ও৩ম্ ইন্দ্রেণ সং হি দৃক্ষসে সংজগ্নানো অবিভ্যুষা।
মন্দু নমানবর্চসা।। [ঋগ্বেদ ১।৬।৭] इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा॥
ভাবার্থঃ- ঈশ্বর নিজের ব্যপ্তি এবং সত্ত্বা দ্বারা সূর্য্য এবং বায়ু আদি পদার্ত উৎপন্ন করিয়া ধারণ করিয়াছেন, সমস্ত পদার্থের মধ্যে সূর্য এবং বায়ু উভয়ই মূখ্য, এমন কি ইহাদিগকে ধারণ আকর্ষণ এবং প্রকাশের যোগ দ্বারা সমস্ত পদার্থ সুভোশিত হইয়া তাকে।মনুষ্যের উচিত ইহাদের পাদার্থবিদ্যা হইতে উপকার লইয়া যুক্ত করিয়া নিজের কার্য সফল করা।।
पदार्थान्वयभाषाः -यह वायु (अबिभ्युषा) भय दूर करनेवाली (इन्द्रेण) परमेश्वर की सत्ता के साथ (संजग्मानः) अच्छी प्रकार प्राप्त हुआ, तथा वायु के साथ सूर्य्य (संदृक्षसे) अच्छी प्रकार दृष्टि में आता है, (हि) जिस कारण ये दोनों (समानवर्चसा) पदार्थों के प्रसिद्ध बलवान् हैं, इसी से वे सब जीवों को (मन्दू) आनन्द के देनेवाले होते हैं॥
भावार्थभाषाः -ईश्वर ने जो अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, इन सब पदार्थों के बीच में से सूर्य्य और वायु ये दोनों मुख्य हैं, क्योंकि इन्हीं के धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि उन्हें पदार्थविद्या से उपकार लेने के लिये युक्त करें। यह बड़ा आश्चर्य्य है कि बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग किया गया, तथा निरुक्तकार ने द्विवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग माना है, सो असङ्गत है। यह भी मोक्षमूलर साहब की कल्पना ठीक नहीं, क्योंकि व्यत्ययो ब० सुप्तिङुपग्रह० व्याकरण के इस प्रमाण से वचनव्यत्यय होता है। तथा निरुक्तकार का व्याख्यान सत्य है, क्योंकि सुपा सु० इस सूत्र से मन्दू इस शब्द में द्विवचन को पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश हो गया है॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती
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