मूर्त्ति पूजा पर ३१ प्रश्न - ধর্ম্মতত্ত্ব

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22 February, 2022

मूर्त्ति पूजा पर ३१ प्रश्न

मूर्त्ति पूजा पर ३१ प्रश्न

प्रश्न १ - मिट्टी, पत्थर, धातु आदि की मूर्तियों की पूजा करने से मूर्ति प्रसन्न होती है या ईश्वर खुश होता है ? पौराणिकों के मन्दिरों में रखी हुई मूर्तियां परमेश्वर की जब मूर्ति नहीं हैं सभी जन्म लेकर मरने वाले मनुष्यों के शरीरों की आकृतियों की नकल में बनाई गई है तो इनको परमेश्वर मानकर या परमेश्वर की मूर्तियां बताकर इनका पूजन बुद्धि विरुद्ध, मिथ्या कर्म क्यों न माना जावे ?


प्रश्न २ - इन मन्दिरों में स्थित मूर्तियों में देखने, सुनने, सूंघने, बोलने, समझने सोचने तथा स्पर्शानुभव करने की शक्ति है या नहीं ? यदि है तो प्रत्यक्ष में सिद्ध करो ? यदि नहीं है तो इन जड़ वस्तुओं के आगे हाथ जोड़ना, प्रार्थना करना, मनोतियाँ मांगना उन्हें वस्त्राभूषण पहिनाना उनके चरण स्पर्श करना व दबाना आदि कर्म निरर्थक एवं व्यर्थ क्यों नहीं ? क्या इन मूर्तियों को भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी लगती है ?


प्रश्न ३- क्या मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा मन्त्रों से करने पर वे चैतन्य हो जाती हैं, और प्राण विसर्जन करने से मर जाती है ? यदि हां तो किसी मरी मक्खी में भी प्राण प्रतिष्ठा करके उसे जिन्दा करके दिखाओ ? यदि इतना भी नहीं कर सकते हो तो मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा का सारा क्रिया कर्म तुम्हारा ढोंग क्यों न माना जाये ?


प्रश्न ४ सोना, जागना, हंसना, रोना, यह चैतन्य जीवों का धर्म है या जड़ मूर्तियों का ? क्या परमेश्वर जो कि निर्विकार है वह भी सोना, जागना, हंसना रोना आदि विकारों से युक्त होने से विकारी है ? जब नहीं है तो पुजारियों के इन वाक्यों का भगवान को सुला दो, भगवान को भोग लगा दो, भगवान पर पंखा झल दो, का क्या अर्थ है ?


प्रश्न ५- सूकर अवतार की मूर्ति को सूकर का स्वाभाविक भेजन विष्टा का भोग क्यों नहीं लगाया जाता है तथा खीर पूड़ी का भोग लगाकर उस बेचारे पशु का अपमान क्यों किया जाता है ? सूकर अवतार की मूर्ति को लगे भोग के अवशेष को पुजारी क्यों नहीं खाता है ?


प्रश्न ६ - परमात्मा यदि साकार है तो सर्व व्यापक व अनन्त नहीं रह सकेगा, यदि निराकार है तो उसकी आकृति जो कल्पित की जायेगी वह मिथ्या होगी क्योंकि आकृति साकार एकदेशीय भौतिक पदार्थ की होती है सर्व व्यापक निराकार की नहीं होती है तब बतायें कि निराकार अनन्त सर्व व्यापक नित्य गुणवाले परमेश्वर की आकृति को मिथ्या कल्पना करके मिथ्या मूर्ति बनाकर उसकी प्रतिष्ठा पूजा आदि करना भी मिथ्या कर्म क्यों न होगा ?


प्रश्न ७ - जड़ पूजा से जो कि प्रकृति के कार्य रूप की उपासना है मनुष्य को घोर अन्धकार वा दुःख की प्राप्ति होने की बात जब वेद ने स्पष्ट कर दी है--


अन्धन्तमः प्रविशन्ति ये ऽसम्भूतिमुपासते ।

 ततो भूयइव ते तमो य उ सम्भूयोरतः । यजुर्वेद ४०-६ ।।


अर्थात कार्य का कारण रूप प्रकृति की उपासना से उपासक को घोर कष्टमय लोकों (स्थिति) की प्राप्ति होती है । तो ऐसा वेद विरुद्ध मूर्ति पूजा का कर्म करना पौराणिकों का अधर्म कार्य क्यों न माना जावे ? जिससे उसके लोक व परलोक दोनों बिगड़ते हैं ।


प्रश्न ८ - बतादें कि परमेश्वर क्लेशयुक्त है या क्लेश रहित है ? यदि क्लेशयुक्त है तो उसकी मुक्ति क्लेशों से कौन व कैसे करेगा ? यदि क्लेशमुक्त है भूख प्यास उसे नहीं लगती तो भोजनादि करा कर तुम उसे सुखी करने का पाखण्ड क्यों रचाते हो ?


प्रश्न  - यदि मूर्ति की पूजा में केवल भावना मात्र रहती है तो वेद प्रमाणों से सिद्ध करो कि वह भावना सत्य है तथा क्या भावना करने मात्र से किसी भी वस्तु में जो गुण उसमें न हो वह पैदा हो जाता है ?


 प्रश्न १०- पुराण में जबकि मूर्ति पूजकों को "गधा" बताकर निन्दा की गई है तो तुम यह गधापन का कार्य क्यों करते हो ? देखो भागवत स्कन्ध १० अध्याय ८४ श्लोक १३ में मूर्तिपूजकों को गधा बताया गया है, यथा--

 यस्यात्म बुद्धि कुणपेत्रिधातुकेस्वधीः कलत्रादिषुभौमइज्येषिः ।

यःत्तीर्थ बुद्धिः सलिलेन कर्हिचित्जनेषु भिज्ञेषु सःएव गोखरः ।। १३ ।।

 अर्थ - जो व्यक्ति भीतिक पदार्थों में पूज्य बुद्धि, जल में तीर्थ बुद्धि, व शरीर सन्तान में आत्म बुद्धि रखता है वह विद्वानों में साक्षात् गधा है ।


प्रश्न ११ - क्या परमात्मा भी सोता व जागता है ? यदि हां तब तो वह विकारी हो जावेगा, यदि नहीं तो तुम निम्न श्लोक बोलकर मिथ्या ढोंग क्यों रचते हो और परमात्मा को क्यों सुलाते हो तथा जगाते हो ?

 उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द उत्तिष्ठ गरुड़ध्वजा ।

उत्तिष्ठ कमलाकान्त मंगला यतनो हरि ।।

आयताभ्यां विशालाभ्यां लोचनाभ्यां दयानिधे ।

करुणापूर्ण नेत्राध्यां कुरु निदां जगत्पते ।।


प्रश्न १२ - भागवत स्कन्द ८ अ० ७ श्लोक २३ में ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेव तीनों नाम ही परमेश्वर के बताये हैं। परमात्मा सर्व शक्तिवान सर्वोपरि विश्व का एक मात्र स्वामी है उसे किसी का भय नहीं है न वह त्रिशूल, चक्र, तलवार, गदा आदि धारण करता है जिनसे किसी को मारा जावे। तो तुम त्रिशूल धारी शिद, चक्रधारी विष्णु की मूर्तियों को परमात्मा की मूर्ति कैसे मानते हो? इनसे तो परमात्मा डरपोक सिद्ध होता है जो हथियार साथ में बघि फिरता है, क्या तुम परमात्मा को इन मूर्तियों से बदनाम नहीं करते हो ?


प्रश्न १३ - शिवलिंग शिवजी की मूत्रेन्द्रिय एवं जलहरी पार्वती की भग की प्रतिमूर्ति है यह शिव पुराण कोटिरुद्र सहिंता अध्याय १२ की दारुवन की कथा से तथा कूर्म पुराण उत्तरार्ध अध्याय ३८. एवं स्कन्द पुराण माहेश्वर खण्ड ६ से सिद्ध है। तो तुम शिवजी के सिर हाथ पैर पेट आदि को छोड़कर शिवजी के मूत्रेन्द्रिय को ही क्यों पूजते हो ? क्यों शिवजी की आकृति केवल लिंग जैसी थी जो तुम उसकी प्रतिमूर्ति पूजते हो ? इसे पूजने से क्या तुम भी वही चीज उससे मिलने की आशा रखते हो जो उनमें से निकलती है ? तुम उसका क्या करोगे ?


प्रश्न १४ - जब देवी भागवत पुराण ने स्कन्द ५ के अध्याय १६ में विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि आदि की उपासना करने वालों की घोर निंदा की है तथा स्कन्द ४ अध्याय १३ में इन सभी को प्रष्ट देवता घोषित किया है तो इनकी मूर्तियां बनाकर इनको क्यों पूजते हो ? क्या इनको पूजने से तुम भी वैसे ही पतित नहीं बनोगे ? क्योंकि उपास्य के गुण उपासक में आते हैं?


प्रश्न १५ - जब परमात्मा सर्व व्यापक घट-घट वासी है तो तुम उसे अपने बाहर प्रथक पदार्थों में क्यों ढूंढते फिरते हो? क्या यह अज्ञानता नहीं है ? 


प्रश्न १६- आत्मा और परमात्मा में किस प्रकार की दूरी ? क्यों कि दूरी तीन प्रकार की होती है । (१) देश की दूरी (२) काल की दूरी (३) अज्ञानता की दूरी । इनमें से प्रथम तो इसलिये नहीं है क्योंकि परमात्मा सर्व व्यापक उपस्थित है। दूसरी भी नहीं है क्योंकि परमात्मा के साथ ऐसी बात नहीं है कि वह कभी पहिले रहा हो या आगे होवे और वर्तमान में न हो । परमात्मा नित्य है, तीसरी अज्ञानता की दूरी है कि उसके सर्वत्र घट-घट वासी होते हुए भी हम उसे अपनी अज्ञानता से अनुभव नहीं करते हैं। यह अज्ञानता की दूरी ज्ञान से मिट सकती है और प्रत्येक अपनी आत्मा में उसे अनुभव कर सकता है । इसके लिये अपने से बाहर उसे ढूंढना व भटकते फिरना अज्ञानता क्यों नहीं है ?


प्रश्न १७ - आप यह मानते हैं कि मूर्ति में भी परमात्मा सर्व व्यापक होने से व्याप्त है किन्तु मूर्ति में उपासक की आत्मा प्रवेश करके परमात्मा से वहां नहीं मिल सकती है। मिलना वहीं होगा जहां दोनों ही उपस्थित होवें और ऐसा स्थान स्वयं उपासक का अन्तकरण है जहां दोनों जीवात्मा तथा परमात्मा विद्यमान रहते हैं तो ध्यानावस्थित होने पर दोनों का साक्षात्कार वहीं सम्भव है। तब मूर्ति पूजा तो परमात्मा व जीवात्मा के मिलने में बाघक स्वतः सिद्ध है, आप इस व्यर्थ कर्म को तब फिर क्यों करते हैं ? 

प्रश्न १८ - परमात्मा दर्शन की वस्तु नहीं है क्योंकि वह नेत्र इन्द्रिय का विषय नहीं है, परमात्मा बहरा नहीं है जो घण्टा घड़ियाल बजाकर उसे पुकारा जावे या ऊंचे स्वर में भजन व गाने गाये जाये परमात्मा का तो समस्त बाह्य जगत से इन्द्रियों की अन्तर्मुखी प्रवृति करके ध्यान किया जाता है और ध्यान करने वाले को नेत्र बन्द कर लेने पड़ते हैं ताकि चित्त एकाग्र हो सके। तो मूर्ति को निरुपयोगिता स्वतः नाम पर क्यों न माना जाये ?


प्रश्न १ - मूर्ति पूजा को परमात्मा की उपासना में सीढ़ी बताना भी बुद्धि विरुद्ध बात है, क्योंकि सीढी सदेव वहीं व्यवहार में लायी जाती है जहां लक्ष्य व उसके उपयोगकर्ता में देश की दूरी होवे । एजेन्ट व दलाल वहां चाहिए जहां दो के बीच में देश व काल की दूरी होवे । उपासक व उपास्य परमात्मा के बीच में ये दोनों बातें न होने से मूर्ति पूजा की सीढ़ी वा मध्यस्थ की कोई आवश्यकता नहीं है । वैसा मानना घोर अज्ञानता क्यों नहीं ?


प्रश्न २०- मूर्तियों में न तो प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है और न उनमें कोई शक्ति ही होती है। वे बादाम तोड़ने के काम तो आ सकती हैं किन्तु स्वतः हानि लाभ नहीं कर सकती है इतिहास से प्रकट है कि यवनों ने लाखों मन्दिर तोड़ डाले, मूर्तियां अंग-भंग कर दीं । आज भी चोर उन्हें चुरा जाते हैं पुजारी उन्हें सुरक्षा के लिए ताले में बन्द रखते हैं । तो ऐसी दशा में बेजान मूर्तियों को परमात्मा मानकर पूजना उसी में अपना जीवन बर्बाद करना तुम्हारी घोर अज्ञानता नहीं है तो और क्या है ? जो तुम देखते हुए भी मूर्ति की असलियत को नहीं समझते हो ?


 प्रश्न २१ - जब मुसलमान व ईसाई लोग भी परमात्मा की सीधी उपासना कर सकते हैं और करते हैं तो तुमको ही ये पत्थरों की मूर्ति बनाकर पूजने की किसलिये आवश्यकता पड़ती है ? क्या तुम में उनके बराबर भी अक्ल नहीं है जो परमेश्वर की सीधी उपासना भी करना नहीं जानते हो ? 


प्रश्न २२ - मूर्ति का लक्ष्ण ही यह है कि जिसके अवयव जड़ हों तो चेतन्य, ज्ञानवान शक्ति सम्पन्न अमृत पुत्र होकर भी जो लोग जड मूर्तियों को तथा पेड़ पत्थरों को पूजते हैं उन्हें भ्रान्त-घोर अज्ञानी क्यों न माना जावे ?


प्रश्न २३- जब वेद "न तस्य प्रतिमाऽस्ति----------- " कहकर घोषणा करता है कि परमेश्वर की कोई प्रतिमा नहीं बन सकती है क्योंकि वह अनन्त है, अनादि व निराकार सत्त है, तो उसकी मूर्ति अपनी कल्पना से बनाने वाले आप लोग नास्तिक क्यों नहीं हैं ?


प्रश्न २४- नित्य सर्वव्यापक परमेश्वर का अवतरण हो सकता है अवतरण अथवा आरोहण एक देशीय सत्त का होता है तो जब कृष्णादि परमात्मा के अवतार ही सिद्ध नहीं किये जा सकते हैं। तो उनके शरीरों की आकृतियों की मूर्तियां बनाकर पूजने से परमात्मा का कोई सम्बन्ध भी सिद्ध नहीं किया जा सकता है। राम और कृष्णादि मनुष्य परमात्मा के भक्त थे न कि स्वयं परमात्मा थे ! जिनकी मूर्ति बनाकर तुम लोग पूजते हो ।


प्रश्न २५ - तुम मूर्ति पूजा करते हो अथवा उसमें व्यापक परमेश्वर की पूजा करते हो ? यदि मूर्ति की करते हो तो उसके हाथ पैर नाक आदि नष्ट हो जाने पर उसी मूर्ति की पूजा क्यों नहीं करते हो ? यदि व्यापक परमेश्वर की पूजा करते हो तो वह अंग भंग मूर्ति में वा जिस पत्थर वा धातु से मूर्ति बनती है उनमें भी व्यापक होता है तथा विश्व के प्रत्येक पदार्थ में व्यापक रहता है तो उसकी पूजा क्यों नहीं करते हो ? एक खास शक्ल सूरत वाली धातु व पत्थर की पूजा क्यों करते हो ? एक खास शक्ल की पूजा करने से तुम केवल आकृतिपूजक हो न कि ईश्वरपूजक ?


प्रश्न २६ - जब किसी ने भी परमात्मा को आंखों से कभी देखा नहीं है और अगोचर होने से वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है तो तुम कैसे साबित कर सकते हो कि तुम्हारी कल्पित मूर्तियां परमात्मा की शक्ल व सूरत की होती हैं ? विभिन्न प्रकार की तुम्हारी मूर्तियां ही यह सिद्ध करती हैं कि तुमको अपने कल्पित साकार परमात्मा की आकृति का कोई ज्ञान नहीं है ?


प्रश्न २७ - जब परमात्मा मूर्ति से भी व्यापक है और फूलों में भी व्यापक है तो तुम फूलों को मूर्ति के परमात्मा पर क्यों चढ़ाते हो ?


प्रश्न २८ - जिस परमेश्वर ने सूर्य, चन्द्रमा, विद्युत जैसा प्रकाशमान लोकों व तत्वों का निर्माण किया है जो विश्व को खिलाता है उसको दीपक से आरती उतार करके व भोग लगाकर उसका अपमान क्यों करते हो ?


प्रश्न २ - निराकार एकदेशीय प्रत्येक जीव के शरीर में विद्यमान जीवात्मा की भी मूर्ति तुम नहीं बना सकते हो तो विश्वव्यापी अनन्त परमेश्वर की मूर्ति बनाने की पाखण्ड रचना तुम्हारी घोर अज्ञानता व पाखण्ड नहीं है तो और क्या है ?


प्रश्न ३० - वाराह अवतार के मन्दिरों में तुम मैहतर को पुजारी क्यों नहीं बनाते हो जो कि सूकर अवतार वंशजों को पालते हैं तथा नित्य प्रातः सांय गरमागरम ताजी भोजन डलिया में लाकर सूकर अवतार को खिलाकर उसे प्रसन्न रख सकते हैं। क्या यह पौराणिक पुजारियों द्वारा मेहतरों के अधिकार पर डाकेजनी नहीं है ?


प्रश्न ३१- यदि यह कहा जाये कि मूर्ति पूजा चित्त को एकाग्र करने की साधना है तो भी मिथ्या है क्योंकि मूर्ति की आरती उतारना, घंटा घड़ियाल बजाना, उसके सामने हाथ जोड़ना, प्रार्थना करना, शाष्टांग दन्डवत करना आदि क्रियायें चित्त की एकाग्रता में बाधक होती हैं न कि एकाग्रता की बात सिद्ध करती हैं ? बतायें कि मूर्ति पूजा चित्त की एकाग्रता में साधक कैसे है ?


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आचार्य श्री श्रीराम आर्य

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