মাল্টিভার্স [অথর্ববেদ ৮।৯।১] |
व॒त्सौ वि॒राजः॑ सलि॒लादुदै॑तां॒ तौ त्वा॑ पृच्छामि कत॒रेण॑ दु॒ग्धा ॥-Atharvaveda 8/9/1
पदार्थान्वयभाषाः -(कुतः) कहाँ से (तौ) वे दोनों [ईश्वर और जीव] (जातौ) प्रकट हुए हैं, (कतमः) [बहुतों में से] कौन सा (सः) वह (अर्धः) ऋद्धिवाला है, (कस्मात् लोकात्) कौन से लोक से और (कतमस्याः) [बहुतसियों में से] कौन सी (पृथिव्याः) पृथिवी से (विराजः) विविध ऐश्वर्यवाली [ईश्वर शक्ति, सूक्ष्म प्रकृति] के (वत्सौ) बतानेवाले (सलिलात्) व्याप्तिवाले [समुद्ररूप अगम्य दशा] से (उत् ऐताम्) वे दोनों उदय हुए हैं, (तौ) उन दोनों को (त्वा) तुझ से (पृच्छामि) मैं पूँछता हूँ, वह [विराट्] (कतरेण) [दो के बीच] कौन से करके (दुग्धा) पूर्ण की गई है ॥
भावार्थभाषाः -ईश्वर और जीव अपने सामर्थ्य से सब लोकों और सब कालों में व्याप्त हैं, उन्हीं दोनों से प्रकृति के विविध कर्म प्रकट होते हैं, ईश्वर महा ऋद्धिमान् है और वही प्रकृति को संयोग-वियोग आदि चेष्टा देता है ॥
टिप्पणी:१−(कुतः) कस्मात् स्थानात् (तौ) ईश्वरजीवौ (जातौ) प्रादुर्भूतौ (कतमः) वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्। पा० ५।३।९३। किम्-डतमच्। बहूनां मध्ये कः (सः) ईश्वरः (अर्धः) ऋधु वृद्धौ-घञ्। प्रवृद्धः। ऋद्धिमान् (कस्मात्) (लोकात्) भुवनात् (कतमस्याः) कतम-टाप्। बह्वीनां मध्ये (कस्याः) (पृथिव्याः) भूलोकात् (वत्सौ) वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। वद व्यक्तायां वाचि, वा वस निवासे आच्छादने च-स प्रत्ययः। वदितारौ। व्याख्यातारौ (विराजः) सत्सूद्विषद्रुहदुह०। पा० ३।२।६१। वि+राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च-क्विप्। विविधैश्वर्याः। ईश्वरशक्तेः। प्रकृतेः (सलिलात्) सलिकल्यनिमहि०। उ० १।५४। पल गतौ-इलच्। व्यापनस्वभावात्। समुद्ररूपात्। अगम्यविधानात् (उदैताम्) इण् गतौ-लङ्। उद्गच्छताम् (तौ) ईश्वरजीवौ (त्वा) विद्वांसम् (पृच्छामि) अहं जिज्ञासे (कतरेण) किंयत्तदोर्निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच्। पा० ५।३।९२। किम्-डतरच्। ईश्वरजीवयोर्मध्ये केन (दुग्धा) प्रपूरिता सा विराट् ॥
देवता: पुरुषः ऋषि: नारायणः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पूरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥-ऋग्वेद १०।९०।४॥
भावार्थ - ( त्रिपात् पूरुपः ) तीन चरण वाला, जो पूर्व अमृत स्वरूप कहा है, वह (ऊर्ध्वः ) सब से ऊपर (उत् ऐव) सर्वोत्तम रूप से जाना जाता है, (अस्य पादः पुनः इह अभवत्) इसका व्यक्त स्वरूप-एकचरणवत् यहां जगत रूप से प्रकट है। (ततः) वह व्यापक प्रभु ही (विश्वः वि अक्रम) सर्वत्र व्यापता है। (स:अशन-अनशने अभि) जो ‘अशन' अर्थात् भोजन व्यापार से युक्त प्राणिगग,चैतन और अनशन' अर्थात भोजन न करने वाले अचेतन, जड़ अथवा व्यापक और अव्यापक पदार्थ सत्र में वही विद्यमान है।-R10/90/4
पदार्थान्वयभाषाः -(त्रिपात् पुरुषः) पूर्वोक्त वह अमृतरूप तीन पादों से युक्त परमात्मा (ऊर्ध्वः-उदैत्) नश्वर संसार से ऊपर स्थित है (अस्य पादः) इसका पादमात्र संसार (इह पुनः-अभवत्) इधर नश्वररूप में पुनः-पुनः उत्पन्न होता है (ततः) पश्चात् (साशनानशने-अभि) भोगसेवित-भोगनेवाले जीवात्मा को तथा भोगरहित न भोगनेवाले जड़ के प्रति (विष्वक्-व्यक्रामत्) विविध गुणवत्ता से व्याप्त होता है ॥
भावार्थभाषाः -पूर्ण पुरुष परमात्मा अमृतरूप त्रिपाद इस संसार से ऊपर है, यह संसाररूप पाद पुनः-पुनः उत्पन्न होता है। इसके अन्दर भोगनेवाले जीव और न भोगनेवाले जड़ के अन्दर परमात्मा व्याप रहा है ॥-ब्रह्ममुनि
No comments:
Post a Comment
ধন্যবাদ