वैदिक सिद्धान्त - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

সাম্প্রতিক প্রবন্ধ

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স্বাগতম

22 February, 2022

वैदिक सिद्धान्त

 पूज्य गुरुदेव,


आप मेरे धर्मगुरु थे। आपने अपने पवित्र हाथों से यज्ञोपवीत देकर मुझे द्विज बनाया और अपना धर्म पुत्र बनाने का सौभाग्य प्रदान किया। जो कुछ मैने श्रीचरणों में बैठकर उपलब्ध किया. उसके लिये आजन्म आभारी रहूंगा। मेरी देर से इच्छा थी कि वैदिक-सिद्धान्तों को सरल रूप में जनता, विशेषकर विद्यार्थियों के लिये उपस्थित करूं। मैने यह प्रयत्न किया है, कह नहीं सकता कहां तक इसमें सफल मनोरथ हुआ हूं, तो भी जो कुछ यह तुच्छ मेंट है, इसे आपकी पवित्र स्मृति में परम श्रद्धापूर्ण हृदय से समर्पण करता हूं आशा है आपकी मुक्त आत्मा इसे सहर्ष स्वी कार करके मुझे कुछ आन्तरिक सन्तोष प्रदान करेगी ।

चरणानुरागी-राम प्रसाद

प्रस्तुतकर्ता- सार्वदेशिक प्रार्य प्रतिनिधि सभा, महर्षि दयानन्द भवन, नई दिल्ली-१ मू० ५०पै.

वैदिक सिद्धान्त

परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वाः प्रदिशो दिशश्च ।

 उपस्थाय प्रथमजा मृतस्यात्मनात्मानमभि सं विवेश ।।

यजुर्वेद प्र० ३२-११
संस्कृतभावार्थ हे मनुष्याः ! यूयं धर्माचरणवेदयोगाभ्याससत्संगा दिभिः कर्मभिः शरीरपुष्टिमात्मान्तःकरणशुद्धि च संपाद्य सर्वत्राभिव्याप्त परमात्मानं लब्ध्वा सुखिनो भवत ॥

आर्यमापा मावार्थ :
हे मनुष्यो ! तुम लोग धर्म के प्राचरण, वेद और योग के अभ्यास तथा सत्संग आदि कर्मों से शरीर की पुष्टि और आत्मा तथा अन्तःकरण की शुद्धि को सम्पादन कर सर्वत्र अभिव्याप्त परमात्मा को प्राप्त हो के सुखी होयो। महषि दयानन्द सरस्वती

सम्पादकीय

यह विशेषांक

पाठकों के हाथ में यह वैदिक सिद्धांत अंक जा रहा है। • सार्वदेशिक साप्ताहिक की यह परम्परा रही है कि जीवनोपयोगी विचार से परिपूर्ण और वैदिक धर्म के सिद्धान्तों से ओतप्रोत साहित्य कम से कम मूल्य में पाठकों तक पहुँचाया जाए। इस विशेषांक में भी उसी परम्परा का पालन किया गया है।

हमारे विशेषांकों का जनता ने जिस तत्परता के साथ स्वागत किया है, उसी तत्परता के साथ इस विशेषांक का भी स्वागत होगा, इसका हमें पूर्ण विश्वास है। इस विशेषांक के लिए मी, अन्य विशेषांकों की तरह, हमारे पास इसके प्रकाशित होने से पूर्व ही हजारों की संख्या में आर्डर आ चुके थे। इसे प्रकाशित अवस्था में देखकर और मी आर्डर आयेंगे, इसमें सन्देह नहीं। परन्तु हमें भय है कि हम नए आर्डर भेजने वाले सव लोगों की मांग पूरी कर सकेंगे या नहीं, क्योंकि कागज और छपाई इत्यादि की मंहगाई के कारण, जितने आर्डर पहले प्राप्त हो जाते हैं उन्हीं के अनुसार निश्चित संख्या में अङ्क छपवाया जाता है। पाठकों से पहले आर्डर मंगाने का प्रयोजन भी यही है। इसलिए नए आर्डर भेजने वालों और सो-सो कर जागने वालों में से कुछ लोगों को निराश होना पड़े तो हम उनसे अग्रिम क्षमा मांग लेते हैं। यह इसलिए मी करना आवश्यक है कि जिस प्रकार 'विद्यार्थी जीवन रहस्य' विशेषांक समस्त विद्यार्थी जगत् के लिए उपयोगी था और अनेक समर्थ लोगों ने काफी संख्या में उस विशेषांक की प्रतियां मंगवाकर स्कूलों और कालेजों में वितरित की थीं, वैसी ही प्रेरणा इस अड्ड के बारे में भी पैदा होना स्वाभाविक है। पुरानी पीढ़ी के आर्य नेता, देशभक्त लाला लाजपतराय के साथी, श्रद्धेय श्री महात्मा हंसराज जी के शिष्य एवं “वन्देमातरम् लाहौर" के यशस्वी सम्पादक श्री लाला रामप्रसाद जी बी० ए० द्वारा लिखित इस विशेषांक की विशेषता यह है कि यह केवल विद्यार्थियों के लिए नहीं, प्रत्युत आई समाज के सिद्धान्तों के प्रति जिज्ञासा प्रकट करने वाले जन-साधारण के लिए तो उपयोगी है ही, उन आर्यसमाजियों के लिए भी उपयोगी है जो समयाभाव से विभिन्न धर्मग्रन्थों का अध्ययन नहीं कर सकते और स्वयं ही अपने सिद्धान्तों से अनभिज्ञ बने रहते हैं। उन्हें इस एक अङ्क के पढ़ने से ही गागर में सागर की तरह, समी सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय हो जाएगा।

धर्म की कसौटी

इस समय संसार में नाना प्रकार के मत-मतान्तरों की कमी नहीं है। प्रतिदिन नए-नए गुरु और उनके नए-नए चेले भी बनते देखे जा सकते हैं। भारत की भूमि तो जैसे नए तुरुडम और नए-नए सम्प्रदायों के लिए खास तौर से अधिक उपजाऊ है।

जब तक मानव में बुद्धि का समावेश रहेगा, तब तक विचार भेद तो सदा बना रहगा, किन्तु अच्छाई और बुराई के सम्बन्ध में मतभेद की गुजायश अधिक नहीं है। सच तो यह है कि धर्म भी उसी तत्त्र का नाम है जिस पर स्थान और काल के भेद से प्रभाव नहीं पड़ता।

जिस प्रकार दो और दो चार होते हैं, यह गणित का सिद्धान्त है और यह सार्वत्रिक मी है और शाश्वत भी, उसी प्रकार असली धर्म भी वही है जो सार्वदेशिक भी हो और सार्वकालिक भी। इसी का नाम वैदिक धर्म है, यही एक मात्र मानव धर्म है और समस्त संसार के लिए यही धम उपयोगी है।

वेद की दृष्टि में मानव मात्र समान हैं। 'शृण्वन्तु सर्वे अमृतस्य पुत्राः' कहकर मानव जाति को बेद ने 'अमृत पुत्र' की सज्ञा दी है। संसार के समस्त मानव अमृत स्वरूप, सचि दानन्द स्वरूप, सर्वशक्तिमान्, अजर, अमर, नित्य, शुद्धबुद्ध मुक्त स्वभाव परमपिता परमात्मा की सन्तान हैं। एक पिता की सन्तान होने के नाते से सत्र मानव परस्पर भाई-भाई हैं। इसीलिए वेद ने भूगोल और इतिहास की समस्त सीमाओं को लांघ कर मानव-मात्र को एक ईकाई के रूप में सम्बोधित किया है।

वेद का धर्म केवल भारत के लिए नहीं, केवल यूरोप के लिए या संसार के किसी विशेष भू-खण्ड के लिए नहीं, वह तो सभी देशों, समी कालों और सभी जातियों के लिए है। अलबत्ता उस धर्म का शुद्ध स्वरूप क्या है, यह पहचानना आवश्यक है। धर्म के उस शुद्ध स्वरूप को हृदयंगम करने में यह विशप क सहायक होगा।

धर्म की समीचीन परिभाषा यह है:

“यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्म:” जिस कार्य से इस लोक में अभ्युदय प्राप्त हो और परलोक में निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो, उसी का नाम धर्म है। इस कसौटी के अनुसार यदि कोई विचारधारा केवल सांसारिक अभ्युदय की बात करती हो-जैसी कि आजकल की विज्ञान-प्रवण भौतिकवादी सभ्यता को और तथाकथित द्वन्द्वात्मक समाजवाद की प्रवृत्ति है तो वह धर्म नहीं कहला सकती। इसी प्रकार यदि कोई दार्शनिक विचारधारा को असार बताकर इहलोक में अपमानित और पददलित एवं दीन-हीन जीवन बिताने का उपदेश देती हो तथा परलोक के सब्जबाग दिखाकर केवल मोक्ष प्राप्ति का उपदेश देती हो जैसी कि वेदान्तियों या बौद्धों और जैनियों की प्रवृत्ति है, तो वह मी मानव जाति के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकती।

'सेक्युलर' शब्द का अर्थ

इसी स्थान पर यदि 'सेक्युलर' शब्द पर भी विचार कर लिया जाए तो अनुचित न होन। आजकल इस शब्द का अर्थ ‘धर्म-निरपेक्ष' किया जाता है। परन्तु इसका शब्दकोश बर्णित शुद्ध अर्थ है-'सांसारिक' (Worldly) । वास्तव में राजनीति शास्त्र में 'थिथोकेटिक स्टेट' ( धार्मिक राज्य) से जो अर्थ लिया जाता था, उसके विरुद्ध 'सेक्युलर स्टेट (धर्मनिरपेक्ष राज्य ] शब्द का व्यवहार हुआ। इस दृष्टि से सेक्युलर शब्द का सही अर्थ है - 'इहलोक से सम्बन्धित' (अर्थात् परलोक के प्रति सर्वथा उदासीन) इस प्रकार इस शब्द का सही अनुवाद करना हो तो वह होगा 'लोकायतिक' । संस्कृतज्ञों से यह तथ्य छिपा नहीं है कि संस्कृत वाङ्मय में लोकायतिक शब्द चार्वाक का पर्यायवाची माना गया है, क्योंकि चार्वाक मो परलोक या पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते, वे केवल इसी लोक को सत्य मानते हैं । यो शास्त्रीय विवेचन की दृष्टि से 'सेक्युलर स्टेट' हमारा आदर्श नहीं हो सकता, न ही वह धर्म संगत है, क्योंकि उसमें धर्म के अनिवार्य अङ्ग निःश्रेयस की सर्वथा उपेक्षा कर दी गई है। प्रसंगोपात्त यह संक्षिप्त निदेश मात्र पर्याप्त होगा।

कर्तव्य का उपदेश

धर्म का मुख्य सार यह है कि वह निम्न तथ्यों पर प्रकाश डाने किः- (1 ) मनुष्य का अपने निर्माता परमपिता परमात्मा के प्रति क्या कर्तव्य है; (२) मनुष्यों का अन्य मनुष्यों के प्रति, जो उसके भ्रातृ समान हैं, क्या कर्तव्य है, और (३) मनुष्य का स्वयं अपने प्रति क्या कर्तव्य है। इस प्रकार कर्तव्यों का उपदेश ही धर्मग्रन्थों का उद्देश्य होता है।

जहां तक सृष्टि रचना की प्रक्रिया (Cosmology) के वर्णन का सम्बन्ध है, प्रायः विभिन्न धर्मग्रन्थों में उसका मी परिचय मिलता है। परन्तु वह विशुद्ध विज्ञान का प्रश्न है । और आश्चर्य की बात यह है कि ज्यों ज्यों मानव जाति विज्ञान में उन्नति करती जा रही है त्यों त्यों सृष्टिविद्या के सम्बन्ध में वेद का वर्णन सत्य प्रमाणित होता जा रहा है और अन्य मत मतान्तरों के धर्मग्रन्थों का वर्णन असत्य प्रमाणित होता जा रहा है। उदाहरण के लिए, वेद का सिद्धान्त है कि वर्तमान सृष्टि को बने लगमग दो अरब वर्ष हो चुके हैं। आज विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के गम्भीर अध्ययन से वैज्ञानिक लोग इसी निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं और कुरान और बाइबिल द्वारा वर्णित सृष्टि की ६००० वर्ष की आयु वाली बात सर्वथा असत्य प्रमाणित हो चुकी है।

इस प्रकार सृष्टिविद्या का वैदिक सिद्धान्त तो सर्वथा "विज्ञान-संगत है ही, जहां तक परमात्मा के प्रति मानव के प्रति और स्वयं अपने प्रति व्यवहार का प्रश्न है, वह भी जितना सुन्दर, उत्कृष्ट और समीचीन ढंग से वेद में प्रतिपादित है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं ।

स्मृति का स्थान

परन्तु यहां एक शंका हो सकती है। वह यह कि देश और काल के अनुसार यदि मनुष्य को अपने व्यवहार में कुछ परिवर्तन करना आवश्यक हो तो उसकी संगति कहां से ग्रहण की जाए ? जहां तक सामाजिक व्यवहार का प्रश्न है, वह देश देश और जाति-जाति में भिन्न है। परन्तु देश और काल अनुसार इस प्रकार परिवर्तित होने वाला सामाजिक व्यवहार. शाश्वत धर्म का अंग नहीं होता, क्योंकि वह त्रिकालाबाधित नहीं है, उसमें परिवर्तन हो सकता है। स्मृतियों का निर्मारण इसीलिए हुआ था। स्मृतियां देश और काल के अनुसार आचार-व्यवहार का निर्देश करती हैं। हमारी स्मृतियां हमारे आचार शास्त्र हैं। परन्तु उनमें मी जब शाश्वत धर्म के तत्व की खोज करनी होगी, तब उसका आधार केवल वेद होगा। इसलिए सार रूप से यह कहा जा सकता है कि स्मृतियों का जो निर्देश वेद के अनुकूल और अविरुद्ध हो, वही धर्म का है। धर्म के लिए परम प्रकाश केवल वेद है और स्मृति, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण, महाभारत तथा पुराण आदि इन सब में जहां कहीं परस्पर मतभेद दिखाई दे तो उसका समाधान केवल वेद के आधार पर ही किया जाए।

आर्य समाज क्यों ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज के नाम से किसी नए सम्प्रदाय या मत का प्रवर्तन नहीं किया, किन्तु ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्त प्राचीन ऋषि-महर्षि जिसे धर्म मानते महर्षि ने कहा था-------
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विदेशियों का प्रार्यावर्त में राज्य होने का कारण प्रापस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढ़ना-पढ़ाना, बाल्या वस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्याभाषणादि कुलक्षण, वेद विद्या का प्रचारादि कुकर्म हैं। जब ग्रापस में भाई-भाई लड़ते हैं तभी तीसरा विदेशी आकर पञ्च बन बैठता है। श्रापस की फूट से कौरव, पाण्डव और यादवों का तो सत्यानाश हो गया, सो तो हो गया, परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है, न जाने यह भयंकर राक्षस कभी छूटेगा अथवा धार्यों को सब सुखों से छुड़ाकर दुःखसागर में डुबा मारेगा ? उसी दुष्ट दुर्योधन गोत्रहत्यारे स्वदेश-विनाशंक नीच के दुष्ट मार्ग पर आर्य लोग अब तक भी चल कर दुःख उठा रहे हैं। परमेश्वर कृपा करे कि यह राजरोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाय । -महर्षि दयानन्द सरस्वती
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आए, उसी का प्रतिपादन किया है। कालक्रम से उस पर जो आवरण पड़ गया था, ऋषि ने अपने सबल हाथों से उसे हटा दिया और शाश्वत, सत्य-सनातन वैदिक धर्म की पुनः दुन्दुभि बजाने के लिए और वैदिक धर्म के वास्तविक सिद्धांतों के अनुरूप अपना जीवन ढालने के लिए आसमाज की स्थापना की। यही आर्यसमाज की उपयोगिता है।

इस भूमिका के साथ, पाठकगण, इस विशेषांक का पारायण करिए और वैदिक सिद्धान्तों की उज्ज्वल ज्योति से अपने मन मन्दिर को आलोकित कीजिए। स्वयं आर्य बनिए और संसार को आार्य बनाने का प्रण कीजिए।


॥ श्रो३म् ॥

वैदिक सिद्धान्त

ईश्वर विषय

प्रश्न – यह लोग कहते तो हैं कि ईश्वर है, परन्तु दिखाई नहीं देता, तब कैसे माना जाय कि कोई ईश्वर है ? 
उत्तर- ऐसा भी तो होता है कि हमें पदार्थ दिखाई नहीं देते, फिर भी हम उनके अस्तित्व पर विश्वास रखते हैं। 
जैसे:
 (क) प्रति निकट होने से,जैसे घांस में सुरमा होता प्रवश्य है पर दिखाई नहीं देता ।
(ख) अति दूर होने से, जैसे बहुत ऊचा चढ़ा हुआा पक्षी अथवा पतंग ।
(ग) सूर्य के प्रकाश से दबने के कारण दिन के समय तारे ।
(घ) परदा सामने आने के कारण जैसे दीवार के पीछे खड़ा मनुष्य, अथवा कलकत्ता, बम्बई आादि नगर ।
(च) दो समान चीजों के मिलने से जैसे दूध में पानी ।
(छ) आंखों के जाते रहने से ।

प्रश्न – फिर हम कैसे जानें कि ईश्वर है ?

उत्तर- पहले हमें यह समझ लेना चाहिये कि पदार्थ जाने कैसे जाते हैं। हम ससार में किसी पदार्थ को, जैसा कि वह है, पूर्ण रूप से नहीं जान सकते। केवल उसके कुछ गुणों को जान सकते हैं और जितना-जितना उसके गुणों का ज्ञान होता जाता है उतना ही अधिक हम उस चीज को जानते हैं। परन्तु पूर्णतया हम फिर भी उसको नहीं जान सकते । परमात्मा की बात तो रही दूर की, गुलाब के एक पत्ते का अथवा फूल की एक पंखड़ी का भी पूर्ण रूप से जानना कठिन है। अतः हम परमात्मा के भी गुण ही जान सकते हैं और जितना उन्हें अधिक जानते हैं उतना ही परमात्मा का साक्षात् होता है । 

प्रश्न- हम परमात्मा का उसके गुणों में किस तरह साक्षात् कर सकते हैं ?

उत्तर - उनकी बनाई हुई सृष्टि को देखकर। सृष्टि की अद्भुत रचना तथा इसके सुप्रबन्ध को देखकर केवल इतना ही अनुमान हो सकता है कि इसका बनाने वाला कोई है, बल्कि यह भी अनुमान हो सकता है कि वह बड़ा शक्तिशाली भोर ज्ञानवान् है। जिस प्रकार हम एक बड़े ऐञ्जन को देखकर अनुमान कर लेते हैं कि इसके बनाने वाले को किन-किन विद्याओं का ज्ञान होगा, इसी प्रकार परमात्मा की सृष्टि को देखकर अनुमान किया जा सकता है कि वह तेज का देने वाला, दया तथा न्याय का स्रोत, शक्ति का पुञ्ज, सृष्टि रचना में प्रवीण और उसके संचालन में समर्थ और निपुण है। उस तरह हम जितना पर मात्मा के गुणों का चिन्तन करेंगे उतना ही उनके स्वरूप का साक्षात् होगा। परन्तु इसका पूर्णरूप से जानना कठिन है क्योंकि परमात्मा अनन्त है और जीव परिमित शक्ति वाला है। इसलिये उपनिषत्कार कहते हैं कि जो यह् कहता है कि मैंने परमात्मा को पूर्णरूप से जान लिया है वह मिथ्यावादी है। इसी तरह जो इस विस्तृत जगत् को देखकर भी यह कहता है कि मैं इसके बनाने वाले को बिल्कुल नहीं जानता वह भी मिथ्या प्रलाप ही करता है।

परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं एक शबल और दूसरा शुद्ध । ब्रह्म का शुद्ध स्वरूप जो सारे तत्वों से व्याप्त ब्रह्म का स्वरूप है वह "शुद्ध" है ।

ब्रह्म का शचल रूप जो ब्रह्म का स्वरूप इन तस्वों के साथ मिलकर भासता है वह शवलरूप है जैसे लाट में अग्नि का शुद्ध रूप और सारे में बादल रूप है। ब्रह्म सारी सृष्टि में रमा हुआ है। इसका जीवन बनकर इसको घारे हुए है। इसी से प्रग्नि जलती है। इसी से सूर्य चमकता है सूर्य का वास्तविक तेज वही है।

पक्ष' ब्रह्म का वर्णन नहीं किसी बाह्य पदार्थ के द्वारा उसके घन्तरात्मा पर दृष्टि ले जाना अभिप्रेत होता है उसको "उपलक्षण" कहते हैं ।

ब्रह्म के शुद्ध स्वरूप वर्णन करने की दो विधियाँ:
"निषेध'- उन गुणों को लक्ष्य करके जो विद्यमान नहीं, परमात्मा का वर्णन "निषेध" कहलाता है ! जैसे-बृहदारण्यक उपनिषद् में माजवल्क्य गार्गी से कहते हैं " हे गार्गी | इसको अक्षय (न क्षय होने वाला) कहते हैं। वह न मोटा है न पतला, न लम्बा है न चोड़ा और न लाल है (पर्यात् इसका कोई रङ्ग नहीं) वह विना स्नेह के है, बिना छाया के है, वित्ता ग्रन्थ रे के है। वह वायु नहीं, धाकाश नहीं। वह असग है। वह रस, रूप, गन्ध से रहित है। उसके नेत्र नहीं, श्रोत्र नहीं, वाणी नहीं, मन नहीं। उसके तेज (जठराग्नि) नहीं, प्राण नहीं, मुख नहीं, परि माण (नाप) नहीं । उसके कुछ अन्दर नहीं, कुछ बाहर नहीं। वह न कुछ भोगता है, न कोई उसका भोग करता है। इसी प्रकार "नेति नेति" शब्दों से अन्यत्र भी उसका वर्णन किया गया है ।

'विधि' परन्तु उन गुणों को लक्ष्य करके जो ब्रह्म में हैं उसका वर्णन करना "विधि' कहलाता है, यथा तच्छुत्र ज्योतिषां ज्योतिः वह शुभ्र है और ज्योतियों की ज्योति है। विज्ञानमानन्दं ब्रह्मवह विज्ञान और आनन्द है। कविर्मनीदी परिभूः स्वयम्भूः वह कवि है, मनीषी है, चारों ओर से घेरे हुए है और स्वयंभू है। ब्रह्म ही सारे फलों को देने वाला है। और वही सारी शक्तियों का भंडार है

प्रश्न- परमात्मा कहाँ रहता है ?
उत्तर- परमात्मा हर जगह मौजूद है। कोई ऐसा स्थान नहीं

जहां वह न हो । प्रश्न यदि यह मान लिया जाय, जैसा कि कोई-कोई लोग मानते हैं कि परमात्मा शरीरधारी और सातवें आसमान पर अथवा हैं बँकुण्ठ में रहता है और वहां से फरिश्ते अथवा दूतों द्वारा संसार का प्रबन्ध करता है तो क्या हानि है ?

उत्तर - यदि परमात्मा को एकदेशीय और परिमित प्रकार वाला मान लिया जाय तो 

(क) परमात्मा सर्वव्यापक नहीं हो सकता। इसलिये सवंश भी नहीं हो सकता । 

(ख) शरीरधारी होने के कारण यह मानना पड़ेगा कि उसका उत्पन्न करने वाला कोई और है। शरीर सम्बन्धी सारी व्याधियों भीर परिवर्तनों को भी मानना पड़ेगा।

(ग) यदि यह कल्पना कर ली जाय कि परमात्मा ने अपना शरीर प्राप बना लिया कोई अन्य इसे उत्पन्न करने वाला नहीं, तो इससे पहले की उसकी निराकार अवस्था माननी पड़ेगी।

प्रश्न – निराकार किस प्रकार सृष्टि की रचना कर सकता है, यह हमारी समझ में नहीं प्राता । 
उत्तर - साकार किस प्रकार सृष्टि की रचना कर सकता है, यह हमारी समझ में नहीं प्राता ।

प्रश्न – यह क्यों ?

उत्तर- क्योंकि साकार कभी सृष्टि नहीं बनासकता। यदि मान लिया जाय कि हमारी पृथ्वी, जो सारे संसार में एक बहुत छोटी-सी चीज है, साकार परमात्मा ने बनाई तो उसके कितने बड़े हाथ होने चाहिये, कितने बड़े भौजार ? उसने मसाला कहां रक्खा होगा और स्वयं कहां बैठा होगा। फिर उन बड़े-बड़े हाथों से उन कीटाणुओं को कैसे बनाया होगा जो बड़ी-बड़ी प्रणुवीक्षणों (खुर्दबीनों) से ही दिखाई दे सकते हैं। इसलिये निराकार परमात्मा ही सृष्टि बना सकता है, चूंकि वह एक-एक अणु में व्यापक है इस वास्ते वह इसे उठा सकता है, हिला सकता है, दूसरे के साथ मिला सकता है।

प्रश्न- परन्तु जब उसके हाथ, पैर नहीं तो वह हाथ पैरों का काम कैसे कर सकता है ?

उत्तर - परमात्मा हाथ-पैर न होने पर भी सारे काम कर लेता है। हमें हाथ की जरूरत उस समय पड़ती है जब हाथ से दूर किसी चीज को पकड़ना अथवा उठाना होता है। जब हमें अपना हाथ उठाना होता है तो क्या इसे दूसरे हाथ से उठाते हैं । अथवा सिर हिलाना होता है तो क्या हाथों से पकड़ कर इसे हिलाते हैं। चूंकि हाय के भौर से सिर के अन्दर इनको हिलाने की शक्ति है इस वास्ते दूसरे हाथ की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। परन्तु भर्द्धांग अवस्था में शक्ति हीन होने के कारण वह अग स्वयं नहीं हिल सकते। चूकि परमात्मा के लिये कोई स्थान अथवा पदार्थ प्रप्राप्त नहीं इसलिये इन्हें न हाथों की जरूरत है, और न घांखों की, न कानों की और न पैरों की।

प्रश्न – ग्राप प्रमात्मा को सर्वशक्तिमान् मानते हैं या नहीं ?

उत्तर - मानते हैं। पर उस तरह नहीं जिस तरह तुम मानते हो । सर्वशक्तिमान् का यह धर्म नहीं कि परमात्मा वह बातें भी करने लगें जिनकी उनको जरूरत नहीं अथवा जो उनके गुण, कर्म, स्वभाव के प्रतिकूल हैं। बल्कि इसका अर्थ यह है कि परमात्मा को अपना काम करने के लिये किसी अन्य की सहायता की जरूरत नहीं। उनमें सारी शक्तियां हैं और ये शक्तियां पूर्णरूप में हैं। यदि यह कहो कि परमात्मा सब कुछ कर सकता है, तो हम आप से पूछेंगे कि क्या परमात्मा अपने बराबर या अपने से बड़ा दूसरा परमात्मा पैदा कर सकता है, अथवा वह चोरी करता है, शराब पीता है वा अन्य दुराचार करता है ? निश्चय है कि ग्राप ऐसा नहीं मानेंगे। अभिप्राय यह है कि जो बात परमात्मा में हो नहीं सकती उसकी सत्ता कैसे मानी जाय ?

प्रश्न - परमात्मा को पायकारी भी मानते हैं और दयालु भी। यह कैसे ?

उत्तर - इसमें तो कोई असम्भव बात नहीं। इन दोनों बातों से एक ही प्रयोजन सिद्ध होता है। दया का अर्थ यह नहीं कि किसी चोर अथवा डाकू को हाथ पैर जोड़ने पर छोड़ दिया जाय। इससे तो उनके साथ अन्याय होगा जिनके धन का उसने हरण किया है, अथवा जिनको मारा वा लूटा । नाम मात्र की दया अपराधी के लिये भी हानिकारक है, क्योंकि इससे पाप कर्म में इसकी प्रवृत्ति अधिक हो जायगी और फिर इसे अन्त में घोर दण्ड का. भागी बनना पड़ेगा। जब कोई अध्यापक किसी छात्र को गाली निकालने अथवा अपना पाठ याद न करने पर मारता है, तो क्या वह इस पर न्याय के साथ दया नहीं करता ? और माता जब यत्र पूर्ण नेत्रों से अपने बालक की ताड़ना करती है तो क्या न्याय के साथ दया के भाव से उसका हृदय द्रवित नहीं होता ? अतः क्या जगतजननी जब हमें हमारे कर्मों का दण्ड देती है उसमें उसकी दया का मिश्रण नहीं होता ? परमात्मा का इस इच्छा से कि उनके पुत्र सन्मार्ग पर चलकर सुख का उपभोग करें उनके लिए इतनी सुख की सामग्री का उत्पन्न करना क्या उनके दया भाव को नहीं दर्शाता ? बाह्य-दण्ड भी जो न्याय पर निर्भर होता है यही करता है कि अपराधी को सत्य मार्ग से विचलित होकर दुःख के गढ़ में न गिरने दे। इन दोनों का अभिप्राय एक ही है।

प्रश्न- परमेश्वर एक है अथवा अनेक ? योरप के विद्वान् कहते हैं। कि प्राचीन आर्य भिन्न-भिन्न देवताओं को मानते थे। वे एक ईश्वर के उपासक न थे । उत्तर- अब तो वे भी ऐसा नहीं कहते । शास्त्र कहते हैं कि पर मात्मा एक है, अद्वितीय है *, अनुपम है अर्थात् न उन जैसा कोई दूसरा
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*एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।



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