप्त करके बाफ के वेग से चलाये हुए यान से शीघ्र दूर स्थान को भी निकट के समान जाने को समर्थ होवें। क्योंकि इस प्रकार किये विना निर्विघ्नता से स्थानान्तर को कोई मनुष्य शीघ्र नहीं जा सकता ॥[स्वामी दयानन्द सरस्वती]
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