संवत् १९३१ चैत्र सुदि ५,९ शनिवार को आर्यसमाज बम्बई में स्थापित हुआ।
१- सब मनुष्यों के हितार्थ आर्यसमाज का होना आवश्यक है।
२- इस समाज में मुख्य स्वत: प्रमाण, वेदों का ही माना जायेगा। साक्षी के लिए तथा वेदों के ज्ञान के लिए और इसी प्रकार आर्य-इतिहास के लिए शतपथ ब्राह्मणादि ४, वेदांग ६, उपवेद ४, दर्शन ६ और ११२७ शाखा (वेदों के व्याख्यान), वेदों के आर्ष सनातन संस्कृत ग्रन्थों का भी वेदानुकूल होने से गौण (प्रमाण) माना जायेगा।
३- इस समाज में प्रति देश के मध्य (में) एक प्रधान समाज होगा और दूसरी शाखा प्रशाखाएं होंगी।
४- प्रधान समाज के अनुकूल और सब समाजों की व्यवस्था रहेगी।
५ - प्रधान समाज में वेदोक्त अनुकूल संस्कृत, आर्य भाषा में नाना प्रकार के सत्योपदेश के लिए पुस्तक होंगे और एक 'आर्यप्रकाश' पत्र यथानुकूल आठ-आठ दिन में निकलेगा। यह सब समाज में प्रवृत्त किये जायेंगे।
६- प्रत्येक समाज में एक प्रधान पुरुष, और दूसरा मंत्री तथा अन्य पुरुष और स्त्री, यह सब सभासद् होंगे
७- प्रधान पुरुष इस समाज की यथावत् व्यवस्था का पालन करेगा और मंत्री सबके पत्र का उत्तर तथा सबके नाम व्यवस्था लेख करेगा।
८- इस समाज में सत्पुरुष सत्-नीति सत्-आचरणी मनुष्यों के हितकारक समाजस्थ किये जायेंगे।
९- जो गृहस्थ गृहकृत्य से अवकाश प्राप्त होये सो जैसा घर के कामों में पुरुषार्थ करता है उससे अधिक पुरुषार्थ इस समाज की उन्नति के लिए करे और विरक्त तो नित्य इस समाज की उन्नति ही करे; अन्यथा नहीं ।
१० - प्रत्येक आठवें दिन प्रधान मंत्री और सभासद् समाजस्थान में एकत्रित हों और सब कामों से इस काम को मुख्य जानें।
११- एकत्रित होकर सर्वथा स्थिर चित्त हों। परस्पर प्रीति से प्रश्नोत्तर पक्षपात छोड़कर करें। फिर सामवेद आदि गान, परमेश्वर, सत्यधर्म, सत्यनीति के विषय में तथा सत्योपदेश के सम्बन्ध में ही बाजा आदि द्वारा गान हो और इसी विषय पर मन्त्रों का अर्थ और व्याख्यान हो। फिर गान, फिर मंत्रों का अर्थ, फिर व्याख्यान फिर गान आदि ।
१२ - प्रत्येक सभासद् न्यायपूर्वक पुरुषार्थ से जितना धन प्राप्त करे उसमें से आर्यसमाज, आर्यविद्यालय और • आर्यप्रकाश पत्र के प्रचार और उन्नति के लिये आर्यसमाज-धनकोष में (एक) प्रतिशत देवे। अधिक देने से अधिक धर्मफल इस धन का इन विषयों में ही व्यय होय, अन्यत्र नहीं।
१३ - जो मनुष्य इन कार्यों की उन्नति और प्रचार के लिए जितना प्रयत्न करे, उसका यथायोग्य सत्कार उत्साह -जो के लिये होना चाहिए।
१४- इस समाज में वेदोक्त प्रकार से प्रत्येक अद्वितीय परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करने में आयेगी अर्थात् निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, दयालु, सर्वजगत्पिता, सर्वजगत्माता, सर्वधाम, सर्वेश्वर, सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभद् नित्य-शुद्ध-बुद्ध मुक्तस्वभाव, अनन्त, सुखप्रद, धर्मार्थकाममोक्षप्रद इत्यादि विशेषणों से परमात्मा की ही स्तुति, उसपर गुणकीर्तन, प्रार्थना, उससे सर्वश्रेष्ठ कार्यों में सहाय चाहना, उपासना, उसके आनन्द स्वरूप में मग्न हो जाना सो पूर्वोक्न निराकार आदि लक्षण वाले की ही भक्ति करनी, उससे अतिरिक्त किसी और की कभी नहीं करनी।
१५- इस समाज में निषेक आदि अन्त्येष्टि पर्यन्त संस्कार वेदोक्त किये जायेंगे।
१६–आर्य विद्यालय में वेदादि सनातन आर्ष ग्रन्थों का पठन-पाठन कराया जायेगा और वेदोक्त रीति से हो सत्यशिक्षा सब पुरुषों और स्त्रियों को प्राप्त होगी।
१७—इस समाज में स्वदेश के हितार्थ दो प्रकार की शुद्धि के लिए प्रयत्न किया जाएगा, एक परमार्थ और दूसरी लोकव्यवहार । इन दोनों का शोधन और शुद्धता की उन्नति तथा सब संसार के हित की उन्नति की जायेगी।
१८ - इस समाज में न्याय, जो पक्षपातरहित अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों से यथावत् परीक्षित सत्यधर्म वेदोक्त हो माना जायेगा। इससे विपरीत को यथाशक्ति न माना जायेगा।
१९- इस समाज की ओर से श्रेष्ठ विद्वान् लोग सर्वत्र सत्योपदेश करने के लिए समयानुकूल भेजे जायेंगे।
२० - स्त्री और पुरुष इन दोनों के विद्याभ्यास के लिए पृथक्-पृथक् आर्य विद्यालय प्रत्येक स्थान में यथाशक्ति बनाए जायेंगे। स्त्रियों के लिए पाठशालाएं, अध्यापन और सेवा प्रबन्ध स्त्री द्वारा ही किया जाएगा और पुरुष पाठशाला का पुरुषों द्वारा इसके विपरीत नहीं ।
२१-इन पाठशालाओं की व्यवस्था प्रधान आर्यसमाज के अनुकूल पालन की जायेगी।
२२ – इस समाज में प्रधानादि सब सभासदों को परस्पर प्रीति के लिए अभिमान, हठ, दुराग्रह और क्रोधादि दुर्गुण सब छोड़ के उपकार, सुहृदयता से सब से सबको निर्वैर होके, स्वात्मवत् सम्प्रीति करनी होगी।
२३ – विचार समय सब व्यवहारों में न्याययुक्त, सर्वहितकारी जो सत्य बात भली प्रकार विचार से ठहरे, उसी को सब सभासदों को प्रकाशित करके वही सत्य बात मानी जाये, उसके विरुद्ध न मानी जाये। इस का नाम पक्षपात छोड़ना है।
२४ – जो मनुष्य इन नियमों के अनुकूल आचरण करने वाला, धर्मात्मा, सद्गुणी हो, उसको उत्तम समाज में सम्मिलित करना, उसके विपरीत को साधारण समाज में रखना और अत्यन्त प्रत्यक्ष दुष्ट को समाज से निकाल ही देना परन्तु पक्षपात से यह काम नहीं करना, प्रत्युत ये दोनों बातें श्रेष्ठ सभासदों के विचार से ही की जायें, और प्रकार से नहीं।
२५- आर्यसमाज, आर्यविद्यालय, आर्यप्रकाश और आर्यसमाजार्थ धनकोष-इन चारों की रक्षा और उन्नति प्रधान आदि सभासद् तन, मन और धन से यथावत् सदा करें।
२६ - जब तक नौकरी करने और कराने वाला आर्यसमाजस्थ मिले तब तक और की नौकरी न करे और न किसी और को नौकर रखे। वे दोनों परस्पर स्वामिसेवक भाव से यथावत् बरतें।
२७-जब विवाह, पुत्रजन्म, महालाभ या मरण या और कोई समय दान और धनव्यय करने का हो तब तब आर्यसमाज के निमित्त धन आदि का दान किया करें। ऐसा धर्म का काम और कोई नहीं है, इस निश्चय को जानकर इसको कभी न भूलें।
२८-इन नियमों से यदि कोई नियम नया लिखा जायेगा या कोई निकाला जायेगा अथवा न्यूनाधिक किया आयेगा सो सब श्रेष्ठ सभासदों की विचाररीति से सब श्रेष्ठ सभासदों को विदित करके ही यथायोग्य करना होगा ।
फिर अधिकारी नियत किये गए। तत्पश्चात् प्रति शनिवार सायंकाल को आर्यसमाज के अधिवेशन होने लगे, परन्तु कुछ मास के पश्चात् शनिवार का दिन सामाजिक पुरुषों के अनुकूल न होने से रविवार का दिन रखा गया, जो अब तक है।
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