सृष्टि के पदार्थों का वर्णीकरण या विभाजन इतना सरल, सुकर नहीं है जितना कि हम समझते हैं, क्योंकि पदार्थ निर्माता परमात्मा अनन्त ज्ञान वाला है अतः उसके निर्माण भी अनन्त हैं दुज्र्ञेय हैं। पृथिवी के जिन पदार्थों को हम अहर्निश देखते हैं, उनमें बाहुल्य उन पदार्थों का होता है जिनके हम नाम तक नहीं जानते, गुण, कर्म को जानता तो दूर की बात है, उनमें कुछ एक ही ऐसे पदार्थ होते हैं जिनके रूप, रंग, नाम, गुण आदि से परिचय रखते हैं, पुनरपि हमारे ऋषि मुनियों ने पदार्थों के वर्गीकरण में उनके विभाजन में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है, अपनी ऊहा से तीनों लोकों के पदार्थों का स्वरूप वैदिक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है।
पृथिवी के जिन पदार्थों को वृक्ष, पेड़, बेल, तृण, घास, फूस आदि नामों से पहचानते हैं और नित्य रोपते, उखाड़ते, रौंदते, फेंकते हैं उनका विभाजन आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत ग्रन्थों में तथा अन्य चिकित्सकीय शास्त्रों में वनस्पति, ओषधि आदि नामों से किया जाता है। वनस्पतियों का यह विभाजन सुगन्धित छिलके वाली, फल-फूल या बीज की समानता रखने वाली गोंद पाली गांठदार जड़ वाली इत्यादि प्रकार के आधारों पर किया है।
चरक में इन वनस्पतियों का विभाग औद्रिद द्रव्य के नाम से चतुर्धा वर्णित है-
भौममौषधमुद्दिष्टम् औद्रिदं तु चतुर्विधम्।
वनस्पतिर्वीरूधश्र्व वानसपत्यस्तथौषधिः।
फलैर्वनस्पतिः पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि।
ओषध्यः फलपाकान्ताः प्रतानैर्वीरूधः स्मृताः।।
चरक. सू. १। ७०, ७१ ।।
अर्थात् वनस्पति, वीरूध, वानस्पत्य और ओषधि ये चार प्रकार के औद्रिद द्रव्य हैं। फलवाले पौधे, वनस्पति, जिनमें फल और फूल दोनों प्रकार होते हैं वे वानस्पत्य, फल पकने बाद नष्ट होने वाले औषधि तथा बहुत विस्तार वाले वीरूध कहे जाते हैं।
इसी प्रकार सुश्रुत में भी-
तासां स्थावराश्र्वतुर्विधाः- वनस्पतियोवृक्षावीरूधऔषधय इति। तासु अपुष्पाः फलवन्तो वानस्पत्यः। पुष्पफलवन्तो वृक्षाः। प्रतानवत्यः स्तम्बिन्यश्र्व वीरूधः, फलपाकनिष्ठा ओषधय इति। -सुश्रुत.सू. १।३७।।
अर्थात् स्थावर द्रव्य चार प्रकार के हैं-वनस्पति, वृक्ष, वीरूध और ओषधि। जिन पौधों में पुष्प् न हो फल आते हों वे वनस्पति जिनमें पुष्प, फल दोनों आते हो, वह वृक्ष जो फैलने वाले और गुल्म=झाड़ वाले हैं वे वीरूध तथा जो फलों के पकने तक ही जीवित रहते हैं अर्थात् पकने के बाद स्वयं सूखकर गिर पड़ते हैं उन्हें ओषधि कहा जाता है। चरक और सुश्रुत के वचनों में कुछ थोड़ा सा अन्तर है। चरक जिसे वानस्पत्य कहता है सुश्रुत उसे वृक्ष नाम से अभिहित करता है।
पाणिनीय सूत्र ‘‘विभाषौषधि वनस्पतिभ्यः’’पा. ८।४।६ के व्याख्यान में काशिकाकार जयादित्य ने भी वनस्पतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है- फलीवनस्पतिज्र्ञेयो वृक्षाः पुष्पफलोपगाः ।
ओषध्यः फलपाकान्ताः लतागुल्माश्र्व विरूधः।। – कशिका, ८।४।६।।
इस वचन की व्याख्या करते हुये न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि तथा पदमञ्चजरीकार हरदत्त मिश्र ने वनस्पतिः = उदुम्बर, प्लक्ष, अश्र्वत्थ आदि, पुष्पोपगाः = वेतस् बाँस आदि, फलोपगाः = उदुम्बर, प्लक्ष आदि तथा पुष्पफलोपगाः = आम्र इत्यादि वृक्ष होते हैं, अर्थात् जो वपस्पति होता है वह निश्चित वृक्ष होता है, और जो वृक्ष होता है उसका निश्चित रूप से वनस्पति होना आवश्यक नहीं है। औषध्यः = शालि = धान, गेहूं कदली आदि, लता – मालती इत्यादि, गुल्माः = हृस्व शाखाओं वाले होते हैं और वीरूधः = बहुत व पत्तों वाले कहलाते हैं ऐसा व्याख्यान किया है।
मनु महाराज ने भी वनस्पतियों का विभाग दर्शाया है-
उद्रिजाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः।
ओषध्यः फलपाकान्ताः बहुपुष्पफलोपगाः।
अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः।
पुष्पिणः फलिनश्रै्वव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः।
गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः।
बीजकाण्डरूहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च।।
– मनु. १।४६, ४७, ४८
बीज तथा शाखा से लगने वाले स्थावन जीव उद्रिज होते हैं। फल के पकने पर जिनके पौधे नष्ट हो जाते हैं और जिनमें बहुत फल, फूल लगते हैं वे ओषधि कहाते हैं, बिना फूल लगे फलने वालों को वनस्पति और फूल लगने के बाद फलने वाले को वृक्ष कहते हैं।
इस प्रकार लोक में फल, फूल आदि के आधार पर वनस्पति, वीरूध, ओषधि आदि का विभाजन पृथक्-पृथक् किया गया है, यानी इनका जातिगत भेद स्थापित किया गया है, पर वेदों में वनस्पति, वीरूध औषधि आदि शब्द पर्याय रूप में ही आये हुए हैं अतः वनस्पतियों के विभाग का फल, फूल आदि के आधार पर स्पष्ट संकेत नहीं प्राप्त है अपितु वनस्पतियों के रंग, रूप, गुण आदि द्वारा उनका विभाजन स्पष्ट लक्षित होता है।
वैसे तो चारों वेदों में ही औषधियों का वर्णन है तथापि अथर्ववेद में बहुलता से दृष्टिगोचर होता है, एतदर्थ ही अथर्ववेद भैषज्य वेद भी कहा जाता है।
वनस्पतियों के वर्गीकरण के लिये अथर्ववेद के ८ वें काण्ड का ७ वाँ सूक्त विशेष रूप से द्रष्टव्य है। सांकेतिक सूक्त में रूप, रंग, आकार द्वारा वनस्पतियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है-
रूपभेद- प्रस्तृणती स्ताम्बिनीरेकशुगाः प्रतन्वतीरोषधीरा वदामि।
अंशुमतीः काण्डिनीर्या विशाखा ह्नयामि ते वीरूधो वैश्र्वदेवी रूग्राः पुरूषजीवनीः।। – अर्थव. ८।७।४।।
प्रस्तृणतीः = (स्तृञ् आच्छादने) बहुत छादन करने वाली अर्थात् मूल से ही विभिन्न शाखाओं में फैलने वाली अनार, मेंहदी आदि, स्तम्बिनीः = (स्था + अम्बच्, इनिः) एक तने रूप खम्भे वाली अशोक, कदम्ब आदि, एकशुगाः = एक अकुर, कोपल वाली, आक आदि, प्रतन्वतीः = बहुत फैली हुई ब्राह्मी, हेलेञ्चा, पुदीना आदि, ओषधीः = ओषधियों को, आ वदामि = (मैं परमात्मा या वैद्य) आदेश देता हूँ, बुलाता हूँ, तथा याः = जो, अंशमतीः = काटों वाली, नागफनी, भटकटैय्या, ऊँटकटारा आदि, काण्डिनीः = बहुत काण्ड = शाखा वाली ईख, सरकण्डा, दूर्वा आदि, विशाखाः = शाखाहीन खजूर, ताड़ आदि (विगताः शाखाः) तथा शाखा सहित आम, अमरूद आदि (विशिष्टाः शाखाः), वैश्र्वदैवीः = सभी धारण कराने वाली, वीरूधः = विशेष रूप से उगती हुई ओषधियाँ (विशेषण रोहन्तीति वीरूधः) ते ह्नयामि = तुम्हारे लिये बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।
इस मन्त्र में रूप भेद सेऔषधियों का वर्णन है। विभिन्न शाखा, एक तना, काँटा आदि विशेषण औषधियों के रूप को बता रहे हैं। मन्त्र में ‘ओषधी’ तथा ‘वीरूधः’पद आये हैं जो लोकोक्त अर्थों के वाचक नहीं है। अपितु वनस्पति इस सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हैं।
रंगभेद- या बभ्रवो याश्र्व शुक्रा रोहिणीरूत पृश्रयः।
असिक्रीः कृष्णा ओषधीः सर्वा अच्छावदामसि।। -अथर्व. ८।७।१।।
याः = जो, बभ्रवः = भूरे रंग वाली पोषण, धारण करने वाली, कत्था आदि (डुभृञ् धारणपोषणयोः) याश्र्व = और जो, शुक्राः = श्वेत रंग वाली, वीर्य बढ़ाने वाली, सफेद फूल की कटेरी आदि, रोहिणीः = लाल रंग की अथवा स्वास्थ्य उत्पन्न करने वाली, कुटकी, मजीठ आदि (रूह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च) उत = और, पृश्नयः = चितकबरी (व्याघ्र रूपं वै पृश्निः त्रै. ४।२।२४) , असिक्नीः = श्याम = नील वर्ण वाली, अबद्ध शक्ति वाली, बाकुची आदि, कृष्णाः = आकर्षण करने वाली, काले वर्ण वाली पिपरामूल, पीपल आदि, औषधीः = औषधियाँ हैं, सर्वाः = उन सबको, अच्छ्रावदामसि = अच्छे प्रकार, मैं वैद्य आदेश देता हूँ।
यह मन्त्र ओषधियों को रंगभेद से वर्णन कर रहा है। औषधीः शब्द सामान्य अर्थ वाली है, फल पाकान्त ओषधि के लिये नहीं।
टाकर भेद- मधुमन्मूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरूधां बभूव।
मधुमत् पर्णं मधुमत् पुष्पमासां मधोः संभक्ता अमृतस्य भक्षो
घृतमत्रं दुहृतां गोपुरोगवम्।। -अथर्व. ८।७।१२।।
आसां वीरूधाम् = इन ओषधियों का, मूलं मधुमत् = जड़ माधुर्य वाला, अग्रम् = ऊपरीभाग – सिरा, मधुमत् = माधुर्य युक्त, मध्यमम् = मध्य भाग, मधुमत् = माधुर्य युक्त, पर्णम् = पत्ते, मधुमत् = माधुर्य वाले, पुष्पम् = फूल, मधुमत् = मधुर्य वाले, बभूव = हैं, आसाम् = इन ओषधियों का, अमृतस्य भक्षः = अमृत का भोजन है अर्थात् अमरता देने वाला है मधोः संभक्ताः = मधुरता से परिपूर्ण हैं, गोपुरोगवम् = गौओं का पालन करने वाले या गौओं का प्राधान्य मानने वाले इन ओषधियों से , घृतम् = घी, अन्नम् = अन्न का, दुहृताम् = दोहन करें।
यहाँ ओषधियों का आकार रूप से वर्णन है तथा गौओं को इन ओषधियों का भक्षण कराके घृतादि पदार्थ ग्रहण करें, यह निर्दिष्ट किया है। मन्त्र का ‘वीरूधाम्’ पद सामान्य रूप से ओषधि अर्थ में प्रयुक्त है। प्रतान विशिष्ट वनस्पतियों के लिये नहीं।
यावतीः कितयीश्रे्वमाः पृथिव्यामध्योषधीः।
ता मा सहसुपण्र्यो मृत्योर्मृञ्चन्त्वहंसः।। -अथर्व. ८।७।१३।।
यावतीः = जितनी, च = और, कियतीः = कितनी भी अर्थात् विभिन्न परिमाण वाली, इमाः = ये, पृथिव्याम् अधि = पृथिवी के ऊपर, ओषधिः = ओषधियाँ है, ताः = वे, सहस्त्रपण्र्यः = सहस्त्र पत्तों वाली, हजार प्रकार से पोषण करने वाली, सफेद दूब आदि (प पालनपूरणयोः) मा = मुझको, मृत्योः = मृत्यु से अहंसः = पाप से, मुञ्चन्तु = छुड़ावें।
यहाँ पत्तों के आकार रूप से ओषधियों का वर्गीकरण है, और ‘ओषधी’ पद सामान्य अर्थवाला है, फल पाकान्त अर्थ वाला नहीं।
मुमुचाना ओषधयोऽग्नेर्वैश्वानरादधि।
भूमिं संतन्वतीरित यासां राजा वनस्पतिः। -अथर्व. ८।७।१६।।
मुमुचानाः = रोगों को छुड़ाने वाली, ओषधयः = ओषधियाँ हैं वे, वैश्वानरात् अग्नेः = सब मनुष्यों को ले जाने वाले, प्रेरक अग्रगणी परमेश्वर से, अधि = अधिकृत होकर, भूमिम् = भूमि पर, सन्तन्वतीः विस्तृत होती हुई दूब, पुनर्नवा आदि लतायें, इतः = गई हुई हैं, यासाम् = जिन ओषधियों का, राजा = राजा, वनस्पतिः = सोम है (सोमो वै वनस्पतिः मै. १।१०।९।।)
परमेश्वर द्वारा विस्तृत की हुई जो ओषधियाँ हैं, जो रोगों को दूर करती हैं उनका फैलने के आकार रूप से वर्णन है। मन्त्र में आये ‘ओषधयः’ एवं ‘वनस्पतिः’ पद लोक प्रसिद्ध अर्थ वाले नहीं हैं।
पुष्पवतीः प्रसूमतीः फलिनीरफला उत।
संमातर इव दुह्नामस्मा अरिष्टतातये। -अथर्व. ८।७।२७।।
पुष्पवतीः = पुष्पों वाली, प्रसूमतीः = सुन्दर, कोमल पलव अकुर वाली, फलिनीः = फलवाली, उत = और, अफलाः = फलरहित ओषधियाँ, संमातर इव = सहयोगी माताओं के समान, अस्मै = इस रूग्ण मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण के लिये, स्वास्थ्य के लिये, दुहाम् = दूध देवें।
यह मन्त्र भी फूलों वाली, पलवों वाली, फलों वाली एवं बिना फलवाली ओषधियों का आकार भेद से वर्णन कर रहा है।
गुणभेद- जीवलां नघारिषां जीवन्तीमोषधीमहम्। अरून्धतीमुन्नयन्तीं पुष्पां मधुमतीमिह हुवेऽस्मा अरिष्टतातये।
-अथर्व. ८।७।६।।
जीवलाम् = जीवन देने वाली, नघारिषाम् = कभी भी हानि न करने वाली, जीवन्तीम् = प्राण धारण करने वाली, गिलोय आदि, अरून्धतीम् = बाधा न डालने वाली, चोट आदि प्रहारों को भरने वाली, औधा हेली, भंगरैला आदि, उन्नन्तीम् = उन्नत बनाने वाली, पुष्पाम् = फूलों वाली, मधुमतीम् = माधुर्य रस वाली, ओषधीम् = ताप नाशक, अन्नादि ओषधि को (ओषद् (दहत्) धयन्तीति वा ओषति दहति एनाः धयन्तीति वा, दोष धयन्तीति वा। निरू. ९।२६। धेर पाने) इह = यहाँ, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण करने के लिये, अहम् = परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।
इस मन्त्र में जीवन आदि देने वाली ओषधियों के गुणों का वर्णन है। मन्त्र का ‘ओषधीः’ शब्द सामान्य वनस्पति वाचक है।
इहा यन्तु प्रचेतसो मेदिनीर्वचसो मम।
यथेमं पारमामसि पुरूषं दुरितादधि।। -अथर्व. ८।७।७।।
प्रचेतसः = चेतनता देने वाली, मेदिनीः = प्रीति करने वाली, (ञमिदा स्नेहने + अच्, इनिः, डीष्) रूक्षता हटाकर स्निग्धता प्रदान करने वाली ओषधियाँ, इह = यहाँ मेरे पास, मम वचसा = मुझ चिकित्सक के वनन के साथ अर्थात् चिकित्सा का विचार करने पर, आयन्तु = आवें, यथा = जिससे, इमं पुरूषम् = इस मनुष्य को दुरितात्, अधि = कष्ट से ऊपर, दूर, पारयामसि = पार लगा दूँ।
यह मन्त्र भी ओषधियों के गुणों का वर्णन कर रहा है।
उन्मुञ्चन्तीर्विवरूणा उग्रा या विषदूषणीः।
अथो बलासनाशनीः कृत्यादूषणीश्र्व यास्ता इहा यन्त्वोषधीः।
-अथर्व. ८।७।१०।।
याः = जो, उन्मुञ्चन्तीः = रोग से मुक्त करने वाली, विवरूणाः = विशेष करके स्वीकार करने योग्य, उग्राः = तीक्ष्ण, बल, गन्ध रसादि वाली, विषदूषणीः = विष हरण करने वाली, इलायची आदि, अथ = और, यः = जो, बलासनाशनीः = बल गिराने वाले सन्निपात, कफ आदि को नाश करने वाली ( बल + असु क्षेपणे + अण्, बलम् अस्यति क्षिपतीति = बलासः, तस्य नाशनीः इति बलासनाशनीः), च = और, कृत्यादूषणीः = हिंसा, पीड़ा मिटाने वाली अजवाइन, लाक्षा गुग्गुल आदि (कृञ् हिंसायाम् + क्यप्, टाप), ओषधीः = ओषधियाँ हैं ताः = वे, आयन्तु = आवें, प्राप्त होवें।
यहाँ पर विष नाशक औषधियों के गुणों का वर्णन है। ‘ओषधिः’ पद का पूर्वतम् सामान्य अर्थ है।
उत्पत्ति भेद- अवकोल्बा उदकात्मान ओषधयः।
व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्णश्रृड्ग्यः।। -अथर्व. ८।७।९।।
अवकोल्बाः = पीड़ा को जलाने वाली, नष्ट करने वाली, शैवाल, काई ये युक्त (अव हिंसायाम् +वुन्, टाप्, उल्वम् ऊर्णोतेः वृणोतेर्वा रिरू. ६।३६। ऊर्णुन्ध्या वृञ् + वन्, वस्य बः रेफस्य लत्वम्, वकारस्य उत्वम् इति उल्बाः) उदकात्मानः = जल जीवन वाली, जलकुम्भी, कमल, सिंघाड़ा आदि, तीक्ष्णशृड्ग्यः = तीक्ष्ण काट करने वाली, तीक्ष्ण अग्रभाग वाली गोखुरू आदि, ओषधयः = ओषधियाँ, दुरितम् = रोग को, वि ऋषन्तु = बाहर रिकालें (ऋषी गतौ)।
यह मन्त्र जलीय ओषधियों का उत्पत्ति भेद से वर्णन करता है। ‘ओषधीः’ पद सामान्यार्थक है।
या रोहन्त्यागिरसीः पर्वतेषु समेषु च।
ता नः पयस्वतीः शिवा ओषधीः सन्तु शं हृदे। -अथर्व. ८।७।१७।।
आगिरसी = अग्नि, विद्युत् आदि गुणों से युक्त या अगों में रस भरने वाली, पर्वततेषु = पर्वतों में, च = और, समेषु = चैरस भू प्रदेशों में, रोहन्ति = उगती हैं, ताः = वें, पयस्वतीः = दुग्ध तथा रस वाली, शिवाः = कल्याण करने वाली,
ओषधीः = ओषधियाँ, नः = हमारे, हृदे = हृदय के लिये शम् = शान्तिदायक, सन्तु – होवें।
इस मन्त्र में पर्वत आदि स्थानों में होने वाली ओषधियों का औत्पत्तिक भेद दर्शाया है। ‘ओषधीः’ पद का अर्थ पूर्ववत् है।
ओषधि प्रधान भेद- अश्र्वत्थो दर्भो वीरूधां सोमो राजामृतं हविः। वीहिर्यवश्र्व भेषजौ दिवस्पुत्रावमत्र्यौ।।
-अथर्व. ८।७।२०।।
अश्र्त्थः = ‘‘वृक्षों में’’ पीपल, दर्भः = ‘‘तृणों में’’ दाभ, कांस, वीरूधाम् = ‘‘लताओं में’’ (विशेषेण रून्धन्ति अन्यान् वृक्षान् इति वीरूधः) सोमः = सोमलता, राजा = ओषधि राज है, अमृतम् = ‘‘प्राकृतिक द्रव पदार्थों में’’ जल (अमृतमिति उदक नाम, निघं. १।१२), हविः = ‘‘जगमज वस्तुओं में’’ यज्ञीय घृत और ‘‘अन्नों में’’ व्रीहि = चावल, च = और, यवः = जौ, तथा दिवस्पुत्रौ = ‘‘आकाशीय पदार्थों में’’ द्यौलोक के पुत्र सूर्य और चाँद, अमत्र्यौ भेषजौ = अगर भेषज हैं, भय निवारक पदार्थ हैं (भेषं भयं जयति = भेषजम्)।
इस मन्त्र में अश्र्वत्थ, दर्भ, सोमलता आदि को महा औषधि के रूप में वर्णित किया है। विरूधाम् पद वनस्पति सामान्यार्थ का द्योतक है।
ऋतु भेद- अग्नेर्धासो अपां गर्भों या रोहन्ति पुनर्णघ्वाः।
ध्रुवाः सहस्त्रनाम्नीर्भेषजीः सन्त्वाभृताः ।। – अथर्व. ८।७।८।।
अग्नेः = अग्नि का (जठराग्नि का). घासः = जो, पुनर्णवाः = बार-बार नवीन औषधियाँ, ऋतु-ऋतु में, रोहन्ति = उगती हैं वे, ध्रवाः = दृढ़ गुणवाली, सहस्त्रनाम्नीः = हजारों नामों वाली, आभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, भेषजीः = भय निवारक औषधियाँ, सन्तु = प्राप्त होवें।
मन्त्र में प्रति ऋतु में पुनः पुनः होने वाली औषधियों का संकेत है जो मनुष्य के लिये उपयोगी हैं तथा शरीर बल बढ़ाने वाली हैं।
उज्जिहीध्वे स्तनयत्यभिक्रन्दत्योषधीः।
यदा वः पृश्निमातरः पर्जन्यो रेतसावति। -अथर्व. ८।७।२१।।
पृश्निमातरः = पृथिवी को माता मानने वाली अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न होने वाली (इयं पृथिवी वै पृश्निः तै. ब्रा. १।४।१।५), ओषधीः = ओषधियों, उज्जिहीध्वे = तुम खड़ी हो जाती हो, उत्पन्न हो जाती हो (ओहाड्. गतौ) यदा = जब, पर्जन्यः = मेघ, स्तनयति = गरजता है, अभ्रिक्रन्दति = कड़कता है और वः = तुमको, रेतसा = जल से (रेतः उदक नामसु, निघ. १।१२) अवति = तृप्त करता है (अव तृप्तौ)।
इस मन्त्र में वर्षा ऋतु में होने वाली औषधियों का संकेत है। औषधीः समान्यार्थक है।
उपयोग भेद- वराहो वेद वीरूधं नकुलो वेद भेषजीम्।
सर्पा गन्धर्वा या विदुस्ता अस्या अवसे हुवे।। -अथर्व. ८।७।२३।।
वराहः = सूअर, वीरूधम् = औषधी को, वेद = जानता है, नकुलः = नेवला, भेषजीम् = रोग जीतने वाली, भय दूर करने वाली औषधियों को, वेद = जानता है, सर्पाः = साँप् और गन्र्धवाः = गौ-पृथिवी को धारण करने वाले अर्थात् = भूमि में बिल बनाकर रहने वाले चूहे, छछुन्दर, गोह आदि प्राणी (गौः इति पृथिव्याः नामधेयम् निघ. १।१), याः = जिन औषधियों को, विदुः =जानते हैं, ताः = उन को, अस्मै = इस पुरूष के लिये, अवसे = रक्षा हेतु, मैं वैद्य अथवा परमेश्वर, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।
मन्त्र में जंगली पशुओं, जन्तुओं द्वारा उपयोग में ली जाने वाली औषधियों का उपयोग भेद से वर्णन है। यहाँ बताया गया है कि जिन कन्द आदि औषधियों को सूअर आदि उपयोग में लाते हैं, बलिष्ठ बनते हैं उनसे मनुष्यों को भी अपना उपचार करना चाहिये। मन्त्र में ‘वीरूधम्’, ‘भेषजीम्’ पद पर्यायार्थक हैं।
याः सुपर्णा आगिरसीर्दिव्या या रघटो विदुः।
वयांसि हंसा या विदुर्याश्र्व सर्वे पतत्रिणः।।
मृगा या विदुरोषधीस्ता अस्मा अवसे हुवे।। -अथर्व. ८।७।२४।।
याः = जिन, आगिरसीः = अगों में गति लाने वाली तथा अग्नि, विद्युत् आदि गुणों वाली औषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = गरूड़, गिद्ध आदि, याः दिव्याः = जिन दिव्य ओषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = आकाश में उड़ने वाले पक्षी (रघि गतौ + अच्, अट गतौ + क्पि् = रघटः, रघे गन्तवे आकाशे अटन शीलाः = रघटः), विदुः = जानते हैं, याः = जिनको, वयांसि = जिन ओषधियों को मृगाः = सभी पंख वाले जीव, विदुः = जानते हैं, याः ओषधीः = जिन ओषधियों को मृगाः = वन्य पशु, विदुः = जानते हैं, ताः = उन सबको, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अवसे = रक्षणार्थ, मैं परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लेता हूँ।
यह मन्त्र भी औषधियों के उपयोग भेद का वर्णन कर रहा है। गरूड़ आदि पक्षी जिन औषधियों को व्यवहार में लाते हैं उनसे विष नाश, दूर दृष्टि, स्फूर्ति आदि का लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ लेना चाहिये यह मन्त्र में स्पष्ट किया गया है। ‘ओषधीः’ पद का पूर्ववत् सामान्य अर्थ है।
यावतीनामोषधीनां गावः प्राश्नन्त्यध्न्या यावतीनामजावयः।
तावतीस्तुभ्यमोषधीः शर्म यच्छन्त्वाभृताः।। -अथर्वं. ८।७।२५।।
मारने योग्य गौवें और, यावतीनाम् = जितनी औषधियों का, अजावयः = भेड़, बकरियाँ, प्राश्नन्ति = चारा करती हैं, खाती हैं, तावतीः = वे सभी अभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, ओषधीः औषधियों, तुभ्यम् = तुझ मनुष्य को, शर्म = सुख, यच्छुन्तु – देवें।
इस मन्त्र में गाँव, नगर में रहने वाले पशुओं द्वारा चारा के रूप में उपयोग में आने वाली औषधियों का वर्णन है। ‘ओषधीः’ औषधीनाम्, पद सामान्य अर्थ वाले हैं।
यावतीषु मनुष्या भेषजं भिषजो विदुः।
तावतीर्विश्र्व भेषजीरा भरामि त्वामभि।। -अथर्व, ८।७।२६।।
यावतीषु = जितनी ओषधियों में, भिषजः मनुष्याः = वैद्य लोग (भिषज् चिकित्सायाम् क्विप्, भिषक्), भेषजम् = चिकित्सा, विदुः = जानते हैं, तावतीः = उतनी, विश्र्वभेषजीः = सब रोगों को जीतने वाली ओषधियों को, त्वाम् अभि = तुम्हारी ओर मैं परमात्मा और वैद्य, आभरामि = लाता हूँ।
मन्त्र में वैद्य जनों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली क्वाथ, कषाय, चूर्ण, अवलेह, भस्म आदि औषधियों का वर्गीकरण है।
अथर्ववेद के उपर्युक्त सूक्त में विभिन्न प्रकार की औषधियों का वर्गीकरण अपने ढंग का है। जिन औषधियों को लोक में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि अलग-अलग नामों से विभाजित करके जाना जाता है। उन्हें वेद में रूप, रंग, आकार, गुण, उत्पत्ति, औषधि महौषधि प्राधान्य = ऋतु एवं उपयोग के आधार पर विभाजित किया गया है।
तात्पर्य यह हुआ वेद में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि शब्द जो उद्धिज पदार्थों का ज्ञान करा रहे हैं वे परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं, जैसा कि मन्त्रों में आये वीरूध, वनस्पति आदि पदों से स्पष्ट है। यानी वनस्पति आदि शब्द फल वाले पौधों के लिये ही प्रयुक्त नहीं है अपितु सामान्यतः पौधे अर्थ में प्रयुक्त हैं अर्थात् वे शब्द यौगिकता, व्यापकता के अर्थ को लिये हुये हैं, यथा- वनस्पति- वनानां पाता वा पालयिता वा। निरू. ८।३।।
जो वन = जल को, रस को सुरक्षित रखते हैं वे वनस्पति।
औषधी- औषद् (दहत्) धयन्तीति वा, औषधि एनाः धयन्तीति वा। दोषं धयन्तीति वा। निरू. ९।२६।।
जलते हुये अर्थात् ताप को जो पीते हैं अथवा ताप में इनको पीते हैं तथा जो दोष को पीते हैं वे औषधि हैं।
वीरूध- विशेषण रून्धन्ति, रोहन्तीति वा वीरूधः। निरू. ६।३।९।।
जो विशेष रूप से रोकते हैं या उगते हैं वे वीरूध हैं।
इन व्युत्पत्तियों के अनुसार इन शब्दों का पर्यायवाचित्व समुचित है, और उपर्युक्त विभाग ही वनस्पतियों का वेदोक्त वर्गीकरण है जिसे वेद से ही जानना चाहिये।
वैसे रोगानुसार औषधियों के निर्माणनुसार, अन्य कई और विभाग बन सकते हैं जो वस्तुतः औषधियों के गुणादि वर्गीकरण में ही समाहित हो जाते हैं।
पाणिनि कन्या महाविद्यालय, वाराणसी- १० (उ. प्र.)
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