सायंस और वेद - ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

25 January, 2022

सायंस और वेद

 📌लेखक-गुरुदत्त

भूमिका


यह भारतीय मान्यता है कि वेद, सृष्टि के आदि में मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए परमात्मा से दिया हुआ ज्ञान है। परमात्मा है अथवा नहीं यह हमने इस पुस्तक की सामग्री में ही सिद्ध किया है। वेद-ज्ञान का यह अंग है। अतः वैदिक ज्ञान में इसके प्रवक्ता का उल्लेख हुए बिना विषय का निरूपण पूर्ण नहीं समझा जा सकता।


ये वेद परमात्मा ने किस प्रकार सृष्टि में उत्पन्न उत्पन्न हुए मनुष्यों को दिए?—यह एक अत्यन्त विस्मय-जनक विषय है। परन्तु इसका भी वेद में वर्णन किया है। इस कारण उसका कथन और प्रक्रिया पुस्तक की सामग्री का अंग ही है। मनुष्य को किस कारण परमात्मा ने यह ज्ञान दिया- इस विषय पर इस पुस्तक में नहीं कहा, यह विषयान्तर समझ छोड़ रहे हैं। यह विषय वेद के मूल ज्ञान के साथ सम्बन्ध रखता है। इसका कथन हमने अपनी पुस्तक 'वेद और वैदिक काल' में संक्षेप में किया है।


यहाँ हम वेद शब्द की व्युत्पत्ति बताना चाहते हैं। यह विद् धातु व्युत्पन्न है, अर्थ है 'जानना', अर्थात् आदि मनुष्य को जो कुछ जानने योग्य था और जो वह एक प्राणी होने से स्वयं नहीं जान सकता था, वह वेद में बताया है।


यहाँ हम यह बता देना चाहते हैं कि वेद को 'त्रयी विद्या' कहते हैं। इस का अभिप्राय है कि इसमें तीन विद्याएँ हैं। मध्यकालीन विद्वान् त्रयी विद्या के ऐसा अर्थ लगाते हैं जो बुद्धिगम्य नहीं। हम उन तीन विद्याओं को वेद के छः वेदांगों में से तीन समझते हैं। वे छः वेदांग हैं—१. छन्द, २. व्याकरण, ३. निरुक्त। ये तीन अंग वेद की भाषा से सम्बन्ध रखते हैं। शेष तीन वेदांग -४. कल्प, ५. ज्योतिष और ६. शिक्षा। ये पिछले तीन-अंग वेद के ज्ञान हैं—४. का अंग हैं। हम इन तीन को ही त्रयी विद्या मानते हैं। पहले तीन अंग तो उत्तर के तीन अंगों को सुरक्षित रखने के साधन हैं। इस कारण उनको विद्या नहीं कहा। विद्या कल्प, ज्योतिष और शिक्षा ही हैं। यही कारण है कि इनको त्रयी विद्या कहा गया है। इन तीन विद्याओं में से एक है कल्प। कल्प का अभिप्राय है सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि का चलन और सृष्टि का प्रलय। प्रलय का अर्थ है पुनः अपने मूल कारण में लय हो जाना। इनका संक्षिप्त वर्णन ही कल्प है वैसे तो त्रयी विद्या के तीनों विषय चारों वेदों में बिखरे पड़े हैं। इस पर भी 'कल्प' विषय मुख्य रूप से ऋग्वेद में दिया है।


वर्तमान 'सायंस' कल्प का आंशिक वर्णन ही है, अर्थात् सायंस वैदिक भाषा में कल्प का एक अंशमात्र ही है। यहाँ हम सायंस के अर्थ, जैसे 'एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका' में किया है, लिख दें तो हमारे कथन को भली प्रकार समझा जा सकेगा। वहाँ कहा है “The Latin word 'Scientia' meant 'knowledge'. But the modern usage covers only certain kinds of knowledge whose area, however, is now so vast that no man can grasp more than a fraction of them...." - Encyclopaedia Britannica, 1967, Vol. 20, Page 7 अर्थात्-लैटिन भाषा के शब्द 'सायंटिया' का अर्थ है 'ज्ञान' । परन्तु आज-कल की भाषा का 'सायंस' शब्द से अभिप्राय कुछ ही प्रकार का ज्ञान है। उस ज्ञान के प्रत्येक प्रकार में विषय इतना विस्तार से पता चल गया है कि कोई भी व्यक्ति उसका एक अंशमात्र ही ग्रहण कर सकता है।


इसका अर्थ है ज्ञान में इतने विषय हैं कि आज के विद्वान् विज्ञान में वे सब नहीं ला सके। जिन पर अन्वेषण किया गया है, वह सब इतना विस्तृत हो गया है कि एक मनुष्य उसका एक अंश ही जान सका है। हम समझते हैं कि यह मनुष्य के प्रयास की श्लाघा तो हो सकती है परन्तु इस मनुष्य के ज्ञान की व्यापकता का सूचक नहीं कह सकते। इसका अर्थ है कि कोई भी वर्तमान युग का वैज्ञानिक पूर्ण ज्ञान का ज्ञाता नहीं। वह अपने विषय का भले ही बड़ा विद्वान् हो परन्तु वह ज्ञानवान् आंशिक रूप में ही होगा। इसे ज्ञान के किसी एक अंग को व्याख्या से जान लेने वाला होने पर भी उसको संसार के विस्तृत ज्ञान से एक अनभिज्ञ व्यक्ति ही मानना पड़ेगा।


इसमें हम किसी भी विद्वान् का दोष नहीं मानते। हम वर्तमान विज्ञान के भिन्न-भिन्न अंगों का परस्पर सम्बन्ध और मूल ज्ञान का अभाव देखते हैं। ज्ञान के सब अंग परस्पर संबंधित हैं। उस सम्बन्ध को जानकर सामान्य ज्ञान के सब अंगों का ज्ञान हो जाता है। इस व्यापक ज्ञान के उपरान्त किसी एक ज्ञान के अंग को व्याख्या से जान लेने से ही मनुष्य का पूर्ण ज्ञानवान् होना, माना जा सकता है।


इस ज्ञान की व्यापकता को समझने का यल वेद में किया गया है। इस का अति संक्षिप्त चित्र भगवद्गीता के एक श्लोक में इस प्रकार दिया है 

ऊर्ध्वमूलमध:शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।

 छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥-भ० गी० १५-१ ।।

 अर्थात्-जिसका मूल ऊपर (परमात्मा में) है और शाखाएँ नीचे को आ रही हैं (जगत् के पदार्थ परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं) ऐसा संसाररूपी पीपल का वृक्ष है। इसके पत्ते (छन्द) अविनाशी वेदमंत्र कहे जाते हैं। इस वृक्ष को जो तत्त्व से जानता वह ज्ञानवान् कहा जाता है। भगवद्गीता के अगले दो श्लोक उक्त कथन की व्याख्या में हैं। वे इस प्रकार हैं


अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।

 अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥

 न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा ।

 अश्व सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥-भ० गी० १५-२, ३॥


अर्थात्-इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर और नीचे फैली हुई हैं। ये शाखाएँ गुण (सत्त्व, रजस्, तमस्) से वृद्धि पाए हुई हैं। इन (शाखाओ) पर विषयरूपी कोपलें हैं। शाखाएँ हैं भिन्न-भिन्न योनियाँ ये नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई है। मनुष्य-योनि में कामनाएँ कर्मों से (कर्मफल से) बाँध रही हैं। ये (कामनाएँ) नीचे और ऊपर सबको प्राप्त हो रही हैं ॥ २ ॥

इस (संसाररूपी) वृक्ष का जो रूप वर्णन किया गया है, सायंस में वैसा नहीं पाया जाता। क्योंकि, न तो इसका आदि है न ही अन्त है। न ही पता है। कि कहाँ टिका हुआ है। इस कारण इसके सुदृढ़ जड़ को कठोर वैराग्य से काटकर जानो ॥ ३ ॥


वर्तमान सायंस और वेदज्ञान में अन्तर है। वेद शब्द का अर्थ भी ज्ञान है। वेदज्ञान इंस वृक्षरूपी जगत् की जड़ों तक पहुँच गया है। इससे यह सम्भव हो गया है कि इस जगत् की अनन्त शाखाओं में फैले ज्ञान को मानव-ज्ञान में लाया जा सके। इसका यह अर्थ भी है कि पूर्ण जानने योग्य एक मनुष्य की पहुँच में आ जाता है। यह वर्तमान विज्ञान की भाँति नहीं कि एक शाखा की उपशाखाओं और पत्तों को गिनने में ही मनुष्य उलझ जाए। मूल से आरम्भ करने से ज्ञान की सब शाखाओं में गति हो जाती है।


वेद शब्द का अर्थ है पूर्ण जगत् का ज्ञान। इस जगत् में अगणित वस्तुएँ हैं; सबका ज्ञान प्राप्त होता है क्योंकि इस जगत्-रूपी वृक्ष की जड़ परम ब्रह्म का ज्ञान वेद में है। जड़ के ज्ञान से पूर्ण जगत्रूपी वृक्ष का सामान्यं ज्ञान हो जाता है। जगत् का विस्तार पीपल वृक्ष की शाखाओं और पत्तों की भाँति बहुत बड़ा है। जड़ से ज्ञान-यात्रा आरम्भ करनेवाले को सामान्य ज्ञान पूर्ण वृक्ष का हो जाता है। यह वर्तमान सायंस की भाँति नहीं है कि वैज्ञानिक एक शाखा के पत्तों में उलझे तो शेष का कुछ भी ज्ञान न हो।


वैदिक विज्ञान का, सिद्धान्त के रूप में एक अतिप्राचीन ग्रन्थ सांख्य दर्शन में वर्णन किया गया है। सांख्य शब्द से ही सायंस शब्द विकृत होकर बना है। शब्द सांख्य में से 'ख्य' उच्चारण भ्रष्ट होकर 'Science' (सायंस) बन गया। सांख्य दर्शन के प्रवक्ता महर्षि कपिल मुनि हुए हैं। कपिल त्रेता युग के प्रारम्भिक काल में उतपन्न हुए माने जाते हैं। भारतीय गणना के अनुसार यह काल आज से इक्कीस लाख वर्ष पूर्व माना जाता है।


इतना तो निश्चय ही है कि यह महाभारत ग्रंथ से पूर्व का ग्रन्थ है। महाभारत में कपिल मुनि का वर्णन आया है। इससे यह स्पष्ट है कि वर्तमान वैज्ञानिकों से बहुत पहले का विज्ञान कुछ उन रहस्यों को बता गया है जो वर्तमान विज्ञान में समाविष्ट हैं और फिर उससे भी कुछ अधिक इसमें कहा है।


वेदज्ञान-भण्डार में सायंस का विस्तृत वर्णन सांख्य दर्शन में है। यह हम मूल पुस्तक में बताएँगे कि कहाँ सांख्य वर्तमान विज्ञान से आगे निकल गया है। यहाँ हम यह बता देना चाहते हैं कि वेद में ज्ञान को दो भागों में बाँटा गया है-विद्या और अविद्या विद्या का अर्थ है उन पदार्थों का ज्ञान जो सदा विद्यमान रहते हैं, और अविद्या का अर्थ उन पदार्थों से है जो नाशवान् है। वैदिक विज्ञान में तीन पदार्थ सदा रहनेवाले माने गए है-परमात्मा, आत्माएँ और प्रकृति; इनको अक्षर कहा है। इनके ज्ञान को विद्या कहा है। और जगत् के वे पदार्थ जो बने हैं और जो टूटते दिखाई देते हैं वे अनन्त हैं। उनके ज्ञान को अविद्या कहते हैं। साथ ही वेद में कहा है, दोनों प्रकार के पदार्थों का ज्ञान, अर्थात् विद्या और अविद्या दोनों का ज्ञान मनुष्य को होना चाहिए। वहाँ कहा है—


अन्यन्तमः प्र विशन्ति येऽअविद्यामुपासते।

 ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ विद्याया

 रताः अन्यदेवाहुर्विद्यायाऽ अन्यदाहुरविद्यायाः ।

 इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ।

 विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।

 अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥-(यजुः ४० – १२, १३, १४)

 अर्थात् — जो अविद्या (नाशवान् पदार्थों) की उपासना = ज्ञान प्राप्त अथवा भोग-विलास प्राप्त करते हैं वे अन्धकार (अज्ञान) में जाते हैं। और जो (केवल) विद्या (अक्षर-पदार्थों के ज्ञान में) ही रमते हैं वे और अधिक अन्धकार में विचरते हैं ॥ १२ ॥


सुनते हैं कि विद्वान् लोग कहते हैं कि विद्या का फल दूसरा है और अविद्या का फल दूसरा होता है ॥१३ ॥

जो विद्या और अविद्या को साथ-साथ जानता है, वह अविद्या से मर्त्यलोक (जन्म-मरणवाले संसार) को पार कर (सुगमता और सुखपूर्वक हुए। लाँघकर) अमृत (मोक्ष) को पाता है ॥ १४ ॥


इसका अभिप्राय यह है कि जगत् के पदार्थों के ज्ञान से जगत् में जीवन सुखमय और होता है। सुगम हो जाता है, और अनादि के ज्ञान से मनुष्य को मोक्ष प्राप्त अतएव वैदिक विज्ञान संसार को त्याज्य नहीं मानता। इसके ज्ञान को संसार में सुखमय जीवन व्यतीत करने में सहायक मानता है। वेद में संसार के सुखमय जीवन व्यतीत करने को वर्जित नहीं किया गया।

सायंस और वेद
सायंस और वेद

प्रथम अध्याय

सामान्य वृत्तान्त


जब हमें किसी एक विषय का अध्ययन दो भिन्न भाषाओं में करना हो तो यह आवश्यक हो जाता है कि उन भाषाओं में विषय के पारिभाषिक शब्दों का तुलनात्मक ज्ञान प्राप्त कर लिया जाए। यहाँ इस पुस्तक में हम विज्ञान के विषय का अध्ययन वेद की भाषा में और आधुनिक विज्ञान (सायंस) की भाषा में कर रहे हैं। अतएव दोनों भाषाओं में विज्ञान-सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों का पहले अध्ययन किया जाए। सबसे पहले वैदिक भाषा के शब्द 'पदार्थ के विषय में ही समझना चाहिए। पदार्थ वे कहाते हैं जिनका नाम भाषा में कहा जा सके। जगत् के सब पदार्थ जिनका भाषा में नाम है वे पदार्थ कहे जाते हैं।


वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में पदार्थ शब्द का पर्याय प्राप्त नहीं है। शब्द 'थिंग' अथवा 'सब्स्टेंस' इसके पर्याय नहीं। 'थिंग' और 'सब्स्टेन्स' अंग्रेजी भाषा के शब्द, पदार्थ के अर्थों को प्रकट नहीं करते। ये अंग्रेजी भाषा के शब्द कुछ पदार्थों के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकते। उदाहरण के रूप में 'गॉड' तथा 'सोल' शब्द थिंग तथा सबस्टेन्स नहीं कहाते। वेद का पदार्थ शब्द उनके लिए भी प्रयुक्त होता है। अभिप्राय यह है कि जो कुछ हम शब्दों में वर्णन कर सकते हैं वह पदार्थ कहा जाता है। ऐसा कोई शब्द वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में नहीं है।


यह बात कि परमात्मा, जीवात्मा तथा प्रकृति और इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों से (बलशाली यंत्रों की सहायता से भी) न जाने जा सकने का विषय नहीं। यह कारण नहीं कि वे है ही नहीं। सामान्य अंग्रेजी भाषा में उनके लिए शब्द 'गॉड', 'सोल' और 'प्राइम-ओर्डियल मैटर' है। वैदिक भाषा में इनको भी पदार्थ माना जाता है। इनकी वैज्ञानिक स्थिति क्या है, यह इस पुस्तक की विवेचना का विषय है। जहाँ तक इनका नाम है, ये भी पदार्थ कहे जाते हैं। इसी प्रकार कुछ अन्य पदार्थ हैं। उनका वर्णन आगे किया जाएगा। 

वैदिक भाषा में पूर्ण जगत् के पदार्थ गणों में विभक्त हैं। गण का अभिप्राय श्रेणियाँ (क्लास) कहा जा सकता है। जगत् के पदार्थ सात श्रेणियों में विभक्त हैं। इनको गण कहते हैं।


पूर्व इसके कि हम इन श्रेणियों के विषय में बताएँ हम 'जगत्' शब्द का भी अर्थ समझा देना चाहते हैं। जगत् उस प्रपंच को कहते हैं जो हम अपने चारों ओर गतिशील (चलता हुआ) पाते हैं। पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, तारागण अथवा जो कुछ भी गतिशील हमारे चारों ओर है, वह एक नाम 'जगत्' से जाना जाता है। जगत् शब्द के शाब्दिक अर्थ है वह जो गतिशील है। जो बना हुआ है और जो नाशवान् है, वह जगत् कहा जाता है।


आधुनिक विज्ञान में प्रायः इसे 'युनिवर्स' कहा जाता है। हम समझते हैं कि 'युनिवर्स' शब्द जगत् का पर्याय नहीं है। युनिवर्स तो एक ही है, परन्तु जगत् तो एक-दूसरे से स्वतन्त्र कई-कई हैं। उन सब का भी एक नाम है। (संसार), परन्तु वैज्ञानिक भाषा में 'युनिवर्स' उस गैलैक्सी को, जिसका हमारा सौर-मण्डल एक बहुत ही छोटा भाग है, आकाश-गंगा कहते हैं। इस आकाशगंगा के अतिरिक्त भी अन्य तारामंडल हैं।


इस खगौलिक (एस्ट्रोनॉमिकल) पारिभाषिक शब्दों को छोड़कर हम अपने पृथिवी पर के पदार्थों की श्रेणियों का हो वर्णन इस पुस्तक में कर रहे हैं। 

सांख्य दर्शन उन गणों का उल्लेख इस प्रकार करता है 

सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात्प ञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं तन्मात्रेभ्य: स्थूलभूतानि पुरुष इतिपञ्चविंशतिर्गणः ।। (सां० २० १६१) 

सांख्य इस जगत् को पच्चीस गणों में विभक्त करता है। वे गण उक्त द्धरण में गिनाए हैं। इसका अर्थ है-


१. सत्त्व, रजस् और तमस् की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। यह एक ही है। यह गण नहीं है।

२. प्रकृति से महान् बनता है। यह एक ही है।

३. महत् से अहंकार बनते हैं। ये तीन हैं।

४. अहंकार से दोनों प्रकार की इंद्रियाँ बनती हैं। ये दस है।

५. अहंकार से पाँच तन्मात्रा बनते हैं। ६. तन्मात्राओं से पंच महाभूत बनते हैं।


७. पुरुष जिसके लिए ये ऊपर कहे पदार्थों के गण बने हैं। इस प्रकार पच्चीस गण है।

 इन गणों के पर्यायवाचक वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में बताए जाएँ तो वे इस प्रकार होंगे :


पुरुष दो हैं—एक परमात्मा (गॉड) और दूसरा जीवात्मा (सोल) ।

 प्रकृति—ये तीन शक्तियों सत्त्व, रजस् और तमस् की साम्यावस्था को कहते हैं (प्राइम-ऑर्डियल मैटर)।

इन तीनों का वर्तमान विज्ञान में कुछ नाम नहीं है। बोलचाल की भाषा में इनको 'गॉड', 'सोल' और 'मैटर' कहते हैं। परन्तु वर्तमान विज्ञान इनको स्वीकार नहीं करता। वैदिक विज्ञान इन तीनों को न केवल स्वीकार करता है। वरन् इन तीनों को पूर्ण जगत् का आधार मानता है।


महत्-इसका विज्ञान में कुछ नाम नहीं है। कुछ इसको कॉस्मिक डस्ट कहते हैं, परन्तु यह महत् का ठीक-ठीक वर्णन नहीं माना जा सकता।

अहंकार—यह शब्द सांख्य दर्शन का है। वैदिक भाषा में इसे 'आप' कहते हैं। ये तीन प्रकार के हैं। ये वर्तमान विज्ञान को भी विदित हैं। इनका सामूहिक नाम एटॉमिक पार्टिकल है। एटॉमिक पार्टिकल भी तीन प्रकार के हैं। विज्ञान में इन तीन के पृथक्-पृथक् नाम और गुण हैं। वैदिक भाषा में भी इनके पृथक्-पृथक् नाम और गुण हैं।


ये तीन नाम इस प्रकार हैं

१. मित्र इलेक्ट्रॉन

२. वरुण = प्रोटोन 

३. अर्यमा =  न्यूट्रॉन 

इन आपः से बनते हैं परिमण्डल (ऐटम्स)। ये परिमण्डल ही सृष्टि के सब पदार्थों को बनाते हैं।

सांख्य दर्शन में कहा है कि अहंकारों से पंच तन्मात्रा और इन्द्रियाँ बनती हैं। तन्मात्रा संख्या में पाँच है और इन्द्रियाँ दस हैं। जो पदार्थ अहंकारों और तन्मात्रा की सहायता से बनते हैं उनको पाँच श्रेणियों में बाँटा गया है।

इन श्रेणियों के नाम है— पृथिवी, जल, वायु, अग्नि और आकाश । यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना चाहते हैं। पुरुष हमने दो कहे है, परन्तु सौख्य में एक का ही कथन है। इसका कारण है कि एक प्रकार का पुरुष जीवधारियों में ही आता है। ये गिनती में असंख्य है। दूसरी प्रकार का पुरुष एक ही सर्वत्र व्यापक है। इस सब गणों का वर्णन ही वैदिक विज्ञान है। वर्तमान विज्ञान में इसकी कहाँ समानता है और कहाँ भिन्नता है ? यह हम यथास्थान व्याख्या से वर्णन करेंगे।

द्वितीय अध्याय

अक्षर पदार्थ


संसार के सब पदार्थ मुख्य रूप से दो श्रेणियों में बाँटे गए हैं। एक वे जो सदा बने रहते हैं। वे नष्ट नहीं होते। वे तीन हैं। वे हैं---परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति साम्यावस्था में। ये तीनों अव्यक्त कहाते है। अव्यक्त का अभिप्राय है जिनका रूप, रंग इत्यादि नहीं होता। ये मनुष्य की इन्द्रियों की पहुँच से परे हैं। इन्द्रियों की पहुँच यंत्रों की सहायता से बहुत दूर तक जा सकती है। दूरबीन 'टेलिस्कोप' बहुत दूर तक दृष्टि को पहुँचा देती है। इसकी सहायता से करोड़ों, पद्मों मील की दूरी की वस्तु देखी जा सकती है। भी इस प्रकार क्षुद्रबीन (माइक्रोस्कोप) अतिसूक्ष्म वस्तु को देखने में सहायक होती है। बढ़िया माइक्रोस्कोप से किसी वस्तु को लाखों गुणा बड़ा कर दिखाया जा सकता है।

परन्तु कहा जाता है कि ये तीनों पदार्थ– परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति इन यंत्रों की पहुँच से भी परे हैं। इस कारण ये इन्द्रियों की पहुँच से भी बहुत परे हैं। प्रश्न उपन्न होता है कि जब ये पहुँच से ही परे हैं तो फिर इनकी उपस्थिति कैसे मानी जाए? यही कारण है कि वर्तमान विज्ञान इनको नहीं मानता । परन्तु यह तो बुद्धि को स्वीकार नहीं कि शून्य से यह दृश्य जगत् बन गया। 'कुछ नहीं' से कुछ, बन नहीं सकता। मूल में कुछ होना मानना पड़ता में है। अन्यथा जगत् के विभिन्न पदार्थों का बनना बुद्धिगम्य नहीं। अतः 'कुछ' है, जिससे इस जगत् के पदार्थ बने हैं। भारतीय विज्ञान में ऐसे पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक ढंग निकाला गया है। इसको नुमान प्रमाण कहा जाता है। 

सांख्य का सिद्धान्त है–

नावस्तुनो वस्तुसिद्धि ॥-(सां० २० १-७८)


अर्थात्-अवस्तु (शून्य) से कुछ नहीं बनता। यह शुद्ध बुद्धि से विचारित तथ्य है। किसी पीर-पैगम्बर' अथवा इलहामी किताब में वर्णन से मानने के लिए नहीं कहा जा रहा। इसके साथ ही सांख्य की यह भी मान्यता है :


मूले मूलाभावादमूलं मूलम् ॥-(सां० द०१-६७)


अर्थात्- -मूल में मूल का अभाव होने से मूल मूलरहित है। इसका अभिप्राय यह है कि अंतिम मूल पदार्थ मानना पड़ता है। यदि पदार्थ का मूल, उसका मूल और फिर उसका भी मूल ढूँढते फिरें तो एक स्थान पर सबका एक मूल मानना पड़ेगा। यह बात भी युक्ति ही से कही गई है। ऐसी युक्ति को तर्क कहते हैं। तर्क में भी एक शर्त है। वह यह कि तर्क बिना आधार के नहीं किया जा सकता। जब तर्क आधारयुक्त हो तो इसे अनुमान-प्रमाण कहते हैं।


नैयायिक चार प्रकार का प्रमाण मानते हैं। नैयायिक का मत है कि इस कार्य-जगत् में कुछ भी प्रमाण अर्थात् तर्क-रहित नहीं है। संसार में किसी भी वस्तु के होने अथवा न होने की सिद्धि इन चार प्रकार के प्रमाणों से की जा सकती है। न्याय दर्शन में कहा है :


प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ॥ (न्याय ८० १-१-३) 

इसका अर्थ है-पदार्थ के होने अथवा न होने की सिद्धि निम्न चार प्रकारों से की जी सकती है—

१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. उपमान और ४. शब्द-प्रमाण से। प्रत्यक्ष का अभिप्राय है कि जब पदार्थ इन्द्रियों से जाना जाए तो उसकी प्रत्यक्ष में सिद्धि मानी जाती है। मनुष्य में पाँच ज्ञान-इन्द्रियाँ है—चक्षु, घ्राण, श्रवण, रसना और स्पर्श । इनके द्वारा, इनके अपने-आप अथवा इनके सहायक किसी भी यंत्र द्वारा पदार्थ के होने अथवा न होने को सिद्ध किया जा सकता है। जो प्रत्यक्ष, इन्द्रियों से जाना जा सकता है, उससे तो कोई इनकार नहीं कर सकता। वर्तमान युग के वैज्ञानिक भी इससे सिद्ध वस्तु से इनकार नहीं करते। परन्तु इस जगत् के मूल अक्षर अतिसूक्ष्म और अव्यक्त, रूप-रंग-रहित

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