१. प्रतिज्ञा-ईश्वर नहीं है। २. हेतु – दिखाई न देने से। जो-जो वस्तु नहीं दीखती, वह वह
नहीं होती । ३. उदाहरण—जैसे खरगोश का सींग ।
४. उपयन- खरगोश के सींग के समान ही ईश्वर दिखाई नहीं देता। ५. निगमन – इसलिए दिखाई न देने के कारण ईश्वर नहीं है। व्याख्या: नास्तिकों की ओर से आस्तिकों पर आज-कल बड़े बल के साथ यह आक्षेप किया जाता है कि संसार में ईश्वर नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। यदि होती, तो आँखों से अवश्य दिखाई देती, जैसे कि भूमि, जल, अग्नि आदि वस्तुएँ दीखती हैं। आज तक एक भी ईश्वर विश्वासी ने न तो अपनी आँखों से उस काल्पनिक ईश्वर को देखा है और न ही किसी अन्य अविश्वासी को दिखा सका है। आस्तिक लोग ईश्वर ईश्वर तो दिन-रात रटते रहते हैं, किन्तु वास्तव में इस 'ईश्वर' शब्द के पीछे सत्तात्मक वस्तु कोई भी नहीं है। जैसे 'खरगोश का सींग' 'आकाश का फूल' 'बन्ध्या का पुत्र नहीं होता, फिर भी कहा जाता है, वैसे ही 'ईश्वर' है नहीं, किन्तु मात्र कहा जाता है। हम विज्ञान वाले तो केवल उन्हीं वस्तुओं को मानते हैं जो आँखों से, माइक्रोस्कोप से या टेलिस्कोप से दिखाई देती हैं, अर्थात् हम केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानते हैं, अनुमान और शब्द प्रमाण को नहीं मानते।
१. प्रतिज्ञा-ईश्वर है।
२. हेतु–शुद्ध अन्तःकरण वाले आत्मा के द्वारा देखा = (अनुभव किया जाने से)
३. उदाहरण-सुख दुःख आदि के समान ।
४. उपनय-जैसे आत्मा सुख-दुःख आदि का अनुभव मन आदि अन्तःकरण से करता है, ज्ञानेन्द्रियों से नहीं। वैसे ही आत्मा, ईश्वर का अनुभव अन्तःकरण से करता है, नेत्रादि इन्द्रियों से नहीं ।
५. निगमन- इसलिए शुद्ध अन्तःकरण वाले आत्मा के द्वारा ईश्वर का प्रत्यक्ष होने से ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है। व्याख्या: सर्वप्रथम इस विषय पर विचार करते हैं कि क्या ईश्वर ही एक ऐसी वस्तु है जो आँखों से दिखाई नहीं देती, या अन्य भी इसी प्रकार की कुछ वस्तुएँ हैं जो आँखों से दिखाई नहीं देती । यदि कुछ गम्भीरता से विचार किया जाये तो पता चलेगा कि एक नहीं अनेक ऐसी वस्तुएँ संसार में हैं, जो आँखों से दिखाई नहीं देती, फिर भी लोग उनको मानते हैं और उनसे काम भी लेते हैं। जैसे सुख-दुःख, भूख-प्यास, ईर्ष्या-द्वेष, मन-बुद्धि, शब्द, गन्ध, वायु आदि। इनमें से एक भी वस्तु ऐसी नहीं हैं, जो आँखों से दिखाई देती हो, फिर भी नास्तिक इन वस्तुओं को स्वीकार करते हैं। फिर ईश्वर के साथ ही यह अन्याय क्यों ! कि ईश्वर दिखाई नहीं देता, इसलिए हम उसे नहीं मानते हैं ।
बुद्धिपूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आँखों से किसी वस्तु का दिखाई न देना अन्य बात है, तथा वस्तु का सत्तारूपन होना अन्य बात है। यह कोई नियम नहीं कि जो वस्तु आँखों से दिखाई न देवे, वह सत्ता रूप में भी न होती हो ।
"खरगोश का सींग', 'आकाश का फूल', 'वन्ध्या का पुत्र' आदि जो उदाहरण आपने अपने पक्ष की पुष्टि में दिये हैं, वे वस्तुएँ तो वास्तव में सत्तात्मक होती ही नहीं हैं, केवल उनकी कल्पना करली जाती है। ऐसी वस्तुओं का आँखों से दिखाई न देना तो हम भी मानते हैं जो भावरूप में होती ही नहीं हैं।
परन्तु कुछ वस्तुएँ, जो किन्हीं कारणों से हम आँखों से देख नहीं पाते हैं, उनको न मानना उचित नहीं है। जैसे कि पहले उदाहरण दिये जा चुके हैं, वायु, सुख-दुःख, भूख-प्यास, शब्द-गन्ध आदि । ये सब आँखों से न दीखते हुए भी सनात्मक हैं। ऐसे ही ईश्वर भी आँखों से नहीं दीखता, फिर भी वह एक सत्तात्मक पदार्थ है, और उसका प्रत्यक्ष भी होता है ।
आपने जो यह कहा कि हम केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानते हैं, अनुमान और शब्द प्रमाण को नहीं, वास्तव में ऐसी बात नहीं है। आज प्रत्येक भौतिक वैज्ञानिक और विज्ञान का विद्यार्थी प्रत्यक्ष के साथ-साथ अनुमान और शब्द प्रमाण को भी स्वीकार करता है। उदाहरण के लिए पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षणशक्ति (Gravitational Force), विद्युत तरनें (Electro Magnatic Waves), अल्फा, बीटा, गामा तथा एक्स किरणों (Alpha, Beta, Gamma, X-Rays) को किसी भी वैज्ञानिक ने आज तक अपनी आँखों से नहीं देखा है, फिर भी सभी वैज्ञानिक इनकी सत्ता को स्वीकार करते हैं ।
इसी प्रकार से किसी भी वैज्ञानिक ने इस पृथ्वी को बनते हुए नहीं देखा, फिर भी अनुमान के आधार पर यह मानते हैं कि हमारी पृथ्वी लगभग इतने वर्ष पुरानी है। किसी भी वैज्ञानिक ने अपने पिता की सातवीं पीढ़ी के व्यक्ति को नहीं देखा तो भी क्या कोई वैज्ञानिक अपने पिता की सातवीं पीढ़ी की सत्ता से इन्कार कर सकता है ? ये सब अनुमान प्रमाण के उदाहरण हैं।
प्रत्येक विज्ञान का विद्यार्थी न्यूटन, आईन्स्टीन आदि बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के बनाये हुए गुरुत्वाकर्षण और गति आदि के नियमों को, बिना स्वयं परीक्षण किये केवल मात्र पुस्तक से पढ़कर यथावत् स्वीकार करता है। इसी प्रकार से जिन-जिन वैज्ञानिकों ने सूर्य के आकार, परिधि, तापमान, भार आदि के सम्बन्ध में जो-जो विवरण दिये हैं तथा आकाशगंगा (Galaxy) के तारों, उनकी परस्पर दूरी, गति आदि के विषय में जो बातें लिखी हैं, उनको विज्ञान के विद्यार्थी सत्य स्वीकार करते हैं। ऐसे ही इलैक्ट्रान, प्रोटोन और न्यूटॉन को सभी विद्यार्थी सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से स्वयं नहीं देखते, फिर भी वैज्ञानिकों के कथन को सत्य मानते हैं। ये सब शब्द प्रमाण को स्वीकार करने
के उदाहरण हैं।
जैसे विज्ञान क्षेत्र में वस्तुएँ तीनों प्रमाणों से सिद्ध होती हैं, और मानी जाती हैं, वैसे ही ईश्वर भी तीनों प्रमाणों से सिद्ध होता है, अतः उनको मानना चाहिए। परन्तु ईश्वर का प्रत्यक्ष नेत्रादि इन्द्रियों से नहीं होता, बल्कि मनादि अन्तःकरण से होता है। ईश्वर की सिद्धि तीनों प्रमाणों से होती है, इसे निम्न प्रकार से समझना चाहिए
ईश्वर की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है, एक बाह्य, दूसरा आन्तरिक । नेत्रादि इन्द्रियों से रूपादि विषय वाली वस्तुओं का जो प्रत्यक्ष होता है, वह बाह्य प्रत्यक्ष कहलाता है; और मन-बुद्धि आदि अन्त:करण से सुख-दुःख, राग-द्वेष, भूख-प्यास आदि का जो प्रत्यक्ष होता है, वह आन्तरिक प्रत्यक्ष कहलाता है।
जैसे रूपादि विषय वाली वस्तु को देखने के लिए नेत्रादि इन्द्रियों का स्वस्थ स्वच्छ तथा कार्यकारी होना आवश्यक है, वैसे ही आत्मा परमात्मा को प्रत्यक्ष करने के लिए मन-बुद्धि आदि अन्तःकरण का भी स्वस्थ तथा पवित्र होना अनिवार्य है। जैसे आँख में धूल गिर जाने पर या सूजन हो जाने पर या मोतियाबिन्द हो जाने पर वस्तु दिखाई नहीं देती, वैसे ही राग-द्वेषादि के कारण मन आदि अन्तःकरण के अपवित्र या रजोगुण के कारण चंचल हो जाने पर आत्मा परमात्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। जैसे सुख-दुःखादि विषयों का प्रत्यक्ष नेत्रादि बाह्य इन्द्रियों से नहीं होता, केवल रूप-रसादि विषयों का ही होता है, वैसे ही आत्मा परमात्मा, मन-बुद्धि आदि सूक्ष्म विषयों का प्रत्यक्ष भी नेत्रादि इन्द्रियों से नहीं होता, मन आदि अन्तःकरण से होता है, यह ईश्वर के प्रत्यक्ष करने की पद्धति है ।
ईश्वर की सिद्धि अनुमान प्रमाण से : इसी प्रकार अनुमान प्रमाण से भी ईश्वर की सिद्धि होती है। कोई भी वस्तु यथा मकान, रेल, घड़ी आदि बिना बनाने वाले के नहीं बनती, चाहे हमने मकान, रेल, घड़ी आदि के बनाने वाले को अपनी आँखों से न भी देखा हो, तो भी उसके बनाने वाले की सत्ता को मानते हैं। ठीक इसी प्रकार से वैज्ञानिक लोग इन पृथ्वी, सूर्यादि की उत्पत्ति करोड़ों वर्ष पुरानी मानते हैं। इससे भी सिद्ध है कि बनाने वाला भी कोई न कोई अवश्य ही है। क्योंकि ये पृथ्वी, सूर्यादि जड़ पदार्थ अपने आप बन नहीं सकते, जैसे कि रेल आदि अपने आप नहीं बन सकते । और न सूर्यादि को मनुष्य लोग बना सकते हैं, क्योंकि मनुष्यों में इतना सामर्थ्य और ज्ञान नहीं है। इसलिए जो इन्हें बनाता है, वही ईश्वर है ।
ईश्वर की सिद्धि शब्द प्रमाण से जिन साधकों (ऋषियों) ने यम नियमादि योग के आठ अङ्गों का अनुष्ठान करके मन आदि अन्तःकरण को एकाग्र व पवित्र बनाया, वे कहते हैं कि समाधि में आत्मा परमात्मा का प्रत्यक्ष होता है। किन्तु यह प्रत्यक्ष नेत्रादि इन्द्रियों से होने वाले बाह्य प्रत्यक्ष के समान रंग रूप वाला न होकर, सुख-दुःखादि के समान आन्तरिक अनुभूति है। ऋषियों का अनुभव यह है, जो हमारे लिए शब्द प्रमाण है
सत्येन लभ्यस्तपसा होष आत्मा सम्प ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् :
अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥
-मुण्डकोपनिषद् ३-१-५
अर्थ – यह भगवान् (ईश्वर) सदा सत्य आचरण से, तप से, यथार्थ ज्ञान से और ब्रह्मचर्य से प्राप्त किया जाता है। वह शरीर के भीतर ही प्रकाशमय (ज्ञानस्वरूप) और शुद्ध (पवित्र) स्वरूप में विद्यमान है। योगी लोग रागद्वेष आदि दोषों को नष्ट करके समाधि में उसे देख (अनुभव कर) लेते हैं ।
जैसे वैज्ञानिकों के विवरण पृथ्वी, सूर्य, आकाश-गंगाओं आदि के संबंध में शब्द प्रमाण के रूप में स्वीकार किये जाते हैं, क्योंकि उन्होंने उन विषयों को ठीक-ठीक जाना है। इसी प्रकार से ऋषियों के भी ईश्वर सम्बन्धी विवरण शब्द प्रमाण के रूप में अवश्य ही स्वीकार करने चाहिए, क्योंकि उन्होंने भी समाधि के माध्यम से ईश्वर को ठीक-ठीक जाना है
इसलिए तीनों प्रमाणों से ईश्वर की सत्ता सिद्ध है। नास्तिक लोग उपर्युक्त तीनों प्रमाणों पर विशेष ध्यान दें और शुद्ध अन्तःकरण से आत्मा के द्वारा ईश्वर के आन्तरिक प्रत्यक्ष को स्वीकार करें, यही न्याय की बात है। अन्यथा आँख से न दीखने वाली वायु, शब्द, गन्ध, सुख-दु:ख, मन-बुद्धि, भूख-प्यास, दर्द आदि को और पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravitational Force), विद्युत तरंगों (Electro-Magnatic Waves), अल्फा (Alpha), बीटा (Beta), गामा (Gamma), और एक्स किरणों (X-Rays) को भी मानना छोड़ दें। यदि इनको मानना नहीं छोड़ते हैं तो ईश्वर की सत्ता को भी स्वीकार करें ।
१. प्रतिज्ञा-ईश्वर नहीं है।
२. हेतु-संसार के अपने आप बन जाने से। ३. उदाहरण-जैसे जंगल के वृक्ष-वनस्पति आदि ।
४. उपनय-जंगली वृक्षों के समान ही संसार अपने आप
बन जाता है। ५. निगमन – इसलिए संसार के अपने आप बन जाने से (इसका
कर्ता) ईश्वर नहीं है। व्याख्या: आप आस्तिक लोग ईश्वर के होने में यह अनुमान करते हैं कि-संसार एक बनायी हुई चीज है, यह बिना किसी के बनाये बन नहीं सकती, इसलिए जो इसका बनाने वाला है, वही ईश्वर है। आपकी इस बात में कोई बल नहीं है, क्योंकि हम स्पष्ट ही देखते हैं कि प्रतिवर्ष हजारों लाखों की संख्या में जंगलों में वृक्ष-वनस्पति-औषधि-लताएँ-कन्द-मूल-फलादि अपने आप उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, और नष्ट हो जाते हैं। इनका कोई कर्त्ता दिखाई नहीं देता, वैसे ही संसार के पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, आदि पदार्थ अपने आप बनते हैं, चलते हैं और नष्ट हो जाते हैं। इनको बनाने, चलाने के लिए किसी कर्त्ता की आवश्यकता नहीं है। इसलिए आपका काल्पनिक ईश्वर असिद्ध है।
आस्तिक द्वारा ईश्वर की सत्ता का मण्डन : १. प्रतिज्ञा - ईश्वर (संसार का कर्ता) है।
२. हेतु – पृथ्वी, सूर्यादि कार्य वस्तुएँ बिना कत्ता के अपने आप न बन सकने के कारण ।
३. उदाहरण-घड़ी, टेपरिकॉर्डर, मकान आदि के समान । ४. उपनय-जैसे पड़ी, रिकॉर्डर, भकान आदि कार्य
वस्तुएँ बनायी जाती हैं, वैसे ही पृथ्वी, सू आदि कार्य वस्तुएँ भी बनायी जाती हैं । ५. निगमन– इसलिए पृथ्वी, सूर्य आदि कार्य वस्तुओं के अपने
आप न बन सकने से (इनका कर्त्ता) ईश्वर सिद्ध है । व्याख्या: पहले यह विचारने का विषय है कि क्या कोई कार्य वस्तु अपने आप ही बन जाती है या किसी कर्त्ता के द्वारा बनाने से ही बनती है ? संसार में हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि मकान आदि कार्य वस्तु के लिए मिस्त्री-मजदूर (निमित्त कारण = कर्ता) की आयकता पड़ती है। बिना मिस्त्री मजदूर के मकान कदापि नहीं बन सकता। फिर भला पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र आदि कार्य वस्तुओं के लिए किसी निमित्त कारण कर्त्ता = ईश्वर की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ेगी ? अवश्य ही पड़ेगी। प्रत्येक कार्य के लिए निमित्त कारण कर्त्ता का नियम पाया जाता है।
जैसे पैन, पुस्त- मेज, कुर्सी, पलंग, पंखा, रेडियो, घड़ी, मोटर, रेल, हवाई जहाज आदि वस्तुओं को बनाने वाले कर्ता के रूप में मनुष्य लोग ही होते हैं। क्या ये चीजें बिना बनाने वालों के अपने आप बन सकती है ? कदापि नहीं। "बिना बनाने वाले के कोई वस्तु अपने आप नहीं बन सकती" इसी नियम को प्राचीन महान् वैज्ञानिद महर्षि कणाद ने भी स्वीकार किया है— "कारणाऽभावात् कार्याऽभावः ॥" वैशेषिक दर्शन १-२-१
आपने पृथ्वी आदि कार्य वस्तुओं के अपने आप बन जाने की पुष्टि में जंगल के वृक्षों आदि का जो उदाहरण दिया है, वह ठीक नहीं है। क्योंकि उदाहरण वह होना चाहिए, जो पक्ष और विपक्ष दोनों को समान रूप से स्वीकार हो, जैसा कि न्यायदर्शनकार महर्षि गौतन ने अपने ग्रन्थ 'न्याय दर्शन' (१-१-२५,) में लिखा है "लौकिक-परीक्षकाणां यस्मिनर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः ॥
अर्थ – जिस वस्तु को सामान्य व्यक्ति और विद्वान् व्यक्ति दोनों एक स्वरूप में स्वीकार करते हों, वह दृष्टान्त या उदाहरण कहलाता है । जैसे 'अग्नि जलाती है' इसे सब मानते हैं, आप भी और हम भी ।
हम जंगल के वृक्षों को अपने-आप उत्पन्न हुआ नहीं मानते । उनका भी कोई कर्त्ता है, और वह है सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् ईश्वर । जैसे हमने अपने पक्ष की पुष्टि में जो मकान आदि के उदाहरण दिये हैं, वे आपको भी मान्य हैं, वैसे ही आपको अपने आप बनी हुई वस्तु का ऐसा उदाहरण देना चाहिए, जो हमें भी मान्य हो । हमारी दृष्टि में तो संसार में आपको अपने आप बनी हुई वस्तु का एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा। क्योंकि यह सत्य सिद्धान्त है कि 'अपने आप कोई वस्तु बन ही नहीं सकती।' जब बन ही नहीं सकती, तो उदाहण भी नहीं मिलेगा। जब उदाहरण ही नहीं मिलेगा, तो आपके पक्ष की सिद्धि कैसे होगी ? क्योंकि बिना उदाहरण के तो कोई पक्ष सिद्ध हो नहीं सकता। इसलिए उदाहरण के अभाव में आपका पक्ष सिद्ध नहीं होता ।
जो आपने सूर्यादि पदार्थों केबिना किसी कर्त्ता के अपने आप बन जाने की बात कही है, इस पर गंभीरता से विचार करें। यह तो आप भी मानते हैं कि ये पृथ्वी आदि पदार्थ जड़ हैं और प्रति के छोटे-छोटे परमाणुओं के परस्पर मिलने से बने हैं। ये सब णु भी जड़ हैं, इनमें ज्ञान या चेतना तो है नहीं, फिर ये स्वयं स में मिलकर पृथ्वी आदि के रूप में कैसे बन सकते हैं ? इस सन्ध में चार पक्ष हो सकते हैं
(१) यदि आप कहो कि इन सब परमाणुओं में परस्पर मिलकर पृथ्वी आदि के रूप में बन जाने का स्वभाव है; तो एक बार मिलकर ये परमाणु पृथ्वी आदि पदार्थों का रूप धारण तो कर लेंगे, परन्तु अलग कभी नहीं होंगे अर्थात् प्रलय नहीं होगी ।
क्योंकि एक जड़ वस्तु में एक कार विरुद्ध धर्म (मिलना और अलग-अलग होना) स्वाभाविक नहीं हो सकते ।
(२) यदि कहो कि इन सब परमाणुओं में अलग-अलग रहने का स्वभाव है, तो फिर ये परस्पर मिलकर पृथ्वी आदि का रूप धारण कर ही नहीं सकेंगे, क्योंकि कोई भी वस्तु अपने स्वभाव से विरुद्ध कार्य नहीं कर सकती। ऐसी स्थिति में संसार कैसे बनेगा ?
(३) यदि कहो कि कुछ परमाणुओं में मिलने का स्वभाव है और कुछ में अलग-अलग रहने का, तो ऐसी अवस्था में, यदि मिलने वाले परमाणुओं की अधिकता हेगी, तब संसार बन तो जायेगा परन्तु नष्ट नहीं होगा । यदि अलग-अलग रहने वाले परमाणुओं की अधिकता होगी तो संसार बनेगा ही नहीं, क्योंकि जो परमाणु अधिक होंगे, उनकी शक्ति अधिक होगी और वे अपना कार्य सिद्ध कर लेंगे ।
(४) यदि कहो कि मिलने व अलग-अलग रहने वाले दोनों प्रकार के परमाणु आधे-आधे होंगे, तो ऐसी अवस्था में भी संसार बन नहीं पायेगा। क्योंकि दोनों प्रकार के परमाणुओं में सतत संघर्ष ही चलता रहेगा ।
इन चारों में से कोई भी पक्ष संसार के पदार्थों बनने और बिगड़ने की सिद्धि नहीं कर सकता, जो कि संसार में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उपलब्ध है। यदि आप कहो कि स्वचालित यन्त्र (Automatic Machine) के समान प्रकृति के परमाणुओं का अपने आप संसार रूप में बनना व बिगड़ना चलता रहता है, तो आपका यह दृष्टान्त भी ठीक नहीं, क्योंकि स्वचालित यन्त्र को भी तो स्वचालित बनाने वाला कोई चेतन कर्त्ता होता ही है । अतः 'बिना कर्ता के कोई कार्य वस्तु नहीं बनती' यह सिद्धान्त अनेक उदाहरणों से, अच्छी से हमने सिद्ध कर दिया है। १४
अब आप महान् भौतिक वैज्ञानिक महाशय न्यूटन के अभिप्रेरणा नियम (Law of Motion) के साथ भी अपनी 'स्वभाव से संसार बन जाने की बात मिलाकर देख लीजिये। नियम यह
है कि (A body in a state of rest or of motion will continue in its state of rest or of motion untill an external force is applied.)
अर्थात् –'कोई भी स्थिर पदार्थ तब तक अपनी स्थिर अवस्था
में ही रहेगा जब तक किसी बाह्यबल से उसे गति न दी जाये, और कोई भी गतिशील पदार्थ तबतक अपनी गतिशील अवस्था में ही रहेगा जबतक किसी बाह्यबल से उसे रोका न जाये ।'
अब प्रश्न यह है कि संसार के बनने से पूर्व परमाणु यदि स्थिति की अवस्था में थे, तो गति किसने दी ? यदि सीधी गति की अवस्था में थे, तो गति में परिवर्तन किसने किया कि जिसके कारण ये परमाणु संयुक्त होकर पृथ्वी आदि पदार्थों के रूप में परिणत हो गये । 'स्थिर वस्तु को गति देना और गतिशील वस्तु की दिशा बदलना' ये दोनों कार्य बिना चेतन कर्ता के हो ही नहीं सकते । महाशय न्यूटन ने अपने नियम में इस 'कर्ता' को 'बाह्य बल' (External Force) के नाम से स्वीकार किया है। =
संसार की घटनाओं का गंभीरता से अध्ययन करने पर पता चलता है कि– संसार की विशालता, विविधता, नियमबद्धता, परस्पर ऐक्यभाव, सूक्ष्म रचना कौशल, निरन्तर संयोग-वियोग, प्रयोजन की सिद्धि आदि-इन चेतना-रहित (जड़) परमाणुओं का कार्य कदापि नहीं हो सकता, इन सब के पीछे किसी सर्वोच्च बुद्धिमान, सर्वव्यापक, अत्यन्तशक्तिशाली, चेतन कर्त्ता शक्ति का ही हाथ सुनिश्चित है, उसी को हम 'ईश्वर' नाम से कहते हैं ।
हम आप स्वभाववादियों (Naturaliste) इसे पूछते हैं कि प्रकृति खेत में गेहूँ, चना, चावल तक बनकर ही
क्यों रुक गयी ! गेहूँ से आटा, फिर आटे से रोटी तक बन कर हमारी थाली में क्यों नहीं आयी ! गाय-भैंस के पेट में दूध तक ही क्यों सीमित रही; दूध से खोया, फिर खोये से बर्फी तक क्यों नहीं बनी ! कपास तक ही प्रकृति सीमित क्यों रही, उसकी रुई, फिर सूत, वस्त्र और वस्त्र से हमारी कमीज-पतलून (Shirt-Pant) तक क्यों नहीं बनी ! आपके पास इसका क्या समाधान है ?
हमारे पक्ष के अनुसार इसका समाधान यह है कि कार्य वस्तुओं के बनाने वाले कर्त्ता दो हैं—एक ईश्वर और दूसरा जीव ( मनुष्यादि प्राणी) इनका कार्य विभाजन इस प्रकार से हैं कि प्रकृति के परमाणुओं से पाँच भूतों* को बनाना और फिर इन भूतों से वृक्ष, वनस्पति आदि को बनाना, यहाँ तक का कार्य ईश्वर का है, इससे आगे का कार्य मनुष्यों का है। जैसे कि नदी बनाने का कार्य ईश्वर का है, नदी से नहरें निकालने का कार्य मनुष्यों का मिट्टी बनाने का कार्य ईश्वर का है, मिट्टी से ईंट बनाकर मकान बनाने का कार्य मनुष्यों का है। पेड़ बनाने का कार्य ईश्वर का है और पेड़ से लकड़ी काटकर मेज-कुर्सी, खिड़की-दरवाजे बनाने का कार्य मनुष्यों का है । इसी प्रकार से गेहूँ, चना, कपास आदि बनाना ईश्वर का कार्य है, परन्तु रोटी, कपड़ा आदि बनाना मनुष्यों का कार्य है। कार्य कोई भी हो, हर जगह, हर कार्य में 'कर्त्ता' का होना आवश्यक है।
इसलिए "संसार अपने आप बन गया, इसका कर्ता कोई नहीं है" यह पक्ष किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होता। तर्क और प्रमाण से यही सिद्ध होता है कि "प्रत्येक कार्य वस्तु के पीछे कोई न कोई चेतन कर्ता अवश्य ही होता है, संसार में कोई भी वस्तु अपने आप नहीं बनती ।" इसी नियम के आधार पर संसार का भी कर्त्ता होने से ईश्वर है ।'
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* पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ।
संवाद - ३
१. प्रतिज्ञा-श्वर नहीं है।
२. हेतु- संसार बना बनाया होने से ।
३. उदाहरण- पृथ्वी के समान ।
४. उपनय-जैसे पृथ्वी बनी बनाई है, इसको बनते हुए किसी
ने नहीं देखा, वैसा ही यह सम्पूर्ण संसार है
५. निगमन- इसलिए संसार बना बनाया होने से ईश्वर नहीं है । व्याख्या: यह दिखाई देने वाला संसार न तो किसी ने बनाया है, और न ही यह अपने आप बना है; न तो इसको कोई नष्ट करेगा, और न ही कभी यह अपने आप नष्ट होगा। यह अनादिकाल से ऐसे ही बना बनाया चला आ रहा है और अनन्त काल तक ऐसे ही चलता रहेगा। इस संसार के बनाने वाले किसी कर्त्ता को, किसी ने कभी नहीं देखा । यदि देखा होता तो मान भी लेते कि हाँ, इसका कर्त्ता कोई ईश्वर है। इसलिए कर्त्ता न दिखाई देने से यही बात ठीक लगती है कि यह संसार बिना कर्ता के अनादिकाल से ऐसे ही बना बनाया चला आ रहा है और आगे भी अनन्तकाल तक चलता रहेगा ।
आस्तिक द्वारा ईश्वर की सत्ता में किया गया मण्डन:
१. प्रतिज्ञा– ईश्वर है।
२. हेतु — संसार का कर्त्ता होने से ।
३. उदाहरण-बढ़ई के समान ।
४. उपनय-जैसे बढ़ई मेज-कुर्सी का कर्त्ता होता है, वैसे ही ईश्वर
संसार का कर्ता है।
५. निगमन – इसलिए संसार का कर्त्ता होने से ईश्वर है। व्याख्या: प्रत्येक वस्तु के कर्त्ता का निर्णय केवल प्रत्यक्ष
देखकर ही नहीं होता, बल्कि अनुमानादि प्रमाणों से भी कर्त्ता का निर्णय होता है। बाज़ार से हम प्रतिदिन ऐसी अनेक वस्तुएँ लाते हैं, जिनको कारखानों, फैक्ट्रियों, आदि में बनाया जाता है। इन वस्तुओं को बनाते हुए, कारीगरों को हम नहीं देख पाते हैं, तो क्या हम उन सबको बनी बनाई मान लेते हैं ? जैसे कि पैन, घड़ी, रेडियो, टेपरिकॉर्डर, टेलीविज़न, कार आदि। कोई भी बुद्धिमान् इन वस्तुओं को बनी बनाई नहीं मानता है। ऐसी अवस्था में पृथ्वी आदि विशाल ग्रह- उपग्रहों को बनाते हुए यदि हमने नहीं देखा तो यह कैसे मान लिया जाय कि 'ये बने बनाये ही हैं। जैसे पैन, घड़ी, रेडियो, कार आदि को बनाने वाले कारीगर, कारखानों में इनकों बनाते हैं, वैसे ही पृथ्वी आदि पदार्थों को भी कोई न कोई अवश्य ही बनाता है। जो बनाता है, वही ईश्वर है।
किसी भी व्यक्ति ने अपने शरीर को बनते हुए नहीं देखा तो क्या यह मान लिया जाये कि 'हम सब का शरीर सदा से बना बनाया है-यह कभी नहीं बना !' ऐसा तो मानते हुए नहीं बनता । क्योंकि हम प्रतिदिन ही दूसरों के शरीरों को जन्म लेता हुआ देखते हैं, और ऐसा अनुमान करते हैं कि जन्म से ९ १० मास पहले यह शरीर नहीं था। इस काल में इस शरीर का निर्माण हुआ है । जबकि हमने शरीर को बनते हुए नहीं देखा, फिर भी इसको बना हुआ मानते हैं। ठीक इसी प्रकार से पृथ्वी आदि पदार्थों को भी यदि बनते हुए न देख पायें, तो इतने मात्र से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि पृथ्वी आदि संसार के पदार्थ सदा से बने-बनाये हैं। जैसे हमने अपने शरीरों को बनते हुए नहीं देखा, फिर भी इन्हें बना हुआ मानते हैं, ऐसे ही पृथ्वी आदि पदार्थ भी हमने बनते हुए नहीं देखे, परन्तु ये भी बने हैं, ऐसा ही मानना चाहिए ।
'पृथ्वी बनी है' इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं। जो भी वस्तु टूट कभी न कभी अवश्य ही बनी थी, यह सिद्धान्त । जैसे गिलास के किनारे पर एक हल्की चोट मारने से गिलास का एक किनारा टूट जाता है और यदि गिलास पर बहुत जोर से चोट मारी जाये, तो पूरा गिलास चूर चूर हो जाता है। वैसे ही पृथ्वी के एक भाग पर फावड़े कुदाल से चोट मारने पर इसके टुकड़े अलग जाते हैं, तीव्र विस्फोटकों = (Dynamite) आदि साधनों के द्वारा जोर से चोट करने पर बड़े-बड़े पहाड़ आदि भी टूट जाते हैं। इसी प्रकार अणु-परमाणु बमों आदि से बहुत जोर से चोट मारी जाये, तो पूरी पृथ्वी भी टूट सकती है। इससे सिद्ध हुआ कि गिलास जैसे टूटा था— तब जबकि वह बना था; इसी प्रकार से पृथ्वी भी यदि टूट जाती है, तो वह भी अवश्य ही बनी थी। और इसको बनाने वाला ईश्वर ही है। इसी बात को हम पंच-अवयवों के माध्यम से निम्न प्रकार से समझ सकते हैं ।
१. प्रतिज्ञा–पृथ्वी आदि बड़े-बड़े ग्रह उत्पन्न हुए हैं। २. हेतु-तोड़ने पर टूट जाने से, जो वस्तु टूटती है वह बनी अवश्य
थी।
३. उदाहरण गिलास के समान ।
४. उपनय - जैसे गिलास टूटता है, वह बना था; वैसे ही पृथ्वी भी टूटती है, वह भी बनी थी ।
५. निगमन–क्योंकि पृथ्वी आदि ग्रह तोड़ने से टूट जाते हैं, इसलिए
वे बने हैं
विज्ञान का यह सिद्धान्त है कि संसार का सूक्ष्मतम भाग परमाणु ही केवल ऐसा तत्त्व है, जिसको न तो उत्पन्न किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है- A matter can-niether be produced and nor can be destroyed, इस सिद्धान्त के आधार पर परमाणु से स्थूल संसार के जितने भी पदार्थ हैं, वे छोटे-छोटे परमाणुओं से मिलकर बने हैं। और क्योंकि वे मिलकर बने हैं, इसीलिए नष्ट भी हो जाते हैं। इस सिद्ध होता है कि पृथ्वी भी छोटे-छोटे परमाणुओं से मिलकर बनी हैं, यह सदा से बनी बनाई नहीं है। और जब पृथ्वी बनी है, इसका बनाने वाला भी कोई न कोई अवश्य है। “कोई वस्तु अपने आप नहीं बनती" यह बात हम पिछले प्रकरण में (द्वितीय प्रश्न के उत्तर में) सिद्ध कर चुके हैं। इसलिए पृथ्वी आदि संसार के सभी पदार्थों को बनाने वाला ईश्वर ही है, भले ही हमने ईश्वर को पृथ्वी आदि पदार्थ बनाते हुए न भी देखा हो ।
पृथ्वी की उम्र के सम्बन्ध में भी विज्ञान का मत देखिये – विज्ञान के मतानुसार पृथ्वी की उम्र लगभग ४ अरब ६० करोड़ वर्ष बतायी गयी है। यह परिणाम पुरानी चट्टानों में विद्यमान यूरेनियम आदि पदार्थों के परीक्षण के पश्चात् निकाला गया है।
According to their deductions, based on the study of rocks, the age of the Earth is estimated to be around 4600 million years. - MANORAMA. A Handy Encyclopaedia (year book 1983). Page- 105, Sicence and Technology Section. अनेक प्रकार के छोटे-बड़े उल्का पिण्ड आकाश में टूटते रहते
हैं । इन उल्का पिण्डों के खण्ड, जो पृथ्वी पर आकर गिरे हैं, भारतीय व विदेशी संग्रहालयों में देखे जा सकते हैं। ये उल्का पिण्ड पृथ्वी के समान ही सौर मण्डल के सदस्य हैं, और सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं। जब ये उल्का पिण्ड सौर मण्डल के सदस्य होते हुए टूट जाते हैं, तो पृथ्वी भी सौर मण्डल का सदस्य होते हुए क्यों न टूटेगी ? इससे भी यह सिद्ध होता है कि यह संसार सदा से बना बनाया नहीं है, बल्कि टूटता है और बनता है। इस समस्त संसार का बनाने और बिगाड़ने वाला सर्वशक्तिमान् = (omnipotent), सर्वव्यापक (C-ninipresent), सर्वज्ञ = (Omniscient) ईश्वर ही है ।
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