देवता: न्यायाधीशो देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: भुरिग्गायत्री स्वर: षड्जः
उत्स॑क्थ्या॒ऽअव॑ गु॒दं धे॑हि॒ सम॒ञ्जिं चा॑रया वृषन्। य स्त्री॒णां जी॑व॒भोज॑नः ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे (वृषन्) शक्तिमन् ! (यः) जो (स्त्रीणाम्) स्त्रियों के बीच (जीवभोजनः) प्राणियों का मांस खानेवाला व्यभिचारी पुरुष वा पुरुषों के बीच उक्त प्रकार की व्यभिचारिणी स्त्री वर्त्तमान हो, उस पुरुष और स्त्री को बाँध कर (उत्सक्थ्याः) ऊपर को पग और नीचे को शिर कर ताड़ना करके और अपनी प्रजा के मध्य (अव, गुदम्) उत्तम सुख को (धेहि) धारण करो और (अञ्जिम्) अपने प्रकट न्याय को (सञ्चारय) भलीभाँति चलाओ ॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती
भावार्थभाषाः -हे राजन् ! जो विषय-सेवा में रमते हुए जन वा वैसी स्त्री व्यभिचार को बढ़ावें, उन-उन को प्रबल दण्ड से शिक्षा देनी चाहिये ॥
[-he raajan ! jo vishay-seva mein ramate hue jan va vaisee stree vyabhichaar ko badhaaven, un-un ko prabal dand se shiksha denee chaahiye]
- হে রাজা! যারা বেশ্যার সেবায় মগ্ন থাকে বা এই ধরনের নারীরা যারা ব্যভিচারে উৎসাহিত করে, তাদের কঠোর শাস্তির শিক্ষা দেওয়া উচিত।
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