देवता: मित्रादयो लिङ्गोक्ताः ऋषि: दीर्घतमा औचथ्यः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
यदूव॑ध्यमु॒दर॑स्याप॒वाति॒ य आ॒मस्य॑ क्र॒विषो॑ ग॒न्धो अस्ति॑।
सु॒कृ॒ता तच्छ॑मि॒तार॑: कृण्वन्तू॒त मेधं॑ शृत॒पाकं॑ पचन्तु ॥-१.१६२.१० ऋग्वेद
पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वानो ! (शमितारः) प्राप्त हुए अन्न को सिद्ध करने बनानेवाले आप (यः) जो (उदरस्य) उदर में ठहरे हुए (आमस्य) कच्चे (क्रविषः) क्रम से निकलने योग्य अन्न का (गन्धः) गन्ध (अपवाति) अपान वायु के द्वारा जाता निकलता है वा (यत्) जो (ऊवध्यम्) ताड़ने के योग्य (अस्ति) है तत् उसको (कृण्वन्तु) काटो (उत) और (मेधम्) प्राप्त हुए (शृतपाकम्) परिपक्व पदार्थ को (पचन्तु) पकाओ, ऐसे उसे सिद्ध कर (सुकृता) सुन्दरता से बनाये हुए पदार्थों को खाओ ॥
अन्वय:
हे विद्वांसः शमितारो भवन्तो य उदरस्योदरस्थस्यामस्य क्रविषो गन्धोऽपवाति यदूवध्यमस्ति वा तत्तानि कृण्वन्तु। उतापि मेधं शृतपाकं पचन्त्वेवं विधाय सुकृता भुञ्जताम् ॥
भावार्थभाषाः -जो मनुष्य उदररोग निवारने के लिये अच्छे बनाये अन्न और ओषधियों को खाते हैं, वे सुखी होते हैं ॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती
[যে সমস্ত মনুষ্য উদররোগ নিবারনের জন্য উত্তম অন্ন ও ঔষধাদি সেবন করে তাঁরা সুখি হয়]
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