भारत में मुस्लिम सुलतान - ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

02 February, 2022

भारत में मुस्लिम सुलतान

ईसा की सातवीं शताब्दी में जब अरब तथा उसके पड़ोसी देशों से असभ्य तथा बर्बर लोगों के गिरोह भारत में आने शुरू हुए थे तब से लेकर • उस समय तक के भारत के इतिहास का अध्ययन - जबतक देश-भक्ति की भावना से पूर्ण शक्तियों ने उन्हें अन्ततः निश्चल तथा निर्वीर्य न बना दिया–बड़ा विषादपूर्ण और बीभत्स है।

भारत में मुस्लिम सुलतान


भारत में प्रवेश कर ये बबंर गिरोह दीमक तथा टिड्डी-दल के समान इस देश को चट कर गए। वहां के राजप्रासादों तथा सुरम्य भवनों में दूध और शहद की नदियां बहती थीं और जो स्वर्ण तथा हीरे-मोतियों से सुसज्जित तथा प्रकाशवान थे, उस देश को इन्होंने खुली नालियों, झोपड़ियों, और कच्चे मकानों वाली गन्दी बस्ती में परिवर्तित कर दिया।

भारतीय इतिहास के कपटवेश में इस काल के जो वृत्तान्त विश्वभर के स्कूलों, कालिजों और शोध-संस्थाओं में पढ़ाए जाते हैं वे तब जले पर और भी नमक छिड़कते हैं जब उनमें इस सहस्राबदी को इस आधार पर स्वर्णयुग बताया जाता है कि तब अरबी और फारसी संस्कृतियों का भारतीय संस्कृति (एवमेव) के साथ यशस्वी (एवमेव) संयोजन हुआ था।

वस्तुतः नृशंस तथा क्रूर जत्थों द्वारा हिंसात्मक व्यवहारों ओर ध्वंसों, हत्याओं और सामूहिक नरसंहारों, अपहरण, लूटमार और चोरियों, बलात्कारों और डाकों, यातनाओं तथा क्रूर पीड़ाओं का ७वीं शताब्दी से १८वीं शताब्दी ईसा तक का यह १००० वर्षों का समय बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण था। पर यह चित्रण तब और भी भ्रष्ट हो जाता है जब इस युग को भारत का सौभाग्य बताया जाता है।

हमने उपर्युक्त इस दावे के समर्थन के पक्ष में आतुरता से साक्ष्यों की खोज की पर महान् आश्चर्य है कि उन विदेशी चापलूस द्वारा लिखे गये पक्षपात युक्त वृत्तों में भी हमें एक भी साक्ष्य न मिला, जिन्होंने विदेशियों द्वारा किए गये पापों और अपराधों की लूट में दिल खोलकर भाग लिया : था। इन वृत्तों में तो मात्र शराब के नशे में चूर और अफ़ीम के नयो में धुत ऐयाशों का सिहासनों पर कब्जा करने वाले बहुरूपियों को थैलियों में कटे हुए सिर पेश करने का, हर युद्ध और विद्रोह के बाद सामूहिक नर-संहार में काटे गये सिरों की मीनारों का, हरमों और वेश्यागृहों में जहां हज़ारों की संख्या में स्त्री और पुरुष गुलाम रहते थे, कामुकतापूर्ण रंगरेलियों और अप्राकृतिक व्यभिचार का, दानवीय यातनाओं द्वारा हत्या तथा आँखें फोड़ने का, छुरे या गर्म सलाखों के बल पर बलात्कार का भय दिखाकर सामूहिक धर्म परिवर्तन का, घूसखोरी और भ्रष्टचार का, चोरी और डकैती का, और भारत की सम्पदा लूटकर बरब, अबीसीनिया, इराक़, फारस, अफ़गा निस्तान और तुर्की ले जाने का और हिन्दुओं के घोड़े की सवारी करने पर रोक लगाने का, अपने वस्त्रों पर एक अपमानजनक रंगीन धब्बा लगाकर चलने को बाध्य करके उन्हें उनकी अपनी ही मातृभूमि में तिरस्करणीय गुलाम और गुंडों के रूप में दागने का, उनकी स्त्रियों और बच्चों के अपहरण और हजारों की संख्या में गुलामों के रूप में बेचे जाने का और इसी तरह हथियाई गई सम्पत्ति और मनुष्यों का विदेशी जत्यों के नेताओं और उनके अनुचरों के मध्य १ : ५ और ४ : ५ के अनुपात में विभाजन का वर्णन है।

जिन लोगों को यह सब वर्णन बड़ा कठोर, अतिबादी और एक-पक्षीय लगे उन्हें हम यह बताना चाहेंगे कि अपने समस्त वर्णन में हमने एक भी उपाख्यान को अतिरंजित करने की या तथ्यों को घटाने-बढ़ाने की कोई बेष्टा नहीं की है। भारत में मुस्लिम युग का इतिहास इतना रक्तरंजित है कि कोई इतिहासकार उसे 'रंगना' भी चाहे तो ऐसा करने की कोई गुंजा इश नहीं है। हर शासन ऐसा पागलखाना था और विभिन्न शासनों के मध्यवर्ती कालों में जो हो-हुल्लड़ था वह इतना पाशविकतापूर्ण था कि सर्वाधिक कल्पनाशील लेखक को भी भारत में विदेशी कुशासन के इन १००० वर्षों के किसी भी वर्णन में इससे अधिक अशुभ घटनाओं को जोड़ने


अथवा उनकी कल्पना करने की गुंजाइश ही नहीं है। वास्तव में यथार्थ घटनाएँ स्वयं में इतनी नृशंस, असंचय और सुदीपं थीं और विदेशी वृतकार इतने पक्षपाती थे कि हमारे पास तक पहुँचने वाले विवरण उस दुर्भाग्य के, जो हिन्दुत्व को उन लोगों के हाम १००० वर्षों के दौरान भोगना पड़ा, मात्र नमूने हैं। इन लोगों का तो अन्धविश्वास था कि इस्लामी जन्नत प्राप्त करने का एकमात्र रास्ता यही था कि इसी भूमि पर हिन्दुओं के लिए नरक बना दिया जाये।

मध्यकालीन मुस्लिम वृत्त-लेखकों की तथ्य-गोपन तथा अपकथन या मिथ्या सुझावों की प्रवृत्ति इतनी पूर्णता को पहुंची हुई थी कि महान् ब्रिटिश इतिहासकार सर एच० एम० इलियट को बाध्य होकर उनका मूल्यांकन निर्लज्ज, ढीठ और पक्षपातपूर्ण कपट के रूप में करना पड़ा। फिर भी हमने अपने आपको उनके अपने ही धर्म-बन्धुओं के तत्कालीन काले कारनामों का वर्णन करने के लिए विदेशी पक्षपाती वृत्त-लेखकों के ही उद्धरणों का हवाला देने तक सीमित रखा है। हम इसके अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकते थे, कारण उस समय हम स्वयं तो उपस्थित थे नहीं। इससे पाठक को आश्वस्त हो जाना चाहिए कि वह जो कुछ अगले पृष्ठों में पढ़ेगा वह भारत में मध्ययुगीन विदेशी शासन के सर्वेक्षण के बेतरतीब नमूने मात्र और न्यूनोक्ति होगी और किसी भी रूप में उस समय के यन्त्रणापूर्ण दिनों के संत्रास और आतंक का विस्तृत विवरण न होगा।


यदि पाठक को विभिन्न अध्यायों में "हत्या, बलात्कार और नर संहार" जैसे शब्द बार-बार दोहराए गये मिलें तो इसका कारण यह है कि १००० वर्ष की इस अवधि में नृशंस आक्रांताओं के दलों ने इन निन्दनीय कृत्यों को बार-बार दुहराया। मनुष्य की वाणी उस समय की असीम यातना और दुर्भाग्य का वर्णन करने में असमर्थ है। उस समय शासन तथा धर्म के संरक्षण में बर्बरता असंख्य रूपों में छाई हुई थी। चापलूस वृत्त-लेखकों ने अपने यदा-कदा प्रत्येक विदेशी बदमाश के जिसने राजा या दरबारी के रूप में कपट वेश धारण किया–प्रशंसा के पुल बाँधकर और उसे "न्यायप्रिय बुद्धिमान तथा दयालु" कहकर अपने रक्तरंजित विवरणों को नया मोड़ देने का ध्यान रखा है। यह श्रेय और प्रशस्तियाँ अन्ध देशभक्तिपूर्ण, धर्मान्ध, पक्षपाती और पिघमाने वाली श्रद्धांजलियों से अधिक कुछ नहीं है। इसका स्पष्ट प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि यह वर्णन करने के बाद वृत्त-लेखक उस विभीषिकापूर्ण नाटक का वर्णन करने लगते हैं जिसका आयोजन विदेशी आक्रान्ता अपूर्व सफलता तथा जोश से करते थे। ।


विश्व भर में भारतीय इतिहास का पठन-पाठन करने वाले सभी व्यक्तियों का आज एक महान् उत्तरदायित्व है। उन्हें भारतीय इतिहास की गन्द-भरी बश्वशाला को पक्षपात, झूठ, न्यूनोक्तियों, विकृतियों, दमन और भ्रामकता की गन्दगी हटाकर स्वच्छ बनाने का दुष्कर कार्य करना है। यह कार्य कितना ही कष्टदायक क्यों न हो और इतने लम्बे समय के बाद इस कड़वे सत्य को स्वीकार करने का कर्तव्य ही पिछड़ापन समझा जाये पर इतिहास के अभिलेखों को ठीक रखने के लिए यह कार्य करना ही होगा।

आधुनिक भारतीय लेखकों ने भारतीय इतिहास की घटनाओं को जिस खूबी से तोड़-मरोड़कर बर्बर कृत्यों को 'गोरव' का परिधान पहनाया है, उससे स्पष्ट होता है कि ये लेखकगण प्रशासक, राजनीतिज्ञ और साम्प्रदायिक व्यक्ति थे। वे इतिहासकार न थे क्योंकि उनका कार्य तो सच्चाई, पूर्ण सच्चाई और सच्चाई के अतिरिक्त और कुछ नहीं—का लेखा-जोखा करना होता है। वे "साम्प्रदायिक एकता और सद्भाव", “बीती ताहि बिसार दें” और “भूल जाओ और क्षमा करो" के बुलन्द नारों से गुमराह हो गये थे। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि इतिहासकार न महात्मा होता है न राजनीतिज्ञ इतिहासकार का काम तो अतीत को ब्रोदना है बोर इसलिए एक सच्चे और ईमानदार इतिहासकार का कर्तव्य है कि तथ्यों तथा घटनाओं का उसी रूप में उल्लेख करे जैसी वे घटित हुई हैं। उसे न रक्तरंजित घटनाओं का गौरव गान करना चाहिए और न ही देशमन्तिपूर्ण व्यवहार की अवमानना करनी चाहिए। उसे अपने ऊपर इतिहास के माध्यम से साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की विशेष जिम्मे बारी नहीं बोपनी चाहिए।

असुविधाजनक घटनाओं को छद्यावरण में प्रस्तुत करने के लिए अथवा उनका बिल्कुल सफाया करने को इतिहासकार को गुमराह करने के लिए बहकाने वाले नारों को सिद्धान्त बनाना इतिहास का कला देवी को साम्प्र दायिक और राजनीतिक उद्देश्यों रूपी वेश्या के स्तर तक गिरा देना है। हम दिल से चाहते हैं कि भारत के सभी नागरिक, चाहे वे किसी भी धर्म को मानते हों, भारत के राष्ट्रीय सम्प्रदान में अपने को अनुपयुक्त मानने की बजाए भारतीय संस्कृति में संघटित हों तथा उससे तादात्म्य स्थापित करें। पर इस उद्देश्य की पूर्ति इतिहास के उन रक्तरंजित पैबंदों को मात्र रफू करके, अथवा मध्ययुगीन इतिहास के सन्दर्भ में अन्य दिशा निर्धारित करके अथवा यह ढोंग रचते हुए नहीं की जा सकती कि मध्य युगीन काल शान्ति, समृद्धि और आदर्श न्यायप्रियता का काल था। इन सभी प्रयत्नों ने विभिन्न भारतीय सम्प्रदायों की दरार को केवल स्थायी करने का काम किया है। साम्प्रदायिक सौहार्द के निर्माण के लिए एक अधिक सहनशील, निश्चित और ईमानदार रास्ता यह है कि इसकी नींव मध्ययुगीन इतिहास के वास्तविक तथ्यों पर रखी जाये।


सबसे पहली और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्तमान पीढ़ी के भारतीय मुसलमानों को उन विदेशी लुटेरों से, जिन्होंने १००० वर्ष तक कुकृत्य किए अपना सम्बन्ध या रिश्ता जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। 

इसके तीन कारण हैं-

१. जिन विदेशी बर्बरों ने भारत पर आक्रमण किया उन और इन मुसलमानों के बीच कई पीढ़ियों का अन्तर है, 

२, एक ही धर्म से सम्बन्ध रखने का अर्थ यह नहीं है कि कुकृत्यों में भागीदार बनने की इच्छा महसूस की जाए। उदाहरण के लिए हमारे ही समय में अनेक मुसलमान अपराधी जेलों में पड़े हैं। क्या न्यायप्रिय मुस्लिम नागरिकों का यह कर्तव्य है कि वे धर्म के नाम पर इनसे सम्बन्ध या रिश्ते का दावा करें और जब इन्हें सजा मिले तो दुःख अनुभव करें।

 ३. आज के अधिकांश मुसलमानों का हिन्दुओं से धर्म परिवर्तन हुआ है। अतः पुनः उन्हें उन विदेशी आक्रान्ताओं और शासकों से तादात्म्य स्थापित करने के लिए बाध्य महसूस करने को आवश्यकता नहीं है, जिन्होंने शताब्दियों पूर्व भारत में आतंक मचाया था।


हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा- यद्यपि यह इतिहास-लेखक अथवा अध्यापक के कार्यक्षत्र में नहीं आता-यह है कि मध्ययुगीन इतिहास की सभी रक्तरंजित तथा दारुण घटनाओं का यथातथ्य उल्लेख हो ताकि वर्तमान और भावी पीढ़ियों को आगाह किया जा सके कि वे इन दुष्कृत्यों की पुनरावृत्ति न करें। वस्तुतः इतिहास की जिंक्षा का प्रमुख उद्देश्य यही है कि मानवता अतीत से भविष्य के लिए सबक ले सके। वह उद्देश्य उस समय बिल्कुल असफल हो जाता है जब इतिहास को झूठा और अयथार्थ रूप दिया जाता है। ऊपर से लीपा-पोती किया गया और मुलम्मा बढ़ाया गया इतिहास केवल याददाश्त पर एक रिक्तदन्ती ही नहीं बनता वरन् खतरनाक भ्रान्तियों और गर्तों को छिपाने के मार्ग पर अग्रसर करता है।

हिन्दू-मुस्लिम दरार के विरुद्ध दोखचिल्ली के समान विचारों और चेष्टाबों के बावजूद यह दरार बनी ही रही क्योंकि भारतीय इतिहास को प्रशासकों, राजनीतिज्ञों और साम्प्रदायिक लोगों की सनक पूरी करने के लिए बयथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस अयथार्थ रूप में प्रस्तुती करण का परिणाम यह हुआ कि दोनों ही सम्प्रदायों ने अपनी ऐतिहासिक ग्रन्थियां बनाए रखा। एक ओर तो मुसलमानों को अरब और अबीसीनिया, कुवाकिस्तान और उजबेकिस्तान, तुर्की घोर ईरान तथा अफगानिस्तान और इराक़ से आए विदेशी आक्रान्ताओं से तादात्म्य स्थापित करने को बाध्य किया गया और दूसरी ओर गैर-मुसलमानों के प्रति उनके द्वारा किए गये कुल वंर के लिए गर्व महसूस कराया गया। उन्हें यह विश्वास दिलाया गया कि उन विदेशी सहधमियों की करतूतों से मात्र गौरव की वर्षा होती है । अतः उनके मस्तिष्क में अवचेतन में एक ग्रन्थि निर्मित होती है कि उन्हें यशस्वी (एवमेव) हिसात्मक व्यवहार और ध्वंस के उस कीर्तिमान की मात्र पुनरावृत्ति और अनुकरण ही नहीं करना अपितु उसे मात करना है। इस प्रकार पूर्ण सद्भावनाएँ रखते हुए भी इतिहास को जयचार्थ रूप में प्रकट करने वाले लोग न मुसलमानों के दोस्त हैं, न हिन्दुओं के इतिहास को अयथार्थ रूप में प्रकट करने से, हालांकि वह ऐसा अच्छी से अच्छी भावनाओं से करते हैं, वे इस ग्रन्थि को स्थायी और पुष्ट करने में महायता देते हैं कि एक 'मच्चा' मुसलमान बनने के लिए हर किसी आदमी को हिन्दुओं से घृणा करना तथा इराक, ईरान, तुर्की और अरब को देश मानना आवश्यक है।

मूल उसी प्रकार हिन्दू भी अपनी ग्रन्थि संजोए रहता है जो उसे गुप्त फोड़े की भांति पीड़ित करती है। प्रशासकों, राजनीतिज्ञों अथवा सम्प्रदाय वादियों शरः वह अन्धविश्वास करने के लिए बाध्य किए जाने पर कि भारत में विदेशी शासकों द्वारा अपनाया गया मध्ययुगीन कुल बैर हिन्दुओं की भलाई के लिए ही था, हिन्दू नागरिक को इस बात पर बड़ा आश्चर्य होता है कि यदि लूट-खसोट, कोड़े लगाकर दासता स्वीकार कराना, अमानवीय यन्त्रणा, पूर्ण अव्यवस्था, अराजकता, बलात्कार, नर-संहार बौर ध्वंस की इन करतूतों को गौरवपूर्ण कृत्य मानना है तो वास्तविक दुष्कृत्य क्या होंगे !

अपने दैनन्दिन व्यवहार में हम जानते हैं कि यदि किसो व्यक्ति ने जानबूझकर और बार-बार अन्य व्यक्ति के साथ अनुचित व्यवहार किया है तो उन दोनों में सौहाई स्थापित करने का सबसे अच्छा तरीक़ा यही है कि गलती करने वाला साहस के साथ अपनी गल्तियाँ कबूल करे और भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति न करने की कसम खाए। यदि गलती करने वाला दम्भ में लगातार यह मना करता रहे कि उसने कोई गलती नहीं की है या उस पर मुलम्मा चढ़ाता रहे तो वह दूसरे में अपने प्रति न प्रेम उपजा सकता है, न विश्वास । यही बात हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी लागू होती है। आज के मुसलमानों को पुराने समय के विदेशी दुराचारियों से सम्बन्ध स्थापित करने का दावा बिल्कुल नहीं करना चाहिए, यद्यपि यह दुराचार इस्लाम के नाम पर किए गए थे। यदि भारतीय मुसलमान विदेशी मुस्लिम आक्रान्ताओं के सम्बन्धी होने का दावा करते हैं तो उन्हें दुष्कृत्यों के लिए उन आक्रान्ताओं की भर्त्सना करनी चाहिए और उनसे गौरवान्वित होने का विचार छोड़ देना चाहिए। लेकिन यदि ऐसा कोई मुसलमान या हिन्दू है जो विदेशी मध्ययुगीन

बर्बरता पर गौरव अनुभव करता हो तो वह स्वतः ही भत्संना का पात्र है। उपर्युक्त अनुरूपता केवल आधुनिक साम्प्रदायिक सम्बन्धों पर आंशिक रूप से लागू होती है क्योंकि हम यह बिल्कुल मुझाना नहीं चाहते कि २०वी शताब्दी के मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ बुराई की है। हम कहना चाहते. हैं कि यदि वे विदेशी मुस्लिम आक्रान्ताओं से कोई भी सम्बन्ध स्थापित करने का दावा करते हैं तो उन्हें कम-से-कम उनके कारनामों के लिए उनकी भर्त्सना करनी चाहिए और उन्हें गौरवान्वित करना छोड़ देना चाहिए ।

भारत के मध्ययुगीन मुसलमान राजा और दरबारी मारे समय दूसरे की गर्दन काटने और अपनी गर्दन बचाने के चक्कर में ही पड़े रहे। जिन पुस्तकों में उस समय के महान् आदर्शबाद, जनकल्याण की कामना, न्याय के लिए आदर्श प्रशासनिक व्यवस्था, राजस्व संग्रह की सुगम व्यवस्था का वर्णन है वे मात्र शैक्षिक कपट-जाल हैं। उनमें यह बताने का प्रयास किया गया है कि महान् जन-संहार करने वाले मोहम्मद कासिम, गजनी, गौरी, बाबर, हुमायूं, अकबर और औरंगजेब जैसे अशिक्षित और शराब तथा अफीम के नशे में धुत रहने वाले पश्चिम एशिया का लम्बा रास्ता तय कर भारत इसलिए आए थे कि वे अपनी आदर्श शासन व्यवस्था का परिचय दे सकें। भारतीय इतिहास की पाठ्य पुस्तकें ऐसी अनेक असंगतियों से भरी हैं कि एक सच्चा इतिहासकार उन्हें छूना भी पसन्द न करेगा।

परीक्षा-पत्र बनाने वालों को भारत में विदेशी मध्ययुगीन शासकों की जनकल्याण प्रयोजनाओं और काल्पनिक आर्थिक सुधारों पर प्रश्न देने बन्द कर देने चाहिए। ईमानदारी से तो वे विद्यार्थियों से मात्र यह पूछ सकते है कि प्रत्येक शासक ने किस सीमा तक प्रजाजन और अपने सम्बन्धियों को यन्त्रणा दी, नरसंहार किया और उनकी खाल उधेड़ी। विद्यार्थियों को मध्ययुगीन मुस्लिम शासन की कुछ काल्पनिक अच्छाइयों का विशद् वर्णन करने को कहना उनसे अभिप्रेरित झूठ को दोहरवाना है।

जनकल्याण पर आधारित प्रशासन की केवल पृथ्वीराज चौहान, राणा प्रताप तथा शिवाजी जैसे देशज शासकों से ही आशा की जा सकती है क्योंकि वे यहाँ की जनता के प्रति उत्तरदायी थे न कि दमिश्क के खलीफा या मक्का के मुल्लाओं के प्रति । देशभक्त शासकों के जो भी उदार दान हंगि उनका विभाजन भारतीयों में होगा, न कि विदेशियों में इतिहास । की परीक्षाओं में, उदाहरण के तौर पर, यह पूछा जाना चाहिए कि पृथ्वी राज चौहान, राणा प्रताप या शिवाजी ने विदेशी दस्युओं के विरुद्ध युद्ध करने के लिए किस प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था की; भारत कब से और नयों दूध और शहद का देश न रहा; एक विशिष्ट काल में भारत से मक्का, बगदाद, दमिश्क, समरकन्द, बुखारा, गजनी और काबुल ले जाई गई सम्पत्ति का मूल्य कितना था; कितने कस्बों, नगरों तथा किलों का सफाया किया गया: मध्ययुग में वर्तमान भवनों को कब और किस प्रकार मनवरों और मस्जिदों में परिवर्तित किया गया। पर इसकी बजाय इतिहास की परीक्षाओं में प्राय: केवल मोहम्मद तुगलकं, बाबर, शेरशाह और अकबर तथा ब्रिटिश गवर्नर जनरलों जैसे विदेशियों पर ही प्रश्न पूछे जाते हैं। इस प्रकार के व्यवहार से भारतीय इतिहास की परीक्षाएं मात्र ढोंग बन गई हैं क्योंकि जो कुछ विद्यार्थी सीखते हैं वह न 'भारतीय' है, न ही 'इतिहास' ।


भारतीय इतिहास का पठन-पाठन करने वाले संभवतः एक अन्य भयंकर भूल से अपरिचित प्रतीक होते हैं। मध्ययुगीन भवनों पर अरबी तथा फ़ारसी में उत्कीर्ण लेखों में यदि किसी मुस्लिम बादशाह अग्रवा दरबारी द्वारा उन भवनों के स्वामित्व अथवा निर्माण का दावा किया गया है तो उस पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। इन दावों पर विश्वास करने से पूर्व इनकी सावधानी से जांच की जानी चाहिए तथा अन्य पुष्ट तथा अविवादग्रस्त साक्ष्यों से इनका मिलान किया जाना चाहिए। यह स्वाभाविक मानव स्वभाव है कि किसी भवन पर बलात् कब्जा करने वाला भागे हुए स्वामी का साइनबोर्ड हटाकर अपना साइनबोर्ड लगा देता है। मध्ययुगीन भवनों पर अरबी तथा फारसी उत्कीर्ण लेख उसी श्रेणी में आते हैं।


उदाहरण के लिए आगरे की तथाकथित जामा मस्जिद पर लगी पटिया में कहा गया है कि यह (जामा मस्जिद) शाहजहाँ की कुमारी कन्या जहाँआरा द्वारा बनाई गई थी जो बुक की एकान्त विविक्ति में अकिचनता और अप्रसिद्धि का जीवन बिताती थी। इस कथन को इसी रूप में सच नहीं मानना चाहिए । वास्तविक शोध से सिद्ध होगा कि यह लेख किसी हथियाए गए हिन्दू महल अथवा मन्दिर पर उत्कीर्ण कर दिया गया है। भवन में जनाने कमरे हैं और एक विशाल तहखाना है जो इसकी गैर-मस्जिद जैसी विशेषताओं के कुछ उदाहरण है। नीचे हम तारीख १३ जून, १९६७ के स्टेट्समेन, कलकत्ता, डाक संस्करण में छपी एक समाचार कया दे रहे हैं जिससे प्रकट होगा कि साब घानी से जांच करने के बाद प्रत्येक मध्ययुगीन अरबी तथा फ़ारसी उत्कीर्ण लेख अविश्वसनीय सिद्ध हो जाता है। इस समाचार अंश का शीर्षक है "आगरे में बजाने की खोज- हमाग की दीवारों में मुगल सिक्के छिपे बताए गये है।" साथ ही छोपीटोला में छोटी इंटों ओर मोटे पलस्तर वाली इमारत की फोटो भी है। आजकल इस भवन में शहर की सबसे बड़ी सब्जी है। सूचना में कहा गया है कि यद्यपि यह भवन भलीवर्दी सां के हमाम (स्नानगृह) के नाम से प्रसिद्ध है पर किसी भी तत्कालीन विवरण में ऐसा कोई संदर्भ नहीं मिलता कि यह हमाम बलीवर्दी खां ने बनाया था। यद्यपि हमाम के प्रवेश द्वार पर अभी तक उसका नाम ख़ुदा हुआ था।


इस जालसाजी का पता लगाने के बाद भी उस समाचार-पत्न का संवाददाता अपनी मुगल-भीति से ऊपर न उठ सका और इस सचाई पर पहुंचने की बजाय कि वह भवन हड़पा हुवा एक मुस्लिम-पूर्व हिन्दू राज महल था, संवाददाता ने नाहरू निराधार बटकलें लगाना शुरू किया है कि इससे सन्देह होता है कि यह हमाम संभवतः मुमताज महल के पिता और शाहजहाँ के बजीर प्रसिद्ध बासफल का था। ऐसा सोचने का एक पुष्ट शाधार जहांगीर के अपने राज्य के १६वें वर्ष के संस्करण हैं जिनमें कहा गया है कि “शाहरीबार की पहली तारीख को आसफलों की प्रार्थना पर मैं उसके घर गया और उसके द्वारा हाल ही में बनाए गये हमाम (स्नानगृह) में नहाया।"


स्पष्टतः जिस संवाददाता ने स्टेट्समेन समाचार-पत्र को यह समाचार अंश दिया उसे पर एच० एम० इलियट द्वारा जहांगीर के संस्मरणों के प्रसिद्ध बध्ययन की जानकारी न थी। इसमें हर पृष्ठ पर भण्डाफोड़ किया गया है कि यह इतिवृत्त किस प्रकार उन सफेद और सोद्देश्य झूठों का जाल है जिनमें हथियाए गये हिन्दू किलों, नगरों और भवनों का निर्माता होने का बारोपण बड़ी मौज से अपने पिता अकबर पर, अपने पर और विभिन्न मुस्लिम दरबारियों पर किया गया है।


सर एच० एम० इलियट द्वारा जहांगीर के मूल्यांकन को पढ़े बिना भी उस समाचार-कया में उल्लिखित इतिहास में इन्दराज की सूक्ष्म जाँच से जहाँगीरनामे की असमर्थता का पता चल सकेगा। पहली विचारणीय बात है कि मरुस्थलीय परम्परा थाले मुसलमानों ने कभी हमाम (स्नानगृह) बनाए ही नहीं। दूसरी बात यह है कि यह पता लगाने के लिए कि बाया उसके पास आगरे में कुछ चीज बनाने के लिए, और भी हमाम जैसी विलास-वस्तु बनाने के लिए पर्याप्त समय, धन, शान्ति सुरक्षा और स्थायित्व था या नहीं, आसफ के जीवन और उसकी वित्तीय स्थिति की सतर्कतापूर्ण जांच आवश्यक है। ऐसा करना इसलिए और भी आवश्यक है कि वह इच्छा होते ही पास बहती यमुना नदी में आसानी से बिना एक पैसा भी खर्च किए डुबकी लगा सकता था।


एक अन्य प्रश्न यह है कि क्या 'हमाम' इतना बड़ा था कि आगरे जैसे भरे-पूरे आधुनिक नगर की सबसे बड़ी सब्जी मण्डी के लिए उसमें पर्याप्त स्थान उपलब्ध था ?


एक अन्य विचारणीय बात यह है कि यदि इसका निर्माण आसफ साँ ने किया था तो उत्कीण लेख में इसके निर्माण का श्रेय अलोवर्दी खां को क्यों दिया गया है? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मध्यकालीन मुसल मान परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध भी अपना झूठा दावा पेश करने के लिए जाली लेख खुदवा देते थे ? फिर क्या आश्चर्य है कि उन्होंने उन भवनों के पूर्व-मुस्लिम-पूर्व हिन्दू स्वामियों, निर्माताओं के विरुद्ध भी वैसा ही किया होगा।


अन्य बात यह है कि अलीवर्दी खां का झूठा दावा पेश करने वालों को इसकी प्रेरणा इस बात की जानकारी के आधार पर ही मिल सकती थी कि आसफ खाँ ने भी पहले इसे अनधिकृत रूप से ग्रहण करके ही इसपर अपना कब्जा जमाया था।


विवेकशील इतिहासकार को यह प्रश्न भी करना चाहिए कि सम्राट् होते हुए भी जहाँगीर एक दरबारी के घर में स्नान करने क्यों गया ? क्या सम्राट् का अपना कोई हमाम न था और यदि सम्राट् के पास कोई हमाम न था तो एक दरबारी ही उसे कैसे रख सकता था ?


अन्य विचारणीय बात यह है कि जैसा अक्सर होता है, जहांगीर का वर्णन भी संदिग्ध है। वह कहता है कि वह आसफ खाँ के घर गया और हमाम में स्नान किया जिसका उसने हाल ही में निर्माण कराया था। इससे प्रश्न उठता है कि आसफ खाँ ने वास्तव में घर बनाया था या हमाम। यदि उसने घर बनाया था तो उस हमाम को, जो उसका एक भाग मात्र था, इतना तूल क्यों दिया गया ? यदि उसने बाद में मात्र हमाम बनाया था तो प्रश्न यह है कि शेष भवन किसकी सम्पत्ति था और यदि यह किसी और की


सम्पत्ति था तो क्या इसमें पहले स्नान गृह था ही नहीं ? यदि इतिहासकार अथवा साधारण लोग भी इन दावों की बुद्धिमत्ता पूर्ण समीक्षा करने का ध्यान रखें तो मध्यकालीन भवनों पर ऐसे फर्जी दावों की वास्तविकता का पता लगाना कठिन नहीं है, हालांकि आज इन्हें मकबरों तथा मस्जिदों के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है।


सच्चे इतिहासकार को सच्चाई का हिमायती होना चाहिए। उसे साम्प्रदायिकता की भावना के आधार पर अपनी खोज या शोध रोकनी नहीं चाहिए अथवा समझौता नहीं करना चाहिए। अबतक भारतीय इति हास के विद्वान् अधिकांशतः इस प्रमुख कर्तव्य से विमुख रहे हैं। बहुत ही कम विद्वानों ने इतिहास के सम्बन्ध में कोई मूल अथवा स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाया है। उनमें से अधिकतर विद्वान् काफ़ी समय से प्रचलित उन परम्परागत पक्षपातपूर्ण धारणाओं को स्वीकार करने और उन्हें उसी रूप में दुहराने अथवा उनकी खिचड़ी बनाने में भी संतुष्ट रहे। स्वर्गीय सर एच० एम० इलियट और कोने सच्चे इतिहासकारों के कुछ ज्वलन्त उदाहरण हैं । सही अर्थों में शोध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिए कि सर एच० एम० इलियट और कीने ने किस प्रकार मध्यकालीन मुस्लिम वृत्तों में वर्णित प्रत्येक विवरण को तोलने, उसकी जांच करने अथवा उसका मूल्यांकन करने में अपनी विवेकशील क्षमता जागरूक रखी।


पर उनकी भी अपनी सीमाएँ हैं। हम मध्यकालीन मुस्लिम वृत्तों के अध्ययन में सर एच० एम० इलियट के एक दोष की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे । उन्होंने इन वृत्तों के आठ खण्डीय अध्ययन का नाम रखा है "भारत का इतिहास-उसके अपने इतिहासकारों द्वारा लिखित" । हमारे विचार से यह भयंकर भूल है। हजारों काल्पनिक घोड़े दौड़ाने के बाद भी जहाँगीर, बाबर, तंमूरलंग, बदायूंनी और अबुल फ़जल किसी भी प्रकार 'भारतीय' नहीं हो सकते क्योंकि उन्होंने 'भारतीयों' को सदैव कुत्ते, गुण्डे, चोर, उठाईगीर, गुलाम, डाकू, और निकृष्टम व्यक्ति कहा है। यदि वे भारतीय होते तो उनके वृत्तों में हिन्दुओं के विरुद्ध तुर्की, अफगानों, अबीसीनियाइयों, अरबों, ईरानियों और मंगोलों का पक्ष न लिया गया होता। उन्होंने हिन्दुओं का बहुत अपमान किया है। उन्होंने हिन्दू विजयों को पराजयों के रूप में और मुस्लिम पराजयों को विजयों के रूप में वर्णित किया है। हिन्दू मन्दिरों के ध्वंस और हिन्दू स्त्रियों के अपहरण पर वे मोहित न होते। उनका ध्यान सदा मक्का-मदीना की बोर केन्द्रित रहता है। उनका वर्ण्य विषय विदेशी दरबारी परिषदें ही हैं जो भारत की लूट पर निर्भर रहती थी। क्या ऐसे वृत्तों को "भारतीय इतिहास" और इसके लेखकों को "भारतीय" कहा जा सकता है ?


यदि सर इलियट इस विषय में जागरूक रहते कि मध्यकालीन मुस्लिम वृत्त विदेशियों द्वारा भारतीय कलाकृतियों के ध्वंस की क्षमा याचना मात्र हैं और ये उन लोगों द्वारा लिखे गए हैं जो इन कुकर्मों में सक्रिय भागीदार ये और कलाकृतियों के ध्वंस और लूट में उन्हें भी हिस्सा प्राप्त हुबा या तो उन्हें ऐसी कई अन्य सच्चाइयों का भी पता चलता जो उनके ध्यान में अब न आई । तथापि सर इलिएट ने स्वयं को महान् इतिहासकार सिद्ध किया है, कारण उनमें पहचानने की कि मध्यकालीन मुस्लिम वृत्त घृष्ट तथा पक्षपातपूर्ण कपट थे बिरली अंतर्दृष्टि तथा महान् साहस था।


हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों को मध्यकालीन इतिहास पर पुनविचार करने की प्रेरणा मिलेगी, इसकी परम्परागत धारणाओं की पुनः जाँच करने का प्रोत्साहन और तर्क समस्त परिणामों पर पहुंचने का साहस मिलेगा ।


एन० १२८, घटर कैलाश I, नयी दिल्ली- ११००४-[पुरुषोत्तम नागेश ओक]


मुहम्मद बिन कासिम

भारत में मुस्लिम सुलतान

मध्य युग के भारतीय इतिहास का वह अंश यदि आप पढ़े जिसमें लोलुप, अंधविश्वासी अरब इस्लाम का प्रचार करने के बहाने, धरती को रौंदते और खून की नदियां बहाते हुए, चारों ओर बिखर रहे थे तो आप भय से काँप उठेंगे। ये आवारा, खानाबदोश और नैतिकता से हीन लोग हर जगह गए, हर घर में घुसे । उनके एक हाथ में खून से भीगी तलवार थी, दूसरे में जलती मशाल। ये व्यक्तियों को काटते थे, चीखती-चिल्लाती स्त्रियों और बच्चों को व्यभिचार और गुलामी के लिए घसीटते थे। किसी भी धर्म और जाति का यह रूप एक ऐसा कलंक है जिसकी कालिमा शैतान को भी मात करती है। भारत उन देशों में से एक था जो बुरी तरह जले-झुलसे थे, चीरे-फाड़े गए थे, कुचले-मसले गये थे, पंगु और अपंग बने थे, बन्दी-कंदी बनाए गये थे। भारत ने इनसे अति-मानवीय सामना किया था। ये बूंखार हजार वर्षों के लम्बे अरसे से सागर-तरंगों की भाँति बराबर आ रहे थे। ये दरिन्दे तब तक आते रहे जबतक कि इनके अन्तिम मुसलमान शासक को १८५८ ई० में रंगून की कब्र में सुला नहीं दिया गया।


अबीसीनिया, इराक़, ईरान, अफ़गानिस्तान, कजाकिस्तान, उजबे किस्तान के बलपूर्वक बनाये गये मुसलमानों के गिरोह ने डाका और खून खराबी के जीवन में अरबों का साथ दिया था। इस खूनी गिरोह का एक कुख्यात सरदार था, हरी आँखों वाला १६ वर्षीय शंतान लुटेरा मुहम्मद क़ासिम। यह अर्धचन्द्र अंकित हरे झंडे को उड़ाता हुआ आया था। सिन्धु नदी के दोनों ओर जिस प्रलय की वर्षा उसने की वह वास्तव में शैतानियत का नंगा नाच ही था।

मगर शीघ्र ही उसे ग्रहण भी लग गया। उसने दो किशोरी हिन्दू बालाओं का अपहरण किया। उन्होंने अपने बुद्धि बल से उसे- "जिस अवस्था में और जहां कहीं भी वह था"-घसीटकर सेना से दूर करवा दिया। ताजे सांड के चमड़े में उसे सी दिया गया। दम घुटकर वह एक दर्दनाक मौत मरा। वह आतंककारी, नर-भक्षी और नारी-व्यभिचारी उन बालाओं के चरणों पर ठण्डा हो गया। अपने विश्वसनीय जल्लाद को मोत के घाट उतारने वाला ख़लीफ़ा वालिद सदमे से मर गया। परवर्ती ख़लीफ़ा सुलेमान की उन्हें भोगने की बड़ी प्रबल अभिलाषा थी। पर प्राणों के भय से वह उनकी इज्जत से खेलने का साहस ही नहीं जुटा सका। अपने क्रोध की विवशता में, नंतानहन्ता उन वीर बालाओं को उसने भयंकर यातनाएँ दी। इस नारकीय, दुःखान्त दृश्य का उपसंहार भी हुआ। सुलेमान ने उन बीरांगनाओं को घोड़ों की पूंछ से बांधकर दमिश्क की सड़कों पर घसीटने की आज्ञा दी। उनका कमनीय तन चिथडे-चिथड़े हो गया। आत्मा अनन्त में समा गई। परन्तु फिर भी उन्हें इस बात का पूर्ण सन्तोष था कि बालाएँ होते हुए भी, बासुरी पंजों में जकड़े जाने के बावजूद भी, प्रतिकूल परिस्थि तियों में उलझने के बाद भी, वे अपने देश और धर्म की रक्षा में अटल रही। उन्होंने बहादुरी का बेहतरीन नमूना दिखाकर अपने शत्रुओं से पूरा-पूरा प्रतिशोध लिया था।


वर्षों के लम्बे प्रयास के बाद ही कासिम का शैतानी प्रवेश भारत में हो सका था। अरबों ने भारत को लूटने की बीभत्स योजना अन्तर्राष्ट्रीय आधार पर ६ठी शताब्दी में बनाई थी। अनेक शताब्दियों तक अरब-वासी टिड्डी दल की तरह भारत में प्रविष्ट होकर आतंक फैलाते रहे और इसकी उपजाऊ भूमि को चूसते रहे। इतिहास ही नहीं, भूगोल के साथ भी उन्होंने व्यभिचार और खिलवाड़ ही किया। पुष्ट, दुष्ट, कामी, अनपढ़, बेकार, अधम और नीच अरब बुराई में बह गए, नशाखोरी में डूब गए। व्यभिचार, में बलात्कार और लूट में लिप्त हो गए। इस्लाम धर्म के नाम पर यह एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की मुसंगठित डकैती थी। यह काम था एक शैतान का, पर उसने धर्म की चादर ओढ़ रखी थी। बरबी इतिहासकार 'तारिखी मासूमी', 'मुजामलुत तवारिवी', ओर 'अन्बिलादुरी' की फुतुहन् बुलदन' के अनुसार दमिश्क के धार्मिक मुख्यालय के भौतिक प्रधान खलीफ़ा ने इराक़ स्थित बगदाद के उपप्रधान की सहायता से इन लूट-पाट के कार्यक्रमों को नियोजित किया था। ६३६ ई० में ख़लीफ़ा उमर ने भारत पर प्रथम आक्रमण करवाया था। परन्तु वह स्वयं दूर ही एक सुरक्षित स्थान पर रहा। गिरोह के जंगी नेता का नाम भी उमर ही था। उसके गिरोह ने बम्बई के समीप थाना पर झपट्टा मारा। मगर भारत की प्रतिरक्षा प्रबल थी। एक भी नहीं लौट सका। शत्रु वापिस कुछ वर्षों के बाद दूसरे लुटेरे गिरोह को 'ब्रोच' भेजा गया। उनके हाकिम की हिम्मत यहां भी साथ आने की नहीं हुई। प्रायः सभी लुटेरे मारे गए ।


भारत की सुरक्षा को भेदता हुआ एक दूसरा अरबी गिरोह उत्तर की ओर बढ़ा। इसने देवालय अर्थात् देवालयपुर पर धावा किया। इसे आज कल क्रांची कहते हैं। यहाँ सुरक्षा के देवता का विशाल गुम्बद वाला एक मन्दिर था। इसीलिए इसे देवालयपुर कहते थे। इसके ऊँचे स्तम्भ पर लहराता भगवा ध्वज मीलों दूर से दिखाई देता था। झूठे लड़ाकू दावे की परम्परा के साथ-साथ चलते हुए अरबी इतिहास 'फुतुहुल् बुलदन' ने दावा किया है कि डकैतों के गिरोहपति मुघीरा ने “शत्रु" (हिन्दू) का सफ़ाया कर दिया। इसके बाद विस्तृत वर्णनों (लूट-पाट का पूरा विवरण) का अभाव रहा। साथ ही एक परवर्ती भेदिये का कांपता बयान हिन्दुओं के सफ़ाये के इस दावे को झूठा प्रमाणित करता है। पहले के दो अभियानों की भांति यह अभियान भी पूर्ण रूप से विफल रहा। आक्रमणकारियों को पीस दिया गया।


इस समय तक ख़लीफ़ा की गद्दी पर उसमान आ चुका था। उसने अब्दुल्ला को इराक़ का शासक नियुक्त किया। आक्रमण का खतरा न उठा, उसने अब्दुल्ला को भारतीय सीमा पर जासूसों की टोली भेजने का आदेश दिया। पूर्वाक्रमणों में हाकिम भी था, अतएव इस टोली का नेता भी उसे ही बनाया गया। स्पष्ट है कि हाकिम को चौकस हिन्दू पहरेदारों ने बन्दी बना लिया। उसे कड़ा दंड भी दिया गया था क्योंकि वापिस लौटने पर वह पूर्ण रूप से असन्तुलित था। उससे बारम्बार और तरह-तरह से उलट-पुलट कर प्रश्न पूछे गए, पर ख़लीफ़ा के सामने वह बार-बार यही रटता रहा-"पानी का पूर्ण अभाव है, फल इसके-दुक्के होते हैं, डाकू (हिन्दू) बहुत बहादुर है। अगर थोड़ी सेना भेजी जाएगी तो वह मार दी जाएगी। अधिक भेजी जाएगी तो वह खुद भूखों मर जाएगी।" बात साफ़ है कि हिन्दुबों ने हाकिम में अल्लाह का भय कूट-कूटकर भर दिया था। इसी कारण उसने ख़लीफ़ा के सामने भारत का बड़ा अवसादपूर्ण चित्र बंकित किया निराश और हताश होकर इस ख़लीफ़ा ने और आक्रमण करने का विचार ही त्याग दिया।


कामुकता का षड्यन्त्र - अब अली ख़लीफ़ा बना। उसने इस दिशा में पुनः विचार किया। भारत की सुन्दर नारियों का लुभावना रूप और धन बंभव, ये दो ऐसे प्रबल आकर्षण थे जिसे लोलुप अरबवासी अधिक दिनों तक रोक न सके। इनकी आक्रमण-पद्धति एक सांचे में ढली हुई थी। जल हो या यल, अरबी लुटेरों की बस एक ही पद्धति थी। शहरों पर धावा करना, मनुष्यों को मार देना, स्त्रियों का अपहरण करना, बच्चों को उड़ा लाना, भवन, ग्राम और जहाड़ों को जला देना, सारी सम्पत्ति छीन लेना, हिन्दू मन्दिरों को मस्जिद बना देना और सभी मनुष्यों को मार-पीट, धमका डराकर • मुसलमान बना लेना या फिर मार देना।

यह एक सनक थी । मगर धन और औरतों की अपनी प्यास बुझाने का यह तरीका मासान या बली ने ६५६ ई० में अब्दी के साथ एक शक्तिशाली गिरोह धावा करने के लिए भेजा। इतिहासकार कहते हैं "बब्दी विजयी हुआ। लूट का धन पाया, लोगों को बन्दी बनाया और एक दिन में १ हजार सिरों को (हिन्दुओं के सिरों को) काटकर बिखेर दिया। कुछ लोगों को छोड़कर वह अपने सारे साथियों समेत कीकण में (खुरासान की सीमा पर, सिन्ध के निकट) ६६२ ई० में मारा गया।"


ऊपर के उद्धरण से स्पष्ट है कि अरबी का गिरोह प्रायः तीन वर्ष तक, भारत की सीमा पर निरपराध निहत्ये नागरिकों का खून बहाता रहा। कुछ को गुलाम बनाकर बेचने के लिए उड़ा लिया गया। उनके घरों को उजाड़, सारी सम्पदा को लूट, वह भयंकर अत्याचार करता रहा। अन्त में, भारत के सीमा रक्षकों ने किसी प्रकार इस लुटेरे को समाप्त कर हो दिया। इसके बाद ख़लीफ़ा मुआविया ने पुनः एक दूसरे लुटेरे गिरोह को भारत भेजा। प्रत्येक बार लुटेरे गिरोह की संख्या बढ़ती ही गई। इसी अनुपात में उनके कुकर्मों और विनाश का क्षेत्र भी बढ़ता गया। मुहाल्लव का गिरोह इतना बड़ा था कि उसे एक पंक्ति में खड़ा करने पर मीलों लम्बी कतार बन जाती थी। उसके गिरोह का एक भाग बन्ना (सम्भवतः बन्नू) तक और दूसरा अलहवार (लाहौर नहीं, जैसाकि कुछ लोगों ने समझा है) तक आ पहुँचा जो मुलतान और काबुल के बीच में है। मगर उसे भी सीमा रक्षकों ने उसके सहयोगियों समेत गाजर-मूली की तरह काट दिया।


भारतीय ललकार को स्वीकार करने की बारी अब अब्दुल्ला की थी। ख़लीफ़ा और बग़दाद के शासक ने इसका निर्वाचन किया था। हिन्दू तल बार का स्वाद अब उसे चखना था। उसने कीकण में लड़ाई मोल ली। फिर प्राणभय से भागकर ख़लीफ़ा की गोद में जा छिपा। पुचकारकर, बहला फुसलाकर उसे वापस भेजा गया। खून चाटने वाले अरबों को भारतीय गुलाम और लूट के धन की बड़ी आवश्यकता थी। अब्दुल्ला भारत की सीमा पर वापस लौटा और यहीं खत्म हो गया।


अब सीनान सीना ताने आया। अल् बिलादुरी फ़रमाते हैं-"यह बहुत ही अच्छा, भला और देवगुण सम्पन्न व्यक्ति था। यह पहला आदमी था जिसने अपने सभी सैनिकों को अपनी पत्नियों से तलाक़ दिला दिया" और उन्हें इस बात की गारण्टी दी कि भारत की सीमा पर उनको मजे लूटने के लिए सैकड़ों की संख्या में हिन्दू स्त्रियाँ प्राप्त होंगी। मगर दुःख है कि उसका यह कामुक स्वप्न चूर-चूर हो गया।


इधर इन हाँकों का कोई अन्त नहीं था। प्रत्येक अरबी एक क्रूर लुटेरा थी। विक्रमादित्य और परवर्ती हिन्दू शासकों ने इनमें हिन्दू संस्कृति का प्रचार किया था। जब से ये अरबवासी हिन्दू संस्कृति से दूर हो गये, चीखती-चिल्लाती अबलाओं पर अत्याचार करना और अबोध बालकों को सताना ही इनका धर्म हो गया था। और कुछ करने के योग्य ये थे भी तो नहीं। फिर जियाद आया। वीर जाटों ओर मेदों से तलवार बजाता यह भी मारा गया। इघर सीनान भी अपने लुटे-पिटे मान-सम्मान को खोजने लौटा। भारत की सीमा पर वह लुटेरी दृष्टि डालता हुमा मँडराता रहा। धावा करने का साहस वह नहीं बटोर सका। तब इसकी मर्दानगी को धिक्कारता आग उगलता, जियाद का बेटा अब्बाद आया। इसने अपना मार्ग बदल अफगानिस्तान पर धावा बोल दिया। उस समय अफ़गानिस्तान हिंदू साम्राज्य का ही एक अंग था। मल विलादुरी कहते है-"वह वहाँ के नागरिकों से लड़ा" मगर "बहुत से मुसलमान मारे गए"। वहाँ के लोग नुकीली पगड़ियां पहनते थे। अब्बाद को यह टोपी काफ़ी पसन्द आई। मार बाकर जब वह लौटा तो अपने साथ इन टोपियों को भी बांध लिया। उसने उस टोपी का काफ़ी प्रचार किया और इसका नाम 'अब्बादिया टोपी' रक्ता।


अब सीमा का हाकिम अल् मनजर उर्फ प्रबुल अशास बना। नूकूण और कोकण पर उसने धावा किया। गांवों में आग लगा दी। उसने स्त्रियों और बच्चों का अपहरण कर लूट की सम्पत्ति के माथ भागने का प्रयास किया। पूर्ववर्ती लोगों की अपेक्षा उसने बर्बादी कुछ अधिक ही की। मगर अपने पाप की फसल नेकर वह लौट नही सका। कुजदर में इसे घेरकर भार दिया गया ।


बग़दाद की गद्दी पर अब उबयदुल्ला आसीन हुआ। हिन्दू घरों को जलाने, हिन्दू नारियों का अपहरण करने, बच्चों को मताने और लोगों को मूसलमान बनाने का भार उसने इब्नघरी अल्बवाली' को सौंपा। इसका बन्त अज्ञात है। इसे भी शायद शर्मनाक मौत ही मिली होगी, क्योंकि न तो किसी ने इसके गीत गाये और न ही कोई इसकी मौत पर रोया।


इसके बाद बगदाद की गद्दी पर एक क्रूर और भयंकर व्यक्ति बैठा। इसका नाम था हज्जाज | भारत पर पाप का धर्म-युद्ध छेड़ने के लिए इसने पहले सईद और बाद में मुज्जा को भेजा। मुज्जा एक वर्ष के भीतर ही मकरान में मारा गया। अब भारत के भाग्य में एक नया मोड़ आया। अबतक अरबी लुटेरे एक पशुसा आचरण करते थे। वे सिर्फ एक अवरोध के समान ही थे जो भारत की सीमा को नोचते-सीटते थे। वे गाँव जलाते, खड़ी फसल नष्ट करने, झीलों में विष मिलाते, नहरों को नष्ट करते, पुलों को तोड़ते, स्त्रियों पर अत्याचार करते और लोगों को गुलाम बनाकर बग़दाद तथा दमिश्क के बाजारों में बेच देते थे।

ये थे लूट-पाट के ७५ वर्ष। अपराधी अरबी गिरोह भारत की सीमा पर पंजे मारते रहे। किसी भी शासक ने इस अरबी पशु को उसकी माँद तक नहीं खदेड़ा। किसी ने भी इस पशु का अन्त नहीं किया। हिन्दुओं की यह एक पुरानी और परम्परागत बीमारी है, पर है बड़ी बुरी बीमारी। हम शत्रु को उसके घर तक रगेद कर नहीं मारते। आज भी हमारी आँखें नहीं खुली हैं। आज भी हम ऐसा नहीं कर रहे हैं। सीमा पर मंडराते शत्रु निहत्थे नागरिकों को सता-सताकर मुसलमान बना रहे थे। उन्हें अपने ही भाइयों से अलग कर, अपने ही भाइयों का, अपने ही खून का शत्रु बना रहे थे। इस प्रकार आक्रमण की सीढ़ी पर वे एक-एक पग धरते धरते शनं शनैः आगे बढ़ रहे थे। परिणाम सबके सामने है। एक छोटा-सा उपद्रवी पशु शैतान मुहम्मद क़ासिम के रूप में जवान हो गया। इस १७ वर्षीय शैतान ने अत्याचार की आंधी चला दी । “१ लाख हिन्दू स्त्रियों को कंद कर लिया, सिन्ध के ७० उप-शासकों (राणाओं) का पतन हो गया." मीनार और मंच बनाकर मंदिरों को मस्जिद बना दिया, अतुलनीय सम्पदा लूट ली, आगजनी और लूट-पाट के अनाचार से सारा सिन्ध बंजर हो गया। लूट-पाट की जो ठोस नींव मुहम्मद क़ासिम ने डाली वह नींव हजार वर्षों तक फलती-फूलती रही। अब भारत के गले में यह एक स्थायी फांसी का फन्दा बन गया है। फांसी का यह फन्दा दिन-प्रतिदिन कसता ही चला जा रहा है और भारत अभी तक धर्म निरपेक्षता की काल्पनिक और ठंडी छाँव में गहरी नींद सोया हुआ है। क्या मजाक है ?


बर्बर, कृतघ्न अरबवासियों ने भारत में लूटने, जलाने, सताने, हरण करने, मुसलमान बनाने, व्यभिचार करने और गुलाम बनाने का जो आसुरी जाल फैलाया या वह दो प्रकार का था। एक ओर घोड़े, भाले, बरछे, तल वार, धनुष, तीर और मादक द्रव्यों से सुसज्जित बर्बर अरबी-गिरोह को भारत भेजा जाता था; दूसरी ओर पाप की फ़सल दमिश्क और बगदाद के बाजारों भेजी जाती थी। अपहृत हिन्दू स्त्रियों और बालकों, लूटी हुई सोने-चांदी की इंटों और जवाहरातों, हिन्दू सरदारों के रक्त रंजित सिरों, भग्न देव-प्रतिमाओं और हजारों मन्दिरों के खजानों के वहाँ ढेर लग रहे थे। इस प्रबन्ध के अध्यक्ष खलीफा थे। वे इस व्यवस्था का संचालन करते थे। बीच में बैठा था उनका सहकारी, बग़दाद का शासक इस छोर पर मंडराता था लुटेरों का नायक जो भारत की सीमा पर चक्कर काटता था, लूट-पाट करता था और पाप की पैदावार को अपने खलिहान में भेजता था।


करांची से बग़दाद और दमिश्क जाने वाली सड़क पर हिन्दू स्त्रियों, बच्चों और मनुष्यों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं। अनन्त यातनाओं से उनके प्राण लिये गए हैं। पाशविक लिप्मा, सूनी अत्याचार और अमानवीय यात नाबों ने उन्हें चूर-चूर किया है। इस मार्ग से अनेक शाखाएं, अनेक पग डण्डियाँ भी निकली हैं। इन पगडण्डियों पर स्थित गृहाँ और भवनों में भारत की लूटी सम्पदा बिखरी पड़ी है। यह है उनकी हजार वर्षों की लूट। खलीफा की सभ्यता और आचरण को नापते हैं। श्री इलियट और डाउन (न्य १. पृष्ठ ४३६) "मिन्ध-विजय के भी पूर्व हम प्रथम मुआविया (खलीफा) के अनुयायियों को मिस्र के शासक की लाश को गधे की लाश में भरकर और उसे जनाकर रात करते हुए पाते हैं। जब मूमा ने स्पेन जोता या उस समय खलीफा सुलेमान था। यह वही क्रूर पिशाच था जिसने सिन्ध विजेता की हत्या की थी । इसने मूसा को अपने देश से निर्वामित कर दिया था। वह अपने संकट के दिन मक्का में व्यतीत कर रहा था। उसने इसके पुत्र को 'फोडोवा' में हत्या करवा दी। उसका सिर काटकर मंगवाया और इसके पैसे पर फिकवा दिया। निराया और पीड़ा से पिता पर इस विशाब के दूत हो-हो कर हँसते और ताने कसते रहे।"


खलीफा को क्रूरता के ये उदाहरण हम नहीं, अरवी इतिहासकार प्रस्तुत कर रहे हैं। अरबी इतिहासकार इनकी नैतिक नीचता के भी उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वे यथास्थान आपको प्राप्त होंगे। खलीफा का सहकारी इराक-शामक भी अपने उस्ताद का एक ही चेला था। पुष्ठ ४२ पर मर एच०एम० इलियट हज्जाज का चरित्र वर्णन करते हूँ। इराक़ के सभी शासकों से ही नहीं वरन् लूटपाट और बलात्कार की मशीन चलाने वाले सभी व्यक्तियों से भी अनोखा इमका चरित्र था। वे कहते है-र अत्याचारी हम्जाज नाम से तो इराक़ का शासक था पर वास्तव में वह उन सभी स्थानों पर शासन करता था जो प्राचीन परशिया के अन्तर्गत थे। इसके मन में और देशों को जीतने की लालसा जगी। उसने आज्ञा दी और कुतइबा एक सेना लेकर काशगर तक घुस आया। यहाँ पर चीनी दूतों ने उन लुटेरों से एक समझौता किया ।" ठीक यही घटना आज फिर घट रही है।


'बायोग्राफ़ीकल डिक्शनरी' के 'अल् हज्जाज' शीर्षक निबन्ध में 'पेसक्यूअल डी गयानगोस' लिखते हैं-"कहा जाता है कि इस पागल नर पिशाच ने अपने आदमियों द्वारा एक लाख बीस हजार लोगों को कटवाकर फिकवा दिया था। उसकी मृत्यु के बाद उसके अनेक जेलखानों में ३० हजार पुरुष और २० हजार स्त्रियाँ बन्द पाई गई। यह निष्कर्ष पारसी स्रोत से है। इधर सुन्नी लेखक, उसकी इस निर्दयता के बावजूद भी, उसे न्यायी और निष्पक्ष ही बतलाते हैं।" ख़लीफ़ा का प्रमुख कर्ता-धर्ता इराक़ का शासक था। भारत पर उत्पात करने वाले बर्बर गुण्डों की लगाम इसीके हाथ में थी। 

इसके बारे में श्री एच० एम० इलियट कहते हैं- (पृष्ठ ४३३) – "इन क्रूर धर्मोन्मादी लोगों ने खुले आम अपना लम्पट जीवन विलासिता और कामुकता में होम किया था तथा इसी प्रकार के धर्म (मुसलमान) का इन्होंने चारों ओर प्रचार किया।" स्पष्ट है कि इस विशाल बीभत्स मशीन को चलाने वाले सभी व्यक्ति वास्तव में असभ्य और जंगली ही थे। वे दिन-रात लूट, बलात्कार, यंत्रणा, नर-संहार और क्रूर-कर्मों में आसक्त रहा करते थे। लूट और लम्पटता का विभाजन- इस बर्बर सेना का नायक लूटी हुई स्त्रियों और सम्पत्ति का पांचवां भाग अपने पास रख सकता था। बाक़ी भाग उसे अरब भेजना पड़ता था। इसका विभाजन इराक़ के शासक और दमिश्क के ख़लीफ़ा के बीच होता था।


पाप की पैदावार इस लूट और बलात्कार की भारतीय फसल को नियमानुसार १/४ एवं ४/५ भागों में बांटने की मुसलमानी लुटेरों की यह परम्परा भारत में मुस्लिम शासन के अन्त तक चलती रही। विदेशी म्लेच्छ लुटेरों की दरवाजा तोड़कर भारत में प्रविष्ठ होते और दिल्ली-आगरा आदि शहरों में अपनी स्थिति दृढ़ कर अत्याचारों की वर्षा करने की इस घातक प्रणाली की प्रशंसा में आधुनिक इतिहास की पाठ्य पुस्तकों के पन्ने परपन्ने रंगे गए। इसे भारतीय एवं अरबी-फ़ारसी सभ्यता का अभूतपूर्व और आश्चर्यजनक सम्मिश्रण माना गया है। कैसी अद्भुत सभ्यता है जो विश्वासघात, मूट, चोरी, आगजनी, बलात्कार, अप्राकृतिक सम्भोग, विनाथ और नर-संहार को बढ़ावा देती है। मन्दिरों को मस्जिद बनाने में और लोगों को मार-मारकर मुसलमान बनाने में अपना गौरव मानती है।


बार-बार यह तर्क दिया जाता है कि भारत में रहने के कारण अरबी, पठान, बबीसीनियाई, पारमी, उज़बेक और कज्जाक अवश्य ही अपने आप को भारतीय मानने लगे होंगे। ये लोग यह अनुभव नहीं करते हैं कि अपने आपको भारतीय मानना तो दूर रहा. इनके संक्रामक और धर्म परिवर्तन कारो स्पर्श ने विशुद्ध भारतीय लोगों की राज और देश भक्ति की धारा को हो अपने भाइयों और देश के नाश के लिए मोड़ दिया है। वे स्वयं विदेशी बन बैठे हैं। यही कारण है कि धर्म-परिवर्तित भारतीयों का अधिकांश भाग आज भी तुर्की, पाकिस्तान, ईरान और अरब को भारत की अपेक्षा अधिक निकट समझता है, यद्यपि भारत के प्राचीन पालने पर ये झूले हैं। इसी ने इन्हें खिलाया है, सहारा दिया और बड़ा किया है। यातना से धर्म परिवर्तन कर हिन्दुओं के विशाल जन-समूह को धर्म परिवर्तन के बादू से उन्हें उनके ही देश का द्रोही बना देने वाली अनोखी प्रणाली की यदि खोज करनी है तो हमें उस नर-पिशाच हज्जाज की मांद तक जाना ही पड़ेगा।


बनीफ़ा और हम्बाज की कामुक लिप्सा के लिए लंका और भारत को वारियों का, भेड़-बकरियों की तरह बांधकर, निर्यात किया जाता था। बरबी इतिहासकार बतलाते हैं कि ६११ ई० में लंका से एक जहाज चला। इसमें मूढ व्यापारी तथा अन्य लोगों की अनाथ 'मुसलमान' स्त्रियां भरी हुई थीं। देवालय माने देवालयपुर (करांची का पूर्ववर्ती नाम) के निकट इस जतमान पर समुद्री डाकुओं ने हमला कर दिया। अभागी युवतियों का यह पार्सल अपने गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुंच सका। ख़लीफ़ा और हाड बड़े निराश हो गये। इस बहाने की आड़ में हज्जाज ने दाहिर के में पास एक घुष्ट और अपमानजनक पत्र भेजा स्त्रियों के इस पार्सल का उत्तरदायी उसने सिन्ध के राजा को ठहराया। दाहिर का उत्तर था कि दूर समुद्र के हमले से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था। यह बरबी वर्णन है। अरबी वर्णनों पर झूठ की कम ही सफ़ेदी पोती हुई रहती है। इन पंक्तियों से प्रकट होता है कि लंका और भारत की अभागी अबलाओं को ख़रीदकर चुपचाप दमिश्क भेजा जा रहा था। मार्ग में इस जलपोत ने भारतीय बन्दरगाह पर लंगर डाला। आदत से लाचार अरबी लुटेरों ने कुछ और हिन्दू युवतियों को घेर-घारकर उड़ाने का प्रयास किया। इस अपमान से सीमा रक्षक उत्तेजित हो उठे और अपराधी अरबी गिरोह पर टूट पड़े। अपराधियों को मार-मारकर इन बेबस युवतियों का उद्धार किया। मगर हज्जाज, दाहिर के इस न्याय और मानवता के कार्य से जल उठा ।

भारत में मुस्लिम सुलतान 

तत्कालीन अरबी लोगों की कामुक और विलासी दृष्टि लंका पर थी। अरबी इतिहासकारों के वर्णन इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं। वे कहते हैं कि अरबी लोग द्वीप की नारियों के सौंदर्य के कारण लंका को जवाहरातों का द्वीप कहकर पुकारते थे । १२०० वर्षों तक उन्होंने भारतीय ललनाओं पर जो जुल्म ढाया वह इस बात को प्रमाणित करने के लिए काफ़ी है कि भारतीय नारियों के प्रति भी उनका कामुक आकर्षण कम नहीं था।


(परवर्ती घटना क्रम का वर्णन करने के पूर्व हम पाठकों को सावधान करना चाहते हैं कि भारतीय नगरों, मनुष्यों, नारियों और एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी के वर्णन के साथ अरबी इतिहासकारों ने खिलवाड़-सा किया है। अपनी अज्ञानता और कामुक ओछेपन के कारण इन्होंने उच्चारण और अक्षर-विन्यास पर कोई ध्यान नहीं दिया। अतः भारतीय शहरों और नगरों के नाम अरबी इतिहास में अजीब से हो गए हैं। शंका होती है कि दाहिर नाम उन्होंने गढ़ा है या यह मूल नाम का ही अपभ्रंश है। यही हाल उनके पिता के साथ भी हुआ है जिसे वे 'चाच' कहते हैं। संस्कृत में ऐसे नाम नहीं हैं। जब भारत का असली इतिहास लिखा जायेगा तब हमें इनके मूल नामों की गवेषणा करनी होगी। तबतक हमें इन्हीं नामों से काम चलाना होगा जिसे तोड़-मरोड़कर ये प्रस्तुत करते हैं।)


दाहिर की राजधानी अलोर थी। यह सिन्ध का एक प्रसिद्ध शहर था। इसका विशाल राज्य सारे सिन्ध में छाया हुआ था। वह चार शास कीय विभागों में बंटा हुआ था। पहले विभाग में नीरून, देवालयपुर (करांची), लोहाना, लक्ला और सम्मा थे। इसके शासक बरह्मनाबाद में रहते थे। (स्पष्टतः इसे ब्राह्मणपुर होना चाहिये) बुद्धपुर जनकन और राजहन की पहाड़ियों से मकरान तक की देखभाल दूसरा शासक शिवस्थान से करता था। तीसरा शासक तलवादा एवं चाचपुर यानी क्रमानुसार अक्षसन्दा और पाबिया का नियंत्रण करता था। चौथे विभाग की राजधानी मुलतान (मूलस्थान) थी। ब्रह्मपुर, करूर, आशाहर और कुम्बा इसके अधीन थे। इसकी सीमा काश्मीर तक थी। दाहिर स्वयं अलोर से करवान, कंकानस और बनारस (सिन्धु का अटक-बनारस) का शासन देखता था।


दाहिर एक न्यायी और शक्तिशाली हिन्दू राजा के रूप में विख्यात था। सिघ आज रेगिस्तान है। पर दाहिर के उदार और परोपकारी शासन काल में यह अपनी सुन्दर झीलों, नहरों और उर्वरा भूमि के कारण विख्यात था। उसके सीमा रक्षक लुटेरे प्ररबी गिरोह पर तीक्ष्ण दृष्टि रखते थे। वे उपद्रवियों को दण्ड भी देते थे। इससे हज्जाज को क्लेश होता था। क्योंकि अरबी दल भारतीय नागरिकों के शव पर उन्मुक्त नृत्य नहीं कर सकता था। इसलिए उसने भयंकर प्रतिशोध की सौगन्ध खाई थी ।


अपने पूर्ववर्ती सरदारों से वह निराश हो चुका था। वे उसकी भयंकर काम-लिप्सा और लोभ की उत्तुंग ज्वाला को शान्त नहीं कर सके थे। अतएव उसने अपने रिश्ते के भाई और दामाद मुहम्मद क़ासिम को उस लुटेरी सेना का सरदार नियुक्त किया, जो भारत के सीमा मन्दिरों को मसजिद बना रही थी। कासिम की उम्र तब सिर्फ १७ वर्ष की थी। इस छोटे शैतान की बातों और बायदों से उसके ससुर को विश्वास हो गया कि वह सामूहिक व्यभिचार और बलात्कार की आशा अपने दामाद पर बांध सकता है। अभागी हिन्दू स्त्रियों के बड़े-बड़े वंडल भेजने की इसने शपथ खाई। लूट के बंटवारे का आधार भी १/५ ओर ४/५ निश्चित हो गया था।


पहले उबैदुल्ला फिर बुदैल को देवालयपुर पर धावा करने भेजा गया। दोनों ही नहीं समा गये और उनके सिर वहीं दफ़न हो गये। ये दोनों ही अभियान समाप्त हो गए। उनकी जल सेना बिखर गई। ठीक इसी समय वालिद खलीफ़ा बने। हज्जाज के कहने पर उसने कासिम को सिद्ध की सीमा पर नियुक्त किया। पैदल और घुड़सवारों की विशाल सेना लेकर कासिम सिराज की ओर बड़ा। यहाँ उसने अनु असवाद जान की प्रतीक्षा की। असंख्य लुटेरों की एक बड़ी टोली लेकर वह कासिम से आ मिला। बड़े परिश्रम और बड़ी सूझ-बूझ के साथ इस अभियान की तैयारी की गई थी। छोटी-छोटी बातों का भी विशेष ध्यान रक्खा गया था। यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति को सूई और धागा तक दिया गया था।


ऐसा ज्ञात होता है कि इस अभियान पर हज्जाज और वालिद के बीच एक सीधा-सादा व्यापारिक समझौता हुआ था। भारतीय घन और स्त्रियों की लूट के इस व्यावसायिक अभियान का व्यय ख़लीफ़ा करेंगे। बदले में उन्हें दुगुना प्राप्त होगा। शेष हज्जाज को मिलेगा। हज्जाज ने इन शर्तों को अविलम्ब स्वीकार कर लिया। उसे विश्वास था कि उसका शैतान दामाद अपनी लुटेरी सेना की सहायता से असीम सम्पत्ति बटोर लाएगा।


जान और कासिम की संयुक्त सेना मकरान होकर आगे बढ़ी। उस समय अफ़ग़ानिस्तान भारत का ही भाग था। इसका संस्कृत नाम अहिग्ग स्थान है। अतएव क़ासिम अफ़ग़ानिस्तान की ओर बढ़ा। पहला धावा कन्नाज़उर पर हुआ। फिर ये अरमेल पर टूटे हत्या और बलात्कार के 'छीन-झपट व्यापार' में भाग लेने एक-दूसरा लुटेरा दल ताबड़-तोड़ इनसे यहाँ आ मिला। इस दल का नेता भी एक मुहम्मद ही था। यह हारून का पुत्र था। मगर भारतीय सीमा रक्षकों ने इसे मार-काटकर धूल में मिला दिया। कम्बालि में उसे दफ़नाया गया। भारतीय कीड़े-मकोड़ों ने इसकी हड्डियाँ तक चट कर दीं।


विजित भूभाग के हिन्दुओं को भांति-भांति की पीड़ाएँ दी गई। उन्हें मुसलमान बनाया गया। अपनी टुकड़ी में उन्हें भरती किया गया। उनको यह धमकी दी गई कि यदि उन्होंने दाहिर से लड़ाई नहीं की तो उनकी पत्नियों और पुत्रों को समाप्त कर दिया जाएगा। इन शैतानों ने खड़ी फ़सल जला दी, झीलों में विष घोल दिया। स्त्रियों से बलात्कार कर घरों को मटिया-मेट कर दिया। गाँवों में भाग लगा मन्दिरों को मस्जिद बना दिया। रातों-रात मन्दिरों के ब्राह्मण पुजारी मुल्ला बन गये और कोड़ों की छाँव में उन्होंने कुरान पड़ी। जहाँ वे पूजा किया करते थे वहीं अब वे नमाज पढ़ने लगे। इसलिए यह कटु सत्य है कि भारत और पाकिस्तान के प्राय: सभी मुल्ला और मौलवी परिवर्तित हिन्दू सन्तान हैं। आज जहाँ वे नमाज पढ़ते हैं, वहीं उनके पूर्वज पूजा किया करते थे।

कायर पुजारी- जलपोतों और सीमा निवासियों को अपने अधिकार में कर, क़ासिम देवालयपुर (करांची) की ओर बढ़ा। एक टुकड़ी ने आगे बढ़कर विशाल दुर्ग को घेर लिया। रसद-प्राप्ति में बाधा डालने के लिए स्थल मार्ग बन्द कर दिया गया। दुर्ग के मध्य में एक विशाल गुम्बदवाला मन्दिर था। उसके ऊँचे स्तम्भ पर गड़े लम्बे ध्वज-दण्ड के सहारे लहराता भगवा ध्वज मीलों दूर से दिखाई देता था। विशाल यंत्रों से दुर्ग पर अग्नि गोलों और पत्थरों की वर्षा प्रारम्भ कर दी गई। हिन्दू ध्वज-दण्ड टूटकर चूर-चूर हो गया। असंतुलित युद्ध के कारण हिन्दू सैनिकों ने दुर्ग त्याग दिया और मुसलमानों के व्यूह को चीरकर दूसरी ओर निकल गए। के तूफ़ान की भाँति क़ासिम दुर्ग में प्रविष्ट हुआ। लूट, बलात्कार और हत्या का नंगा नृत्य प्रारम्भ हो गया। तीन दिन और तीन रात रक्त की धारा बहती रही। सारा दुर्ग ही मानो एक बृहत् बन्दीगृह हो गया हो। इसके सारे बन्दियों को निर्ममतापूर्वक पंगु कर दिया गया। उनके मद्दलों पर मुसलमानों ने अपना अधिकार कर लिया। प्रमुख मन्दिर जामा मस्जिद, बन गया। अब उस ऊंचे स्तम्भ के ध्वज-दण्ड पर भगवा ध्वज के बदले अर्धचन्द्रयुक्त हरी पताका फहराने लगी थी।


फिर तो यह उनका स्वभाव ही हो गया। जहाँ कहीं भी ये मुस्लिम लुटेरे गए, प्रमुख मन्दिर को जामा मस्जिद में बदल दिया और मुख्य पुजारी को मुख्य मुल्ला बना दिया। अरबी इतिहासकारों की लेखनी के अनुसार यह कार्य बड़ी प्रासानी से हो गया था। उन्हें सिर्फ़ दो कार्य करने पड़े थे 

१. देव-प्रतिमाओं को चूर-चूर करना; 

२. मीनार और मंच बना देना ।


शाह हज्जाज ख़लीफ़ा बालिद के पास विजय की सूचना भेज दी गई। वे दोनों हर्षविंग से झूम उठे। उन्होंने अपने युवा गिरोहपति को बधाई और आशीर्वाद भेजा कि सामूहिक नर-संहार और थोक क़त्लेआम में खुदा तुम्हारी मदद करे। दोनों बड़े ही उत्साहित और आनन्दित थे। लाभ की मोटी रकम की राह में वे यांखें बिछाए बैठे थे। पर यह लाभ की रक़म थी क्या? बन्दी युवतियाँ, झपटे हुए आभूषण और क्षत-विक्षत शरीर । दकंती के इस घृणित प्रयास के महत् लाभ की पहली किश्त ७१२ ई० में बगदाद और दमिश्क के मार्ग पर थी। भारत के दुर्भाग्य का वह पहला वर्ष था। तब से दिकर हजार वर्षों तक भारतीय सम्पत्ति और युवतियों का बराबर निर्यात होता रहा। वीर मराठों ने विदेशी मुसलमान शासकों को जब तक निर्वीर्य नहीं कर दिया तबतक निर्यात का यह क्रम चलता ही रहा। नये मुसलमानों की भरती से तरोताजा होकर, लूटी सम्पत्ति के साथ भयभीत पीड़ित व्यक्तियों को हांकता-बटोरता, क़ासिम का विशाल दल सिन्धु की ओर आगे बढ़ा। छः दिन की यात्रा के बाद वे नीरून पहुंचे। कुछ समय पूर्व ही नीरून- निवासियों ने बुर्दल के अरबी दल का मलीदा बनाया था। उस समय हज्जाज को सन्धि करनी पड़ी थी। हार की लाज को अरबी छाती में छिपाए क़ासिम के झुण्ड ने नीरून को घेर लिया। नीरून निवासी इस टिड्डी दल को देखकर घबरा गए। नये मुसलमान तलवार की छाया में इस दल का मार्ग निर्देश करते थे। इस दल की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही थी। नीरून निवासी भयभीत हो उठे। उन्होंने हज्जाज के पास अपना प्रतिनिधि मंडल भेजा। उसे सन्धि के नियमों का स्मरण दिलाया गया। पर नीचता के कीड़े हज्जाज ने इस मण्डली को बन्दी बना लिया। अत्याचारों ओर यातनाओं की आंधी में उन्हें मुसलमान बनाया गया और सैनिकों की निगरानी में क़ासिम के सेमे में भेज दिया गया।


क़ासिम की सेना नीरून से १ मील दूर मैदान में बुरी अवस्था में पड़ी हुई थी। न पीने को पानी था, न खाने को अन्न। बड़ी सफलता के साथ दुर्ग को सेना ने इन लुटेरों के रसद मार्ग को अवरुद्ध कर दिया था। ठीक इसी निर्णयात्मक घड़ी में नीरून का आतंकित प्रतिनिधि मण्डल अभागे कंदियों की भांति कासिम के सामने उपस्थित हुआ। कासिम ने तुरन्त योजना बनाई। प्रतिनिधि मण्डल के ये नये मुसलमान अपने दुर्ग में वापिस लौटेंगे। सन्धिवार्ता की आड़ में क़ासिम के विश्वस्त कर्मचारी भी चुपचाप इनके साथ प्रविष्ट होंगे और अंधेरी रात में दुर्ग-द्वार खोल दिया जाएगा। इस मंडल के लोगों को बुरी तरह धमकाया गया। उनकी आंखों के सामने अन्य हिन्दुओं को ऐसी-ऐसी पाशविक और बीभत्स यन्त्रणाएँ दी गई कि इनका रोम-रोम कॉप उठा। इनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया। दुःस्वप्न की-सी स्थिति में उन्होंने दुर्ग-द्वार खोलना स्वीकार कर लिया। मध्य रात्रि में निश्चित समय पर कासिम की सेना दुर्ग में प्रविष्ट हुई।

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