देवता: मित्रादयो लिङ्गोक्ताः ऋषि: दीर्घतमा औचथ्यः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
यदश्व॑स्य क्र॒विषो॒ मक्षि॒काश॒ यद्वा॒ स्वरौ॒ स्वधि॑तौ रि॒प्तमस्ति॑।
यद्धस्त॑योः शमि॒तुर्यन्न॒खेषु॒ सर्वा॒ ता ते॒ अपि॑ दे॒वेष्व॑स्तु ॥-१.१६२.९ ऋग्वेद
पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् ! (क्रविषः) क्रमणशील अर्थात् चाल से पैर रखनेवाले (अश्वस्य) घोड़ा का (यत्) जिस (रिप्तम्) लिये हुए मल को (मक्षिका) शब्द करती अर्थात् भिनभिनाती हुई माखी (आश) खाती है (वा) अथवा (यत्) जो (स्वधितौ) आप धारण किये हुए (स्वरौ) हींसना और कष्ट से चिल्लाना है (शमितुः) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाले के (हस्तयोः) हाथों में (यत्) जो है और (यत्) जो (नखेषु) जिनमें आकाश नहीं विद्यमान है उन नखों में (अस्ति) है (ता) वे (सर्वा) समस्त पदार्थ (ते) तुम्हारे हों तथा यह सब (देवेषु) विद्वानों में (अपि) भी (अस्तु) हो ॥
भावार्थभाषाः -भृत्यों को घोड़े दुर्गन्ध लेप रहित शुद्ध, माखी और डाँश से रहित रखने चाहिये, अपने हाथ तथा रज्जु आदि से उत्तम नियम कर अपने इच्छानुकूल चाल चलवाना चाहिये, ऐसे करने से घोड़े उत्तम काम करते हैं ॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती
ঘোড়াকে শুদ্ধ রাখতে হবে, দুর্গন্ধমুক্ত রাখতে হবে, মাছি ও হুল থেকে মুক্ত রাখতে হবে, হাত-দড়ি ইত্যাদি দিয়ে ভালো নিয়ম করে তাদের ইচ্ছানুযায়ী চলাফেরা করতে হবে, এইভাবে ঘোড়া ভালো কাজ করে।
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