देवता: राजप्रजे देवते ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: स्वराडनुष्टुप् स्वर: गान्धारः
ताऽउ॒भौ च॒तुरः॑ प॒दः स॒म्प्रसा॑रयाव स्व॒र्गे लो॒के प्रोर्णु॑वाथां॒ वृषा॑ वा॒जी रे॑तो॒धा रेतो॑ दधातु ॥
তা উভৌ চতুরঃ পদঃ সংপ্রসারয়াব স্বর্গে লোকে প্রোর্ণুবাথাং বৃষা বাজী রেতোধা রেতো দধাতু।।
पदार्थान्वयभाषाः -हे राजाप्रजाजनो ! तुम (उभौ) दोनों (तौ) प्रजा राजाजन जैसे (स्वर्गे) सुख से भरे हुए (लोके) देखने योग्य व्यवहार वा पदार्थ में (चतुरः) चारों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (पदः) जो कि पाने योग्य हैं, उनको (प्रोर्णुवाथाम्) प्राप्त होओ, वैसे इन का हम अध्यापक और उपदेशक दोनों (संप्रसारयाव) विस्तार करें, जैसे (रेतोधाः) आलिङ्गन अर्थात् दूसरे से मिलने को धारण करने और (वृषा) दुष्टों के सामर्थ्य को बाँधने अर्थात् उन की शक्ति को रोकने हारा (वाजी) विशेष ज्ञानवान् राजा प्रजाजनों में (रेतः) अपने पराक्रम को स्थापन करे, वैसे प्रजाजन (दधातु) स्थापना करें ॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा-प्रजा पिता और पुत्र के समान अपना वर्त्ताव वर्त्तें तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फल की सिद्धि को यथावत् प्राप्त हों, जैसे राजा प्रजा के सुख और बल को बढ़ावें, वैसे प्रजा भी राजा के सुख और बल की उन्नति करे ॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती
Translate:-[is mantr mein vaachakaluptopamaalankaar hai. jo raaja-praja pita aur putr ke samaan apana varttaav vartten to dharm, arth, kaam aur moksh phal kee siddhi ko yathaavat praapt hon, jaise raaja praja ke sukh aur bal ko badhaaven, vaise praja bhee raaja ke sukh aur bal kee unnati kare .]
যে রাজা-প্রজারা পিতা-পুত্রের মত আচরণ করে, তারা যেন ফল অনুসারে ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষের সিদ্ধি লাভ করে, রাজা যেমন প্রজাদের সুখ ও শক্তি বৃদ্ধি করেন, তেমনি প্রজাদেরও সুখ বৃদ্ধি পায়।
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