देवता: इन्द्र: ऋषि: इन्द्रवसुक्रयोः संवाद ऐन्द्रः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः।। १०.२८.०३
যদ্রিণা তে মন্দিন ইন্দ্র তুয়ান্তসুন্বন্তি সোমান্পিসি ত্বমেশম্।
পচন্তি তে বৃষভমা অতসি তেশাম প্রক্ষেণ যন্মঘবন্ হূয়মানঃ।
पदार्थान्वयभाषाः -(इन्द्र) हे आत्मन् या राजन् ! (ते) तेरे लिये (अद्रिणा) प्रशंसक वैद्य या पुरोहित से प्रेरित (मन्दिनः) तेरे प्रसन्न करनेवाले पारिवारिक जन या राजकर्मचारी (तूयात् सोमान् सुन्वन्ति) रसमय सोमों को तय्यार करते हैं (तेषां त्वं पिबसि) उनको तू पी और (ते) तेरे लिए (वृषभान् पचन्ति) सुख बरसानेवाले भोगों को तय्यार करते हैं (मघवन् पृक्षेण हूयमानः) हे आत्मन् ! या राजन् ! स्नेह सम्पर्क से निमन्त्रित किया जाता हुआ (तेषाम्-अत्सि) उन्हें तू भोग ॥
(इन्द्र) हे आत्मन् ! राजन् ! वा (ते) तुभ्यम् (अद्रिणा) श्लोककृता प्रशंसकेन वैद्येन पुरोहितेन वा प्रेरिता “अद्रिरसि श्लोककृत्” [काठ० १।५] (मन्दिनः) तव हर्षयितारः पारिवारिका जना राजकर्मचारिणो वा (तूयान् सोमान् सुन्वन्ति) जलमयान् रसमयान् “तूयम् उदकनाम” [निघं० १।९] सोमरसान् सम्पादयन्ति (तेषां त्वं पिबसि) तान् त्वं पिबेः “लिङर्थे लेट्” [अष्टा० ३।४।७] अथ (ते) तुभ्यम् (वृषभान् पचन्ति) सुखरसवर्षकान् “वृषभः यो वर्षति सुखानि सः” [ऋ० १।३१।५ दयानन्दः] “वृषभः वर्षिताऽपाम्” [निरु० ४।८] सम्पादयन्ति (मघवन्) पृक्षेण (हूयमानः) हे आत्मन् राजन् ! वा स्नेहसम्पर्केणाहूयमानो निमन्त्र्यमाणः (तेषाम्-अत्सि) तान् त्वं भुङ्क्ष्व-भुङ्क्षे ॥
भावार्थभाषाः -आत्मा जब शरीर में आता है, तब उसे अनुमोदित करनेवाले वैद्य और प्रसन्न करनेवाले पारिवारिक जन अनेक रसों और भोग्य पदार्थों को उसके लिये तय्यार करते हैं और स्नेह से खिलाते पिलाते हैं, जिससे कि शरीर पुष्ट होता चला जावे तथा राजा राजपद पर विराजमान होता है, तब उसके प्रशंसक पुरोहित और प्रसन्न करनेवाले राजकर्मचारी सोमादि ओषधियों के रस और भोगों को तय्यार करते हैं। वह स्नेह से आदर पाया हुआ उनका सेवन करता है ॥-ब्रह्ममुनि
भावार्थ- जब विशाल काॅस्मिक मेघ के अन्दर विद्यमान् सूक्ष्म प्राण रश्मियों से प्रेरित होकर विभिन्न छन्द रश्मियों के द्वारा उस काॅस्मिक मेघ का सम्पीडन होना प्रारम्भ होता है, उस समय उस विशाल मेघ रूप पदार्थ में उन छन्द व प्राण रूप रश्मियों से सोम अर्थात् सूक्ष्म मरुद् रश्मियां उत्पन्न होने लगती हैं। जब उस काॅस्मिक मेघ में व्याप्त विद्युदावेशित तरंगें उन सोम रश्मियों को अवशोषित करती हैं, तब वे तीव्र बल व ऊर्जा से सम्पन्न होने लगती हैं। इसके पश्चात् उस काॅस्मिक मेघ में नाना प्रकार से सम्पीडन क्रिया प्रारम्भ होकर सम्पीडन के अनेक केन्द्रों की उत्पत्ति होने लगती है। इसके साथ उन केन्द्रों के आस-पास विभिन्न प्रकार के आयन्स की धाराएं बहने लगती हैं। इससे सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ में नाना प्रकार के गम्भीर उच्च घोष उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार उस सम्पूर्ण मेघ रूप पदार्थ में अनेंकों सूर्यों का गर्भ पल रहा होता है।
इस ऋचा (छन्द रश्मि) का सृष्टि प्रक्रिया पर प्रभाव- इसके प्रभाव से काॅस्मिक मेघ में विद्युदावेशित कणों की अनेकों धाराएं बहने लगती हैं, जो वहाँ विद्यमान् सूक्ष्म छन्द वा मरुद् रश्मियों को अवशोषित करके तीव्रतर रूप को प्राप्त होती हैं। इन धाराओं से युक्त काॅस्मिक मेघ अपने गुरुत्व बल एवं नाना छन्द व प्राण रश्मियों के प्रभाव से सम्पीडत होने लगता है और इस सम्पीडन क्रिया के समय ही उस विशाल मेघ के अन्दर विभिन्न तारों के केन्द्रों का निर्माण होकर उनका गर्भ पलने लगता है।
आधिभौतिक भाष्य- (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवान् राजन् (ते) तेरे लिए (अद्रिणा) {अद्रिरसि श्लोककृत् (का.1.5)} तेरी प्रशंसा करने वाले हितैषी वैद्यादि जनों से प्रेरित (मन्दिनः) तुझे चाहने व प्रसन्न करने वाले परिवारी जन अथवा राष्ट्र के नागरिक (तूयान् सोमान्) {सोमः पशुर्वै प्रत्यक्षं सोमः (श.5.1.3.7) यशो वै सोमः (श.4.2.4.9) सोम ओषधीनामधिराजः (गो. उ. 1.17), अन्नं सोमः (कां. 9.9)} शीघ्रगामी अश्वादि पशुओं को, तेरे यश व प्रतिष्ठा को, तेरे लिए उत्तम अन्न व औषधियों को (सुन्वन्ति) प्रदान करते हैं, उत्पन्न करते हैं। हे राजन्! (तेषां, पिबसि) तुम उन अश्वादि पशुओं का संरक्षण करो {यहाँ ध्यान रहे कि ‘पा’ पाने धातु का अर्थ पीना के साथ-2 संरक्षण करना भी है। प्रकरण के अनुसार सोम का अर्थ पशु ग्रहण करने पर ‘पा’ धातु का अर्थ संरक्षण करना ग्रहण करना चाहिए। इस धातु के अर्थ के लिए देखें-संस्कृत-धातु-कोष-पं. युधिष्ठिर मीमांसाक} तथा उत्तम अन्न व औषधि आदि रसों का संरक्षण भी करो और उनका पान करो। इसके साथ ही अपने राष्ट्र के नागरिकों द्वारा जो सम्मान व प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है, उसका भोग करते हुए ऐसे कार्य करो कि उस यश का सदैव संरक्षण ही होवे, न कि उसमें किसी प्रकार की न्यूनता आने पावे।
(ते) हे राजन्! तेरे लिए (वृषभान् पचन्ति) वैद्यजन वृषभ नामक ऋषभकन्द औषधि एवं वीर्यवर्धक अनेक अन्न व औषधियों को पकाते हैं। { श्री वैंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई में छपे औषधियों में अनेक वनस्पतियों के नाम पशु संज्ञक दिए हैं। पढ़ें- मेरे द्वारा लिखित मांसाहार-धर्म, अर्थ और विज्ञान के आलोक में} (मघवन्) हे धनैश्वर्यवान् राजन्! (पृक्षेण) अपने स्नेह सम्पर्क के द्वारा (हूयमानः) अपने प्रजाजनों के साथ मधुर संवाद व व्यवहार करते हुए (तेषाम्-अत्सि) उनके द्वारा प्रदत्त कर आदि का उपयोग कर किंवा उनके साथ आनन्द का भोग कर।
भावार्थ- किसी राष्ट्र के राजा के हितैषी वैद्य वा राजपरिवारी जन राजा के लिए उत्तम अन्न औषधियों को तैयार करते रहें। उस राष्ट्र के नागरिकों के मन में अपने राजा के प्रति यश व सम्मान का भाव होवे तथा वह राजा भी अपने प्रजाजनों के साथ निरन्तर स्नेह संपर्क के द्वारा मधुर व्यवहार करते हुए उचित मात्रा में करों का संग्रहण करके उनके साथ मिलकर आनन्द व ऐश्वर्य का भोग करे अर्थात् प्रजा को दुःखी करके राजा कभी व्यक्तिगत सुख की आकांशा नहीं करे और न जन सामान्य से कठोर व्यवहार करे।
आध्यात्मिक भाष्य- (इन्द्र) हे जीवात्मन् वा योगसाधक! (ते) तेरे लिए (अद्रिणा) अपने अन्तः करण में वेद की ऋचाओं को धारण करने वाले ऋषियों द्वारा प्रेरित (मन्दिनः) तेरा प्रिय चाहने वाले ईश्वर के स्तोता आचार्य अपनी शिक्षा के द्वारा (तूयान् सोमान्) {सोमः = सत्यं श्रीज्र्योतिः सोमः (श. 5.1.2.10) प्राणः सोमः (श. 7.3.1.2), तूर्यम् = सुखकरम् (म.द.ऋ.मा.3.52.8)} सत्य स्वरूप एवं प्राणों के प्राण परमेश्वर की आनन्द ज्योति को (सुन्वन्ति) प्रकट कराते हैं। (तेषां, पिबसि) हे योगिजनो! तुम उस परमानन्द रूपी रस का पान करो। (ते) वे योगी आचार्य तुम्हारे लिए (वृषभान् पचन्ति) आपके आत्मा व अन्तःकरण में ब्रह्मानन्द की वर्षा कराने वाली दिव्य ज्योति को विकसित व परिपक्व करते हैं अर्थात् उनके मार्गदर्शन में की गयी योगसाधना से समाधिजन्य प्रज्ञा व आनन्द की पुष्टि होती है। (मघवन्) हे योगधन से युक्त योगसाधक (पृक्षेण) अपने आत्मा व अन्तःकरण में प्राण व वेद की ऋचाओं की सुखद वृष्टि के द्वारा (हूयमानः) परब्रह्म का आह्वान करते हुए (तेषाम् अत्सि) उस परमानन्द की वृष्टि एवं प्राण ऊर्जा का उपभोेेग करके अपने आत्मा व अन्तःकरण के बल को बढ़ाता रहा।
भावार्थ- परब्रह्म के साक्षात्कृतधर्मा एवं वेद की ऋचाओं को अपने अन्तःकरण में बसाने वाले ऋषियों से प्रेरित योग के आचार्य अपने योगसाधक शिष्य को परब्रह्म का साक्षात्कार कराते हैं। वे आचार्य अपने शिष्यों के भीतर ब्रह्म की ज्योेेेेति का प्रकाश कराके उसे पुष्ट भी करते हैं। इस कारण वे योगसाधक शिष्य परमेश्वर की दिव्य ज्योति एवं प्राण ऊर्जा को प्राप्त करके अपने आत्मा व अन्तःकरण को बलवान् बनाने में सक्षम होते हैं।
इस ऋचा का ऋषि वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी है, इसका तात्पर्य है कि इस छन्द रश्मि की उत्पत्ति विशेष बलशाली व विभिन्न रश्मियों को कम्पाने वाले सूत्रात्मा वायु के विशेष रूप से होती है। (देखें- वेदविज्ञान-आलोकः - पृ. 1462) इसका देवता इन्द्र होने से इन्द्र तत्व अर्थात् सूर्य लोक एवं उसके अन्दर विद्यमान तीक्ष्ण विद्युदावेशित तरंगें तीव्रता को प्राप्त होती हैं। इसका छन्द पंक्ति होने से सूर्यादि तारों के अन्दर विभिन्न प्रकार की संयोजन व वियोजनादि विस्तार को प्राप्त करती हैं।
आधिदैविक भाष्य- (मे हि प´चदश साकं विंशतिम्) मेरे अर्थात् पूर्वोक्त विशेष सूत्रात्मा वायु के द्वारा {तृतीयार्थ में चतुर्थी का प्रयोग है।} ही पन्द्रह अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त एवं धनंजय ये दस प्राथमिक प्राण तथा सूत्रात्मा वायु, भूः, भुवः, स्वः एवं हिम् अथवा पंच महाभूत ये पांच मिलाकर पन्द्रह प्राथमिक सूक्ष्म रश्मि आदि पदार्थों के साथ-2 बीस अर्थात् 12 मास, 6 ऋतु रश्मियां, मनस्तत्व एवं ओम् रश्मि अथवा 12 मास एवं गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती के अतिरिक्त अतिच्छन्द रश्मियां, ये 20 प्रकार की रश्मियां, इस प्रकार कुल 35 प्रकार के रश्मि आदि पदार्थ (उक्ष्णः) {उक्षा = उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः उक्षन्त्युदकेनेति वा (निघं. 12.9)} वर्षा आदि के द्वारा सींचने में समर्थ अथवा प्रकाशादि किरणों के द्वारा विभिन्न लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ विशाल सूर्यादि लोकों को (पचन्ति) परिपक्व वा पुष्ट करते हैं अर्थात् उपर्युक्त पैंतीस प्रकार के रश्मि आदि पदार्थों के द्वारा ही विशाल काॅस्मिक मेघों में विभिन्न तारों का निमार्ण होता है। (उत) और (अहम्) मैं अर्थात् इस छन्द रश्मि के ऋषिरूप सूत्रात्मा वायु का विशेष स्वरूप (अद्मि) इन सभी पैंतीस रश्मि आदि पदार्थों का भक्षण करता है अर्थात् सबको एकसूत्र में बांधकर सूर्य लोकादि विभिन्न लोकों को भी अपने अन्दर समाहित कर लेता है। (पीवः) इस प्रक्रिया के समय वह सूत्रात्मा वायु अति विस्तृत रूप धारण करके सम्पूर्ण सौरमण्डल, गैलेक्सी आदि में व्याप्त हो जाता है। (मे) मेरे अर्थात् उस विशेष सूत्रात्मा वायु के (उभा) दोनों रूप अर्थात् सम्पूर्ण लोकों को आच्छादित करने वाले तथा विभिन्न सूक्ष्म कणों व रश्मियों को ढकने वाले दोनों रूप सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ, गैलेक्सी, सौरमण्डल आदि के अन्दर व बाहर सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं। (इन्द्रः) वह इन्द्र अर्थात् विद्युत चुम्बकीय तंरगें, विद्युदावेशित तरंगें तथा सूर्यादि लोक अन्य लोकों से उत्कृष्ट स्वरूप को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ- जब किसी काॅस्मिक मेघ के अन्दर दस प्राथमिक प्राण, पंच महाभूत अथवा सूत्रात्मा , हिम् , भूः, भुवः व स्वः, ये सब पन्द्र्र्र्र्रह पदार्थों के साथ 8 प्रकार की छन्द व 12 प्रकार की मास रश्मियां मिल कर अर्थात् कुल 35 प्रकार के रश्मि आदि पदार्थ विशेष सक्रिय होते हैं, उस समय उस विशाल मेघ के अन्दर नाना प्रकार के तारों का जन्म होने लगता है। उस समय सूत्रात्मा वायु अति विस्तृत होकर सभी पदार्थों के साथ-2 सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ को अपने अन्दर व्याप्त कर लेता है। इन सभी लोकों में सूत्रात्मा वायु रश्मियों के दोनों रूप अर्थात् एक वह रूप, जो सूक्ष्म रश्मियों वा कणों को परस्पर जोड़ने में सहायक होता है और दूसरा, जो विभिन्न लोकों के गुरुत्वाकर्षण बल का एक महत्वपूर्ण भाग बनकर उन्हें थामे व जोड़े रखता है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सक्रिय होते हैं। इससे विभिन्न प्रकार के विकिरण व लोकों को उत्कृष्ट स्वरूप प्राप्त होता है।
आधिभौतिक भाष्य- (मे हि पंचदश साकं विंशतिम्) मैं अर्थात् राजा अपने पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियांे व पांच कर्मेन्द्रियों को वश में करके दश कामज व्यसन { अक्ष अर्थात् चैपड़ खेलना, जुवा खेलना, दिन में सोना, कामकथा वा दूसरे की निन्दा किया करना, स्त्रियों का अति संग, मादकद्रव्य अर्थात् मद्य, अफीम, भाँग, गाँजा, चरस आदि का सेवन, गाना बजाना, नाचना व नाच कराना, सुनना और देखना, वृथा इधर-उधर घूमते रहना।- मनुस्मृति- सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठ समुल्लास से उद्घृत} व आठ क्रोधज व्यसन { पैशुन्यम् अर्थात् चुगली करना, बिना विचारे बलात्कार से किसी की स्त्री से बुरा काम करना, द्रोह रखना, ईष्र्या अर्थात् दूसरे की बड़ाई वा उन्नति देख कर जला करना, असूया दोषों में गुण, गुणों में दोषारोपण करना, अर्थदूषण अर्थात् अधर्मयुक्त बुरे कामों में धनादि का व्यय करना, कठोर वचन बोलना और बिना अपराध कड़ा वचन वा विशेष दण्ड देना।- मनुस्मृति- सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठ समुल्लास से उद्घृत} अविद्या व प्रमाद, इन बीस दुव्र्यसनों को जीत कर (उक्ष्णः) प्रजा के लिए अपने सुख व पराक्रम वर्षक स्वरूप को (पचन्ति) परिपक्व करता है {यहाँ बहुवचन प्रयोग व्यत्यय से हुआ है।} (उत) और (अहम्) मैं सुखवर्षक राजा (अद्मि) सम्पूर्ण राष्ट्र के दुःख, अविद्या, दरिद्रता, अशान्ति एवं असुरक्षा आदि को नष्ट करता हूँ, (पीवः) ऐसा करके मैं अपने राष्ट्र का विकास करता हूँ, (मे) मेेरे (उभा कुक्षी) सज्जन प्रजाजन हेतु स्नेह व दुर्जनों हेतु उचित दण्ड, ये दोनों स्वरूप वा व्यवहार (इत् पृणन्ति) सम्पूर्ण राष्ट्र को सुख व शान्ति से समृद्ध करते हैं।
भावार्थ- जो अपने प्राणों व इन्द्रियों को वश करके अविद्या, प्रमाद व सभी कामज तथा क्रोधज दोषों को जीत लेेता है, वह सम्पूर्ण राष्ट्र को नाना प्रकार के सुख-ऐश्वर्यों से भर देेेता है। ऐसा राजा सज्जनों को संरक्षण व दुष्टोें को उचित दण्ड के द्वारा अपने राष्ट्र को सर्वविध संरक्षित व सुखी करता है।
आध्यात्मिक भाष्य- (मे हि) मैं योग साधक (पंचदश साकं विंशतिम्) मोक्ष के चार साधन, जिनमें प्रथम विवेेक के बारह प्रकार अर्थात् शरीर के अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय कोष, तीन अवस्था-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, चार शरीर-स्थूल, सूक्ष्म, कारण एवं तुरीय वा स्वाभाविक को यथावत् जानना, ये बारह प्रकार के विवेक, द्वितीय वैराग्य अर्थात् ज्ञान की पराकाष्ठा, तृतीय षट्क सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा व समाधान), चैथा मुमुक्षुत्व अर्थात् मुक्ति की तीव्र इच्छा, ये कुल मिलाकर मुक्ति के बीस साधनों के साथ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि, इन आठों योगांगों से प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, इन तीन प्रमाण, विपर्पय, विकल्प, निद्रा व स्मृति, इन सात प्रकार की वृत्तियों का निरोध करके अर्थात् कुल पैंतीस प्रकार के साधनोपसाधनों के द्वारा (उक्ष्णः पचन्ति) सुख व आनन्द की वृष्टि करने हारे परब्रह्म परमात्मा को साक्षात् करने की प्रक्रिया को परिपक्व करता हूँ। (उत) और (अहम्) मैं योगमार्ग का पथिक (अद्मि) उस परमानन्द व पावनी शान्ति का भक्षण करता हूँ अर्थात् उसका आस्वादन अनुभव करता हूँ और ऐसा करके (पीवः) अपने आत्मिक बल व पवित्रता को समृद्ध करता हूँ। (मे) मेरे (उभा कुक्षी) लौकिक व परलौकिक दोनों ही सुख (इत्, पृणन्ति) मुझे पूर्ण तत्व करते हैं।
भावार्थ- कोई भी योगी जब विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व के साथ अष्टांग योग की साधना करता है, उस समय वह सृष्टि के सम्पूर्ण विज्ञान के साथ-2 परब्रह्म परमेश्वर एवं स्वयं के यथार्थ स्वरूप को जानकर परमानंद को प्राप्त करता है। इसके साथ वह इस लोक में भी सभी सुखों को प्राप्त करने में समर्थ होता है।
अब विज्ञ पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं कि महर्षि दयानन्द सरस्वती की परम्परा का कोई भी भाष्यकार वेदों में मांसाहार, पशुबलि आदि पापों को कभी स्वीकार नहीं कर सकता है। इसमें उनका कोई पूर्वाग्रह नहीं है, बल्कि वेद का वास्तविक स्वरूप ही ऐसा है, जहाँ ऐसे पापों का कोई स्थान नहीं है। मैंने अपना भाष्य मात्र अपनी ऊहा के बल पर नहीं किया है, बल्कि उसका एक आधार है- विभिन्न वैदिक ग्रन्थों के प्रमाण एवं उनकी वैज्ञानिकता। पाठक मेरे भाष्य की अन्य भाष्यों से तुलना स्वयं करके यह जान सकते हैं कि यदि इसी प्रकार चारों वेदों का भाष्य किया जाए, तो संसार में कौन ऐसा मूर्ख होगा, जो वेद का उपहास करने की कल्पना भी कर सकेगा? दुर्भाग्य से ऋषि दयानन्द जी को विस्तार से वेद भाष्य करने का समय नहीं मिला।[आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक]
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