चौदहवीं का चाँद - ধর্ম্মতত্ত্ব

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02 February, 2022

चौदहवीं का चाँद

 लेखक:- स्मृतिशेष पं० श्री चमूपतिजी एम० ए०

प्रकाशकीय

चौदहवीं का चाँद

हमारे देश में मुसलमानों के आक्रमण ७१२ ई० से होते रहे, परन्तु १०२६ ई० से पूर्व उनका भारत में शासन स्थापित नहीं हो पाया था। भारत में शासन स्थापना के बाद उन्होंने यहाँ की सभ्यता, संस्कृति एवं धर्म पर निरन्तर प्रहार किये।

१९वीं शताब्दी में भारत के अहोभाग्य से महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ। महर्षि ने सत्य का प्रतिपादन करने के लिए सत्यार्थप्रकाश की रचना की। इसके १४वें समुल्लास में कुरान की आयतों के मुसलमान विद्वानों द्वारा किये गये अर्थों की समालोचना की। इससे रुष्ट होकर मुस्लिम विद्वानों ने समय-समय पर सत्यार्थप्रकाश के विरुद्ध कई पुस्तकें लिखीं, इनमें मौलवी सनाउल्ला खाँ की पुस्तक हक प्रकाश' भी शामिल है। इसमें महर्षि के दृष्टिकोण को न समझकर दुराग्रहों से ग्रसित होकर सत्यार्थप्रकाश पर अनर्गल आक्षेप किये गये।

उसी के जवाब में वैदिक विद्वान् श्री चमूपतिजी एम० ए० ने 'चौदहवीं का चाँद' नामक पुस्तक लिखी। इसमें मौलवी सनाउल्ला खाँ साहब के सभी आक्षेपों के उत्तर दिये और साथ-साथ यह भी दर्शाया कि सत्यार्थप्रकाश में जो भी लिखा गया है वह यथार्थ है।

यह पुस्तक काफी समय से अनुपलब्ध थी। साथ ही इसमें अरबी-फारसी के बड़े बोझिल शब्द थे जो सामान्य व्यक्ति के लिए दुरुह थे । उन सबको प्रा० राजेन्द्रजी 'जिज्ञासु' ने सरल किया ताकि यह पुस्तक सर्वसाधारण को सुगम्य हो सके। इससे सर्वसाधरण लाभान्वित हो यही प्रकाशन का उद्देश्य है। -आर्यमुनि 'वानप्रस्थी'

प्राक्कथन

लेखक- श्रीमान् पं० पद्मसिंहजी शर्मा (प्रोफ़ेसर गुरुकुल काङ्गड़ी, अध्यक्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन)

हिन्दुओं के पारस्परिक गृह युद्ध के पश्चात् भारत में मुसलमानों का शासन युग आया। उस समय से यहाँ धर्म युद्ध व इस्लामी प्रचार के द्वारा इस्लाम के प्रसार का कार्य निरन्तर चला आ रहा है। लालच, पुरस्कार, भय प्रेरणा में आकर करोड़ों हिन्दू अपने पवित्र धर्म से पतित होकर इस्लाम के बन्दे बन गए। जब तक इस्लामी शासन रहा, इस्लामी धर्म युद्ध और अमुस्लिमों पर दण्ड कर (जजिया) को इस्लाम के प्रसार का हथियार बनाया गया। तत्पश्चात् लेखनी, वाणी से काम लिया गया। हिन्दू जाति कुछ तो शताब्दियों के निरन्तर संकटों और कुछ अपने स्वभाव से विवश होकर इन धार्मिक आक्रमणों को विवेक शून्य बनकर सहन करती रही। महर्षि दयानन्द के अभ्युदय ने हिन्दुओं की आँखें खोलीं। महर्षि ने विधर्मियों के अत्याचारियों का निशाना बनी हुई जाति को ललकार कर पूछा-

 कौम ए पैकरे बे हिस तेरे पत्थर दिल में

 कतराए खूं न सही कोई शरर है कि नहीं

महर्षि के सिंहनाद को सुनकर विरोधियों से अपना लोहा मनवाने के लिए लेखनी रूपी तलवार लेकर जो वीर सबसे पहले मैदान में उतरा वह श्रीमान् मुन्शी इन्द्रमणि साहब मुरादावादी है। उस समय एक नव-मुस्लिम अब्दुल्ला नामक (जो बनत, जिला मुज़फ्फर नगर वासी क्षत्रिय था) हिन्दुओं के विरुद्ध अनर्गल उत्तेजनात्मक वातावरण बना रहा था। हिन्दुओं के विरुद्ध दर्जनों पुस्तकें वह घोर घृणास्पद व अपमानजनक भाषा में गद्य व पद्म में लिख चुका था। मुन्शी इन्द्रमणि ने उसकी एक-एक पुस्तक का मुँहतोड़ उत्तर देकर उसे निरुत्तर बना दिया। मुन्शी इन्द्रमणिजी

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१. पैकरे बे हिस (निर्जीव मूर्ति) । २. कतराए खूं (रक्त कण) । (३) शरर (चिनगारी) ।

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अरबी, फ़ारसी के उद्भट विद्वान् व महान् लेखक थे। इस्लामी साहित्य पर उन्हें अधिकार प्राप्त था। मियाँ अब्दुल्ला और दूसरे मुस्लमानों से जब मुन्शीजी की पुस्तकों का कोई उत्तर न बन पड़ा तो खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे के अनुसार मुन्शी इन्द्रमणि के विरुद्ध न्यायालय का द्वार खटखटाया। वाद प्रस्तुत किया गया। निचले न्यायालय में विरोधी अपनी बुद्धि चातुर्य से विजय प्राप्त कर प्रसन्न हो गए। महर्षि दयानन्द ने मुन्शीजी की सहायता के लिए सार्वजनिक अपील करके वाद उच्च न्यायालय में प्रस्तुत करा दिया। जहाँ से मुन्शीजी सभी आक्षेपों से मुक्त हो गए। अर्थ दण्ड से भी मुक्ति मिली और मुन्शीजी की पुस्तकों की जब्ती का आदेश भी वापिस ले लिया गया। मुन्शीजी की मृत्यु के पश्चात् उनकी पुस्तकें अनुपलब्ध हो गयीं, परन्तु वे अपना उद्देश्य पूरा कर गयीं। हिन्दुओं को जीवित व विरोधियों को सावधान कर गयीं, अर्थात् उन्हें पता लग गया कि वे कितने पानी में हैं ?


इसके कुछ समय पश्चात् मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी ने हिन्दू धर्म पर और विशेषतया आर्यसमाज पर नये सिरे से आक्रमण प्रारम्भ कर दिए। कादियानी साहब का उपयुक्त उत्तर पं० लेखरामजी, आर्य मुसाफ़िर ने दिया और ऐसा दिया कि कोई और क्या देगा ? मिर्ज़ा साहब से जब कोई उत्तर न बन पड़ा तो पं० लेखरामजी की हत्या की भविष्यवाणी की गई और निःसन्देह उन्हें इसमें सफलता प्राप्त हुई, अर्थात् आर्य मुसाफ़िर बलिदान कर दिए गए। पं० लेखरामजी मरते-मरते अन्तिम आदेश दे गए थे कि आर्यसमाज से लेखनी का कार्य बन्द नहीं होना चाहिए। इस मृत्यु पत्र के अनुसार आर्य मुसाफ़िर पत्रिका प्रकाशित की गई। लाला वज़ीरचन्द विद्यार्थीजी के प्रबन्ध से यह कई वर्ष तक बड़े सुन्दर रूप में प्रकाशित होती रही। आर्य मुसाफिर की अन्तिम इच्छा को पूरा करने के लिए पं० भोजदत्तजी ने भी काम किया और अच्छा किया। आर्यसमाज ने विरोधियों पर आक्रमण करने में कभी पहल नहीं की। और जो कुछ भी किया स्वात्म रक्षा से विवश होकर किया। परन्तु प्रसिद्ध

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१. यशस्वी साहित्यकार श्री सन्तराम बी० ए०, पं० विष्णुदत्तजी एडवोकेट व महाशय चिरञ्जीलालजी प्रेम भी इसके सम्पादक रहे। -'जिज्ञासु'

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सदा यह किया गया कि आर्यसमाज आक्रमणात्मक ढंग से कठोर आक्रमण करता है- कैसा निरर्थक व मिथ्या दोष है !

 हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,

 वह कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।

अन्त में मौन भंग हुआ। आर्यजनता को श्रीमान् पं० चमूपतिजी का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने "जवाहिरे जावेद" जैसी सत्यालोचनात्मक और विद्वत्तापूर्ण कृति के द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि-- अभी लोग, कुछ बाकी हैं जहाँ में। पण्डित लेखरामजी के पश्चात् इतनी गौरवपूर्ण यह एक ही पुस्तक निकली है, जिस पर आर्यसमाज गर्व कर सकता है। आर्यसमाज के साहित्य में निःसन्देह यह सम्मान योग्य वृद्धि है। सत्यार्थप्रकाश के चौदहवें समुल्लास के विरुद्ध जितना बड़ा तूफ़ान विगत कुछ वर्षों से चल रहा है वह जनता की दृष्टि से ओझल नहीं है। इस सम्बन्ध में आर्यसमाज की ओर से उत्तर की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। मौन से भ्राँति फैल रही थी। कुछ लोगों का विचार बन चला था कि, चूँकि महर्षि दयानन्द अरबी-फ़ारसी के विद्वान् नहीं थे इसलिए सम्भव है उन्होंने कुरान मजीद पर सुने सुनाए आक्षेप जड़ दिए होंगे। यद्यपि जानने वाले जानते थे कि जिस समय महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश लिखा है मुन्शी इन्द्रमणि और पण्डित उमराव सिंह जैसे अरबी-फ़ारसी के उद्भट विद्वान् उनके शिष्यों की श्रृंखला में आ चुके थे। ऐसे ज्ञानी शिष्यों की उपस्थिति में यह कैसे हो सकता था कि महर्षि जैसा सत्य शोधक पूर्ण सन्तोष किए बिना यूँ ही आक्षेप कर देता। धन्यवाद है कि पं० चमूपतिजी ने कुरान मजीद के सम्बन्ध में महर्षि के आक्षेपों को नितान्त सत्य सिद्ध कर दिया है। पण्डिजी के 'चौदहवीं के चाँद' को देखकर अनायास कहना पड़ता है-

  ई कार अज तो आयद व मरदां चुन कुनन्द

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१. यह एक फ़ारसी सूक्ति है। इसका अर्थ है कि यह कार्य जैसा आपने कर दिखाया है वीर पुरुष ऐसे ही किया करते हैं। -'जिज्ञासु'

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'चौदहवीं का चाँद' आदि से अन्त तक मैंने स्वयं लेखक के मुँह से सुना है और पर्याप्त आलोचनात्मक ढंग से सुना है। मैं निर्विरोधरूप से कह सकता हूँ कि पुस्तक अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण, सत्य शोधक पद्धति से तर्कपूर्ण और सभ्यता पूर्ण भाषा में लिखी गई है। 'हक प्रकाश' जैसी घिनौनी पुस्तक के उत्तर में सुयोग्य लेखक ने गम्भीरता व विवेक को नहीं छोड़ा है। ऐसे अवसरों पर वास्तव में बड़े संयम से काम लिया है, जो प्रशंसनीय है। इस पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ से इस बात का प्रमाण मिलता है कि लेखक ने अत्यन्त मनोयोग पूर्वक अनुसंधान किया है। प्रत्येक समस्या के लिए कुरान व कुरान के भाष्यों से प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं। पुस्तक में एक अध्याय भी बिना प्रमाण व युक्ति के नहीं लिखा गया। भाषा सरल व दार्शनिक है। भाषाशैली आकर्षक व पवित्र है। पढ़ने और सुनने में आनन्द

आता है। समाप्त किए बिना पुस्तक छोड़ने को मन नहीं करता। महर्षि ने कुरान की जिस उर्दू व्याख्या से अपनी पुस्तक में प्रमाण दिए हैं पण्डित चमूपतिजी ने उस व्याख्या को स्थान-स्थान पर उद्धृत करके महर्षि के आक्षेपों की सत्यता को पुष्ट व प्रमाणित कर दिया है।

इस 'चौदहवीं के चाँद' के प्रकाश में इस्लाम मत की सभी मान्यताओं व विश्वासों की वास्तविकता प्रकट हो जाती है। कोई विशेष और महत्त्व का सिद्धान्त बचा नहीं है, जिस पर इसमें तर्कपूर्ण व विस्तार से विचार न किया गया हो। सारांश चौदहवीं-का-चाँद एक ऐसी पुस्तक है जिसकी पर्याप्त समय से आवश्यकता अनुभव की जा रही थी और प्रत्येक सत्यान्वेषक के लिये इसका पढ़ना अनिवार्य कर्त्तव्य है।

भूमिका


गत शताब्दी में धार्मिक जगत् में जितनी पुस्तकें लिखी गई हैं। उनमें सत्यार्थप्रकाश को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है (यह अब तक संसार भर की अनेक भाषाओं में लाखों की संख्या में छपकर मानव मात्र का पथ-प्रदर्शक बन चुका है)। इसके द्वारा धार्मिक प्रजा के विचारों में एक विचित्र क्रान्ति उत्पन्न हुई है। जिन मतों की आधारशिला केवल अपने आचार्यों की प्रतिलिपि पर थी उन्होंने उसे बुद्धि का सहारा लेकर विचार करना प्रारम्भ कर दिया है। बुद्धि की सहमति व बुद्धि द्वारा चिन्तन प्रारम्भ कर दिया है। और जो लोग केवल अपनी बुद्धि के सहारे चल रहे थे उन्होंने प्राचीन जातियों के धर्म एवं ग्रन्थों में किसी श्रेष्ठतर चिन्तन का दर्शन करना प्रारम्भ कर दिया है।

ऐतिहासिक सम्प्रदायों का स्तर अपने से पूर्ववर्ती सम्प्रदायों के निरस्तीकरण और एक नए युग की आवश्यकतानुसार भवन निर्माण के रूप में उभरा था। आश्चर्य की बात यह थी कि प्रत्येक नया सम्प्रदाय यह घोषणा भी साथ ही करता था कि मेरे पश्चात् और सब घोषणाएँ सुनने से पूर्व ही निरस्त समझी जाएँगी। प्राचीनों को अर्वाचीनों पर आपत्ति थी कि उन्होंने हमारे शताब्दियों के सफल सामाजिक व धार्मिक परिश्रम पर पानी फेर दिया है। हमने उनके लिए युद्धरत सेना के अग्रिम दस्ते का कार्य किया। अब ये हमें मौन रहकर जीवन व्यतीत करने की आज्ञा भी नहीं देते (प्रमाण के लिए पूर्व व पश्चिम के रक्तरंजित भीषण धार्मिक युग इतिहास में भरे पड़े हैं)। नवीन सम्प्रदाय पुरानों का रोना रोते हैं कि यह जर्जरित विचारधाराओं के ठेकेदार स्वयं सुधार व नवीनीकरण की प्रक्रिया को स्वीकार करने को तो उद्यत नहीं हैं, अपने हीन क्षीण विश्वासों के कारण नई पीढ़ियों को भी नए साँचे में ढलने से रोकते हैं। दोनों अपने-अपने ईश्वर का द्वार सहायता के लिए खटखटा रहे थे और 

१. कोष्ठक में दिये गये शब्द अनुवादक के हैं। पं० चमूपतिजी के नहीं। -'जिज्ञासु'  

२. देखें- History of Assassins by Swammi Shradhananda.

विरोधी पक्षों के लिए मनमाने आरोप लगाकर ईश्वरीय दण्ड की याचना कर रहे थे। महर्षि दयानन्द ने अपनी प्रखरतम तर्क शक्ति से, जिसका आधार महर्षि की अप्रतिम आध्यात्मिक प्रतिभा व शक्ति थी, इस विचार मन्थन की प्रवाहधारा को ही बदल दिया। यदि ईश्वरीय ज्ञान बुद्धि व तर्क संगत है तो वह जितना प्राचीन होगा उतना ही स्वीकार्य व सम्मान्य होगा। यदि प्रत्येक कथित ईश्वरीय ज्ञान केवल युग विशेष के ही मार्गदर्शन का काम करता है तो प्रत्येक पश्चात्वर्ती कथित ईश्वरीय ज्ञान भी केवल तत्कालीन युग की ही आवश्यकताएँ पूरी करेगा और तत्पश्चात् उसके निरस्त होने की आवश्यकता बनी रहेगी। अपने पूर्ववर्ती ईश्वरीय ज्ञान का निरस्तीकरण भी करो व स्वयं निरस्तीकरण की प्रक्रिया के प्रभाव में न आओ। ये दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी ही होंगे। आज यदि कोई किसी नियम सिद्धान्त (मत) को निरस्त करने की कोई प्रक्रिया खड़ी होती है तो कल वह भी स्वयं निरस्त होने का पात्र है। जिसे नष्ट न होना हो वह दूसरों को नष्ट करने से बचे। (अन्यथा:)

 [ जो शाखे नाजुक पै आशियाना बनेगा नापायदार होगा ] कमजोर डाली पर घोंसला तो नष्ट ही होगा । 

ईश्वरीय वाणी को स्वीकार करनेवाले सम्प्रदायों का काम लिखित वाणी के बिना चल ही नहीं सकता। उन्हें यह स्वीकार करना होता है कि अनादि काल से या सृष्टि के प्रारम्भ से परमात्मा अपने सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ ज्ञान की किरणें अपने निर्वाचित ऋषियों के हृदय व बुद्धि में डालता रहा है। इन्हीं ज्ञान रश्मियों का प्रतिबिम्ब मानवीय ज्ञान का रूप बन जाता है। मनुष्य ने परमात्मा द्वारा प्रदत ज्ञान के कई नियमों को अपने स्थानीय व युगीन आचार संहिता का रूप प्रदान किया है। आर्य साहित्य में परमात्मा के अनादि व अनन्त ज्ञान को


१. मूल में पं० चमूपतिजी ने लिखा है, "ये दोनों बातें एक साथ नहीं चलेंगी।"-'जिज्ञासु'

२. यह पंक्ति मूल में नहीं है। अनुवादकजी ने व्याख्या के लिये दी है।-"जिज्ञासु'

श्रुति और मानवीय आचार संहिता को स्मृति कहते हैं। कुरान में श्रुति को उम्मुल किताब ( पुस्तकों की जननी ) व किताब को केवल पुस्तक का नाम दिया है। ऋषि इस ज्ञान परम्परा को वेदों तक ले गए हैं। वर्तमान काल की सारी साहित्यिक खोज इस सत्य को स्वीकार करती है कि मानव जाति के पुस्तकालय में वेद सब से प्राचीन पुस्तक है। इस पुस्तक को पुस्तकों की जननी जिसे अथर्ववेद में वेद माता कहा गया है। यह कहना कितना तर्क संगत व बुद्धिपूर्वक है। कुरान में हजरत आदम को प्रभु का ज्ञान (इल्हाम) प्राप्त होने की चर्चा है और वहाँ कहा गया है

इल्लमा आदमल असमाआ कुल्लहा

और आदम को संसार की सभी वस्तुओं के नाम सिखाए गए। अर्थात् सारे ज्ञान सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्य को दे दिए गए। जो लोग इस प्राचीन ईश्वरीय ज्ञान पर विश्वास करते हैं, वे ईश्वरीय ज्ञान की प्राचीन परम्परा के सबसे पहले संरक्षक हैं। इस सम्पूर्ण ज्ञान के निरस्तीकरण का कोई युक्ति संगत कारण व आवश्यकता मनुष्य की कल्पना से बाहर है। ईश्वरीय ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता व आध्यात्मिकता प्रभु की सत्ता को अद्वितीय स्वीकार करना ही सर्वसम्मत सिद्धान्त है। और यह सत्य जैसा कि हम कुरान के अवतरण के प्रसंग में स्वयं कुरान के प्रमाणों से सिद्ध करेंगे, प्रत्येक ईश्वरीय दूत की वाणी की जान रहा है। और जो लोग ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता केवल आध्यात्मिक अनुभूति मानते हैं उनके लिये सर्वप्रथम दिया हुआ ईश्वरीय ज्ञान ही अन्तिम ज्ञान होना चाहिए।

इल्हाम के निरस्तीकरण का विश्वास जहाँ परमात्मा के निर्दोष पूर्ण ज्ञान में कमी के भय को उत्पन्न करता है, वहाँ सामाजिक व राजनीतिक विवादों की भी आधारशिला बनता है। कुरान इस सत्य को स्वीकार करता है, इसीलिए कहा है----                     माकानन्नास इल्ला उम्मतन वाहिदतन अख़तफू


१. द्रष्टव्य कुअनि २-२१३ | Saheeh international द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद में भी इसके यही अर्थ दिये हैं, "Man kind was [of] one religion (before their Deviation)." page 41 ='जिज्ञासु'

संसार के सभी लोग एक ही धर्म विचारधारा मानने वाले थे। उनमें मतभेद तो बाद में उत्पन्न हुए। सम्पूर्ण ज्ञान के पश्चात् ईश्वर के नाम से आने वाले प्रत्येक ज्ञान से मानव जाति का दो भागों में विभक्त हो जाना अनिवार्य है। एक पश्चात्वर्ती ज्ञान को स्वीकार करने वाले, दूसरे उसे अपराध समझकर उसे दूर से ही नमस्कार करने वाले बने। सम्प्रदायों की रचना करने वालों की इस बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने अपने से पूर्ववर्ती का पुनरुद्धार करने का दावा किया है वे उसे निरस्त करने के उद्घोषक नहीं हुए। परन्तु इसमें भी सन्देह नहीं कि उपरोक्त दोनों समुदायों में परस्पर वैर, वैमनस्य व विवाद का सम्बन्ध स्थापित हो जाता रहा है। यदि सुधारक सुधार ही करना चाहते हैं तो उन्हें इस सुधार प्रणाली को बलपूर्वक स्वीकार कराने का क्या प्रयोजन ? और यदि प्राचीनतावादी का इन सुधार प्रिय लोगों के पूर्वज ही होने का विश्वास है तो उन्हें सुधारों का गला घोंटने की क्या आवश्यकता ? भूल उस समय होती है जब नवीनतावादी प्राचीनता के मार्ग को सर्वथा मिथ्या बताने लगते हैं। और प्राचीनतावादी नई पीढ़ी के नवीनीकरण को सर्वथा मिथ्या कहने लगते हैं और सुधार को सर्वथा धोखा व मिथ्याचार की उपाधि देने लगते हैं। इसीलिए महर्षि दयानन्द कहते हैं----


जो दूसरे सम्प्रदायों को जिनके हजारों करोड़ों विश्वास रखने वाले हों झूठा बताए और स्वयं को सत्यवादी प्रकट करे उससे बढ़कर झूठा और सम्प्रदायवादी कौन हो सकता है? सत्यार्थप्रकाश १४वाँ समुल्लास में एक स्थान पर लिखते हैं "मैं पुराण, जैनियों की पुस्तकों, बाइबिल व कुरान को पहले ही से कुदृष्टि से न देखकर उनके सद्गुणों को स्वीकार व दुर्गुणों का परित्याग करता हूँ।" वास्तव - सत्यार्थप्रकाश (भूमिका) सत्य किसी भी धर्म में हो वह प्रत्येक धर्म व सम्प्रदाय की सामूहिक सम्पत्ति है। महर्षि का यह कथन स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है

"मेरी किसी नूतन विचार या मत को प्रवर्तन करने की तनिक भी इच्छा नहीं है। अपितु जो सत्य है उसको मानना व मनवाना और जो झूठ है उसको छोड़ना व छुड़वाना मेरा उद्देश्य है।" -स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश की (भूमिका)


इस सामूहिक सत्य का आदि स्रोत व उत्पत्ति स्थान वेद हैं। समय-समय पर धार्मिक ढाँचों के नवीनीकरण व सुधार की आवश्यकता रहती है। प्रत्येक प्राचीन प्रथा एक समय निर्जीव हो जाती है। नया ऋषि या ईश्वरीय ज्ञानदाता आता है और प्राचीनता के कारण जर्जरित पिंजर में नवजीवन का संचार करता है। इसे आर्य साहित्य में स्मृति कहते हैं। स्मृति का प्रयोग किसी विशेष देश पर किसी युग विशेष के लिए होता है अतएव सत्यार्थप्रकाश इसी प्रकार का स्मृति ग्रन्थ है। स्मृति अपने युग में सफलतापूर्वक काम कर जाती है। और उसके पश्चात् नए ऋषि-मुनि उसके स्थान पर नई स्मृति का निर्माण करते हैं। जहाँ श्रुति परमात्मा की ओर से और निर्दोष पूर्ण ज्ञान वाली होती है वहीं स्मृति मनुष्यों की वह रचना होती है जिसमें परमात्मा की शिक्षा मौलिक सिद्धान्तों के रूप में काम करती है। श्रुति पुस्तकों की जननी है और वह परमात्मा के शाश्वत ज्ञान कोष में रहती है, अर्थात् उसे निरस्त नहीं किया जा सकता, परन्तु स्मृति केवल पुस्तक है। वह कुरान के अनुसार "व लइन शइनालनजहबन्ना बिल्लजी औहेना इलैक" (सूरत बनी इसराईल आयत ९) यदि हम चाहें तो हमने मुहम्मद को जो ज्ञान दिया है उसे निरस्त भी कर सकते हैं।

कैसा सुनहरी नियम है–सम्प्रदायों में मतभेद भी है व कुछ अंशों में सहमति भी है। अब यह सहमति व मतभेद दोनों परमात्मा की ओर से नहीं हो सकते। सर्वसम्मत अंश ही परमात्मा की ओर से हो सकते हैं। उनका आदर प्रतिष्ठ करो व शेषांश का खुला खण्डन करो। यही कार्यशैली महर्षि ने अपनाई है। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में सत्य का मण्डन किया है। यह सत्य सर्वसम्मत व सार्वभौम है। अन्तिम चार समुल्लासों में परस्पर विरोधी अंशों का खण्डन किया है।

ग्यारहवें समुल्लास में पुराण, बारहवें समुल्लास में चार्वाक व बौद्धों की मान्यताएँ, तेरहवें में ईसाइयत और चौदहवें में कुरान पंथियों की मान्यताओं पर समीक्षात्मक दृष्टिकोण अपनाया है। ये आलोचनात्मक समुल्लास पुस्तक के अन्त में आए हैं। कारण कि महर्षि के शब्दों में "जब तक मनुष्य सत्य-असत्य के विचार में कुछ भी सामर्थ्य नहीं बढ़ाते तब तक स्थूल और सूक्ष्म खण्डनों के अभिप्राय को नहीं समझ सकते।"


-सत्यार्थप्रकाश उपसंहार १ ला भाग इस आलोचना के मध्य भी स्थान-स्थान पर आलोच्य विषय की गुणवत्ता को स्वीकार करते गये हैं, उदाहरण के लिए चौदहवें समुल्लास कुरान की इस शिक्षा पर कि माता-पिता की सेवा व आज्ञा पालन होना चाहिए विपरीत इसके कि वे ईश्वरेतर उपासना की शिक्षा दें। महर्षि लिखते हैं माता-पिता की सेवा करना तो उत्तम ही है, परन्तु वे यदि परमात्मा के साथ अन्य किसी को उपास्य देव मानें तो माता-पिता की आज्ञा को न माने यह शिक्षा भी ठीक है। -(वाक्य १२२)

रजस्वला को स्पर्श न करने के सम्बन्ध में लिखा है यह जो रजस्वला को न छूने को लिखा है यह उत्तम शिक्षा है। =(वाक्य ३३)


यह सब समालोचना किस उद्देश्य से की गई है ? इसका स्पष्टीकरण महर्षि ने अपनी जादू भरी लेखनी से यह किया है जो विभिन्न मत-मतान्तरों के परस्पर विरोधी विवाद हैं उनको मैं पसन्द नहीं करता, क्योंकि इन्हीं मतवादियों ने अपने मतों का प्रचार करके व लोगों को उनमें फँसाकर एक दूसरे का शत्रु बना दिया है। इस बात का खण्डन करके एवं सम्पूर्ण सत्य के प्रकाशन से सबको एकता के मार्ग पर लाकर परस्पर की शत्रुता छुड़वाकर परस्पर दृढ़ प्रेम प्रीति का सम्बन्ध स्थापित करके सबमें परस्पर आनन्द व सुख पहुँचाने के लिए मेरा परिश्रम व मेरा उद्देश्य है।


-सत्यार्थप्रकाश (स्वमंतव्यामंतव्य प्रकाश का समाप्ति अंश) संसार में सत्य व असत्य, सन्मार्ग व कुमार्ग, बुराई व अच्छाई दोनों वर्तमान हैं। जहाँ सत्य सद्गुणों को स्वीकार करना मनुष्य का कर्तव्य है वहाँ असत्य, मिथ्या एवं अवगुणों से बचना और संसार के मानवों को बचाना भी उतना ही आवश्यक कर्तव्य है। ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश के चौदहवें समुल्लास के अन्त में लिखते हैं-----

ऐसे ही अपने-अपने मत-मतान्तरों के सम्बन्ध में सब कहते हैं कि हमारा ही मत सच्चा है, शेष सब बुरे हैं। हमारे मत द्वारा ही मुक्ति मिल सकती है। अन्यों के द्वारा नहीं हो सकती हम तो यही मानते हैं कि सत्यभाषण, अहिंसा, दया आदि शुभगुण सब मतों में अच्छे हैं और शेष झगड़ा बखेड़ा ईर्ष्या, घृणा, मिथ्याभाषणादि कर्म सभी मतों में बुरे हैं। यदि तुमको सत्य धर्म स्वीकार करने की इच्छा हो तो वैदिक धर्म को ग्रहण करो।

- (सत्यार्थप्रकाश १४वाँ समुल्लास उपसंहार) हम ऊपर वर्णन कर चुके हैं कि धर्म का एक तो भीतर आत्मा है वह सार्वभौमिक सत्य हैं जो सदैव सर्वत्र सत्य रहते हैं। उनके अतिरिक्त धर्म का बाह्य शरीर होता है, जो देश व काल की आवश्यकताओं के आधार पर बनता है। उदाहरणस्वरूप प्रत्येक धर्म के सामाजिक रीति-रिवाज, अंग-स्पर्श व स्नान के ढंग, शिष्टाचार के प्रकार, हज व यात्रा, ज़कात व दान की मात्रा, व्रत उपवास के नियम आदि-आदि। जहाँ धर्म का पूर्व कथित भाग मनुष्यों की विभिन्न जातियों को स्थानीयता व समसामयिकता के अन्तर के अतिरिक्त भी एक बनाता है वहाँ पश्चात्वर्ती भाग मानव जाति को उनके स्थानीय व युगीन परिस्थितियों के अनुसार भिन्न भिन्न भागों में विभाजित करता है। जो सम्प्रदाय किसी विशेष युग में आया हो उसे धर्म के दूसरे भाग की एक प्रक्रिया मानना चाहिए। जैसा कि कुरान शरीफ़ में अपने सम्बन्ध में वर्णन है---

लितुन्जिरा उम्मुलकुरा व मन हौलहा 

अर्थात् - ए मुहम्मद तू डरा दे मक्कावासियों व मक्का के पास पड़ौस के लोगों को।

लिकुल्ले उम्मतिन जअलना मन्सकन।-(सूरत हज रकूअ ५) प्रत्येक समुदाय के लिए हमने उसकी पूजा पद्धति बनाई है।


१. अनुवादकजी ने सत्यार्थप्रकाश के अवतरणों का मिलान मूल ग्रन्थ से करने का कष्ट नहीं उठाया। हम भी नये सिरे से इनमें विशेष अदल-बदल नहीं कर रहे। पाठक प्रमाण देते समय इनका मूल ग्रन्थ से मिलान अवश्य कर लें। - 'जिज्ञासु'


...........यह जारी रहेगा

चौदहवीं का चाँद


प्रारम्भ ही मिथ्या से


वर्तमान कुरान का प्रारम्भ बिस्मिल्ला से होता है। सूरते तौबा के अतिरिक्त और सभी सूरतों के प्रारम्भ में यह मंगलाचरण के रूप में पाया जाता है। यही नहीं इस पवित्र वाक्य का पाठ मुसलमानों के अन्य कार्यों के प्रारम्भ में करना अनिवार्य माना गया है। ऋषि दयानन्द को इस कल्मे (वाक्य) पर दो आपत्तियाँ हैं । थम यह कि कुरान के प्रारम्भ में यह कल्मा परमात्मा की ओर से प्रेषित (इल्हाम) नहीं हुआ है दूसरा यह कि मुसलमान लोग कुछ ऐसे कार्यों में भी इसका पाठ करते हैं जो इस पवित्र वाक्य के गौरव के अधिकार क्षेत्र में नहीं।

पहली शंका कुरान की वर्णनशैली और ईश्वरी सन्देश के उतरने से सम्बन्ध रखती है। हदीसों (इस्लाम के प्रमाणिक श्रुति ग्रन्थ) में वर्णन है कि सर्वप्रथम सूरत 'अलक' की प्रथम पाँच आयतें परमात्मा की ओर से उतरीं। हज़रत जिबरील (ईश्वरीय दूत) ने हज़रत मुहम्मद से कहा--- 'इकरअ बिइस्मे रब्बिका अल्लज़ी ख़लका' पढ़! अपने परमात्मा के नाम सहित जिसने उत्पन्न किया। इन आयतों के पश्चात् सूरते मुज़मिल के उतरने की साक्षी है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ-- या अय्युहल मुजम्मिलो

ऐ वस्त्रों में लिपटे हुए!

ये दोनों आयतें हज़रत मुहम्मद को सम्बोधित की गई हैं। मुसलमान ऐसे सम्बोधन को या हज़रत मुहम्मद के लिए विशेष या उनके भक्तों के लिए सामान्यतया नियत करते हैं। जब किसी आयत का मुसलमानों से पाठ (किरअत) कराना हो तो वहाँ 'इकरअ' (पढ़) या कुन (कह) भूमिका इस आयत के प्रारम्भ में ईश्वरीय सन्देश के एक भाग के रूप में वर्णन किया जाता है। यह है इल्हाम, ईश्वरीय सन्देश कुरान की वर्णनशैली जिस से इल्हाम प्रारम्भ हुआ था। अब यदि अल्लाह को कुरान के इल्हाम का आरम्भ बिस्मिल्लाह से करना होता तो सूरते अलक के प्रारम्भ में हज़रत जिवरील ने बिस्मिल्ला पढ़ी होती या इकरअ के पश्चात् बिइस्मेरब्बिका के स्थान पर बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम कहा होता। मुजिहुल कुरान में सूरत फ़ातिहा की टिप्पणी पर जो वर्तमान कुरान की पहली सूरत है, लिखा है यह सूरत अल्लाह साहब ने भक्तों की वाणी से कहलवाई है कि इस प्रकार कहा करें। यदि यह सूरत होती तो इसके पूर्व कुल (कह) या इकरअ (पढ़) जरूर पढ़ा जाता। कुरान की कई सूरतों का प्रारम्भ स्वयं कुरान की विशेषता से हुआ है। अतएव सूरते बकर के प्रारम्भ में, जो कुरान की दूसरी सूरत है प्रारम्भ में ही कहा

'ज़ालिकल किताबोला रैबाफ़ीहे, हुदन लिलमुत्तकीन'

यह पुस्तक है इसमें कुछ सन्देह (की सम्भावना) नहीं। आदेश करती है परहेज़गारों (बुराइयों से बचने वालों) को। तफ़सीरे इत्तिकान (कुरान भाष्य) में वर्णन है कि इब्ने मसूद अपने कुरान में सूरते फ़ातिहा को सम्मिलित नहीं करते थे। उनकी कुरान की प्रति का प्रारम्भ सूरते बकर से होता था। वे हज़रत मुहम्मद के विश्वस्त मित्रों (सहाबा) में से थे। कुरान की भूमिका के रूप में यह आयत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है, समुचित है। ऋषि दयानन्द ने कुरान के प्रारम्भ के लिए यदि इसे इल्हामी (ईश्वरीय रचना) माना जाए यह वाक्य प्रस्तावित किये हैं। यह प्रस्ताव कुरान की अपनी वर्णनशैली के सर्वथा अनुकूल है और इब्ने मसूद इस शैली को स्वीकार करते थे। मौलाना मुहम्मद अली अपने अंग्रेज़ी कुरान अनुवाद में पृष्ठ ८२ पर लिखते हैं— कुछ लोगों का विचार था कि बिस्मिल्ला जिससे कुरान की प्रत्येक सूरत प्रारम्भ हुई है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढ़ाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं। एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढ़ाने का समर्थन करती है वह है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढ़ाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं। एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढ़ाने का समर्थन करती है वह है सूरते तौबा के प्रारम्भ में कल्माए तस्मिआ (बिस्मिल्ला) का वर्णन न करना। वहाँ लिखने वालों की भूल है या कोई और कारण है जिससे बिस्मिल्ला लिखने से छूट गया है। यह न लिखा जाना पढ़ने वालों (कारियों) में इस विवाद का भी विषय बना है कि सूरते इन्फ़ाल और सूरते तौबा जिनके मध्य बिस्मिल्ला निरस्त है दो पृथक् सूरते हैं या एक ही सूरत के दो भाग–अनुमान यह होता है कि बिस्मिल्ला कुरान का भाग नहीं है। लेखकों की ओर से पुण्य के रूप (शुभ वचन) भूमिका के रूप में जोड़ दिया गया है और बाद में उसे भी ईश्वरीय सन्देश (इल्हाम) का ही भाग समझ लिया गया है। यही दशा सूरते फ़ातिहा की है, यह है तो मुसलमानों के पाठ के लिए, परन्तु इसके प्रारम्भ में कुन (कह) या इकरअ (पढ़) अंकित नहीं है। और इसे भी इब्जे मसूद ने अपनी पाण्डुलिपि में निरस्त कर दिया था। स्वामी दयानन्द की शंका एक ऐतिहासिक शंका है यदि बिस्मिल्ला और सूरते फ़ातिहा पीछे से जोड़े गए हैं तो शेष पुस्तक की शुद्धता का क्या विश्वास ? यदि बिस्मिल्ला ही अशुद्ध तो इन्शा व इम्ला (अन्य लिखने-पढ़ने) का तो फिर विश्वास ही कैसे किया जाए ? कुछ उत्तर देने वालों ने इस शंका का इल्ज़ामी (प्रतिपक्षी) उत्तर वेद की शैली से दिया है कि वहाँ भी मन्त्रों के मन्त्र और सूक्तों के सूक्त परमात्मा की स्तुति में आए हैं और उनके प्रारम्भ में कोई भूमिका रूप में ईश्वरीय सन्देश नहीं आया। वेद ज्ञान मौखिक नहीं- वेद का ईश्वरीय सन्देश आध्यात्मिक, मानसिक है, मौखिक नहीं। ऋषियों के हृदय की दशा उस ईश्वरीय ज्ञान के समय प्रार्थी की दशा थी। उन्हें कुल (कह) कहने की क्या आवश्यकता थी। वेद में तो सर्वत्र यही शैली बरती गई है। बाद के वेदपाठी वर्णनशैली से भूमिकागत भाव ग्रहण करते हैं। यही नहीं, इस शैली के परिपालन में संस्कृत साहित्य में अब तक यह नियम बरता जाता है कि बोलने वाले व सुनने वाले का नाम लिखते नहीं। पाठक भाषा के अर्थों से अनुमान लगाता है। कुरान में भूमिका रूप में ऐसे शब्द स्पष्टतया लिखे गए हैं, क्योंकि कुरान का ईश्वरीय सन्देश मौखिक है जिबरईल पाठ कराते हैं और हज़रत मुहम्मद करते हैं। इसमें 'कह' कहना होता है। सम्भव है कोई मौलाना (इस्लामी विद्वान्) इस ह्य प्रवेश को उदाहरण निश्चय करके यह कहें कि अन्य स्थानों पर इस उदाहरण की भाँति ऐसी ही भूमिका स्वयं कल्पित करनी चाहिए। निवेदन यह है कि उदाहरण पुस्तक के प्रारम्भ में देना चाहिए था न कि आगे चलकर, उदाहरण और वह बाद में लिखा जाये यह पुस्तक लेखन के नियमों के विपरीत है। ऋषि दयानन्द की दूसरी शंका बिस्मिल्ला के सामान्य प्रयोग पर है। ऋषि ने ऐसे तीन कामों का नाम लिया है जो प्रत्येक जाति व प्रत्येक मत में निन्दनीय हैं। कुरान में मांसादि का विधान है और बलि का आदेश है। इस पर हम अपनी सम्मति न देकर शेख ख़ुदा बख्श साहब एम० ए० प्रोफेसर कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक लेख से जो उन्होंने ईदुज़्ज़हा के अवसर पर कलकत्ता के स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित कराई थी, निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत किए देते हैं— ख़ुदा बख्श जी का मत- 'सचमुच-सचमुच बड़ा ख़ुदा जो दयालु व दया करने वाला है वह ख़ुदा आज ख़ून की नदियों का चीखते हुए जानवरों की अस व अवर्णनीय पीड़ा का इच्छुक नहीं प्रायश्चित ? वास्तविक प्रायश्चित वह है जो मनुष्य के अपने हृदय में होता है। सभी प्राणियों की ओर अपनी भावना परिवर्तित कर दी जाए। भविष्य के काल का धर्म प्रायश्चित के इस कठोर व निर्दयी प्रकार को त्याग देगा। ताकि वह इन दोनों पर भी दयापूर्ण घृणा से दृष्टिपात करे। जब बलि का अर्थ अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु या अन्य सत्ता का बलिदान है।"

-'माडर्न रिव्यु से अनुवादित

दयालु व दया करने वाले परमात्मा का नाम लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए था कि हम वाणी हीन जीवों पर दया का व्यवहार करते, परन्तु किया हमने इसके सर्वथा विरोधी कार्य.. यह बात प्रत्येक सद्बुद्धि वाले मनुष्य को खटकती है। •मुजिहुल कुरान में लिखा है जब किसी जानवर का वध करें उस पर बिस्मिल्ला व अल्लाहो अकबर पढ़ लिया करें। कुरान में जहाँ कहीं हलाल (वैध ) व हराम ( अवैध ) का वर्णन आया है वहाँ हलाल (वैध) उस वध को निश्चित किया है जिस पर अल्लाह का नाम पढ़ा गया हो। कल्मा पवित्र है दयापूर्ण है, परन्तु उसका प्रयोग उसके आशय के सर्वथा विपरीत है। (२) इस्लाम में बहु विवाह की आज्ञा तो है ही पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की भी परम्परा है। लिखा है— वल्लजीन लिफ़रूजिहिम हाफ़िजून इल्ला अललअज़वाजुहुम औ मामलकत ईमानु हुम। सूरतुल मौमिनीन आयत ऐन और जो रक्षा करते हैं अपने गुप्त अंगों की, परन्तु नहीं अपनी पत्नियों व रखैलों से। तफ़सीरे जलालैन सूरते बकर आयत २२३ निसाउकुम हर सुल्लकुम फ़आतू हरसकुम अन्ना शिअतुम तुम्हारी पत्नियाँ तुम्हारी खेतियाँ हैं जाओ अपनी खेती की ओर जिस प्रकार चाहो। तफ़सीरे जलालैन में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है बिस्मिल्ला कहकर- सम्भोग करो जिस प्रकार चाहो, उठकर, बैठकर, लेटकर, उल्टे-सीधे जिस प्रकार..... चाही सम्भोग के समय बिस्मिल्ला कह लिया करो । बिस्मिल्ला का सम्बन्ध बहु विवाह से हो रखैलों की वैधता से हो। इस प्रकार के सम्भोग से हो यह स्वामी दयानन्द को बुरा लगता है। ( ३ ) सूरते आल इमरान आयत २७ ला यत्तख़िजु मौमिनूनलकाफ़िरीना औलियाया मिनटूनिल मौमिनीना .....इल्ला अन तत्तकृ मिनहुम तुकतुन

न बनायें मुसलमान काफ़िरों को अपना मित्र केवल मुसलमानों को ही अपना मित्र बनावें । इसकी व्याख्या में लिखा है यदि किसी भय के कारण सहूलियत के रूप में (काफ़िरों के साथ) वाणी से मित्रता का वचन कर लिया जाए और हृदय में उनसे ईर्ष्या व वैर भाव रहे तो इसमें कोई हानि नहीं.. जिस स्थान पर इस्लाम पूरा शक्तिशाली नहीं बना है वहाँ अब भी यही आदेश प्रचलित है। स्वामी दयानन्द इस मिथ्यावाद की आज्ञा भी ईश्वरीय पुस्तक में नहीं दे सकते। ऐसे आदेश या कामों का प्रारम्भ दयालु व दयाकर्त्ता, पवित्र और सच्चे परमात्मा के नाम से हो यह स्वामी दयानन्द को स्वीकार नहीं।


१. इस्लामी साहित्य व कुअन के मर्मज्ञ विद्वान् श्री अनवरशेख को भी करनी कथनी के इस दोहरे व्यवहार पर घोर आपत्ति है।-'जिज्ञासु'

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অথর্ববেদ ২/১৩/৪

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