वेदों में मांसाहार का भ्रम
एतद्वा उ स्वादीयो यदधिगवं क्षीरं वा मांसं वा तदेव नाश्नीयात्।। 9।।
(अथर्व.काण्ड 9; सूक्त 6; पर्यायः 3;मन9)
इस मंत्र पर आचार्य सायण ने भाष्य नहीं किया है।
पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर भाष्य
पदार्थ- एतत् वै उ स्वादीयः = वह जो स्वादयुक्त है यत् अधिगवं क्षीरं वा मांसं वा= जो गौ से प्राप्त होने वाले दूध या अन्य मांसादि पदार्थ हैं तत् एव न आश्नीयात्= उसमें से कोई पदार्थ अतिथि के पूर्व भी न खावे।।9।।
इस पर मेरा मत
इसके भाष्य में आर्य विद्वान् प्रो. विश्वनाथ विद्यालंकार ने यहा मांस का अर्थ पनीर किया है, तो पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी ने मनन साधक (बुद्धिवर्धक) पदार्थ को मांस कहा है। सभी ने इस मंत्र तथा सूक्त के अन्य मंत्रों का विषय अतिथि सत्कार बताया है। इस मंत्र का देवता पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी की दृष्टि में अतिथि व अतिथिपति है, जबकि पं. सातवलेकर ने अतिथि विद्या माना है। पं. सातवलेकर ने इसका ऋषि ब्रह्मा माना है। छन्द पिपीलिका मध्या गायत्री है। {ब्रह्मा = मनो वै यज्ञस्य ब्रह्मा (श.14.6.1.7), प्रजापतिर्वै ब्रह्मा (गो.उ.5.8)। अतिथिः = यो वै भवति यः श्रेष्ठतामश्नुते स वा अतिथिर्भवति (ऐ.आ.1.1.1)। अतिथिपतिः = अतिथिपतिर्वावातिथेरीशे (क.46.4 - ब्रा.उ.को. से उद्धृत)। पिपीलिका = पिपीलिका पेलतेर्गतिकर्मणः (दै.3.9)। स्वादु = प्रजा स्वादु (ऐ.आ.1.3.4), प्रजा वै स्वादुः (जै.ब्रा.2.144), मिथुनं वै स्वादु (ऐ.आ.1.3.4)। क्षीरम् = यदत्यक्षरत् तत् क्षीरस्य क्षीरत्वम् (जै.ब्रा.2.228)। मांसम् = मांसं वै पुरीषम् (श.8.6.2.14), मांसं माननं वा मानसं वा मनोऽस्मिन् सीदतीति वा (नि.4.3), मांसं सादनम् (श.8.1.4.5)}
मेरा आधिदैविक भाष्य
(एतत् वा स्वादीयः) ये अतिथि अर्थात् सतत गन्त्री प्राण, व्यान रश्मियां एवं अतिथिपति अर्थात् प्राणोपान रश्मियों की नियन्त्रक सूत्रात्मा वायु रश्मियां स्वादुयुक्त होती हैं अर्थात् ये विभिन्न छन्दादि रश्मियों के मिथुन बनाकर नाना पदार्थों को उत्पन्न करने में सहायक होती हैं। (यत्) जो प्राणव्यान व सूत्रात्मा वायु रश्मियां (अधिगवं क्षीरं वा मांसं वा) गो अर्थात् ‘ओम्’ छन्द रश्मि रूपी सूक्ष्मतम वाक् तत्व में आश्रित होती हैं, साथ ही अपने पुरीष= पूर्ण संयोज्य बल {पुरीषम्= पूर्णं बलम् (म.द.य.भा.12.46), ऐन्द्रं हि पुरीषम् (श.8.7.3.7), अन्नं पुरीषम् (श.8.1.4.5)} के साथ निरन्तर नाना रश्मि वा परमाणु आदि पदार्थों के ऊपर झरती रहती हैं। इन ‘ओम्’ रश्मियों का झरना ही क्षीरत्व तथा पूर्ण संयोज्यता ही मांसत्व कहलाता है। यहाँ ‘मांस’ शब्द यह संकेत देता है, कि ये ‘ओम्’ रश्मियां मनस्तत्व से सर्वाधिक रूप से निकटता से सम्बद्ध होती हैं किंवा मनस्तत्व इनमें सर्वाधिक मात्रा में बसा हुआ रहता है। ये ‘ओम्’ रश्मियां प्राणव्यान एवं सूत्रात्मा वायु रश्मियों के ऊपर झरती हुई अन्य स्थूल पदार्थों पर गिरती रहती हैं। (तत् एव न अश्नीयात्) इस कारण से विभिन्न रश्मि वा परमाणु आदि पदार्थों के मिथुन बनने की प्रक्रिया नष्ट नहीं होती। यह प्रक्रिया अतिथिरूप प्राणव्यान के मिथुन बनने किंवा इनके द्वारा विभिन्न मरुदादि रश्मियों को आकृष्ट करने की प्रक्रिया शान्त होने से पूर्व नष्ट नहीं होती है, बल्कि उसके पश्चात् अर्थात् दो कणों के संयुक्त होने के पश्चात् और मिथुन बनने की प्रक्रिया नष्ट वा बन्द हो सकती है, यह जानना चाहिए।
इस ऋचा का सृष्टि पर प्रभाव-
आर्ष व दैवत प्रभाव- इसका ऋषि ब्रह्मा होने से संकेत मिलता है कि इसकी उत्पत्ति मन एवं ‘ओम्’ रश्मियों के मिथुन से ही होती है। यह मिथुन इस छन्द रश्मि को निरन्तर व निकटता से प्रेरित करता रहता है। इसके दैवत प्रभाव से प्राण, व्यान तथा सूत्रात्मा वायु रश्मियां विशेष सक्रिय होकर नाना संयोग कर्मों को समृद्ध करती हैं।
छान्दस प्रभाव- इसका छन्द पिपीलिका मध्या गायत्री होने से यह छन्द रश्मि विभिन्न पदार्थों के संयोग के समय उनके मध्य तीव्र तेज व बल के साथ सतत संचरित होती है। इससे उन पदार्थों के मध्य विभिन्न पदार्थ तेज एवं बल को प्राप्त होते रहते हैं।
ऋचा का प्रभाव- जब दो कणों का संयोग होता है, तब उनके मध्य प्राण, व्यान व सूत्रात्मा वायु रश्मियों का विशेष योगदान होता है। ये रश्मियां विभिन्न मरुद् रश्मियों द्वारा आकुंचित आकाश तत्व को व्याप्त कर लेती हैं। इसी समय इन रश्मियों के ऊपर सूक्ष्म ‘ओम्’ रश्मियां अपना सेचन करके इन्हें अधिक बल से युक्त करती हैं। इससे दोनों कणों के मध्य फील्ड निरन्तर प्रभावी होता हुआ उन दोनों कणों को परस्पर संयुक्त कर देता है।
मेरा आधिभौतिक भाष्य
(एतत् वा स्वादीयः) ये जो स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ होते हैं। (यदधिगवं क्षीरं वा) जो गाय से प्राप्त होने वाले दूध, घृत, मक्खन, दही आदि पदार्थ हैं अथवा (मांसम् वा) मनन, चिन्तन आदि कार्यों में उपयोगी फल, मेवे आदि पदार्थ। (तदेव न अश्नीयात्) उन पदार्थों को अतिथि के खिलाने से पूर्व न खावे अर्थात् अतिथि को खिलाने के पश्चात् ही खाना चाहिए। यहाँ अतिथि से पूर्व न खाने का प्रसंग इसके पूर्व मंत्र से सिद्ध होता है, जहाँ लिखा है- ‘‘अशितावत्यतिथावश्नीयात्’’ = अशितावति अतिथौ अश्नीयात्। इस प्रकरण को पूर्व आधिदैविक भाष्य में भी समझें।
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{‘मांसम्’ पद की विवेचनाः- इस विषय में सर्वप्रथम आर्य विद्वान् पं. रघुनन्दन शर्मा कृत ‘‘वैदिक सम्पत्ति’’ नामक ग्रन्थ से आयुर्वेद के कुछ ग्रन्थों को उद्धृत करते हुए कहते हैं-
‘‘सुश्रुत में आम के फल का वर्णन करते हुए लिखा है कि-
अपक्वे चूतफले स्नाय्वस्थिमज्जानः सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते पक्वे त्वाऽविर्भूता उपलभ्यन्ते।
अर्थात् आम के कच्चे फल में नसें, हड्डियाँ और मज्जा आदि प्रतीत नहीं होती, किन्तु पकने पर सब आविर्भूत हो जाती हैं।
यहाँ गुठली के तन्तु रोम, गुठली हड्डियाँ, रेशे नसें और चिकना भाग मज्जा कहा गया है। इसी प्रकार का वर्णन भावप्रकाश में भी आया है। वहाँ लिखा है कि-
आम्रास्यानुफले भवन्ति युगपन्मांसास्थिमज्जादयो लक्ष्यन्ते न पृथक् पृथक् तनुतया पुष्टास्त एव स्फुटाः।
एवं गर्भसमु˜वे त्ववयवाः सर्वे भवन्त्येकदा लक्ष्याः सूक्ष्मतया न ते प्र्रकटतामायान्ति वृद्धिग्ताः।
अर्थात् जिस प्रकार कच्चे आम के फल में मांस, अस्थि और मज्जादि पृथक्-पृथक् नहीं दिखलाई पड़ते, किन्तु पकने पर ही ज्ञात होते हैं उसी प्रकार गर्भ के आरम्भ में मनुष्य के अंग भी ज्ञात नहीं होते, किन्तु जब उनकी वृद्धि होती है, तब स्पष्ट हो जाते हैं।
इन दोनों प्रमाणों से प्र्रकट हो रहा है कि फलों में भी मांस, अस्थि, नाड़ी और मज्जा आदि उसी प्रकार कहे गये हैं, जिस प्रकार प्राणियों के शरीर में। वैद्यक के एक ग्रन्थ में लिखा है कि-
प्रस्थं कुमारिकामांसम्।
अर्थात् एक सेर कुमारिका का मांस। यहाँ घीकुवार को कुमारिका और उसके गूदे को मांस कहा गया है।
कहने का तात्पर्य यह कि जिस प्रकार औषधियों और पशुओं के नाम एक ही शब्द से रखे गये हैं उसी प्रकार औषधियों और पशुओं के शरीरावयव भी एक ही शब्द से कहे गये हैं। इस प्रकार का वर्णन आयुर्वेद के ग्रन्थों में भरा पड़ा है। श्रीवेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई में छपे हुए ‘औषधिकोष’ में नीचे लिखे समस्त पशुसंज्ञक नाम और अवयव वनस्पतियों के लिए भी आये हुए दिखलाये गये हैं। हम नमूने के लिए कुछ शब्द उद्धृत करते हैं-
वृषभ- ऋषभकन्द
सिंही- कटेली, वासा
हस्ति- हस्तिकन्द
श्वान- कुत्ताघास, ग्रन्थिपर्ण
खर- खरपर्णिनी
वपा-झिल्ली= बक्कल के भीतर का जाला
मार्जार- बिल्लीघास, चित्ता
काक- काकमाची अस्थि- गुठली
मयूर- मयूरशिखा
वाराह- वाराहीकन्द
मांस- गूदा, जटांमासी
बीछू- बीछूबूटी
महिष- महिषाक्ष, गुग्गुल
चर्म- बक्कल
सर्प- सर्पिणीबूटी
श्येन- श्येनघंटी (दन्ती)
स्नायु- रेशा
अश्व- अश्वगन्धा, अजमोदा
मेष- जीवशाक
नख- नखबूटी
नकुल- नाकुलीबूटी
कुक्कुट (टी) शाल्मलीवृक्ष
मेद-मेदा
हंस- हंसपदी
नर- सौगन्धिक तृण
लोम(शा)- जटामासी
मत्स्य- मत्स्याक्षी
मातुल- घमरा
हृद- दारचीनी
मूषक- मूषाकर्णी
मृग- सहदेवी, इन्द्रायण, जटामासी, कपूर
पेशी- जटामासी
गो- गौलोमी पशु- अम्बाड़ा, मोथा
रुधिर- केसर
महाज- बड़ी अजवायन
कुमारी- घीकुमार
आलम्भन- स्पर्श
इस सूची में समस्त पशु पक्षियों और उनके अवयवों के नाम तथा समस्त वनस्पतियों और उनके अवयवों के नाम एक ही शब्द से सूचित किये गये हैं। ऐसी दशा में किसी शब्द से पशु और उसका अवयव ही ग्रहण नहीं किया जा सकता।
विज्ञ पाठक यहाँ विचारें कि ऐसी स्थिति में यहाँ ‘मांसम्’ पद से गौ आदि पशुओं वा पक्षियों का मांस ग्रहण करना क्या मूर्खता नहीं है? यहाँ कोई पाश्चात्य शिक्षा से अभिभूत तथा वैदिक वा भारतीय संस्कृति व इतिहास का उपहासकर्ता कथित प्रबुद्ध किंवा मांसाहार का पोषक संस्कृत भाषा के ऐसे नामों पर व्यंग्य न करें, इस कारण हम उन्हें अंग्रेजी भाषा के भी कुछ उदाहरण देते हैं-
1. Lady Finger भिण्डी को कहते हैं। यदि भोजन विषय में कोई इसका अर्थ किसी महिला की अंगुली करे, तब क्या उसका अपराध नहीं होगा?
2. Vegetable किसी भी शाक वा वनस्पति को कहते हैं। उधर Chamber dictionary में इसका अर्थ dull understanding person भी दिया है। यदि Vegetable खाते हुए किसी व्यक्ति को देखकर कोई उसे मन्दबुद्धि मनुष्य को खाद्य पदार्थ कहे, तब क्या यह मूर्खता नहीं होगी।
3. आयुर्वेद में एक पौधा है, गोविष, जिसे हिन्दी में काकमारी तथा अंग्रेजी में Fish berry कहा जाता है। यदि कोई इसका अर्थ मछली का रस लगाये, तो उसे क्या कहा जाए?
4. Potato आलू को कहते हैं, उधर इसका अर्थ A mentally handicaped person भी होता है, तब क्या आलू खाने वाले को मानसिक रोगी मनुष्य को खाने वाला माना जाये?
5. Hag यह एक प्रकार का फल है, उधर An ugly old woman को भी hag कहा जाता है, तब क्या यहाँ भी कोई hag फल का अर्थ उलटा ही लगाने का प्रयास करेगा?
अब हम इस पर विचार करते हैं कि फलों के गूदे को मांस क्यों कहा? जैसा कि अपने आधिदैविक भाष्य में लिख चुके हैं कि पूर्णबलयुक्त वा पूर्णबलप्रद पदार्थ को मांस कहा जाता है। संसार में सभी मनुष्य फलों के गूदे का ही प्रयोग करते हैं, अन्य भागों का नहीं, क्योंकि फल का सार भाग वही है। वही भाग बल-वीर्य का भण्डार है अर्थात् उसके भक्षण से बल-वीर्य-बुद्धि आदि की वृद्धि होती है। अब कोई प्रश्न करे कि प्राणियों के शरीर का मांस क्यों मांस कहलाया? इसका उत्तर यह है कि किसी भी प्राणी के शरीर का बल उसकी मांसपेशियों के अन्तर्गत ही निहित है, इस कारण से यह भी मांस कहलाया जाता है। जैसे शाकाहारी प्राणी फलों के गूदे का ही विशेष भक्षण करते हैं, वैसे ही सिंहादि मांसाहारी प्राणी, प्राणी के मांस भाग को ही विशेष रूप से खाते हैं। यह दोनों में समानता है। जो स्थान फलों में गूदे का है, वही स्थान प्राणियों के शरीर में मांस का है। मनुष्य प्राकृतिक रूप से केवल शाकाहारी व दुग्धाहारी प्राणी है, इस कारण वेदादि शास्त्रों में प्राणियों के मांस खाने की चर्चा वेदादि शास्त्रों की परम्परा से सर्वथा अनभिज्ञता का परिचायक है। ऐसी चर्चा करने वाले कथित वेदज्ञ, चाहे विदेशी हों वा स्वदेशी, हमारी दृष्टि में वे वेदादि शास्त्रों की वर्णमाला भी नहीं जानते, भले वे व्याकरणादि शास्त्रों के कितने ही बड़े अध्येता-अध्यापक क्यों न हों। मांसाहार के विषय में हम पृथक् से एक ग्रन्थ लिखने पर फिर कभी विचार करेंगे, जिसमें विश्वभर के मांसाहारियों की सभी शंकाओं का समाधान होगा।
प्रश्न- वेद में ‘मांसम्’ पद का अर्थ प्राणियों का मांस कदापि नहीं हो सकता, इसे आपका पूर्वाग्रह क्यों न माना जाये; जो केवल शाकाहार के आग्रहवश ही किया गया है?
उत्तर- जिस परम्परा में सामान्य योगसाधक के लिए अहिंसा को प्रथम सोपान कहा गया हो, जहाँ मन, वचन, कर्म से कहीं भी व कभी भी सभी प्राणियों के प्रति वैर त्याग अर्थात् प्रीति का संदेश दिया गया हो, वहाँ सिद्धपुरुष योगियों एवं उसी क्रम में अपनी योगसाधना द्वारा ईश्वर व मंत्रों के साक्षात्कृतधर्मा महर्षियों, उनके ग्रन्थों एवं वेदरूप ईश्वरीय ग्रन्थों से हिंसा का संदेश देना मूर्खता व दुष्टता नहीं है, तो क्या है? जो विद्वान् वैदिक अहिंसा का स्वरूप देखना चाहे, वे पातंजल योगदर्शन के व्यासर्षि भाष्य को स्वयं पढ़ कर देखें। इस ऐतरेय ब्राह्मण में जहाँ प्रायः सभी भाष्यकारों ने पशुओं का नृशंस वध एवं उसके अंगों के भक्षण का विधान किया है, वहाँ हमने उसका कैसा गूढ़ विज्ञान प्रकाषित किया है, यह पाठक इस ग्रन्थ के सम्पूर्ण अध्ययन से जान सकते हैं। पाठकों की जानकारी के लिए हम वेद से ही कुछ प्रमाण देते हैं-
यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम। तं त्वा सीसेन विध्यामः।। (अथर्व.1.16.4)
अर्थात् तू यदि हमारी गाय, घोड़ा वा मनुष्य को मारेगा, तो हम तुझे सीसे से बेध देंगे।
मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्पदः।। (अथर्व.11.2.1)
अर्थात् हमारे मनुष्यों और पशुओं को नष्ट मत कर। अन्यत्र वेद में देखें-
इमं मा हिंसीद्र्विपाद पशुम्। (यजु.13.47)
अर्थात् इस दो खुर वाले पशु की हिंसा मत करो।
इमं मा हिंसीरेकशफं पशुम्। (यजु.13.48)
अर्थात् इस एक खुर वाले पशु की हिंसा मत करो।
यजमानस्य पशुन् पाहि। (यजु.1.1)
यजमान के पशुओं की रक्षा कर।
आप कहेंगे यह बात यजमान वा किसी मनुष्य विशेष के पालतू पशुओं की हो रही है, न कि हर प्राणी की।
इस भ्रम के निवारणार्थ अन्य प्रमाण-
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। (यजु.36.18)
अर्थात् मैं सब प्राणियों को मित्र की भांति देखता हूँ।
मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः। (यजु.12.32)
इस शरीर से प्राणियों को मत मार।
मा स्रेधत। (ऋ.7.32.9) अर्थात् हिंसा मत करो।
महर्षि जैमिनी के पश्चात् सबसे महान् वेदवेत्ता महर्षि दयानन्द के मांसाहार के विषय में विचारों को भी पाठक पढ़ें-
‘‘मद्यमांसाहारी म्लेच्छ कि जिनका शरीर मद्यमांस के परमाणुओं से ही पूरित है, उनके हाथ का न खावें।’’
‘‘इन पशुओं को मारने वाले को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानियेगा।’’
‘‘जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आकर गो आदि पशुओं को मारने वाले मद्यपायी राज्याधिकारी हुए हैं, तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की सीमा बढ़ती जाती है। -सत्यार्थ प्रकाश, दशम समुल्लास
देखिये दया के सागर ऋषि दयानन्द क्या कहते हैं-
‘‘पशुओं के गले छुरे से काटकर जो अपना पेट भरते हैं, सब संसार की हानि करते हैं। क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती, अनुपकारी, दुःख देने वाले पापीजन होंगे?’’
‘‘हे मांसाहारियो! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं?’’
‘‘हे धार्मिक लोगो! आप इन पशुओं की रक्षा तन, मन और धन से क्यों नहीं करते?’’ (गोकरुणानिधि)
आशा है बुद्धिमान् एवं निष्पक्ष पाठकों की मांसाहार की भ्रांति निर्मूल हो चुकी होगी।
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मेरा आध्यात्मिक भाष्य
{मांसम् = मन्यते ज्ञायतेऽनेन तत् मांसम् (उ.को.3.64), मांसं पुरीषम् (श.8.7.4.19), (पुरीषम् = पुरीषं पृणातेः पूरयतेर्वा - नि.2.22; सर्वत्राऽभिव्याप्तम् - म.द.य.भा.38.21; यत् पुरीषं स इन्द्रः - श.10.4.1.7; स एष प्राण एव यत् पुरीषम् - श.8.7.3.6)}
(एतत् वा उ स्वादीयः) योगी पुरुष के समक्ष परमानन्द का आस्वादन कराने वाले ये पदार्थ विद्यमान रहते हैं, जिनके कारण जीव का परमात्मा के साथ सायुज्य रहता है, (यदधिगवं क्षीरं वा मांसं वा) वे पदार्थ योगी की मन आदि इन्द्रियों में प्रतिष्ठित होते हैं। वे पदार्थ क्या हैं, इसका उत्तर यह है कि सर्वत्र अभिव्याप्त परमैश्वर्य सम्पन्न इन्द्ररूप परमात्मा से झरने वाली ‘ओम्’ वा गायत्री आदि वेदों की ऋचाएं ही वे पदार्थ हैं, जो योगी की इन्द्रियों व अन्तःकरण में निरन्तर स्रवित होती रहती हैं। योगी उन आनन्दमयी ऋचाओं का रसास्वादन करने लगता है, तब वह परमानन्द का अनुभव करने लगता है। (तदेव न अश्नीयात्) योगी उन ऋचाओं के आनन्द को उस समय तक अनुभव नहीं कर पाता, जब तक कि अतिथिरूप प्राण तत्व, जो योगी के मस्तिष्क व शरीर में सतत संचरित होते हैं, उन ऋचाओं के साथ संगत नहीं होते हैं। यहाँ अतिथि से पूर्व का प्रकरण पूर्ववत् समझें।
भावार्थ- जब कोई योगी योगसाधना करता है और एतदर्थ प्रणव वा गायत्री आदि का यथाविध जप करता है, तब सर्वत्र अभिव्याप्त परमैश्वर्यवान् इन्द्ररूप ईश्वर से निरन्तर प्रवाहित ‘ओम्’ रश्मियां उस योगी के अन्तःकरण तथा प्राणों के अन्दर स्रवित होती रहती है। इससे वह योगी उन रश्मियों का रसास्वादन करता हुआ आनन्द में निमग्न हो जाता है।
वेदविज्ञान-आलोकः से उद्घृत (पूर्वपीठिका - वेद का यर्थाथ स्वरूप, नवमोध्याय)
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