ऋषि: - रेभः काश्यपःदेवता - इन्द्रःछन्दः - बृहतीस्वरः - मध्यमःकाण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
য়া ইন্দ্র ভুজ আভরঃ স্বর্বাꣳ অসুরেভ্যঃ।
पदार्थ -
(इन्द्र) हे परमात्मन्! तू (स्वर्वान्) हमारे लिये विशेष सुख वाला—सुख देने वाला होता हुआ (असुरेभ्यः) ‘असुरान् अतिरिच्य ल्यब्लोपे पञ्चम्युप-संख्यानम्’ मानवता से अस्त व्यस्त हुये जनों को अतिरिक्त कर—छोड़कर वञ्चित कर (याः-भुजः-आभरः) जो भोगने वाली सामग्री ‘भुज् धातोः क्विप् कर्मणि’ समन्तरूप से तू धारण कर रहा है (अस्य) ‘आभिः’ ‘विभक्तिवचनव्यत्ययः’ इन भोगसामग्रियों से (मघवन्) धनवन् परमात्मन्! (स्तोतारम्-इत्) ‘स्तोतर्निं्-वचनव्यत्ययः’ अवश्य स्तोताओं को (वर्धय) बढ़ा (च) और (ये) जो (त्वे) ‘त्वे-एके’ कोई (वृक्तबर्हिषः) प्रवृक्त प्रकट किया ज्ञान अग्नि जिन्होंने “बर्हिः—अग्निः” [निरु॰ ८.९] ऐसे असुरविरोधी देववृत्ति वाले हैं।
भावार्थ -
हे परमात्मन्! तू असुरों को वञ्चित कर ले जो प्रशस्त भोग सामग्रियाँ धारण करता है उनके विपरीत ज्ञानाग्नि प्रदीप्त करने वाले स्तोता जन हैं उनको उनसे प्रवृद्ध करता है॥ भाष्य: (स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक)
टिप्पणी -
[*21. “रेभः स्तोतृनाम” [निघं॰ ३.१६]।]
आचार्य रामनाथ वेदालंकार पदार्थान्वयभाषाः -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (स्वर्वान्) धनवान्, प्रकाशवान् और आनन्दवान् आप (अ-सुरेभ्यः) जो सुरापान करके उन्मत्त नहीं हुए हैं, किन्तु जागरूक हैं, उनके लिए (याः भुजः) जिन अन्तप्रकाशरूप वा आनन्दरूप भोगों को (आ अभरः) लाते हो, उनसे, हे (मघवन्) दिव्य सम्पत्ति के स्वामी ! (अस्य) इस अध्यात्म-यज्ञ के (स्तोतारम्) स्तोता यजमान को (इत्) अवश्य ही (वर्धय) बढ़ाओ, (ये च) और जो (त्वयि) आपकी प्राप्ति करानेवाले अध्यात्मयज्ञ में (वृक्तबर्हिषः) मार्गदर्शक ऋत्विज् लोग हैं, उन्हें भी बढ़ाओ ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) शुत्रविदारक सम्पत्तिप्रदायक राजन् ! (स्वर्वान्) राजनीति विद्या के प्रकाश से युक्त आपने (असुरेभ्यः) अदानी, अपने कोठों में ही राष्ट्र की सम्पत्ति को भरनेवाले कृपणों के पास से (याः भुजः) जिन भोग्य-सम्पदाओं को (आ अभरः) अपहृत किया है, छीना है, उनसे, हे (मघवन्) धनी राजन् ! (अस्य) इस राष्ट्रयज्ञ के (स्तोतारम्) स्तोता को, राष्ट्रगीत के गायक को, न कि राष्ट्र द्रोही को (इत्) ही (वर्धय) समृद्ध कीजिए, (ये च) और जो (त्वे) आपके लिए, आपकी सहायता के लिए (वृक्तबर्हिषः) राष्ट्रयज्ञ का विस्तार करनेवाले राजपुरुष हैं, उन्हें भी समृद्ध कीजिए ॥ राजा को उचित है कि अपने राज्य के कृपण धनपतियों को प्रेरणा करे कि वे निर्धनों को अपने धन का दान करें। फिर भी जो दान न करें, उनके धन को बलात् उनसे छीन ले, यह वैदिक मर्यादा अनेक वेदवाक्यों से प्रमाणित होती है, यथा ‘हे तेजस्वी पोषक राजन्, जो अपनी सम्पत्ति का दान नहीं करना चाहता, उसे आप दान के लिए प्रेरित कीजिए। ऋ० ६।५३।३’, हे राष्ट्र के स्वामी राजन् ! दान न करनेवालों के धन को आप छीन लीजिए—ऋ० १।८१।९। यही बात प्रस्तुत मन्त्र में भी कही गयी है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥
भावार्थभाषाः -
जैसे परमेश्वर धार्मिक उपासकों को ज्ञान-प्रकाश से और दिव्य आनन्द से समृद्ध करता है, वैसे ही राजा भी राष्ट्र-भक्तों को समृद्ध करे और राष्ट्रद्रोहियों को दण्डित करे ॥
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