মনুস্মৃতি ৫/১৫৫ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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07 November, 2021

মনুস্মৃতি ৫/১৫৫

 नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् ।

पतिं शुश्रूषते येन तेन स्वर्गे महीयते ।। মনুস্মৃতি-৫।১৫৫

টিপ্পনীঃ

৫।১৫৩ - ১৬২এই শ্লোকগুলি নিম্নলিখিত কারণগুলির জন্য প্রক্ষিপ্ত - এই শ্লোকগুলি মনুর বিশ্বাসের স্পষ্ট বিরোধী, তাই এই শ্লোকগুলি মনুপ্রোক্ত নয়। যেমন- ১. মনুজী স্বামী-স্ত্রীর সম্পর্ককে শুধু এই জন্মেই শারীরিক বলে মনে করেছেন, অন্য জন্মের নয়। এই বিষয়ে ৪।২৩৯ তম শ্লোকটিতে দৃশ্যমান। কিন্তু ৫।১৫৩ তে স্বামীকে নারীর জন্য পরকালের সুখের দাতা বলে মনে করা হয়েছে। মৃত্যুর পর এই জন্মের সব সম্পর্ক শেষ হয়ে যায়, পরকালে শুধু ধর্মই সহায়ক, তাহলে দ্বিতীয় জন্মে স্বামী কীভাবে সুখ দেবে? একইভাবে ৫..এমনকি ১৫৬এ 'পাতিলোকম্ভিপসন্তি' বলার দ্বারা 'পাতিলোক'-এর একটি নির্দিষ্ট স্থান বা পরিস্থিতির ধারণাকে ভুল বোঝানো হয়েছে। ২ এসব শ্লোকে স্বামীর অযথা অতিরঞ্জিত মহিমা প্রদর্শন করা হয়েছে। নারীর প্রতি সকল কর্তব্যের কথা জানিয়ে স্বামীকে মুক্ত রাখা হয়েছে, যা একতরফা কুসংস্কারমূলক বর্ণনা। মনুর মতে, স্বামী-স্ত্রীর সমান মর্যাদা, তাদের মধ্যে বড় বা ছোট কেউ নেই। মনুজি উভয়ের জন্য একটি সাধারণ আচরণবিধি প্রস্তুত করেছেন। এই বিষয়ে (৩।৫৫ - ৬২) এবং (৯।২৮, ৯।১০১, ৯।১০২) শ্লোকগুলি দৃশ্যমান। কিন্তু এখানে ৫।১৫৪-এ নারীকে পূণ্যহীন, কামুক-ব্যভিচারী, দুষ্টু স্বামীকে ভগবান হিসেবে মেনে নিতে বাধ্য করা হয়েছে। যখন মনুর মতে গুণ, কর্ম ও প্রকৃতির মিশ্রণে বিবাহের বিধান আছে, তাহলে গুণের এই বৈষম্য কেন? অতএব, উপরের পৌরাণিক অনুভূতির গন্ধ পাওয়া যায় যে পিতা-মাতা যাকে বিয়ে করেছেন, তাকেই পূজা করা উচিত। কিন্তু মনুজি স্ব-বিবাহে বিশ্বাসী। কোনো নারীকে তার ইচ্ছার বিরুদ্ধে বা তাকে না চাইতেই বিয়ে করা শাস্ত্রীয় নয়। ৩. এবং ৫।১৫৫-এ, স্বামীর সেবার অধীনে মহিলাদের জন্য সমস্ত কর্তব্যের সমাপ্তি অনুমান করে ত্যাগের সেরা কাজগুলিকে নিষিদ্ধ করা মনুর বিশ্বাসের পরিপন্থী। কারণ মনুজি ৯।২৮-এ বলেছেন 'অপত্যম ধর্মকার্যাণি..................'দরধীনঃ বলে নারীর নিয়ন্ত্রণে যজ্ঞের আচারের কথা বলা হয়েছে। এবং ৯।১১ এ স্পষ্টভাবে বলা হয়েছে যে নারীদের ধর্মীয় কাজে নিয়োজিত থাকতে হবে। এবং ৯।৯৬ তে বলা হয়েছে- 'তস্মাত্ সধাণো ধর্মঃ শ্রুতৌ পত্ন্যা সহোদিতঃ অর্থাৎ স্বামী-স্ত্রীর জন্য ধর্মকর্ম সমান বলে বলা হয়েছে। তাদের থেকে এটা স্পষ্ট যে মনুজি যজ্ঞ ও ধর্মকর্মে নারীদের সমান অধিকার মনে করেন। কিন্তু এখানে নারীর জন্য যজ্ঞ করার অধিকারকে নিষেধ করা হয়েছে। ৪। ৫।১৫৫-এ 'স্বর্গ মহিয়তে' বলে একটি নির্দিষ্ট স্থানের ধারণা করা হয়েছে। এটা মনুর বিশ্বাসের পরিপন্থী। কারণ মনুজি স্বর্গের অর্থকে সুখ-নির্দিষ্ট বলে মনে করেন, স্থান-নির্দিষ্ট নয়। ৫। ৫।১৫৬-এ বলা হয়েছে যে একজন সাধ্বী মহিলার জীবিত বা মৃত স্বামীর সাথে খারাপ ব্যবহার করা উচিত নয়। জীবিতদের সঙ্গে এর মেলামেশা আছে, কিন্তু মৃত-স্বামীর ভালোবাসা বা অপছন্দ কীভাবে উপলব্ধি হবে? তাই এই জল্পনাও ভিত্তিহীন ও মিথ্যা। ৬।৫।১৬৭- ১৬২ শ্লোকে উল্লিখিত বিষয়গুলি মনুর বিশ্বাসের পরিপন্থী। কারণ মনুজি ৯।৫৬-৬৩ শ্লোকে লিখেছেন যে নিয়োগ পদ্ধতিতে সন্তানের জন্ম হয় না। কিন্তু এখানে (৫।১৫৭) স্বামীর মৃত্যুতে এবং ৫।১৬১ তে  বিবাহিত স্বামী ব্যতীত অন্য পুরুষকে সন্তান ধারণ করতে নিষেধ করেছেন। এবং ৫।১৬২-এ যদি অন্য পুরুষের থেকে জন্ম নেওয়া শিশুটিকে শিশু হিসাবে বিবেচনা করা না হয়, তাহলে ৯।৬০ শ্লোকে উল্লেখিত নিয়োগ পদ্ধতিতে প্রাপ্ত সন্তানের কী হবে? অথচ এই পদ্ধতির আইন করা হয়েছে শুধুমাত্র সন্তান পাওয়ার জন্য। এইভাবে এই দ্বন্দ্বের কারণে এই শ্লোকগুলিকে প্রক্ষিপ্ত করা হয়েছে।।

( ভাষ্যকার পণ্ডিত রাজবীর শাস্ত্রী) 

टिप्पणी :
५।१५३ - १६२ तक ये श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - इन श्लोकों में मनु की मान्यताओं का स्पष्ट विरोध है, अतः ये श्लोक मनुप्रोक्त नहीं हैं । जैसे - १. मनु जी ने पति - पत्नी आदि के सम्बन्ध शारीरिक होने से इस जन्म के ही माने हैं, दूसरे जन्मों के नहीं । इस विषय में ४।२३९वां श्लोक द्रष्टव्य है । परन्तु ५।१५३ में पति को स्त्रियों के लिये परलोक में सुख देने वाला माना है । मरने के बाद इस जन्म के सब सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं, परलोक में केवल धर्म ही सहायक होता है, तो पति दूसरे जन्म में कैसे सुख दे सकता है ? इसी प्रकार ५।१५६ में भी ‘पतिलोकमभीप्सन्ती’ कह कर ‘पतिलोक’ की किसी स्थानविशेष या स्थिति - विशेष की कल्पना मिथ्या की है । २. इन श्लोकों में पति की अनावश्यक अतिशयोक्तिपूर्ण महिमा प्रदर्शित की गई है । स्त्रियों के लिये ही समस्त कत्र्तव्य बताकर पति को मुक्त रखा गया है, जो कि एक पक्षीय पूर्वाग्रहबद्ध वर्णन है । मनु की मान्यता में पति - पत्नी का समान दर्जा है, उन में छोटा बड़ा कोई नहीं होता । दोनों के लिये मनु जी ने एक समान आचार - संहिता बनाई है । इस विषय में (३।५५ - ६२) तथा (९।२८,९।१०१,९।१०२) श्लोक द्रष्टव्य हैं । परन्तु यहाँ ५।१५४ में गुणहीन, कामुक - परस्त्रीगमन करने वाले, दुश्शील पति को भी देववत् मानने के लिये स्त्री को बाध्य किया गया है । जब मनु के अनुसार गुण, कर्म, स्वभाव मिलाकर विवाह करने का विधान है, तो यह गुणादि की विषमता क्यों ? अतः इससे परवत्र्ती पौराणिक भावना की ही गन्ध आ रही है कि माता - पिता ने जिसके साथ भी विवाह कर दिया हो, उसी की पूजा करनी चाहिये । परन्तु मनु जी तो स्वंयवर - विवाह को मानते हैं । स्त्री की इच्छा के विरूद्ध अथवा उससे बिना पूछे ही विवाह करना शास्त्रीय नहीं है । ३. और ५।१५५ में स्त्रियों के लिये पति - सेवा के अन्तर्गत ही सब कत्र्तव्यों की समाप्ति मानकर यज्ञादि श्रेष्ठ कार्यों का निषेध करना मनु की मान्यता के विरूद्ध है । क्यों कि मनु जी ने तो ९।२८ में ‘अपत्यं धर्मकार्याणि............................दारधीनः’ कहकर यज्ञादि धर्मकार्य स्त्री के आधीन बताये हैं । और ९।११ में स्पष्ट कहा है कि धर्म - कार्यों में स्त्रियों को लगावें । और ९।९६ में कहा है - ‘तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः’ अर्थात् पति - पत्नी के लिये धर्म कार्य एक समान कहे हैं । इनसे स्पष्ट है कि मनु जी यज्ञादि धर्म कार्यों में स्त्रियों का भी समान अधिकार मानते हैं । किन्तु यहाँ यज्ञादि के अधिकार का स्त्रियों के लिये निषेध दुराग्रहपूर्ण ही है । ४. ५।१५५ में ‘स्वर्गे महीयते’ कहकर ‘स्वर्ग’ एक स्थान विशेष की कल्पना की गई है । यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है । क्यों कि मनु जी तो स्वर्ग का अर्थ सुख - विशेष ही मानते हैं, स्थानविशेष नहीं । ५. ५।१५६ में कहा है कि साध्वी स्त्री जीवित तथा मृत पति का अप्रियाचरण न करे । जीवित के साथ तो इसकी संगति है, परन्तु मृत - पति की प्रियता अथवा अप्रियता का बोध कैसे होगा ? अतः यह कल्पना भी निराधार तथा मिथ्या ही है । ६. ५।१५७ - १६२ तक के श्लोकों में वर्णित बातें मनु की मान्यता के विरूद्ध हैं । क्यों कि मनु जी ने ९।५६-६३ श्लोकों में सन्तानादि न होने पर नियोग विधि से सन्तान प्राप्ति लिखी है । परन्तु यहाँ (५।१५७ में) पति के मरने पर और ५।१६१ में सन्तान प्राप्ति के लिये भी विवाहित पति से भिन्न पुरूष का निषेध किया है । और ५।१६२ में अन्य पुरूष से उत्पन्न सन्तान को सन्तान ही नहीं माना तो ९।६० इत्यादि श्लोकों में वर्णित नियोग विधि से प्राप्त सन्तान का क्या होगा ? जब कि इस विधि का विधान तो सन्तान प्राप्ति के लिये ही किया गया है । इस प्रकार इन अन्तर्विरोधों के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।-पण्डित राजवीर शास्त्री जी

মনুস্মৃতি প্রক্ষিপ্ত কিনা ডঃ সুরেন্দ্র কুমারের লেখা পড়ুুনঃ-

प्राचीन भारतीय साहित्य की यह एक प्रमाणित ऐतिहासिक सच्चाई है कि उसमें समय-समय पर प्रक्षेप होते रहे हैं। इस विषयक प्रमाण पांडुलिपियों पर आधारित पाठान्तर और लिखित साक्ष्य के रूप में उपलध हैं। अतः अब यह विषय विवाद का नहीं रह गया है। मनुस्मृति के प्रक्षेपों पर विचार करने से पूर्व अन्य संस्कृत साहित्य के प्रक्ष्ेाप-विषयक इतिहास पर एक दृष्टिपात किया जाता है जिससे पाठकों को प्रक्षिप्तता की अनवरत प्रवृत्ति का ज्ञान हो सके। (अ) वाल्मीकीय रामायण-वाल्मीकीय रामायण के आज तीन संस्करण मिलते हैं-1. दाक्षिणात्य, 2. पश्चिमोत्तरीय, 3. गौडीय या पूर्वीय। इन तीनोंसंस्करणों में अनेक सर्गों और श्लोकों का अन्तर है। गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित दाक्षिणात्य संस्करण में अभी भी अनेक ऐसे सर्ग समाविष्ट हैं, जो मूलपाठ के साथ घुल-मिल नहीं पाये, अतः अभी तक उन पर ‘‘प्रक्षिप्त सर्ग’’ लिखा मिलता है (उदाहरणार्थ द्रष्टव्य, उत्तरकाण्ड के 59 सर्ग के पश्चात् दो सर्ग)। नेपाल में, काठमांडू स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार में नेवारी लिपि में वाल्मीकीय रामायण की एक पांडुलिपि सुरक्षित है जो लगभग एक हजार वर्ष पुरानी है। उसमें वर्तमान संस्करणों से सैकड़ों श्लोक कम हैं। स्पष्टतः वे एक हजार वर्ष की अवधि में मिलाये गये हैं। समीक्षकों का मत है कि वर्तमान रामायण में प्राप्त बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के अधिकांश भाग प्रक्षिप्त हैं। आज भी रामायण के आरभ में तीन अनुक्रमणिकाएं प्राप्त हैं, जो समयानुसार परिवर्धन का प्रमाण हैं। उनमें से एक में तो स्पष्टतः ‘षट्काण्डानि’ कहा है (5.2)। अवतारविषयक श्लोकअवतार की धारणा पनपने के उपरान्त प्रक्षिप्त हुए। इस संदर्भ में एक बौद्ध ग्रन्थका प्रमाण उल्लेखनीय है। बौद्ध साहित्य में एक ‘अभिधर्म महाविभाषा’ग्रन्थ मिलता था। इसका तीसरी शतादी का चीनी अनुवाद उपलध है। उसमें एक स्थान पर उल्लेख है कि ‘‘रामायण में बारह हजार श्लोक हैं’’(डॉ0 फादर कामिल बुल्के, ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’’, पृ0 94)। आज उसमें पच्चीस हजार श्लोक पाये जाते हैं। यह एक संक्षिप्त जानकारी है कि प्राचीन ग्रन्थों में किस प्रकार प्रक्षेप होते रहे हैं। (आ) महाभारत अब मैं महााारत के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण उद्घृत करने जा रहा हूँ। यह इस तथ्य की जानकारी दे रहा है कि लगभग दो हजार वर्ष पूर्व महाभारत में होने वाले प्रक्षेपों के विरुद्ध तत्कालीन साहित्य में आवाज उठी थी। यह प्रमाण इस बात का भी ज्वलन्त प्राचीन साक्ष्य है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रक्षेप बहुत पहले से होते आ रहे हैं। गरुड़ पुराण (तीसरी शती) का निनलिखित श्लोक अमूल्य प्रमाण है जो यह बताता है कि दूसरी संस्कृति के जो लोग वैदिक संस्कृति में समिलित हुए, उन्होंने अपने स्वार्थ-साधन के लिए भारतीय ग्रन्थों में प्रक्षेप किये हैं- दैत्याः सर्वे विप्रकुलेषु भूत्वा, कलौ युगे भारते षट्सहस्र्याम्। निष्कास्य कांश्चित्, नवनिर्मितानां निवेशनं तत्र कुर्वन्ति नित्यम्॥ (ब्रह्मकाण्ड 1.59)     अर्थात्-‘कलियुग के इस समय में महाभारत में परिवर्तन-परिवर्धन किया जा रहा है। दैत्यवंशी लोग स्वयं को ब्राह्मणकुल का बताकर कुछ श्लोकों को निकाल रहे हैं और उनके स्थान पर नये-नये श्लोक स्वयं रचकर निरन्तर डाल रहे हैं।’ इसी प्रकार की एक जानकारी महाभारत में दी गयी है कि स्वार्थी लोगों ने वैदिक-परपराओं को विकृत कर दिया है और उसके लिए उन्होंने ग्रन्थों से छेड़छाड़ की है। महाभारतकार की पीड़ा देखिए – सुरा मत्स्याः पशोर्मांसम्, आसवं कृशरौदनम्। धूर्तैः प्रवर्तितं यज्ञे नैतद् वेदेषु विद्यते॥ अव्यवस्थितमर्यादैः विमूढैर्नास्तिकैः नरैः। संशयात्मभिरव्यक्तैः हिंसा समनुवर्णिता॥ (शान्तिपर्व 265.9,4)     अर्थात्-‘मदिरा-सेवन, मत्स्य-भोजन, पशुमांस-भक्षण और उसकी आहुति, आसव-सेवन, लवणान्न की आहुति, इनका विधान वेदों में (वैदिक संस्कृति में) नहीं है। यह सब धूर्त लोगों ने प्रचलित किया है। मर्यादाहीन, मद्य-मांसादिलोलुप, नास्तिक, आत्मा-परमात्मा के प्रति संशयग्रस्त लोगों ने गुपचुप तरीके से वैदिक ग्रन्थों में हिंसा-सबन्धी वर्णन मिला दिये हैं।’ महाभारत-महाकाव्य की कलेवर-वृद्धि का इतिहास स्वयं वर्तमान महाभारत में भी दिया गया है। महाभारत युद्ध के बाद महर्षि व्यास ने जो काव्य लिखा उसका नाम ‘जयकाव्य’ था ‘‘जयो नामेतिहासोऽयम्’’ (आदि0 1.1; 62.20) और उसमें छह या आठ हजार श्लोक थे-‘‘अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च’’ व्यासशिष्य वैशपायन ने उसको बढ़ाकर 24000 श्लोक का काव्य बना दिया और उसका नाम ‘भारत संहिता’ रख दिया-‘‘चतुर्विंशती साहस्रीं चक्रे भारतसंहिताम्’’ (आदि0 1.102)। सौति ने इसमें परिवर्धन करके इसे एक लाख श्लोकों का बना दिया और इसका नाम ‘महाभारत’ रखा- ‘‘शतसाहस्रमिदं काव्यं मयोक्तं श्रूयतां हि वः’’ (आदि0 1.109 )। यह ‘जय’ से महाभारत बनने की महाभारत में वर्णित कथा है। लोग अपना पृथक् काव्य बनाने के बजाय उसी में वृद्धि करते गये। इससे उसकी प्रामणिकता का ह्रास हुआ, और ऐतिहासिकता विनष्ट हो गयी।     (इ) गीता-गीता महाभारत का ही अंश है। उसकी वर्तमान विशालता व्यावहारिक नहीं है। युद्धभूमि में कुछ मिनटों के लिए दिया गया उपदेश न तो इतना विस्तृत हो सकता है और न प्रकरण के अनुकूल। यदि उसको ‘संक्षेप का विस्तार’ कहा जायेगा तो वह व्यास या कृष्णप्रोक्त नहीं रह जायेगा। प्रत्येक दृष्टि से वह परिवर्धित अर्थात् प्रक्षिप्त रूप है।     (ई) निरुक्त-आचार्य यास्ककृत निरुक्त के 13-14 अध्यायों के विषय में समीक्षकों का यह मत है कि वे अभाव की पूर्ति के लिए बाद में जोड़े गये हैं। उन सहित निरुक्त परिवर्धित संस्करण है।     (उ) चरकसंहिता – महर्षि अग्निवेश प्रणीत चरकसंहिता में भी उनके शिष्यों ने अन्तिम अध्यायों का कुछ भाग अभाव की पूर्ति की दृष्टि से संयुक्त किया है। किन्तु वहां यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि यह भाग अमुक का है। फिर भी उससे परिवर्धन की प्रवृत्ति और इतिहास की जानकारी मिलती है।     (ऊ) मनुस्मृति-इसी प्रकार मनुस्मृति में भी समय-समय पर प्रक्षेप हुए हैं। अपितु, मनुस्मृति में अधिक प्रक्षेप हुए हैं क्योंकि उसका सबन्ध हमारी दैनंदिन जीवनचर्या से था और उससे जीवन व समाज सीधा प्रभावित होता था, अतः उसमें परिवर्तन भी किया जाना स्वाभाविक था। जैसे भारत के संविधान में छियासी के लगभग संशोधन आवश्यकता के नाम पर आधी शती में हो चुके हैं। इसी प्रकार मनुस्मृति में निनलिखित प्रमुख कारणों के आधार पर परिवर्तन-परिवर्धन किये जाते रहे- अभाव की पूर्ति के लिए स्वार्थ की पूर्ति के लिए गौरव-वृद्धि के लिए विकृति उत्पन्न करने के लिए ये प्रक्षेप (परिवर्तन या परिवर्धन) अधिकांश में स्पष्ट दीख जाते हैं। महर्षि मनु सदृश धर्मज्ञ और विधिप्रदाता की रचना में रचनादोष नहीं हो सकते, किन्तु प्रक्षिप्तों के कारण आ गये हैं। वे प्रक्षिप्त कहीं विषयविरुद्ध, कहीं प्रसंगविरुद्ध, कहीं परस्परविरुद्ध, कहीं शैलीविरुद्ध रूप में दीख रहे हैं। आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, खारी बावली, दिल्ली-6 से प्रकाशित मेरे शोध और भाष्ययुक्त ‘सपूर्ण मनुस्मृति’ संस्करण में मैंने उनकी पहचान निनलिखित सात साहित्यिक मानदण्डों के आधार पर की है। वे हैं- विषयविरोध प्रसंगविरोध अवान्तरविरोध पुनरुक्ति शैलीविरोध वैदविरोध प्रक्षिप्तानुसन्धान के इन साहित्यिक मानदण्डों के आधार पर मनुस्मृति के उपलध 2685 श्लोकों में से 1471 प्रक्षिप्त सिद्ध हुए हैं और 1214 मौलिक। विस्तृत समीक्षा के लिए मनुस्मृति का उक्त संस्करण पठनीय है। उसमें प्रत्येक प्रक्षिप्त-सिद्ध श्लोक पर समीक्षा में उपर्युक्त तटस्थ मानदण्डों के आधार पर प्रक्षेप का कारण दर्शाया गया है। मनुस्मृति में प्रक्षेप होने की पुष्टि अधोलिखित प्रमाण भी करते हैं और प्रायः सभी वर्गों के विद्वान् भी करते हैं- (क) मनुस्मृति-भाष्यकार मेधातिथि (9वीं शतादी) की तुलना में कूल्लूक भट्ट (12वीं शतादी) के संस्करण में एक सौ सत्तर श्लोक अधिक उपलध हैं। वे तब तक मूल पाठ के साथ घुल-मिल नहीं पाये थे, अतः उनको बृहत् कोष्ठक में दर्शाया गया है। अन्य टीकाओें में भी कुछ-कुछ श्लोकों का अन्तर है। (ख) मेधातिथि के भाष्य के अन्त में एक श्लोक मिलता है, जिससे यह जानकारी मिलती है कि मनुस्मृति और उसका मेधातिथि भाष्य लुप्तप्रायः था। उसको विभिन्न संस्करणों की सहायता से सहारण राजा के पुत्र राजा मदन ने पुनः संकलित कराया। ऐसी स्थिति में श्लोकों में क्रमविरोध, स्वल्प-आधिक्य होना सामान्य बात है- मान्या कापि मनुस्मृतिस्तदुचिता व्यायापि मेघातिथेः। सा लुप्तैव विधेर्वशात् क्वचिदपि प्राप्यं न तत्पुस्तकम्। क्षोणीन्द्रो मदनः सहारणसुतो देशान्तरादाहृतैः, जीर्णोद्धारमचीकरत्तत इतस्तत्पुस्तकैः लेखितैः॥ (उपोद्घात, मेघातिथिभाष्य, गंगानाथ झा खण्ड 3, पृ0 1)     अर्थात्-‘समाज में मान्य कोई मनुस्मृति थी, उस पर मेघातिथि काााष्य भी था किन्तु वह दुर्भाग्य से लुप्त हो गयी। वह कहीं उपलध नहीं हुई। सहारण के पुत्र राजा मदन ने विभिन्न देशों से उसके संस्करण मंगाकर उसका जीर्णोद्धार कराया और विभिन्न पुस्तकों से मिलान कराके यहााष्य तैयार कराया। मनुस्मृति के स्वरूप में परिवर्तन का यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। (ग) आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में गत शती में सर्वप्रथम यह सुस्पष्ट घोषणा की थी कि मनुस्मृति में अनेक प्रक्षेप ऐसे किये गये हैं, जैसे कि ग्वाले दूध में पानी की मिलावट करते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थों में कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का कारणपूर्वक दिग्दर्शन भी कराया है। उन्होंने घोषणा की थी कि मैं प्रक्षेपरहित मनुस्मृति को ही प्रमाण मानता हूं (ऋग्वेदादिााष्याूमिका, ग्रन्थप्रामाण्य विषय) (घ) सपूर्ण भारतीय प्राचीन साहित्य में प्रक्षिप्तों के होने के यथार्थ को सुप्रसिद्ध सनातनी आचार्य स्वामी आनन्दतीर्थ ‘महाभारत तात्पयार्थ-निर्णय’ में स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं- क्वचिद् ग्रन्थान् प्रक्षिपन्ति क्वचिदन्तरितानपि, कुर्युः क्वचिच्च व्यत्यासं प्रमादात् क्वचिदन्यथा। अनुत्सन्नाः अपि ग्रन्थाः व्याकुलाः सन्ति सर्वशः, उत्सन्नाः प्रायशः सर्वे, कोट्यंशोऽपि न वर्तते॥ (अ02)     अर्थ-‘कहीं ग्रन्थों में प्रक्षेप किया जा रहा है, कहीं मूल पाठों को बदला जा रहा है, कहीं आगे-पीछे किया जा रहा है, कहीं प्रमादवश अन्यथा लेखन किया जा रहा है, जो ग्रन्थ नष्ट होने से बच गये हैं वे इन पीड़ाओें से व्याकुल हैं (=क्षत-विक्षत हैं)। अधिकांश ग्रन्थों को नष्ट किया जा चुका है। अब तो साहित्य का करोड़वां भाग भी विशुद्ध नहीं बचा है।’ यही क्षत-विक्षत स्थिति मनुस्मृति की हुई है। (ङ) प्रथम अध्याय में पृ0 12 पर चीन की दीवार से प्राप्त जिस चीनी भाषा के ग्रन्थ की जानकारी दी गयी है। उसमें कहा गया है कि मनुस्मृति में 680 श्लोक हैं। यह अत्यन्त प्राचीन सूचना है। यदि इसको सही मानें तो अभी मनुस्मृति के प्रक्षेपानुसन्धान की और आवश्यकता है। (च) पाश्चात्य शोधकर्त्ता वूलर, जे. जौली, कीथ, मैकडानल आदि ने मनुस्मृति-सहित प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रक्षेपों का होना सिद्धान्ततः स्वीकार किया है। जे. जौली ने कुछ प्रक्षेप दर्शाये भी हैं। (छ) मनुस्मृति के कुछ भाष्यकारों एवं समीक्षकों ने प्रक्षिप्त श्लोकों की संया इस प्रकार मानी है- विश्वनाथ नारायण माण्डलीक      148 हरगोविन्द शास्त्री               153 जगन्नाथ रघुनाथ धारपुरे          100 जयन्त्तकृष्ण हरिकृष्णदेव          59 (ज) मनुस्मृति के प्रथम पाश्चात्त्य समीक्षक न्यायाधीश सर विलियम जोन्स उपलध 2685 श्लोकों में से 2005 श्लोकों को प्रक्षिप्त घोषित करते हैं। उनके मतानुसार 680 श्लोक ही मूल मनुस्मृति में थे। (झ) महात्मा गांधी ने अपनी ‘वर्णव्यवस्था’ नामक पुस्तक में स्वीकार किया है कि वर्तमान मनुस्मृति में पायी जाने वाली आपत्तिजनक बातें बाद में की गयी मिलावटें हैं। (झ) भारत के पूर्व राष्ट्रपति और दार्शनिक विद्वान् डॉ0 राधाकृष्णन्, श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि भी मनुस्मृति में प्रक्षेपों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। (ए) डॉ0 अबेडकर और प्रक्षेप मैंने पहले दिखाया है कि डॉ0 अबेडकर ने अपने ग्रन्थों में मनुस्मृति के श्लोकार्थ प्रमाण रूप में उद्घृत किये हैं उनमें बहुत सारे परस्परविरोधी विधान वाले हैं (द्रष्टव्य ‘डॉ0 अबेडकर के लेखन में परस्परविरोध’ शीर्षक अध्याय 9)। आश्चर्य है कि फिर भी उन्होंने मनुस्मृति में परस्परविरोध नहीं माना। यदि वे मनुस्मृति में परस्पर -विरोध मान लेते तो उन्हें दो में से किसी एक श्लोक को प्रक्षिप्त मानना पड़ता। उस स्थिति में मनुस्मृति में प्रक्षेपों का अस्त्तित्व स्वीकार करना पड़ता। प्रक्षेपों की स्वीकृति से मनुस्मृति की विशुद्ध प्राचीन मान्यताएं स्पष्ट हो जातीं। तब न उग्र विरोध का अवसर आता और न विरोध का बवंडर उठता। किन्तु विडबना तो यह है कि डॉ0 अबेडकर ने प्रक्षेपों के अस्त्तित्व की चर्चा भी नहीं की। प्रश्न उठता है कि क्या उन्हें प्रक्षेपों की पहचान नहीं हो पायी? यह विश्वसनीय नहीं है कि उन्हें परस्परविरोधी प्रक्षेपों का ज्ञान न हो, क्योंकि उन्होंने तो वेद से लेकर पुराणों तक प्रायः सभी ग्रन्थों में प्रक्षेप के अस्त्तित्व को स्वीकार किया है और उन पर दीर्घ चर्चा की है। देखिए- (क) वेदों में प्रक्षेप मानना ‘‘पुरुष सूक्त के विश्लेषण से क्या निष्कर्ष निकलता है? पुरुष सूक्त ऋग्वेद में एक क्षेपक है।’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड ़13, पृ0 112) ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि वे दो मन्त्र (11 और 12) बाद में सूक्त के बीच जोड़ दिए गए। अतएव केवल पुरुष सूक्त ही बाद में नहीं जोड़ा गया, उसमें समय-समय पर और मन्त्र भी जुड़ते रहे। कुछ विद्वानों का तो यह भी मत है कि पुरुषसूक्त तो क्षेपक है ही, उसके कुछ मन्त्र और भी बाद में इसमें जोड़े गए।’’ (वही, खंड 13, पृ0111) वेदों में प्रक्षेप मानने की अवधारणा इस कारण गलत है क्योंकि बहुत प्राचीन काल से वेदव्याया ग्रन्थों में वेदों के एक-एक सूक्त, अनुवाक, पद और अक्षर की गणना की हुई है, जो लिपिबद्ध है। कुछ भी छेड़छाड़ होते ही उससे पता चल जायेगा। इसी प्रकार जटापाठ, घनपाठ आदि अनेक पाठों की पद्धति आविष्कृत है जिनसे वेदमन्त्रों का स्वरूप सुरक्षित बना हुआ है। (ख) वाल्मीकीय रामायण में क्षेपक मानना ‘‘महाभारत की तरह रामायण की कथा वस्तु में भी कालान्तर में क्षेपक जुड़ते गए।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 120 तथा पृ0 130) (ग) महाभारत में क्षेपक मानना     ‘‘व्यास के ‘जय’ नामक लघु काव्यग्रन्थ में 8,800 से अधिक श्लोक नहीं थे। वैशपायन के ‘भारत’ में यह संया बढ़कर 24000 हो गई। सौति ने श्लोकों की संया में विस्तार किया और इस तरह महाभारत में श्लोकों की संया बढ़कर 96,836 हो गई।’’ (वही, खंड 7, पृ0 127) (घ) गीता में क्षेपक मानना ‘‘मूल भगवद्गीता में प्रथम क्षेपक उसी अंश का एक भाग है जिसमें कृष्ण को ईश्वर कहा गया है। ….. दूसरा क्षेपक वह भाग है जहां उसमें पूर्व मीमांसा के सिद्धान्तों की पुष्टि के रूप में सांय और वेदान्तदर्शन का वर्णन है, जो उनमें पहले नहीं था।………..तीसरे क्षेपक में वे श्लोक आते हैं, जिनमें कृष्ण को ईश्वर के स्तर से परमेश्वर के स्तर पर पहुंचा दिया गया है।’’(वही,खंड 7, पृ0275) (ङ) पुराणों में क्षेपक मानना ‘‘ब्राह्मणों ने परपरा से प्राप्त पुराणों में अनेक नए अध्याय जोड़ दिए, पुराने अध्यायों को बदलकर नए अध्याय लिख दिए और पुराने नामों से ही अध्याय रच दिये। इस तरह इस प्रक्रिया से कुछ पुराणों की पहले वाली सामग्री ज्यों की त्यों रही, कुछ की पहले वाली सामग्री लुप्त हो गई, कुछ में नई सामग्री जुड़ गई तो कुछ नई रचनाओं में ही परिवर्तित हो गए।’’ (वही खंड 7, पृ0 133) इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि डॉ0 अबेडकर प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रक्षेपों की स्थिति को समझते थे। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि उन्होंने जानबूझकर मनुस्मृति में प्रक्षेप नहीं माने। अब यह नया प्रश्न उत्पन्न होता है कि उन्होंने जानबूझकर प्रक्षेप क्यों नहीं माने? उसमें क्या रहस्य हो सकता है? इसका उत्तर कठोर अवश्य है, किन्तु है सत्य। उन्होंने मनुस्मृति में प्रक्षेप इस कारण स्वीकार नहीं किये क्योंकि उसके स्वीकार करने पर उनका ‘विरोध के लिए विरोध’ का आन्दोलन समाप्त हो जाता। वे दलितों के सामाजिक और राजनीतिक नेता के रूप में स्वयं को स्थापित कर रहे थे। इसके लिए मनु और मनुस्मृति-विरोध का अस्त्र सफलता की गारंटी था। वे इसका किसीाी कीमत पर त्याग नहीं करना चाहते थे। मनु, मनुस्मृति और आर्य (हिन्दू) धर्म का विरोध दलितों का प्रिय विषय बन गया था क्योंकि दलित जन पौराणिक हिन्दू समुदाय के पक्षपातों और अत्याचारों से पीड़ित और क्रोधित थे। इसको सीढ़ी बनाकर डॉ0 अबेडकर भविष्य की उचाइयों पर चढ़ते गये। कुछ लोग यहां यह कह सकते हैं कि दलितों के हित के लिए ऐसा करना आवश्यक था। किन्तु यह कथन दूरदर्शितापूर्ण नहीं है। डॉ0 अबेडकर का विरोध सकारात्मक कम, प्रतिशोधात्मक अधिक था। वह विरोध दलितों को उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में ले गया जिससे भारत में एक नये वर्गसंघर्ष की परिस्थिति की आशंका उत्पन्न हो गयी है। डॉ0 अबेडकर अपने मन में हिन्दुओं के प्रति गहरी घृणा पाल चुके थे, हिन्दू धर्म को त्यागने का निश्चय कर चुके थे; अतः उन्होंने हिन्दू-दलित सौहार्द को बनाये रखने की चिन्ता की ही नहीं। यह स्थिति भारतीय समाज और राष्ट्र के लिए हितकर न थी, न रहेगी। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए डॉ0 अबेडकर ने मनुस्मृति की यथार्थ साहित्यिक स्थिति को, तर्क को, प्रमाण को, परपरा को, तथ्यों को, तटस्थ समीक्षा को, सत्य के अनुसन्धान के दावे को तिलांजलि दे डाली। उन्होंने विरोध करने के अतिरिक्त, सभी आपत्तियों-आरोपों के उत्तर देने के दायित्व से भी चुप्पी साध ली। उनके अनुयायियों ने उनका अनुकरण किया। आज भी स्थिति यह है कि उनके समर्थक या अनुयायी मनु और मनुस्मृति का विरोध तो करते हैं किन्तु किसी भी शंका का तर्क और प्रमाण से उत्तर नहीं देते। प्रक्षिप्त और मौलिक श्लोकों के अन्तर को वे समझना और मानना नहीं चाहते। सत्य-परिस्थिति से मुंह मोड़कर आज भी वे केवल ‘विरोध के लिए विरोध’ को अपना लक्ष्य मानकर चल रहे हैं। सच्चाई यह है कि डॉ0 अबेडकर सहित मनुस्मृति-विरोधी साी लेखकों में कुछ एकांगी और पूर्वाग्रहयुक्त बातें समानरूप से पायी जाती हैं। उन्होंने कर्मणा वर्णव्यवस्था को सिद्ध करने वाले आपत्तिरहित श्लोकों, जिनमें स्त्री-शूद्रों के लिए हितकर और सदावपूर्ण बाते हैं, जिन्हें कि पूर्वापर प्रसंग से सबद्ध होने के कारण मौलिक माना जाता है, को मान्य ही नहीं किया । केवल आपत्तिपूर्ण श्लोकों, जो कि प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, को मान्य करके निन्दा-आलोचना की है। उन्होंने इस शंका का समाधान नहीं किया है कि एक ही लेखक की पुस्तक में, एक ही प्रसंग में, स्पष्टतः परस्परविरोधी कथन क्यों पाये जाते हैं? और आपने दो कथनों में से केवल आपत्तिपूर्ण कथन को ही क्यों ग्रहण किया? दूसरों की उपेक्षा क्यों की? यदि वे लेखक इस प्रश्न पर चर्चा करते तो उनकी आपत्तियों का उत्तर उन्हें स्वतः मिल जाता। न आक्रोश में आने का अवसर आता, न विरोध का, अपितु बहुत-सी भ्रान्तियों से बच जाते। (च) निष्कर्ष मनुस्मृति में समय-समय पर कांट-छांट, परिवर्तन-परिवर्धन के प्रयास हुए हैं। फिर भी मनु की मूल भावना के द्योतक श्लोक यत्र-तत्र संदर्भों में मिल जाते हैं। उनसे उनकी मौलिकता का ज्ञान हो जाता है। संक्षेप में, प्रस्तुत विषय के मौलिक और प्रक्षिप्त श्लोकों का निर्णय इस प्रकार है- मनु की व्यवस्था ‘वैदिक वर्णव्यवस्था’ है (डॉ. अबेडकर ने भी पूर्व उद्धृत उद्धरणों में इसे स्वीकार किया है), अतः गुण-कर्म-योग्यता के सिद्धान्त पर अधारित जो श्लोक हैं वे मौलिक हैं। उनके विरुद्ध जन्मना जातिविधायक और जन्म के आधार पर पक्षपात का विधान करने वाले श्लोक प्रक्षिप्त हैं क्योंकि वह सारा प्रसंग परवर्ती है। मनु के समय जातियां नहीं बनी थीं। यही कारण है कि मनु ने वर्णों की उत्पत्ति के प्रसंग में जातियों की गणना नहीं की है। इस शैली और सिद्धान्त के आधार पर वर्णसंकरों से सबन्धित सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं और उनके आधार पर वर्णित जातियों का वर्णन भी प्रक्षिप्त है क्योंकि वह सारा प्रसंग परवर्ती है। इस पुस्तक में उद्धृत मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था, जो कि उनका ‘सामान्य कानून’ है, मौलिक है; उसके विरुद्ध पक्षपातपूर्णदण्डव्यवस्था-विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इस पुस्तक में उद्धृत शूद्र की परिभाषा, शूद्रों के प्रति सद्भाव, शूद्रों के धर्मपालन, वर्णपरिवर्तन आदि के विधायक श्लोक मौलिक हैं; उनके विपरीत जन्मना शूद्रनिर्धारक, स्पृश्यापृश्य, ऊंच-नीच, अधिकारों के शोषण आदि के विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इस लेख में उद्धृत नारियों के समान, स्वतंत्रता, समानता, शिक्षा के विधायक श्लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं। आवश्यकता इस बात की है कि मनु एवं मनुस्मृति को मौलिक रूप में पढ़ा और समझा जाये और प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर किये जाने विरोध का परित्याग किया जाये। आदिविधिदाता राजर्षि मनु एवं आदि संविधान ‘मनुस्मृति’ गर्व करने योग्य हैं, निन्दा करने योग्य नहीं। भ्रान्तिवश हमें अपनी अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण आदितम धरोहर को निहित स्वार्थमयी राजनीति में घसीटकर उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये।

মনুস্মৃতি ৫/১৫৫



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