आर्य समाज क्या है ? - ধর্ম্মতত্ত্ব

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22 February, 2022

आर्य समाज क्या है ?

 "ओ३म्"


आर्य समाज क्या है ? आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ या अच्छा और समाज का अर्थ हुआ अच्छे व्यक्तियों की सभा । 'आर्य समाज' को महर्षि दयानन्द ने अप्रैल सन् १८७५ ई० अर्थात् चैत्र सुदी प्रतिपदा सम्वत् १९३२ विक्रमी को बम्बई में स्थापित किया था। इसके पश्चात् भारतवर्ष के प्रत्येक नगर और ग्राम में समाज खुल गये । इस समय संसार भर के समाजों की संख्या लगभग ८००० से भी अधिक है। आर्य समाज के नियम

आर्य समाज क्या है ?


आर्य समाज के नियम इस प्रकार हैं

(१) सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है ।

(२) ईश्वर सच्चिदानन्दरवरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है ।

(३) वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है । वेद का पढ़ना, पढ़ाना और सुनना, सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।

(४) सत्य को ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये ।

(५) सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिये । (६) संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना ।

(७) सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य बर्तना चाहिये । 

(८) अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये ।

(९) प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये, किन्नु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझना चाहिये ।

(१०) सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें ।


इन नियमों को देखने से निम्न बातों का पता चलता है कि


(१) ईश्वर एक है।

(२) वेद ईश्वर का ज्ञान है इसलिये आर्यों को वेद पाठ अवश्य करना चाहिये ।

(३) यदि कभी मालूम हो जाये कि जो बात हम मानते या करते हैं वह असत्य हैं तो उनको छोड़ देना चाहिये । कभी भी पक्षपात नहीं करना चाहिये । 

(४) समाज की भलाई के लिये हर एक को कोशिश करनी चाहिये ।

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 जिस व्यक्ति का जीवन में दृढ निश्चय और विश्वास अटल है, वह दुनिया को अपने सांचे में ढाल सकता है।-कर्मयोगी लाजपत राय अग्रवाल

आर्य समाज के सिद्धान्त


ईश्वर विषयक

(१) ईश्वर एक है अनेक नहीं ।

(२) ईश्वर निराकार है । उसको आँख से नहीं देख सकते और न ही उसकी मूर्ति बना सकते हैं ।

(३) ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है । वह सब कुछ जानता है वह छोटी सी चीज के अन्दर और बाहर भी उपस्थित है ।

(४) ईश्वर सर्वशक्तिमान् है । अर्थात् वह अपने किसी काम को करने के लिये आँख, कान, नाक आदि शरीर या अन्य किसी चीज या आदमी की बिना किसी सहायता के करता है। जीव और प्रकृति को अनादि मानने से ईश्वर पराश्रित या मुहताज नहीं होता। जीव और प्रकृति ईश्वर के उपकरण नहीं हैं । उपादान उपकरण नहीं होता । (५) ईश्वर अजन्मा और निर्विकार है । वह मनुष्य के समान जन्म-मरण में नहीं आता । अवतार भी नहीं लेता । राम, कृष्ण ईश्वर के अवतार नहीं थे, वे धर्मात्मा पुरुष थे, इसलिये उनके अच्छे कामों की याद करनी चाहिये और उनका अनुकरण करना चाहिये परन्तु उनकी मूर्तियों को ईश्वर समझ कर नहीं पूजना चाहिये ।


जीव विषयक


(१) जीव चेतन है, जिसकी संख्या अनन्त है ।

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 पहले माँ-बाप बच्चों को बोलना सिखाते हैं लेकिन बाद में ये बच्चे माँ-बाप को चुप रहना सिखाते हैं ।-कर्मयोगी लाजपत राय अग्रवाल

(२) जीव न कभी मरता है न पैदा होता है। अर्थात् कभी ऐसा समय नहीं हुआ जब जीव न रहा हो और न ऐसा समय आयेगा जब जीव नहीं रहेगा ।


(३) जीव में ज्ञान तो है, पर थोड़ा और शक्ति भी थोड़ी है, इसलिये जीव को अल्पज्ञ कहते हैं। (४) जीव शरीर धारण करता है। कभी मनुष्य का कभी कभी कीड़े आदि योनि का ।


पशु का, (५) जीव जैसा कर्म करता है उसके फल के अनुसार वैसा ही शरीर मिलता है। बुरे कर्म के लिये बुरी योनि और अच्छे कर्म के लिये अच्छी योनि मिलती है । इसी को जीव अवतार कहते हैं । अवतार जीव का होता है, ईश्वर का नहीं ।


(६) जीव जब अच्छे कर्म करके सबसे ऊँची अवस्था को पहुँच जाता है तो उसे मोक्ष मिल जाता है अर्थात् शरीर नहीं रहता और स्वतन्त्र विचरता हुआ ईश्वर के आनन्द में मग्न रहता है।


(७) मोक्ष काल (मुक्ति की अवधि) ३१ नील १० खरब और ४०-अरब वर्ष के लिये होता है। इसके पश्चात् जीव मोक्ष से वापिस लौटता है और सर्वप्रथम उत्तम ऋषियों का शरीर धारण करता है। इस शरीर में यदि अच्छे काम करता है तो फिर मुक्त हो जाता है और यदि बुरे कर्म करता है तो नीचे की योनियों का चक्र आरम्भ हो जाता है।


प्रकृति विषयक


(१) प्रकृति छोटे-छोटे परमाणुओं का नाम है


जितने दिन जिन्दा हो उसे परमेश्वर का उपहार समझो और इससे पहले कि लोग मुर्दा कहें, कुछ नेकी कर डालो । -कर्मयोगी लाजपत राय अप्रमाल

(२) यह परमाणु जड़ हैं। इनमें ज्ञान नहीं ।

(३) यह परमाणु अनादि और अनन्त हैं। अर्थात् न कभी उत्पन्न हुए न कभी नष्ट हुए ।

(४) ईश्वर इन्हीं परमाणुओं को जोड़कर सृष्टि बनाता है। आग, पानी और पृथ्वी यह इन्हीं परमाणुओं के संयोग का फल है। सूर्य, चाँद आदि इन्हीं से बने हैं। हमारे शरीर भी इन्हीं परमाणुओं से बने हैं।

(५) जब परमाणु अलग-अलग हो जाते हैं तो उसको ब्रह्मदिन होता है। प्रलय या ब्रह्मरात्रि कहते हैं । जब सृष्टि बनी रहती है तो वेद

(१) वेद चार हैं। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद । 

(२) वेदों का ज्ञान ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को दिया । अर्थात् -

 अग्नि ऋषि को----------------------ऋग्वेद।

  वायु ऋषि को --------------------यजुर्वेद।

 आदित्य ऋषि को-----------------सामवेद।

  अगिरा ऋषि को-----------------अथर्ववेद।


(३) इन ऋषियों ने वेदों का अन्य ऋषियों और मनुष्यों को उपदेश दिया। संसार भर की सब विद्याएँ वेदों से ही निकलती हैं।

(४) वेद स्वतः प्रमाण हैं परन्तु अन्य पुस्तकें परतः

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सद्गुणशील, मुन्सिफमिजाज़ और अबलमंद आदमी तब तक नहीं बोलता, जब तक खामोशी नहीं हो जाती ।-यो लाजपत रावल

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