पौराणिक पोप पर वैदिक तोप - ধর্ম্মতত্ত্ব

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10 January, 2022

पौराणिक पोप पर वैदिक तोप

 ओ३म्


पौराणिक पोप पर वैदिक तोप अर्थात्स सनातनधर्म की मौत

लेखक पुराणाचार्य, शास्त्रार्थ महारथः पं० मनसारामजी शास्त्री-'वैदिक तोप'

धन्यवाद


धन्यवाद पण्डित मनसारामजी नूँ, पुस्तक महनताँ नाल बनाया जिसने । अक्षर-अक्षर बारूद दा कम्म देवे, गोला युक्ति प्रमाण दा पाया जिसने ॥ बत्ती कथा-पुराणाँ दी लाये ऐसी, बनके तोपची गोला दबाया जिसने पापी पोप दा क़िला पाखण्डरूपी, वैदिक तोप दे नाल उड़ाया जिसने ॥

[पण्डित मनसारामजी को धन्यवाद कि जिसने मेहनत से यह पुस्तक बनाया, इसका अक्षर-अक्षर बारूद का काम देता है, जिसने युक्ति प्रमाणों का गोला डाला है, पुराणों की कथाओं की ऐसी बत्ती (आग) लगाई, जिसने तोपजी बनके गोला दागा, पापी पोप के पाखण्ड-किले को, जिसने वैदिक तोप से उड़ाके रख दिया !]

यह बहुमूल्य ग्रन्थ जो पाठकों के हाथों में है, पं० मनसारामजी आर्योपदेशक ने 'सनातनधर्म-विजय' नामक ट्रैक्ट के उत्तर में प्रकाशित किया है, जिसे दर्जनों सनातनी पण्डितों ने मिलकर, बहुत ही परिश्रम करके 'शास्त्रार्थ जाखल' में हुई पराजय की लज्जा को दूर करने के लिए प्रकाशित किया था। पण्डितजी ने अत्यन्त परिश्रम और योग्यता से अपने विस्तृत स्वाध्याय के बल पर २५० पृष्ठ की पुस्तक का उत्तर उससे दुगुने आकार और पाँच गुणी मोटाई में समय में लिख दिया। इसमें आर्यसमाज पर किये गये बहुत से प्रश्नों का तर्कपूर्ण उत्तर अत्यन्त सुन्दरता से दिया गया है। यद्यपि पण्डितजी को प्रचारकार्य के कारण एक स्थान पर बैठने का अवसर नहीं मिला और वे सभा के पुरोगमानुसार दिन रात भारतवर्ष में इधर-उधर घूमते रहे और पुस्तकों का मनों [साढ़े सेंतीस किलो] बोझ अपने साथ-साथ उठाये फिरते रहे। इसी अन्तराल में उनकी पत्नी धनलक्ष्मी देवी का देहान्त हो गया, जो अत्यन्त सुशील, लग्र और उत्साह से धार्मिक कामों में भाग लेती थीं। इन सब कठिनाइयों की ओर ध्यान न देते हुए पण्डितजी ने कुछ ही मास में पुस्तक को पूर्ण कर दिया।

यह पुस्तक पौराणिक गाथाओं की जानकारी प्राप्त कराने का सर्वश्रेष्ठ संग्रह है। आशा है कि यह आर्यसमाज के उर्दू साहित्य में [ अब हिन्दी साहित्य में] एक बहुमूल्य वृद्धि समझी जाएगी। मैं पण्डितजी महाराज के परिश्रम की प्रशंसा करता हूँ और लाला देवपालजी गुप्त 'टोहानवी' को बधाई देता हूँ, जिन्होंने प्रचुर धन व्यय करके इस पुस्तक को प्रकाशित कराया। मैं आर्यजनता से प्रार्थना करता हूँ कि प्रत्येक आर्यसमाजी इस पुस्तक का स्वाध्याय करके अपनी योग्यता में वृद्धि करे।


निवेदक

गीताराम वीर

मन्त्री

अछूतोद्धार मण्डल, अमृतसर

पौराणिक पोप पर वैदिक तोप

प्रस्तुत ग्रन्थ पौराणिक पोप पर वैदिक तोप उर्दू में था। यह ग्रन्थ सन् 1933 में छपा था। इसका अनुवाद स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी द्वारा किया गया। इस ग्रन्थ में उन्होने सभी मूल प्रमाणों को मिलाकर शुद्ध किया तथा स्थान – स्थान पर अनेकों टिप्पणियाँ देकर ग्रन्थ के गौरव को बढ़ाया। इस पुस्तक में पंडित मनसाराम जी का जिज्ञासु जी द्वारा लिखित जीवन चरित भी सम्मलित है। 

पाठकगण इस पुस्तक को पढ़े, इसपर मनन और चिन्तन करें। यह ग्रन्थ पाठकों के मन और मस्तिष्क को ज्ञान – ज्योति से आपूर कर देगा। इसके अध्ययन से उन्हें वैदिक सिद्धान्तों की महत्ता और सार्वभौमिकता का ज्ञान होगा, एवं सत्य – असत्य ग्रन्थों में भेद का पता चलेगा।

दो शब्द


आसमान का प्रारगिशा का युग था। महर्षि दयानन्द सरस्वती स्वयं बहुत बड़े तार्किक और शास्त्रार्थ महारथ: थे। उन्होंने अपने जीवन में सैकड़ों शास्त्रार्थ किये और स्वामी विशुद्धानन्दजी पं० बालशास्त्री और हलभर ओझा-जैसे कितने ही विद्वानों को गिराकर मिट्टी सँचा दी।


महर्षि दयानन्द सरस्वती के पश्चात् तो आर्यसमाज में शास्त्रार्थ महारथियों की बा लेखरामजी आर्यमुसाफिर, महात्मा मुंशीरामजी (स्वामी श्रद्धानन्दजी), स्वामी दर्शनानन्दजी सरस्वती, पं० जे० पी० चौधरी, स्वामी विवेकानन्दजी, पं० मुरारीलालजी (सिकन्दराबाद), पं० तुलसीरामजी स्वामी, पं० सुनलालजी स्वामी, पं० बुद्धदेवजी विद्यालंकार, पं० बुद्धदेवजो मौरपुरी, श्री अमर स्वामीजी (ठाकुर अमरसिंहजी), पं० लोकनाथजी तर्कवाचस्पति, पं० सुरेन्द्र शर्माजी 'गौर', पं० रामचन्द्रजी 'देहलवी', पं० शान्तिप्रकाशजी, पं० ओम्प्रकाशजी शास्त्री०बहारीलालजी शास्त्री (बरेली), पं० मुरारीलालजी (हिसार), पं० स्ट्रदत्तजी शास्त्री (देहरादून), पं० सत्यमित्रजी शास्त्री (बड़हलगंज, गोरखपुर), पर रामदयालुजी शास्त्री (अलीगढ़), पं० धर्मभिक्षुजी (लखनऊ), पं० व्यासदेवजी शास्त्री (दिल्ली) और कितने हो शास्त्रार्थ महारथ: आर्यसमाज में में हुए पं० मनसारामजी 'वैदिक तोप भी अद्भुत तार्किक और शास्त्रार्थ महारथ: थे। एक समय था जब आर्यसमाज के प्रत्येक उत्सव पर शास्त्रार्थ होता था। अब वह युग समाप्त हो गया। परिणामस्वरूप नये-नये मत और पन्थ पुनः पनपने लगे हैं। हमारी तो प्रबल इच्छा है कि शास्त्रार्थों का युग फिर आये, जिससे संसारवाले सत्य और असल्य को समझकर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कर सकें।


पं० मनसारामजी ने जहाँ सहस्रों व्याख्यान दिये, सैकड़ों शास्त्रार्थ किये, वहाँ अनेक पुस्तकें भी लिखीं। आपके द्वारा लिखी छोटो और बड़ी सभी पुस्तकें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उन सबमें भी दो पुस्तकें विशेष हैं-'पौराणिक पोलप्रकाश' और 'पौराणिक पोप पर वैदिक तोप' 'पौराणिक पोलप्रकाश हमने सन् १९८७ में पुनः प्रकाशित कर दिया था जो शीघ्र ही बिक गया। पौराणिक पोप पर वैदिक तोप' उर्दू में था। यह ग्रन्थ सन् १९३३ में छपा था। हमने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक इसका अनुवाद किया है। सभी प्रमाणों को मूल ग्रन्थों से मिलाया है। जहाँ पते थे, उन्हें शुद्ध कर दिया है। मूल उद्धरणों में जो मुद्रण की अशुद्धियाँ थीं, उन्हें भी शोध दिया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ को उपयोगी बनाने का भरसक प्रयत्न किया है। स्थान-स्थान पर अन्यून सौ टिप्पणियाँ देकर इसकी गरिमा को और बढ़ाया है। इसमें एक-दो टिप्पणियों को छोड़कर सभी टिप्पणियाँ हमारे द्वारा दी गयी हैं।


'भगवती प्रकाशन' का उद्देश्य वैदिक साहित्य का प्रचार है। जहाँ अन्य प्रकाशक डिमाई-साइज (छोटे आकार) में दो सौ पृष्ठ के ग्रन्थ मूल्य २५०-३०० रुपये रख देते हैं, वहाँ हमने इतने बड़े ग्रन्थ का मूल्य केवल १५०.०० रक्खा है [पहले संस्करण का मूल्य]। हमने इसके अनुवाद, ईक्ष्य-वाचन और प्रेस के चक्कर लगाने में जो श्रम, समय, शक्ति और व्यय किया है, उसका लेशमात्र भी पुस्तक के मूल्य में नहीं जोड़ा है। में पं० राजेन्द्रजी जिज्ञासु' का हार्दिक आभारी हूँ, जिन्होंने मनसारामजी का जीवन-परिचय लिखने की कृपा की है। श्री सुनीलजी शर्मा को ईस्वाचन [प्रूफ रीडिंग) और यत्र-तत्र उपयोगी सुझाव देने के लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। दुर्गा मुद्रणालय के सालक पं० रामसेवक जी मिश्र और उनके कर्मचारियों को शुद्ध और सुन्दर मुद्रण के लिए साधुवाद देता हूँ।


पाठकगण इस पुस्तक को पढ़ें. इसपर मनन और चिन्तन करें। यह ग्रन्य पाठकों के मन और मस्तिष्क को ज्ञान ज्योति से आपूर कर [भर] देगा। इसके अध्ययन से उन्हें वैदिक सिद्धान्तों की महत्ता और सार्वभौमिकता का ज्ञान होगा, एवं पुराणों को अश्लीलता खोखलेपन और अनर्गलता का भान होगा। यह पुस्तक पाठकों के इक्य और मस्तिष्क को उप्रेतकर उन्हें वैदिक धर्म की ओर आकृष्ट करेगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। पं० मनसारामजी के दो प्रत्थरकों को प्रकाशित करके हमने पण्डितजी का सच्चा श्राद्ध किया है और उन्हें सच्ची श्रद्धान्जलि अर्पित की है।


वेद सदन

एच १/२ माडल टाउन,                                                                                 विदुषामनुचर:

दिल्ली- ११०००९                                                                                    जगदीश्वरानन्द सरस्वती


ईश्वर प्रार्थना


ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव । यद्भ द्रन्तन्न आ सुव । - यजु:० ३०/३


अर्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गु दुर्व्यसन दुःखों को दूर कर दीजिए। जो कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमें प्राप्त कराइए। 

ओं भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥-यजु:०३६।३

 अर्थ- हम लोग उस प्राणों से प्यारे, दुःखों से छुड़ानेवाले सुखों को देनेवाले, सारे संसार को उत्पन्न करनेवाले प्रशंसा के योग्य परमात्मा के उस ग्रहण करने योग्य तेज: स्वरूप का ध्यान करें कि जो परमात्मा हमारी बुद्धियों का नेतृत्व करे, अर्थात् हमें उलटे मार्ग से हटाकर सीधे मार्ग पर लगा दें।


लालाजी और पोपजी

जैसे को वैसा मिले मिलकर करे न कोप 

पण्डित को लाला कहे तभी कहावे पोप॥

हमारे सनातनधर्मी भाइयों ने अपनी पुस्तक में हमें 'लाला' शब्द से सम्बोधित किया है। हम 'लाला' शब्द का आदर करते हैं। आजकल यदि देखा जाए तो देश, धर्म और जाति के सुधार का सब काम लाला लोगों के ही हाथ में है। सच पूछो तो ये लाला लोग ही ब्राह्मण और पण्डित लोगों के अनदाता हैं, क्योंकि वे सनातनधर्म के ब्राह्मण और पण्डित लोग ही हैं जो लाला लोगों के घरों में पानी भरने, रोटी पकाने, धोती धोने, बर्तन माँजने, बोझा ढोने, बच्चों को कन्धे पर उठाने, उनके पेशाब से स्नान करने, उनकी टट्टी उठाने. चिलम भरने और मुट्ठी-चापी (पाँव दबाने) आदि सेवाकार्य करके अपना पेट पाल रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमारे भाइयों ने हमें उपर्युक्त ब्राह्मणों और पण्डितों की मण्डली में सम्मिलित न करके हमारी मानवृद्ध्यर्थ हमारे लिए 'लाला' शब्द का प्रयोग ही उचित समझा है।

परन्तु हमारे भाइयों को ज्ञात होना चाहिए कि हम वैदिक धर्म के अनुयायी हैं और गुण-कर्म-स्वभाव से वर्णव्यवस्था मानते हैं। हमारी दृष्टि में ब्राह्मण और पण्डित शब्द का बड़ा भारी आदर है। इसलिए हम लोगों ने 'ब्राह्मण' और पण्डित शब्द का आदर करार का ठेका ले रक्खा है। इसी धुन में हमने अत्यन्त परिश्रम से संस्कृत का स्वाध्याय करके बनारस और पज्जाब विश्वविद्यालय की तीन परीक्षाएँ देकर, काशी के विद्वानों से 'पण्डित पदवी प्राप्त करके आर्यसमाज में गुण-कर्म-स्वभावानुसार आर्यप्रतिनिधि सभा के अधीन उपदेशक का काम करते हुए 'ब्राह्मण' पद को प्राप्त किया है।


अब हम इस बात को सहन नहीं कर सकते कि इस प्रकाश के युग में भी हमारे सनातनधर्मी भाई उपर्युक्त कार्यों को करनेवाले मनुष्यों के नाम के साथ केवल इस कारण से कि वे ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए हैं, ब्राह्मण और पण्डित-जैसे सम्मानास्पद शब्दों का प्रयोग करके उनकी मिट्टी पलीद [दुर्दशा] करते रहें। अपितु हम यह चाहते हैं कि वैदिक धर्म के दृष्टिकोण से गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण और पण्डित शब्दों का संस्कृत के योग्य विद्वानों के नाम के साथ प्रयोग करके उन शब्दों का गौरव बढ़ाया जाए।


जो लोग अब भी ब्राह्मण और पण्डित शब्द का अपमान करने पर तुले रहते हैं, हम उन्हें देश, जाति और धर्म का घातक समझते हैं, क्योंकि सनातन धर्म के ठेकेदारों ने अपने दृष्टिकोण को समक्ष रखते हुए हमें पण्डित के स्थान पर लाला शब्द से सम्बोधित करके ब्राह्मण और पण्डित शब्द का अत्यधिक अपमान किया है, अतः हम इस प्रकार के मूर्ख, दुराग्रही (हठी) और स्वार्थी लोगों को अपने दृष्टिकोण से गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण और पण्डित शब्द का अधिकारी न समझकर अपनी पुस्तक में 'पोप' शब्द से सम्बोधित करेंगे।


पण्डित का लक्षण

पण्डित सो जो मन प्रबोधे। राम नाम आतम में शोधे ॥

 छहों वर्णों को दे उपदेश। नानक उस पण्डित को सदा आदेश ।

तदस्य सञ्जातं तारिकादिभ्य इतच् । अष्टा० ५/२/३६ 

पण्डा सदसद्विवेकिनी बुद्धिः सा जाताऽ स्येति पण्डितः, इतच् प्रत्ययः ॥

 अर्थ- सत्य और असत्य का निर्णय करनेवाली बुद्धि का जो स्वामी हो, उसका नाम पण्डित है।


विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः सन्सुधीः कोविदो बुधः

 धीरो मनीषी ज्ञः प्राज्ञः संख्यावान्पण्डितः कविः ॥- अमरकोशः २/७/५ 

अर्थ-विद्वान्, विपश्चित् दोषज्ञः (दोषो को जाननेवाला), सन् (साधु) सुधी, कोविद (वेदों को जाननेवाला), बुध, धीर, मनीषी, ज्ञः प्राज्ञ संख्यावान् (विचारशील) और कवि पण्डित कहलाता है।

मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् । आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ॥

 अर्थ- जो पर स्त्री को माता के समान पर धन को मिट्टी के ढेले के समान और सब प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान देखता है, वह पण्डित है।

  विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥- गीता ५/१८

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