ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिःदेवता - अग्निर्देवताछन्दः - आर्ची त्रिष्टुप्स्वरः - धैवतः
অগ্নে ব্রতপতি ব্রতং চরিষ্যামি তচ্ছকেয়ং তন্মে রাধ্যতাম্৷
ইদমহমনৃতাৎ সত্যমুপৈমি||-(যর্জুবেদ - ১/৫)
अग्ने॑ व्रतपते व्र॒तं च॑रिष्यामि॒ तच्छ॑केयं॒ तन्मे॑ राध्यताम्।इ॒दम॒हमनृ॑तात् स॒त्यमुपै॑मि॥
पदार्थ -
हे (व्रतपते) सत्यभाषण आदि धर्मों के पालन करने और (अग्ने) सत्य उपदेश करने वाले परमेश्वर! मैं (अनृतात्) जो झूंठ से अलग (सत्यम्) वेदविद्या, प्रत्यक्ष आदि प्रमाण, सृष्टिक्रम, विद्वानों का संग, श्रेष्ठ विचार तथा आत्मा की शुद्धि आदि प्रकारों से जो निर्भ्रम, सर्वहित, तत्त्व अर्थात् सिद्धान्त के प्रकाश करनेहारों से सिद्ध हुआ, अच्छी प्रकार परीक्षा किया गया (व्रतम्) सत्य बोलना, सत्य मानना और सत्य करना है, उसका (उपैमि) अनुष्ठान अर्थात् नियम से ग्रहण करने वा जानने और उसकी प्राप्ति की इच्छा करता हूं। (मे) मेरे (तत्) उस सत्यव्रत को आप (राध्यताम्) अच्छी प्रकार सिद्ध कीजिये जिससे कि (अहम्) मैं उक्त सत्यव्रत के नियम करने को (शकेयम्) समर्थ होऊं और मैं (इदम्) इसी प्रत्यक्ष सत्यव्रत के आचरण का नियम (चरिष्यामि) करूंगा॥
भावार्थ - परमेश्वर ने सब मनुष्यों को नियम से सेवन करने योग्य धर्म का उपदेश किया है, जो कि न्याययुक्त, परीक्षा किया हुआ, सत्य लक्षणों से प्रसिद्ध और सब का हितकारी तथा इस लोक अर्थात् संसारी और परलोक अर्थात् मोक्ष सुख का हेतु है, यही सब को आचरण करने योग्य है और उससे विरुद्ध जो कि अधर्म कहाता है, वह किसी को ग्रहण करने योग्य कभी नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वत्र उसी का त्याग करना है। इसी प्रकार हमको भी प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि हे परमेश्वर! हम लोग वेदों में आप के प्रकाशित किये सत्यधर्म का ही ग्रहण करें तथा हे परमात्मन्! आप हम पर ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग उक्त सत्यधर्म का पालन कर के अर्थ, काम और मोक्षरूप फलों को सुगमता से प्राप्त हो सकें। जैसे सत्यव्रत के पालने से आप व्रतपति हैं, वैसे ही हम लोग भी आप की कृपा और अपने पुरुषार्थ से यथाशक्ति सत्यव्रत के पालनेवाले हों तथा धर्म करने की इच्छा से अपने सत्कर्म के द्वारा सब सुखों को प्राप्त होकर सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले हों, ऐसी इच्छा सब मनुष्यों को करनी चाहिये॥
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