এবম্ চরতি যো বিপ্রো ব্রহ্মচর্যমবিপ্লুতঃ।
স গচ্ছত্যুত্তমস্থানং ন চেহাজায়তে পুনঃ ॥ (মনুস্মৃতি-২/২৪৯)
পদার্থ : (যঃ বিপ্রঃ) যে দ্বিজ বিদ্বান্ (এবম্) উপযুক্ত প্রকারে (অবিপ্লুতঃ) অখণ্ডিত রূপে, সত্যভাব দ্বারা (ব্রহ্মচর্যম্ চরতি) ব্রহ্মচর্যাশ্রম পালন করে (সঃ উত্তমম্ স্থানম্ গচ্ছতি) সে উত্তম স্থান অর্থাৎ মোক্ষপদ প্রাপ্ত করে (চ) এবং (ইহ) এই সংসারে (পুনঃ ন আজায়তে) পুনর্জন্ম নেয় না অর্থাৎ প্রবাহমান জন্ম-মৃত্যু চক্র থেকে মুক্ত হয়ে মোক্ষপ্রাপ্ত হয়।
एवं चरति यो विप्रो ब्रह्मचर्यं अविप्लुतः ।
स गच्छत्युत्तमस्थानं न चेह जायते पुनः
यः विप्रः जो द्विज विद्वान् एवम् उपयुक्त प्रकार से अविप्लुतः अखण्डित रूप से ब्रह्मचर्य चरति ब्रह्मचर्य का पालन करता है सः उत्तमं स्थानं गच्छति वह उत्तम स्थान अर्थात् ब्रह्म के पद को प्राप्त करता है च और इह इस संसार में पुनः न आजायते पुनर्जन्म नहीं लेता अर्थात् प्रवाह से चलने वाले जन्म - मरण से छूट जाता है । क्यों कि मोक्ष सुख भी कर्मों का फल है , अतः वह सान्तकर्मों का अनन्त फल नहीं हो सकता । अतः मोक्ष - सुख की अवधि पूरी होने पर जीव का फिर जन्म अवश्य होता है ।
- पण्डित राजवीर शास्त्री जी
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