अमैथुनी सृष्टि - ধর্ম্মতত্ত্ব

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22 February, 2022

अमैथुनी सृष्टि

अमैथुनी सृष्टि

महाप्रलय से जगत् का अत्यन्ताभाव हो जाता है। कार्य्यरूप मे परिणत प्रकृति का चिह्न बाकी नहीं रहता, न कोई लोक बाकी रहता है। सूर्य चन्द्र आदि सभी लोक लोकान्तर कारण रूपी प्रकृति की. गोद मे शयन करने लगते है। ऋग्वेद में इसी सत, रज और तम की साम्यावस्था अथवा जगन के कारण रूप प्रकृति में लीन हो जाने के लिये “तमासीत्तमसागूढुम” (ऋग्वेद १०/१२९/३ ) कहा गया है ।

 प्रचलित विज्ञान ने भी इस महाप्रलयवाद का समर्थन किया है। क्लाशियस ( The fouuder of the mechanical theory of heat ) ने ताप को दो भागों में विभक्त किया है । ( १ ) ब्रह्माण्ड में उपस्थित ताप स्थिरता के साथ काम में आता रहता है। (२) दूसरा काम से न आनेवाला ताप, अधिक से अधिक हो जाने की ओर प्रवृत्त रहता है। इसकी प्रवृत्ति भीतर को और होने की होती है। यह दूसरी शक्ति ताप रूप मे होकर शीतलता प्राप्त वस्तुओं मे वॅट कर आगे ताप रूप में काम में आने के अयोग्य हो जाती है। पहले प्रकार का ताप काम मे आ-आकर कम होता रहता है और दूसरा काम मे न आने वाला ताप, पहले ताप के व्यय से, बढ़ता रहता है। इस प्रकार ब्रह्मांड की कर्तृत्व शक्ति दूसरे प्रकार के नाप रूप में परिवर्तित होती रहती है और काम में नहीं आया करती। यह कम होते-होते जगत् से शीतोष्ण के अन्तरों को दूर कर देती है और पूर्णरूप से उन वस्तुओं मे समाविष्ट हो जाती है जिन्हें गति-शून्य और काम के अयोग्य द्रव्य कहते हैं। ऐसा हो जाने पर प्राणियों का जीवन और गति समाप्त हो जाती है। जब यह दूसरा ताप पहले को समाप्त करके पूर्णता प्राप्त कर लेता है तभी महाप्रलय हो जाता है। *

 *[The energy of universe is constant It is con vertible into work The entropy of the universe tends towards a maximum (It is not convertible into work) Entropy is force that is directed inwards, this energy already converted into heat and distributed in the cooler musse's, is irrevocably lost as far as any fur ther work is concerned. The entropy is continuously increasing at the cost of the other heat (The first kind of energy) XXX As therefore the mechanical energy of the universe is daily being transferred into heat, and this cannot be reconverted into mechanical force, the sum of heat and energy in the universe must continually tend to be reduced and dissipated. All difference of temperature must ultimately dis appeal and completely the latent heat must be equally distributed through one inveit mass of motionless matter.

All organic life and movement must cease when this maximum of entropy has been reached, that would be a real end of the world.]

इस अवस्था को प्राप्त हो जाने और नियत अवधि तक कायम रहने के बाद जब जगत उत्पन्न होता है, तत्र प्रत्येक लोक क्या और प्रत्येक योनि क्या, नये सिरे से ही बनती है। यहाँ लोक नहीं किन्तु योनि के उत्पन्न होने के सम्बन्ध में विचार करना है:- भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीर जैसा वैशेषिक दर्शन में लिखा है दो प्रकार के होते है


(१) “योनिज” जो माता पिता के संग से उत्पन्न होते है, जिसे मैथुनि सृष्टि कहते है । (२) "अयोनिज" जो बिना माता पिता के संयोग के उत्पन्न होते है और जिसे अमैथुनि सृष्टि कहते है। समस्त प्राणी जो जगत्में उत्पन्न होते है, उनकी उत्पत्ति चार प्रकार से होती है: ( १ ) जरायुज-जिनके शरीर जरायु ( झिझी ) से लिपटे रहते है और इस जरायु को फाड़कर, उत्पन्न हुआ करते है, जैसे मनुष्य, पशु आदि ।

तत्र शरीर द्विविधं योनिजमयोनिज च । ( वैशे० ४१२/६)

नोट – इस सूत्र के भाष्य में, श्राचार्य प्रशलपाद ने लिखा है कि जल, अग्नि और वायु से उत्पन्न शरीर अयोनिज होते है। ग्राचाय प्रशस्तपाद की यह बात प्रशस्त नहीं है ।

अमैथुनि सृष्टि का क्रम


भूतों की उत्पत्ति के वाद, पृथिवी से औपधि, औषधि से अन्न, अन्न से वीर्य ( वीर्य से तात्पर्य रज और वीर्य दोनों है) और वीर्य से पुरुष उत्पन्न होता है। #चाहे मैथुनि सृष्टि हो या अमैथुनि दोनों मे प्राणी रज और वीर्य के मेल से ही उत्पन्न हुआ करता है।


मैथुनि सृष्टि मे, रज और वीर्य के मिलने और गर्भ की स्थापना का स्थान, माता का पेट हुआ करता है परन्तु अमैथुनि सृष्टि में मेल का स्थान, माता के न होने से, माता के पेट से बाहर हुआ करता है। प्राणि शास्त्र के विद्वान् वतलाते हैं कि अब भी ऐसे जन्तु पाये जाते हैं जिनके रज और वीर्य माता के पेट से बाहर ही मिलते हैं और उन्हींसे बच्चे उत्पन्न हो जाते हैं। उनमे से कुछ का विवरण नीचे दिया जाता है:


( १ ) समुद्रो मे एक प्रकार की मछली होती है जिसकी मादा मछलियों में नियत ऋतु में बहु संख्या में रज-करण (ove) प्रकट हो जाते है और इसी प्रकार नर मछली के अण्डकोशो में जो पेट के नीचे ( within the abdominal cavity ) होते हैं वीर्य-कण (Zoo sperins ) प्रादुर्भूत होने लगते है। जव मादा मछली किसी जगह अण्डे देने के लिये रज-कणों को, जो हजारों की संख्या में होते हैं, गिराती है । वह जगह प्रायः जल की निचली तह में रेतेली अथवा पथरीली भूमि होती है) तब उसी समय नर वहाँ पहुँचकर उन रज करणों पर वीर्य-करणों को छोड़ देता है जिससे पेट के बाहर ही गर्भ की स्थापना होकर अण्डे बनने लगते हैं।


( २ ) इसी तरह एक प्रकार के मेंढक होते हैं जो रज और वीर्य करण बाहर ही छोड़ते है। नर मेढक मादा मेढक की पीठ पर बैठ जाता है जिससे मादा के छोड़ते हुये रज-करणो पर वीर्य-करण गिरते जायें और इस प्रकार मेढकी के पेट से बाहर ही, इनके अण्डे बना करते हैं ।


( ३ ) एक प्रकार के कीट जिन्हें टेप वर्म ( Tape worm) कहते हैं और जो मनुष्यों के भीतर पाचन क्रिया की नाली ( Human digestion canal ) में पाये जाते हैं। २० हजार अण्डे एक साथ एक कीट देता है। एक अण्डे से जब कीट निकलता है तो उसका एक मात्र शिर हुकों के साथ जुड़ा हुआ होता है। ( It consist simply a head with hook ) उन हुको के द्वारा वे ऑतो की श्लैष्मिक ( Mucous membranes of the intestine ) से जुड़ जाता है। और उसी शिर से उसका शरीर विकसित होता है और इस प्रकार उत्पन्न हुआ शरीर अनेक भागो (Segments ) में विभक्त हो जाता है। वे इस प्रकार संख्या और आकार में बढ़ते जाते है। प्रत्येक भाग में स्त्री पुरुष के अंग होते है। जिनसे स्वयमेव बिना किसो चाह्य सहा यता गर्भ की स्थापना हो जाती है। कुछ काल के बाद पुराने भाग ( Segnents ) पृथक होकर स्वतन्त्र कीट वन जाया करते हैं। इत्यादि ।


इन उदाहरणों से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है कि यह सर्वथा सम्भव है कि रज और वीर्य का सम्मेलन माता के पेट से बाहर हो और उससे प्राणी उत्पन्न हो सके। इसी मर्यादा के अनुसार प्रमैधुनि सृष्टि में मनुष्य का शरीर


 #तस्माद्वा एतस्मादात्मन श्राकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः अग्नेपः । श्रद्धयः पृथिवी । पृथिव्या औौषधयः । यौषधीभ्योऽन्नम् । अन्नाद्रतः । रेतसः पुरुषः । ( तैतिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्द पत्नी, प्रथम अनुवाक ) ।


बनानेवाले रज और वीर्य का मेल, माता के पेट से बाहर होकर वृक्षों के चौड़े पत्ते रूपी झिल्ली मे, गर्भ की तरह सुरक्षित रहते हुए बढ़ता रहता । रज और वीर्य किस प्रकार मिल्ली में आकर मिल जाते हैं, | इसका अनुमान फूलो के पौधों की कार्यप्रणाली से किया जा सकता है। फूलो के पौधे नर भी होते हैं और मादा मी-नर पौधों से पक्षी वीर्य-करण लाकर, मादा पौधों के रज-करणो पर छोड़ देते है जिससे फूल और फल की उत्पत्ति हो जाती है। इसीलिये पक्षियों को फूलो का पुरोहित ( Marriaze priest of flowers ) कहा करते हैं। अस्तु, जव प्राणी इस वाह्य गर्भ मे इतना बड़ा हो जाता है कि अपनी रक्षा आप कर सके तव वह पत्ती रूपी झिल्ली फट जाती है और उसमें से प्राणी निकल आया करता है। इसीका नाम अमैथुनि सृष्टि है।


एक कीट का उदाहरण


किस प्रकार बिना प्राणियों के यत्न के रज और वीर्य का स्वयमेव सम्मेलन तथा प्राणी के पुष्ट और कार्य करने के योग्य हो जाने पर, भिल्ली का अपने आप फट जाना आदि अलौकिक रीति से हो जाया करता है ? इसके लिये एक उदाहरण दिया जाता है:- मैं जब गुरु कुल वृन्दावन मे था तो गुरुकुल की वाटिका मे बने एक वॅगले मे रहा करता था—उस वेंगले के चारो ओर सुदर्शन के पौधे लगे हुए थे। इस सुहावने पौधे मे एक प्रकार का कीड़ा लग जाता था जिससे उसके पत्ते और फूल सव खराब हो जाया करते थे। उस कीड़े की जाँच करने से कि वह कहों से था जाया करता था, निम्न वातें प्रकट हुईं:


जब इस पौधे मे नये पत्ते निकले तो ध्यानपूर्वक देख-भाल करने से पता लगा कि एक काले रग की, तमाखू की तरह की कोई चीज कहीं से आकर एक पत्ते पर जम गई और दो चार दिन के बाद किसी ज्ञात विधि से, वह पत्ते के मोटे दल और मिट्टी के बीच में आ गई। देखने से साफ मालूम होता था कि यह वही काली वस्तु है जो पत्ते के मोटे और पतले दलों के बीच मे आ गई है। एक सप्ताह के भीतर अब उस वस्तु के एक ओर का पतला पत्ते का दल ( झिल्ली ) भी इतना मोटा हो गया कि अव वह वस्तु एक गॉठ की तरह पत्ते मे मालूम होने लगी। उसका रूप और रंग कुछ दिखाई नहीं देता था। अब वह चीज क्रमशः पत्ते के भीतर लम्बाई में बढ़ती हुई दिखाई देने लगी और दस दिन के भीतर, उसकी लम्बाई लगभग दो इछ के हो गई। ऐसा हो जाने के बाद एक सप्ताह के भीतर वह पत्ता फट गया और उसमें से एक हरे रंग का कीड़ा जो दो सुनहरी रेखाओ से, तीन हिस्सो मे, मनुष्य के हाथों की छोटी उँगली की तरह विभक्त था निकल आया—यही कीड़ा सुदर्शन के पत्तो और फूलो को खा-खाकर खराब कर देनेवाला सिद्ध हुआ। इस कीड़े को, एक शीशे की आलमारी में, कुछ पत्तो के साथ रख दिया गया। दस वारह दिन के बाद जब आलमारी खोली गई तो उसमें से तीन तितलियाँ निकलीं और उड गई, कीड़े का वहाँ चिह्न भी बाकी नहीं रहा। इस परीक्षण से अमैथुनि सृष्टि की कार्यप्रणाली पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।


साँचे का उदाहरण


जिस प्रकार खिलौने आदि बनानेवाला कारीगर पहले साँचा बनाता है और फिर उसी मॉचे से अनेक खिलौने ढाल लिया करता है, ठीक इसी प्रकार अमैथुनि सृष्टि साँचा बनाने की कार्यप्रणाली हैं और उसके बाद की मैथुनि सृष्टि सॉचे से खिलौने आदि डालने का कार्यक्रम है।


अमैथुनि सृष्टि सब प्रकार की होती है


श्रमैथुनि सृष्टि में केवल मनुष्य ही नहीं उत्पन्न होते; किन्तु पशु, पक्षी इत्यादि सभी उत्पन्न होते हैं। ये भिन्न-भिन्न योनियों क्यों उत्पन्न होती हैं ? इस प्रश्न का उत्तर वैशेषिककार ने, उनके पिछली सृष्टि में किये हुए कर्मों की भिन्नता दिया है 1 महाप्रलय होने पर वैशेषिक

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1 धर्म विशेषाघ (वैशेषिक ४१२१८)

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कार मत में किसी दिशा अथवा स्थान में, कोई प्राणी किसी योनि मे भी बाकी नहीं रहता।  इसलिये अमैथुनि सृष्टि का होना अनिवार्य है। फिर उसने एक जगह लिखा है कि प्राचीन आ प्रथानुसार, अमैथुनि सृष्टि मे उत्पन्न होनेवाले व्यक्तियों को, पिता के नाम से नहीं पुकारते, जैसे भरद्वाज का पुत्र भारद्वाज, बल्कि उत्पन्न होनेवाले व्यक्ति के मूल नाम ही लिये जाते हैं। जैसे श्रग्नि, वायु, आदित्य, अगिरा तथा ब्रह्मा आदि । इसलिये कि इनके कोई माता पिता नही थे। उसने अपने मत की पुष्टि में अमैथुनि सृष्टि के होने के बाद को आवश्यक बतलाते हुए+ उसके वेद से प्रमाणित होने का भी उल्लेख किया है। X वेद मे एक जगह अमैथुनि सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यो को सम्बोधित करते हुये कहा गया है: " हे समस्त प्राणियों ! तुम न शिशु हो न कुमार किन्तु महान् (युवा) हो ।”

अनियतदिग्देशपूर्वकत्त्वात् || ( वैशेषिक ४|२|७१ )

+ समाढ्याभाबाच्च ॥ तथा सज्ञाया ग्रादित्वात् || ( वैशेषिक ४।२।९,१०)

+ सन्त्ययोनिनाः ॥ ( वैशेषिक ४२१११ ) 

X वेदलिहाच ॥ ( वैशेषिक ४१२११२ )

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विकासवाद


डार्विन ने शिक्षा दी कि मनुष्य, योनि-विकास के द्वारा, पशु से मनुष्य बना । उसने योनि-विकास का क्रम इस प्रकार बतलाया ( १ ) प्रथम अमीबा आदि एकघटक जन्तु हुए। ( २ ) फिर आदिम मत्म्य । (३) फिर फेफड़ेवाले मत्स्य । ( ४ ) फिर सरीसृप जल मेढक आदि जलचारी जन्तु । (५ फिर स्तन्य जन्तु । ( ६ ) फिर अण्डज-स्तन्य। ( ७ ) फिर पिंडज = अजरायुज-स्तन्य। (= ) फिर जरायुज स्तन्य । (९) फिर किम्पुरुष =बन्दर बनमानुप पतली नाक बाले। वनमानुषों मे पहले पूंछवाले कुक्कुटाकार, फिर बिना पूंछवाले नराकार, फिर इन्हीं नराकार वनमानुपों की किसी शाखा (लुप्त कड़ी ) से जिसका अभीतक ज्ञान नहीं गूंगे मनुष्य, फिर अन्त मे उन्हीसे बोलनेवाले मनुष्य उत्पन्न हुए।


डार्विन ने इस योनि-विकास के साथ ही मानसिक विकास ( Mental evolution ) की भी कल्पना करते हुए प्रकट किया है कि मनुष्य में बिना किसी निमित्त पुरुष के स्वतः क्रमशः ज्ञान की वृद्धि हो जाती है।

इस वाद पर आक्षेप


पहला आक्षेप


एक विकासवादी, शास्त्रज्ञ के मतानुसार प्राणी के उद्भिदों से लेकर मनुष्य योनि तक पहुँचने मे ६७ लाख योनियॉ बीच की कृती (ऑकी) जाती हैं। परन्तु इन ६७ लाख योनियो का विवरण देकर, उनमे योनि-विकास प्रमाणित करने की तो कथा ही क्या है, उनके नाम भी वतलाना असम्भव है। जर्मन के प्रसिद्ध प्राणि-शास्त्रज्ञ अर्नेस्ट हैकल ने एक जगह लिखा है कि "मछली से मनुष्य होने तक कम से क्रम ५३ लाख ७५ हजार योनियॉ वीती हैं। सम्भव है कि यह संख्या इस ( ५३ लाख ) से १० गुनी हो ।@ पुराणों में कुल योनियाँ ८४ लाख वर्णित हैं, जिनकी तफसील एक जगह इस प्रकार मिलती है:

@Lost Link' by Ernest Haeekal with notes by Dr. H. Gada.

स्थावर योनियाँ                ३० लाख

जलचर                             ९ "

कृमि                               11  "

पक्षि                                 १०  "

 पशु                               २०  "

मनुष्य                                 "

------------------------योग ८४ लाख--------------


स्थावर योनियों को छोडकर जलचर से मनुष्य तक ५४ लाख योनियोँ पुराणों के अनुसार हैं। परन्तु हैकल ने, सैकड़ो वर्षों के बाद उन्हें केवल ५३|| लाख कूता है। फिर इन ५३||| लाख योनियो के विवरण देने मे हैकल ने यह कहकर अपनी असमर्थता प्रकट की है कि “सम्भव है यह संख्या इससे १० गुनी हो ।" थोड़े से मुट्ठी भर स्तन्य जन्तुओं का विवरण देकर जिसके भीतर भी, लुप्त कडी, अभी तक वाकी ही है, योनि-विकास को प्रमाणित समझना, साहस मात्र है।


दूसरा आक्षेप


अब तक सैकड़ो जन्तु योनि रूप में, अन्धे ही पैदा होते हैं। पता नहीं इनका विकास क्यों नहीं हुआ ? और पशुओं को छोड़कर अनेक द्वीपों मे अवतक मनुष्य-भक्षक मनुष्य पाये जाते है। इनके ज्ञान की क्रमशः वृद्धि न होने का समाधान क्या है ?


तीसग आक्षेप


योनि परिवर्तन बाद की पुष्टि में एक युक्ति यह भी दी जाती है के गर्भ की अवस्था भी इस बाद की पुष्टि करती है। कि मनुष्य ( १ ) इस युक्ति का तात्पर्य यह है कि गर्भ के प्रारम्भिक मानों मे उस (गर्भ ) का चित्र उन्हीं जन्तुथो से मिलता-जुलता होता है. जिनसे उन्नत होकर योनि-विकास द्वारा मनुष्य बना हुआ, कहा जाता है। अन्त के मासों से उसमें मनुष्यत्व के चिह्न प्रकट हुआ करते हैं। परन्तु यह कथन अब हाल की खोजों से ठीक निद्ध नहीं होता। “थियोसोफिकल पाथ” में डाक्टर वूड जौन्स के कथन का हवाला देते हुए, सी० जे० रियान (C. J Ryan ) ने लिखा है:-“हैकल का यह वाद, कि मनुष्य का गर्भ वन्दरों के गर्भ से लगभग अन्त के मासों तक पहचाना नहीं जा सकता, अशुद्ध और त्याज्य है। कुछेक आवश्यक अङ्ग जैसे कि मनुष्य के पाँव एक मांसपेशी (Leg Muscle) के साथ, जो मनुष्य के नीचे के जन्तुओं में नहीं पाये जाते, मनुष्य के गर्भ मे यथासम्भव प्रारम्भ ही में प्रकट हो जाते हैं। यदि मनुष्य चार पॉवधाले जन्तुओं आदि की योनियों से गुजर कर बना होता, तो वे अवयच अवश्य गर्भ के अन्त में प्रकट होते।” डाक्टर वूड जौन्स और रियान का भाव उनके ही शब्दों मे समझा जा सके, इसलिये इन दोनो सज्जनों के लेखों के उद्धरण फुटनोट में दे दिये गये हैं। वूड जोन्स ने अपने लेख में, जैसा कि उनके उद्धरण से मालूम होगा, इस बात का स्पष्ट रीति से वर्णन कर दिया है कि मनुष्य-योनि विकास द्वारा नहीं बनी है। किन्तु उसकी योनि इन सबसे भिन्न और स्वतन्त्र है। जब समास में रज और वीर्य के मेल से मनुष्य बन जाता है तब उसे लाखो से वर्षों मे बना हुआ बताना, ईश्वरीय शक्ति ( Nature ) का अपमान करना है। कुछेक और भी प्रमाण दिये जाते हैं:


(२) बृटिश अद्भुतालय लन्दन के इनचार्ज डाक्टर इथिरज ने, अपने अनुभव के आधार से लिखा है कि इस महान् अद्भुतालय में किञ्चिन्मात्र योनि-परिवर्तन की पुष्टि का कोई साधन नहीं है। विकासवाद की स्थापना के लिए जो कुछ कहा जाता है उसका भाग बकवास मात्र है। वह न तो जॉच पड़ताल से ठीक प्रतीत होता है। और न घटनाओ से उसकी पुष्टि होती है 18 (३) प्रोफेसर श्रोविन ने लिखा है कि योनि परिवर्तन का उदा


हरण कभी किसी व्यक्ति के देखने में नहीं आया। (४) प्रोफेसर थामसन ने लिखा है कि हम नहीं जानते कि मनुष्य कहाँ से निकल आया या कैसे उत्पन्न हो गया। यह बात खुले तौर से स्वीकार की जाती है कि मनुष्य की उत्पत्ति जिस प्रकार विकास वाद मे बतलाई जाती है, वह प्रकार सम्भावना की सीमा से सीमित है, परन्तु उसका कोई स्थिर स्थान विज्ञान की सीमा में नहीं है।

 ( ५ ) प्रो० डौसन ने लिखा है कि मनुष्य बनानेवाली कथित बीच की योनियों वैज्ञानिक जगत में अज्ञात हैं। प्राचीनतम अवशिष्ट चिह्न जो मनुष्यों के पाये जाते है उनसे स्पष्ट है कि मनुष्य प्रारम्भ से इसी रूप मे है। उनसे योनि विकास की पुष्टि नहीं होती है।


चौथा आक्षेप


यह (विकास) बाद प्रत्यक्ष के विरुद्ध है इसलिये अवैज्ञानिक है। संसार में एक सार्वत्रिक नियम देखा जाता है कि जो चीज उत्पन्न होती है, नष्ट हो जाती है। जो चीज बढ़ती है, अन्त मे घटने लगती है। सूर्य की गरमी बढ़कर अब घट रही है। मनुष्य उत्पन्न होकर युवा होता है, फिर बूढ़ा होने लगता है और अन्त में मर जाता है। वृक्षों की भी यही अवस्था होती है। यह कहीं भी नहीं देखा जाता कि कोई चीज बढ़ती ही चली जाय और घटे नही । विकास के साथ ह्रास अनिवार्य है। परन्तु डार्विन का विकासवाद एक पहिये की गाड़ी है, ह्रासशून्य विकास है, इसलिये अस्वीकार्य है।


पाँचव आक्षेप


क्रमशः ज्ञानवृद्धि का सिद्धान्त तो सर्वथा निराधार है और क्लिष्ट कल्पना मात्र है। इस सम्बन्ध में अनेक समयों में अनेक व्यक्तियों के द्वारा परीक्षण किये गये और सबका एक ही फल निकला। और वह


* Dr. Wood Jones ( The Problem of Man's An cestry – P. 33 ) – “We are left with the unavoidable impression that the search of his ancestors must be pushed a very long way back x x x It becomes inu possible to picture man, as being descenaed from any form at all like the recent monkeys x XX or from theirfossil representatives XXX He must have start ed an independent line of his own long before the anthropoid apes and the monkeys devoloped those spe cializations which shaped their definite evolutionary destinies."

Refering to Wood Jone's above view Mr. C. J Ryan writes in the "Theosophical Path" He proves that Haeckal's teaching that a human embryo cannot be distinguisho1 from that of monkeys until very late developments is wrong and must be abandoned, by showing that certain essentially human characters such as the human walking foot with a leg-muscle found in none of the lower animals, are visible in the human embiyo at the earliest possible time and not late in the formation as they would be if man bad pa sed these anthropoidal and quadrupadal stages. ( Vedic Mag azine May 1926. P. 143)

In all this Great Muscum there is not a particle of evidence of transmutation of species. Nine tenth

of the talk of evolution is sheei nousense, not founded on observation and wholly unsupported by facts ( Dr. Ethridge of the British Museum, London ). + No sustance of the change of species into am other, has ever been rec orded by man. ( Prof. Oxm ). + Wedon't know whence he (anan) camerged nor do we know how man arose ...for it must be admitted that the factors of evolution of man partake largely of the nature of “may be" whchhasi no perm anan nt position in science.

( Prof. J. A. Thompson ). No remains of intermediate forms are yet known to science. The earliest known remains of man are still human and tell us nothing as to the pre vious stages of developments. ( Prof. J. W. Dawson ).

यह था कि क्रमशः ज्ञानवृद्धि का सिद्धान्त अप्रामाणिक है। परीक्षण करनेवाले व्यक्तियों के नाम ये है -


( १ ) असुरवानापाल-लेयार्ड (and) और •ेलिन्सन (Row liusoul दो अन्वेषको ने, नैनवा और चैवलन (सीरिया) के पुराने खंडरों को खुदवाया और ईटों पर लिखे हुए पुस्तकालय निकाले । उन पुस्तको से वानापाल के परीक्षणों का हाल मालूम हुआ। पुराणों में इसी वानापाल को वानासुर लिखा है। जिसने इस देश पर आक्रमण किया और श्रीकृष्ण द्वारा पराजित हुआ था।

(२) यूनान का राजा सेमिटिकल ।

( ३ ) द्वितीय फ्रेडरिक ( Fredric the Second)

(४) चतुर्थ जेम्स ( Jaines the sth of Scotland )

(५) महान प्रकवरइन राजाओ के आधिपत्य मे अनेक विद्वानों द्वारा १०-१०, १२-१२ छोटे-छोटे नवजात बालको को शीशो के मकानो में रखा गया और उनकी परवरिश के लिये धाइयाँ रखी गयीं। उनको समझा दिया गया कि वे बच्चो को खिला-पिला कर प्रत्येक प्रकार से उनकी रक्षा करे। परन्तु उनको किसी प्रकार की कोई शिक्षा न दे, न उनके सामने कुछ बोले। उन धाइयो ने ऐसा ही किया। इस प्रकार पर बरिश पाकर जब बच्चे बड़े हुए तब जॉच करने से मालूम हुआ कि वे सभी बहरे और गूगे थे। यदि बिना शिक्षा दिये स्वयमेव किसी में ज्ञान न उत्पन्न हो सकता तो इन बच्चों को भी बोलना आदि स्वयमेव श्रा जाता । इनका बहरा और गूगा रह जाना साफ तौर स प्रकट करता है कि स्वयमेव ज्ञान न उत्पन्न होता है न उसकी वृद्ध होती है।


० अकबर ने ३०ी पर परीक्षण कराया था  (देग्य दवित्तान मजादिय-फारनी )

t l'ransactions of the Victoria Institute Vol. 15. P. 336)

छठा आक्षेप


वैज्ञानिक भी अब क्रमशः ज्ञानवृद्धि के मन्तव्य का विरोध करने लगे है।


( १ ) सर आलिवर लाज, क्रमशः ज्ञानवृद्धि के सिद्धान्त का विरोध करते हुए, ऐसा माननेवालो से प्रश्न करते हैं कि सूक्ष्म कला ( Fine Aits ) फोटोग्राफी आदि का विना शिक्षा प्राप्त किये किस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ ? एक दूसरे विद्वान् बालफोर ( Balfour ) ने लाज के इस प्रश्न का समर्थन किया है 1


( २ ) डाक्टर वालेस ने, जो विकासवाद के आविष्कारकों मे से एक थे, अपने क्रमशः ज्ञान की वृद्धिवाले सिद्धान्त को छोड़कर एक जगह लिखा है कि जो विचार वेद की ऋचाओं से प्रकट होते हैं, उनके लेखक उत्तम से उत्तम शिक्षको और हमारे मिलटनो और टेनी सनो से न्यून नहीं थे। डाक्टर वालेस के शब्द ये हैं


'We must admit that the mind which conceived and expressed appropriate language, such ideas, as are everywhere apparent in these Vedic hymns, could not have been in any way inferior to those of the best of our religious teachers and poets to our Milton's and our Tennysons." +


(३) डाक्टर वालेसने मिश्र और मेसोपटेमिया की पुरानी कलाओं और लेखों पर विचार करते हुए उनको भी आजकल की अच्छी से अच्छी कलाओं से कम नहीं ठहराया है। उन्होने इन और ऐसी ही अन्य बातो पर विचार करते हुए परिणाम यह निकाला है, कि क्रमशः ज्ञानवृद्धि का कोई प्रमाण नहीं है


*Life and matter by Sir Oliver Lodge. P. 143. + "Social Environment and Moral progress." by Di Wallaee, p u.

There is therefole no proof continuously increas


ing intellectual power.' (४) (क) गैलटन महोदय ने एक जगह लिखा है


It follows from this that the average ability of the Athenian race is on the lowest possible estimate, very neaily two grades higher than our own; that is about as much as our own race is above that of the African Negio. ( Heridity Genius. by Galton, P. 331. )


इसका सार यह है कि यूनानियों की मध्य योग्यता नीची से नीची मात्रा में यदि कृती जावे, तो भी हमारी सभ्यता से दो दरजे ऊपर थी। अर्थात् लगभग उतनी ऊची थी जितनी हमारी जाति अफरीका के हवशियो से ऊची है।


यूनानियों को यह योग्यता कहाँ से आई ? इसका उत्तर देते हुए "आनफील्ड" ने लिखा है कि पाइथा गोरस, अनकसा गोरस, पिरहो आदि अनेक यूनानी विद्वान, शिक्षा पाने के लिये भारतवर्ष आये और लोटकर यूनान में प्रसिद्ध वैज्ञानिक बने ।


(४) (ख) प्रोफेसर गोल्डस्मिथ की एक पुस्तक ( The laws of life ) की समालोचना करते हुए “के” (W. E. Key ) महोदय ने "गुड-हेल्थ" ( Good Health ) मे लिखा है कि विकासवाद का अर्थ समझने से पहिले, यह बात अच्छी तरह से हृद्यांकित कर लेनी चाहिये कि यह बाद न तो यह कहता है कि ईश्वर नहीं है और न इसकी शिक्षा यह है कि मनुष्य बन्दरों से उत्पन्न हुआ है। पैरी

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• Social Environmentainoral progre, y Dr. Wallace, P. 5-20.


1 History of Philosophy vol. I. P. 65.

Before considering the meaning of evolution nettihner elimmates God, nor does it teach that mor

ने अपने एक ग्रन्थ में और एडवर्ड कारपेंटर ने भी अपने एक दूसरे ग्रन्था में डॉक्टर वालेस और प्रो० "के" की सम्मतियों का समर्थन किया है ( ५ ) डारविन भी, जो विकासवाद का आविष्कारक था, अनी


श्वरवादी नहीं था। उसने अपनी एक पुस्तक के पहले संस्करण में,


जो योनियो की उत्पत्ति के सम्बन्ध में है, लिखा था


"I should infer from analogy that probably all the organic beings have descended from some one primordial form into which life was first breathed." परन्तु उसी पुस्तक के दूसरे संस्करण मे उसने उपर्युक्त वाक्यों को संशोधन करके इस प्रकार लिखा है


There is a grandeur in this view of life having been originally breathed by the Creator into a few forns or into one. "j


संशोधित वाक्य मे, जीवन फूंकनेवाला ईश्वर को वर्णन करके, डार्विन ने साफ शब्दो में प्रकट कर दिया है कि वह ईश्वर की सत्ता मानता था। [ टिंडल ने अपने बेलफास्ट के भाषण मे डार्विन के पहले संस्करण में प्रयुक्त किये हुए आदिम योनि (Primordial Form) शब्दों पर आक्षेप किया था कि उस (डार्विन) ने किस आधार पर यह कल्पना की है। ] +


जो कुछ विकासवाद के सम्बन्ध में ऊपर लिखा गया, वह यह keys are the ancestors of man. (Vedic Mag. Sept. 1523).

The children of the sun, by Perry. t. The Art of Creation, by Edward Carpentor,

P. 105. 1 'Origin of Species' by Charles Darwin + 'Lectures and Essays' by Tyndall. P. 30.

वेदों में सृष्टि उत्पत्ति के समय मनुष्यों के अमैथुनी सृष्टि द्वारा युवावस्था में होने का प्रमाण मिलते है।


ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदोऽ मध्यमासो महसा वि वावृधुः ।
सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवो मर्या आ नो अच्छा जिगातन ।।-(ऋ० ५/५९/६)

भावार्थ:- सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न होने वाले मनुष्य वनस्पति आदि की भाँति उत्पन्न हुए।उनमें कोई ज्येष्ठ-कनिष्ठ अथवा मंझला न था-अवस्था में वे सब समान थे।वे तेजी से बढ़े।उत्कृष्टजन्मा वे लोग जन्म से प्रकृति माता के प्रकाशमय परमात्मा के पुत्र हम सब मनुष्यों की अपेक्षा अत्यन्त उत्कृष्ट हैं।

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः ।।-(ऋ० ५/६०/५)

भावार्थ:-सर्गारम्भ में उत्पन्न हुए मनुष्य छोटाई और बड़ाई से रहित होते हैं।ये भाई कल्याण के लिए एक-से बढ़ते हैं।सदा जवान,सदा श्रेष्ठकर्मा,पापियों को रुलाने वाला शक्तिशाली परमात्मा इनका पिता होता है और परिश्रमी मनुष्यों के लिए सुदिन लाने वाली प्रकृति अथवा पृथिवी इनके लिए सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाली होती है।

इन मन्त्रों में जवान मनुष्यों की उत्पत्ति का अत्यन्त स्पष्ट वर्णन है।अब तो पाश्चात्य विद्वान भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं।बोस्टन नगर के स्मिथ-सोनयिम इनस्टीट्यूशन (Smithsoniam lnstitution) के अध्यक्ष डा० क्लार्क (Clark) का कथन है-

Man appeared able to walk,able to think and able to defend himself.

अर्थात् मनुष्य उत्पन्न होते ही चलने,विचारने तथा आत्मरक्षा करने में समर्थ था।

सर्गारम्भ में एक दो मनुष्य उत्पन्न नहीं हुए,अनेक स्त्री-पुरुष उत्पन्न हुए थे।यजुर्वेदीय पुरुषोपनिषद् में कहा है-

तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये।।-(यजु० ३१/९)

अर्थ:-उस परमेश्वर ने मनुष्य और ऋषियों को उत्पन्न किया।

यहाँ 'साध्याः' और 'ऋषयः' दोनों बहुवचन में हैं,अतः ईश्वर ने सैकड़ों-सहस्रों मनुष्यों को उत्पन्न किया।
मुण्डकोपनिषद् में भी इस बात का समर्थन किया गया है-

तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताः,साध्या मनुष्याः पश्वो वयांसि।।-(मुण्डक० २/१/७)

अर्थ:-उस पुरुष (परमात्मा) से अनेक प्रकार के देव=ज्ञानीजन,साधनशील मनुष्य,पशु और पक्षी उत्पन्न हुए।

अमैथुनी सृष्टि के मनुष्य कैसे और किस अवस्था में उत्पन्न हुए होंगे ? जैसे की आपने विषय पढ़ा – जो बहुत ही गूढ़ है – फिर भी हम कोशिश करेंगे इस विषय पर ध्यान रखकर – वेदो के विज्ञानं को समझने की – वेदो के अनुसार आदि सृष्टि अमैथुनी होती है – पहले समझते हैं ये अमैथुनी सृष्टि क्या है ? अमैथुनी सृष्टि से अभिप्राय उस सृष्टि से है जिसमे जीवो के शरीर बिना मैथुन (सेक्स) द्वारा उत्पन्न होते हैं – ऐसे शरीर उत्पन्न होने के बाद ही मैथुनी सृष्टि – अभी जो आप देख रहे इस प्रकार संतति उत्पन्न करने वाली होती है। अब कुछ लोग सोचेंगे – जब प्रकृति का नियम ही मैथुनी सृष्टि से है तो फिर किसप्रकार और क्यों अमैथुनी सृष्टि होती है ? कुछ सोचेंगे ऐसा कैसे हो सकता है ? कुछ कहेंगे वेद सदा ही ज्ञान विज्ञान और तर्क की कसौटी पर किसी तथ्य को कसता है मगर यहाँ अमैथुनी सृष्टि के लिए कौन सा विज्ञानं और तर्क है ? कुछ भाई बिना कुछ सोचे विचार ही इस पोस्ट को लाइक कर देंगे और कमेंट में अपने विचार भी प्रकट नहीं करेंगे – खैर पहले हम जांच करते हैं की अमैथुनी सृष्टि किस प्रकार होती है :- हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।यद्यस्य सोऽदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयं आविशत् ।। अर्थ : हिंस्रकर्म-अहिंस्र, मृदु (दयाप्रधान) क्रूर, धर्म घृत्यादि-अधर्म, सत्य असत्य, जिसका जो कुछ (पूर्वकल्प का) स्वयं प्रविष्ट था, वह वह उस उस को सृष्टि के समय उस (ईश्वर) ने धारण कराया। (२९) यथा र्तुलिङ्गान्यृतवः स्वयं एव र्तुपर्यये । स्वानि स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः।। अर्थ : जैसे वसंत आदि ऋतुएँ अपने अपने समय में निज निज ऋतु चिन्हो को प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्यादि भी अपने अपने कर्मो को पूर्व कल्प के बचे कर्मानुसार प्राप्त हो जाते हैं। (३०) (मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक २९-३०) जिस प्रकार प्रलय काल में सभी जीव सुषुप्ति की अवस्था में गहन निद्रा में होते हैं, जैसे ही सृष्टि का समय आता है ईश्वर जीव के पूर्व कल्प के कर्मो अनुसार उचित फल देकर आदि सृष्टि में उत्पन्न उचित देह द्वारा फल भोग करवाते हैं। अब सवाल उठेगा ये देह कैसे बनेगी ? तो उसका जवाब है – महर्षि मनु ने जो ऋतुओं की उपमा देकर आदि अमैथुनी सृष्टि का वर्णन किया है, यह बहुत ही सारगर्भित है, महर्षि का आशय कुछ इस प्रकार है जैसे ऋतुओं के चिन्ह बिना श्रम विशेष स्वाभाविक ही प्रगट होने लगते हैं। वसंत ऋतू में वृक्षों में वह खमीर गर्मी सर्दी के नियत प्रभाव से उत्पन्न होने लगता है और सर्वत्र बाग़ खिले फूलो से भर जाता है। भूमि की गर्मी सर्दी के प्रभाव से ऐसी दशा स्वयमेव ही हो जाती है की स्वयं ही शंखपुष्पी आदि अनेक फूलवाली औषधीय निकल आती हैं। ठीक ऐसे ही वसंत ऋतू में भूमि को यदि गर्भाशय मान ले तो कोई संशय नहीं होगा क्योंकि ऋतुओं के परिवर्तन का कारण जल गर्मी की कमीबेसी इसी प्रकार आदि सृष्टि के समय पर पृथ्वी अत्यंत गर्म होती है ऐसा ब्राह्मण ग्रन्थ भी कहते हैं और हाल के वैज्ञानिक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं – एक अवस्था में पृथ्वी और द्यौ साथ थे : इमौ लोको सह सन्तौ व्यैताम। जै० ब्रा० १।१४५ इमौ वै लोको सहास्ताम्। एत० ब्रा० ७।१०।१ शतपत ब्रा० (७।१।२२३) आदि अनेक ब्राह्मण ग्रन्थ में श्लोक पाये जाते हैं जिनका अर्थ है सूर्य और पृथ्वी पहले साथ ही साथ थे। बाद में पृथक हुए इमौ वै सहास्ताम। ते वायु वर्यवात। तै० शा० ३।४।३ जब पृथ्वी सूर्य से अलग हुई तब बहुत गर्म थी इस हेतु उसमे मनुष्यादि प्रजा का उत्पन्न होना विज्ञानं सम्मत नहीं होता – इसलिए पृथ्वी का उचित तापमान बनाने हेतु वर्षा की गयी और उचित समय पर पृथ्वी और जल के संपर्क से मनुष्य आदि की उत्पत्ति से तीन चतुर्युगी पूर्व वृक्ष औषधियां आदि उत्पन्न हुई – या औषिधी पूर्वा जाता देमयस्त्रियुग पुरा। मनै नु बभ्रूणामह शत धामानि सप्तच।। (ऋग्वेद 10.97.1) औषधियां मनुष्य से तीन चतुर्युगी पूर्व उत्पन्न होती हैं। ये सिद्धांतभूत नियम है जो वेदो में इस विज्ञानं के सम्बन्ध में पाये जाते हैं। सिद्धांतो को लेकर ब्राह्मण आदि ग्रंथो में विस्तार और क्रम आदि दिखलाया गया है। तस्मादात्मन आकाश सम्भूत। आकाशाद्वायु। वायोरग्नि। अग्नेराप। अदभ्य पृथ्वी। पृथिव्या औषधय। औश्विम्यो न्नम्। अन्नात्पुरुष। तै० उ० 2.1 अर्थ : परमात्मा की निमित्तता से प्रकृति से आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु। वायु से अग्नि और अग्नि से जल। जल से पृथ्वी और पृथ्वी से औषधीय। इनसे अन्न और अन्न से पुरुष उत्पन्न हुआ। यह एक वैज्ञानिक क्रम है जो उपनिषद में वर्णित है। तो पृथ्वी में आदि सृष्टि के मनुष्य आदि प्रजा उत्पन्न करने के लिए वसंत आदि ऋतू में गर्भ आदि का उचित तापमान जब आया तब ईश्वर ने “वीर्य” को गर्भ (पृथ्वी) में धारण करवाया। यहाँ वीर्य उस सामग्री का नाम है जो गर्भ में भ्रूण बनाने में उपयोगी पदार्थ विद्या है – जैसे वीर्य में अनेक गुण (प्रॉपर्टीज) होती हैं – वैसे ही रज में होते हैं – और गर्भ में उचित तापमान होता है जिससे गर्भ में भ्रूण बनता है। यदि हमें ४ लोगो का भोजन बनाना हो – तो नमक हल्दी मिर्च आदि मसाला – सामान्य ही उपयोग होगा – परन्तु यदि ज्यादा लोगो का खाना बनाना हो तो अवश्य ही ज्यादा हल्दी मिर्च आदि मसाला प्रयुक्त होगा – ठीक इसी प्रकार जब आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था में उत्पन्न होते हैं – तब उत्तम और उचित वीर्य से उस अवस्था के मनुष्य उत्पन्न होते हैं – यदि विज्ञान रज-वीर्य आदि के गुण (प्रॉपर्टीज) ठीक प्रकार जांच लेवे तो विज्ञानिक स्वयं स्वतंत्र रूप से वीर्य का निर्माण कर सकते हैं मगर ऐसा होना अभी हाल के अनुसन्धानियो द्वारा संभव नहीं मगर विज्ञानं ने इतनी तरक्की तो कर ही ली है की “कृत्रिम गर्भ” को बना सके। आने वाले कुछ वर्षो में शायद ये तकनीक ठीक काम करने लगे – http://en.wikipedia.org/wiki/Artificial_uterus ठीक इसी प्रकार यदि रज और वीर्य आदि के गुण धर्म (प्रॉपर्टीज) भी ज्ञात कर लेवे तो स्वतंत्र वीर्य – विज्ञानिक स्वयं निर्माण कर सकते हैं। और उचित समय पर जब गर्भ (पृथ्वी) में मनुष्यादि देह में जीव का संयोग ईश्वर को करना होता है तब विद्युत अग्नि आदि से जीव का शरीर से संयोग होता है और जगत में मनुष्य आदि प्रकट होते हैं। आपो ह यादवृहतीविशवमायन गर्भदयाना जनयतिरग्निम्। (ऋग्वेद म. १० सूक्त १२१ मन्त्र ७) कारण भूत जले गर्भ में अग्नि को धारण करती हुई विश्व को प्रकट करती हैं। अब कुछ लोग सोचेंगे – ये युवा अवस्था में ही क्यों आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं ? तो मित्रो इसका बहुत ही सुन्दर और सरल जवाब ऋषिवर दयानंद ने दिया है – ऋषि ने सत्यार्थ में इस सवाल का जवाब दिया है – “आदि सृष्टि में मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न होता है क्योंकि जो बालक उत्पन्न होता तो उसके पालन के लिए दूसरे मनुष्य आवश्यक होते और जो वृद्धावस्था में उत्पन्न करता तो मैथुनी सृष्टि न होती। इसलिए युवावस्था में ही आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं। तनिक विचार किया जाए तो ये बात सिद्ध भी सही होती है और ऊपर के लेख में वैज्ञानिक और तार्किक रूप से यही सत्य सिद्धांत समझाने का प्रयास किया गया है = किसी भी लेख में भूलचूक होना स्वाभाविक है – कृपया लेख को पढ़कर अपने सुझाव और परामर्श अवश्य देवे – यदि कोई त्रुटि रह गयी हो तो क्षमा करे

সৃষ্টিতে অমৈথুনিজীবের উৎপত্তি প্রক্রিয়া। অমৈথুনিজীব সৃষ্টির সেই প্রাণী যাহা কোন প্রাণীর গর্ভ হইতে উৎপন্ন হয় না কিন্তু সূর্য ও পৃথিবীর দ্বারা প্রাকৃতিক উপায়ে সৃষ্টি হয়ে থাকে।
উপ সর্প মাতরং ভুমিমেতামুরুব্যচসং পৃথিবীং সুশেবাম্।
ঊর্ণম্রদা য়ুবতির্দক্ষিণাবত এষা ত্বা পাতু নির্ঋতেরুপস্থাত্।। ঋ০ ১০/১৮/১০-১২
আধিভৌতিক ভাষ্যঃ
পদার্থঃ হে জীব! (সুশেবাম্) [সুশেবঃ সুসুখতমঃ-নিরু০ ৩।৩] উত্তম সুখ দেওয়াতে সর্বশ্রেষ্ঠ (এতাম্) ইহা (মাতরম্) মাতার সমান (ভূমিম্) প্রারম্ভে যাহার গর্ভে সব প্রাণী উৎপন্ন হয়ে যাহার উপর সব প্রাণী নিবাস করেন, সে পৃথিবী (উরু-ব্যচসম্) অতি বিস্তারবান হয়ে সব ভ্রণকে (উপ সর্প) নিকটতা থেকে প্রাপ্ত হয়, ইহার সাথেই ওই গর্ভের আন্তরিক আবরণ নিরন্তর হালকা স্পন্দন করতে থাকে (ঊর্ণম্রদা) [ঊর্ণম্রদা ইত্যুর্ণমৃদ্বীত্যেবৈতদাহ-কাশ০ ৪।২।১।১০; সাধ্বী দেবেভ্য ইত্যেবৈতদাহ য়দাহোর্ণম্রদসং ত্বেতি-শ০ ১।৩।১।১০] সে ভূমি ঐ ভ্রণকে ঐরূপ আচ্ছাদন প্রদান করেন, যে পশমের সমান কোমল, মসৃণ বা আরামদায়ক। সে ওই দিব্য ভ্রণকে সবদিক থেকে গর্ভের সমান সুখদায়ক স্পর্শযুক্ত ঘর প্রদান করেন। (য়ুবতীঃ) ওই গর্ভরূপ পৃথিবীতে নানা জীবনীয় রসের মিশ্রণ-অমিশ্রণের ক্রিয়া নিরন্তর চলতে থাকে (দক্ষিণাবতঃ) সে পৃথিবী ঐ ভ্রণকে তখন পর্যন্ত পোষণ প্রদান করতে থাকেন, যখন পর্যন্ত তাহার নিজের পালন বা রক্ষণ করতে পূর্ণ দক্ষ অর্থাৎ সক্ষম না হয়ে যায় (এষা) এই ভূমি (ত্বা) তুমি জীবকে (নির্ঋতেঃ-উপস্থাত্) [নির্ঋতির্নিরমণাত্ ঋচ্ছতেঃ কৃ চ্ছ্রাপত্তিরিতরা-নিরু০ ২।৮] পূর্ণ রূপে নিরন্তর হর্ষযুক্ত মরণ করেন, এইরূপে সুরক্ষিত বা উত্তম স্থানের মধ্যে (পাতু) ঐ ভ্রণ বা জীবের পালন করেন। ইহার সাথেই যেখানে ক্লেশ পৌছায়, এই প্রকার অসুরক্ষিত স্থানের দ্বারা ওই ভূমিকে গর্ভরূপ আবরণ ওই জীব বা ভ্রণকে রক্ষা করেন।।১০।।
উচ্ছ্বঞ্চস্ব পৃথিবী মা নি বাধথাঃ সূপায়নাস্মৈ ভব সূপবঞ্চনা।
মাতা পুত্রং য়থা সিচাম্যেনং ভূম ঊণুর্হি।।১১।।
পদার্থঃ (পৃথিবী) সে গর্ভরূপ পূর্বোক্ত পৃথিবী (উচ্ছ্বঞ্চস্ব) উৎকৃষ্টরূপে উর্দ্ধ দিশাতে স্পন্দিত হয়ে কিংবা উত্তপ্ত হয়ে হতে থাকে। (মা বাধথাঃ) ওই ভূমির আবরণ এমন হয়, যে তাহার অন্তর ক্ষণকাল থেকে ভ্রণ বা জীবের প্রাপ্ত হয়ে থাকে জীবনীয় রসকে থামাতে পারে না অর্থাৎ তাহার রস ক্রোধ-ক্রোধ করে ওই জীবকে প্রাপ্ত হতে থাকে। (অস্মৈ) সে এই জীবনের জন্য (সূপায়না-ভব) সে ভূমি তাহাকে পোষক বা সংবর্ধক জীবনীয় তত্বের উপহার মিলিত হয়ে (সূপবঞ্চনা)[উপবঞ্চনম্=দুবকনা] সে ভূমি আবরণ ঐ ভ্রণের বা জীবের উত্তম প্রকার লুকিয়ে আশ্রয় প্রদান করেন (মাতা য়থা) যে প্রকার মাতা নিজের সন্তানকে কোল বা গর্ভে ঢেকে সুরক্ষা প্রদান করেন, ওই প্রকার (নি-সিচা ভূমেঃ) [নি+সিচ্=উপরে ফেলে, গর্ভযুক্ত করা-আষ্টে] ভূমিকে তাহার ভাগ ঐ জীবের নিজের গর্ভে নিয়ে তাহার উপর নানা আবরণের দ্বারা (এনং) ঐ জীবকে (অভি ঊর্ণুহি) সবদিক থেকে আচ্ছাদিত করে নেয়।।১১।।
উচ্ছ্বঞ্চমানা পৃথিবী সু তিষ্ঠতু সহস্রং মিত উপ হি শ্রয়ন্তাম্।
তে গৃহাসো ঘৃতশ্চুতো ভবন্তু বিশ্বাহাস্মৈ শরণাঃ সন্ত্বত্র।।১২।।
পদার্থঃ (উচ্ছ্বঞ্চমানা) পূর্বোক্ত উত্তপ্ত এবং মৃদু স্পন্দন করে এবং কোমল (পৃথিবী) ভূমি (সু তিষ্ঠতু) ঐ ভ্রণের বা জীবের আচ্ছাদিকা হয়ে সুদৃঢ়তা দ্বারা সুরক্ষাপূর্বক স্থিত হয়ে ঐ জীবেরও স্থিরতা প্রদান করেন (সহস্রম্ মিতঃ) ওই ভূমিকে পৃথক-পৃথক স্থানে অনেক সংখ্যাতে (উপ হি শ্রয়ন্তাম্) নিকট থেকে আশ্রয় পাই কিংবা ঐ গর্ভরূপ স্থানের মধ্যে বড় সংখ্যাতে [মিতঃ=মিনোতিগতিকর্মা-নিরু০ ২।১৪] বিভিন্ন সূক্ষ্ম অণুর প্রবাহ বানিয়ে থাকে (তে গৃহাসঃ) ভূমিকে তাহার স্থান ঐ জীবের জন্য ঘরের সমান হয় [গৃহাম্=গৃহাঃ কস্মাদ্ গৃহণাতীতি সতাম্-নিরু০ ৩।১৩] আর ঘরের সমান তাহার ভূকোষ্ঠ ঐ জীবের ঐরূপই ধরে বা ধারণ করে থাকেন, (ধৃতশ্চুতো ভবন্তু) তাহার ভূকোষ্ঠ ঐরূপ হয় যে ইহার মধ্যে ঘীর সমান মসৃণ রস সদৈব চুয়াতে থাকে (অস্মৈ) তিনি ঐ জীবের জন্য (বিশ্বাহা) [বিশ্বাহা=সর্বাণি দিনানি-ম০ দ০ য০ ভা০ ৭।১০] সর্বদা অর্থাৎ পূর্ণ যুবাবস্থা পর্যন্ত (শরণাঃ সন্তু অত্র) এই অবস্থাতে তিনি জীব ঐ কোষ্ঠের মধ্যে আশ্রয় পাই।।১২।।
এই মন্ত্রে ভূমির অন্তর যুবাবস্থা পর্যন্ত কিভাবে মনুষ্য সহিত সব জরায়ুজ প্রাণী বিকসিত হয়, ইহার সুন্দর চিত্রণ করেছেন।
যে প্রকার অমীবা আদি এক কোশীয় প্রাণীর নির্মাণ রাসায়নিক বা জৈবিক ক্রিয়ার দ্বারা হয়, ঐ প্রকার বহুকোশীয় জরায়ুজ তথা অণ্ডজেরও শুক্র তথা রজর নির্মাণ ইহা উত্তপ্ত হয়ে কোমল তথা সব আবশ্যক পদার্থ, যে অবশ্য মাতার গর্ভে হয়, যাহা পরিপূর্ণ পৃথিবীর ধরাতলের পরতের মধ্যে হয়ে যায়।
এখন আমরা বিচারের যে ভ্রণকে পোষণের জন্য মাতার গর্ভের আবশ্যকতা কি হয়? এই কারণ, যেহেতু ভ্রণের আবশ্যক বৃদ্ধি হেতু পোষক পদার্থ প্রাপ্ত হয়ে থাকে, ভ্রণকে সুরক্ষিত কোমল, মসৃণ আবরণ তথা আবশ্যক তাপ মিলিয়ে। যদি এই পরিস্থিতে মাতার গর্ভ থেকে অন্যত্র কোথাও উৎপন্ন করা যায়, তবে ভ্রণের বিকাশ সেখানে হয়ে যায়, যে প্রকার আজ পরীক্ষার দ্বারা বাচ্চা উৎপন্ন করেন।
হ্যাঁ, এক কথা মহত্বের হয় যে ওই সময় মনুষ্য বা কোন জরায়ুজ যুবাবস্থাতে ভূমিতে উদ্ভিজের যথার্থ উৎপন্ন হয়।
মহর্ষি দয়ানন্দ সরস্বতী জীর এই কথন সর্বদা উচিত যে যদি শিশু উৎপন্ন হয়, তবে পালন কে করবে আর যদি বৃদ্ধ উৎপন্ন হয়, তখন তাহাদের বংশ কিভাবে চলত? (দেখুন-সত্যার্থ প্রকাশ, অষ্টম সমুল্লাস)
উপনিষদকার ঋষি ইহার আরো বিস্তার দিয়েছেন-
তস্মাচ্চ দেবা বহুদা সংপ্রসূতাঃ সাধ্যা মনুষ্যাঃ........।।৭।।মুণ্ডক উপ০ ১।১।৭
অর্থাৎ-ওই পরমাত্মা থেকে অনেক বিদ্বান সিদ্ধি প্রাপ্ত জন তথা সাধারণ বিদ্বান জন উৎপন্ন হয়েছে।
ভাষ্যঃ আচার্য অগ্নিব্রত ন্যাষ্টিক

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অথর্ববেদ ২/১৩/৪

  ह्यश्मा॑न॒मा ति॒ष्ठाश्मा॑ भवतु ते त॒नूः। कृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ दे॒वा आयु॑ष्टे श॒रदः॑ श॒तम् ॥ ত্রহ্যশ্মানমা তিষ্ঠাশ্মা ভবতুতে তনূঃ। কৃণ্বন্তু...

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