हिन्दू लोग श्री रामचन्द्र जी और श्रीकृष्ण जी को ईश्वर का अवतार मानते हैं। ईसाई लोग हजरत ईसा को ईश्वर का अवतार कहते हैं । इसी प्रकार अन्य जातियों में भी भिन्न-भिन्न ईश्वर के अवतार माने गये हैं। मुसलमान लोग ईश्वर का अवतार नहीं मानते, परन्तु वह मुहम्मद साहेब को ईश्वर का रसूल मानते हैं कई जातियों में ईश्वर के बेटे प्रसिद्ध थे, जैसे सिकन्दर को भी लोग ईश्वर का बेटा कहते थे ।
हिन्दुओं में कहीं दस और कहीं चौबीस अवतार माने गये हैं। श्री रामचन्द्र जी को बारह कला का अवतार मानते हैं और श्रीकृष्ण को १६ कला का अर्थात् पूर्ण अवतार । शेष अवतारों में भिन्न-भिन्न कलायें मानी गईं हैं।
कुछ आजकल के पढ़े लिखे विद्वान इन अवतारों से विकासवाद सिद्ध करते हैं। उनका कथन है कि कच्छ, मच्छ, वाराह, नरसिंह आदि अवतार विकासवाद की भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं । अर्थात् ईश्वर के अवतारों में उसी प्रकार का विकास पाया जाता है जैसे डार्विन महोदय ने सृष्टि निर्माण का बताया है ।
जो दलीलें अवतार की सिद्धि में दी जाती हैं उनसे प्रकट होता है कि ईश्वर-अवतार के सम्बन्ध में लोगों के विचार निश्चित नहीं है। उनका एकमात्र प्रयोजन यह है कि किसी न किसी प्रकार अवतार के सिद्धान्त को सिद्ध कर दिया जाये चाहे वह ठीक हो या न हो ।
'अवतार' शब्द 'अव' अपसर्ग और 'तू' धातु से बना । इसका अर्थ है 'उतरना' या नीचे आना । ईश्वर अवतार का है अर्थ यह लिया जाता है कि निराकार ईश्वर, शरीर में उतरता है अर्थात् शरीर धारण करता है ।
इसके सम्बन्ध में सात प्रश्न हैं -
(१) ईश्वर कैसा है ?
(२) क्या ईश्वर के गुण बदलते हैं ?
(३) इन गुणों का ध्यान रखते हुए अवतार की क्या आवश्यकता है ?
(४) क्या अवतार होना सम्भव है ?
(५) राम, कृष्ण जो ईश्वर के अवतार माने जाते हैं उनमें कौन-सी ऐसी विशेष बात पाई गई जिसके कारण उनको मनुष्य न मानकर ईश्वर ही माना जाये ।
(६) ईश्वर के अवतार मानने का मनुष्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
(७) क्या वेदों में राम, कृष्ण आदि अवतारों का वर्णन है ? अब हम क्रमशः इन सभी प्रश्नों पर विचार करेंगे, देखिये
१- ईश्वर कैसा है ?
यह तो सभी जानते हैं कि ईश्वर ने सारे संसार को बनाया है। सूर्य, चाँद के समान बड़े-बड़े पदार्थों से लेकर छोटी से छोटी चीज भी ईश्वर बनाता है, स्थिर रखता है और बिगाड़ता है ।
देखिये वेदान्त दर्शन में व्यास जी कहते हैं -
"जन्माद्यस्ययतः........"-(वेदान्त दर्शन १-१-२)
अर्थात् ईश्वर वह है जो सृष्टी को बनाता है, स्थिर रखता है और बिगाड़ता है । इससे मालूम होता है कि ईश्वर सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थात् निराकार है। यदि सूक्ष्म न होता तो सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज को कैसे बनाता ? मोटी चीज पतली चीज को नहीं बना सकती। सोने-चाँदी के बारीक गहनों को कुल्हाड़ी से नहीं बनाया जा सकता। जितना बारीक जेवर होगा उसके बनाने हेतु उससे भी बारीक उसके औजार चाहिये। स्थूल वस्तु में सूक्ष्म वस्तु का प्रवेश हो सकता है, परन्तु सूक्ष्म चीज में स्थूल का नहीं ।
ईश्वर की कारीगरी को देखो कैसी सूक्ष्म है ? चींटी से भी है कई गुने छोटे जीव हैं। उनके शरीर में सैंकड़ों अंग हैं। इनको हम दूरबीन से भी नहीं देख सकते। इन चीजों को बनाने वाला और इनको स्थिर रखने वाला बहुत सूक्ष्म अर्थात् निराकार और सर्व-व्यापक होना चाहिये। ईश्वर छोटे से छोटे परमाणु के भीतर भी विराजमान है। फूलों के रंगों को तुमने देखा होगा ।
तितली के पंख कितने रंग-बिरंगे होते हैं ? मोर पंख कैसे सुन्दर होते हैं ? कितना बारीक काम है ? रंगरेज अपनी बारीक कूँची अथवा ब्रुश से भी ऐसा नहीं रंग सकता । केवल निराकार और सर्वव्यापक ईश्वर ही इस प्रकार रंग सकता है । ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है। यदि उसमें शक्ति न हो तो किस प्रकार वह जगत् का निर्माण करता ?
२-क्या ईश्वर बदल सकता है ?
यहाँ कुछ ईश्वर के गुणों का वर्णन किया गया है। क्या इन गुणों में परिवर्तन हो सकता है ? क्या निराकार से साकार हो सकता है ? क्या सर्वव्यापक से एकदेशीय हो सकता है ? संसार की सभी चीजें बदलती रहती हैं और इनके बदलने का मुख्य कारण ईश्वर ही होता है। कहीं-कहीं ईश्वर के नियमों के अनुकूल मनुष्य भी चीजों को बदलता है। जैसे लकड़ी से मेज बनाता है, परन्तु ईश्वर बदलने वाली चीज नहीं है। यदि ईश्वर भी बदला करे तो ईश्वर में निर्बलता आ जाये। बदलने वाली सभी चीजें निर्बल होती हैं। अगर ईश्वर के गुण बदला करें तो वह ईश्वर न रहे और संसार का कार्य कैसे चले ? यदि ईश्वर निराकार से साकार हो जाये तो उसमें स्थूलता आ जाये । स्थूलता आते ही उसकी सर्वव्यापकता नष्ट हो जाये क्योंकि यह सूक्ष्म वस्तुओं में व्यापक न रह सके । व्यापक न रहने से ज्ञान भी नष्ट हो जाये । इसलिये ईश्वर कभी नहीं बदलता ।
भला मैं पूछता हूँ कि ईश्वर के स्वयं बदलने का कारण ईश्वर स्वयं है या अन्य कोई ? यदि ईश्वर स्वयं अपने बदलने का कारण है तो उसमें दोष, त्रुटि या अपूर्णता होगी। पूर्ण चीज कभी न बदलेगी । पूर्ण है वह तो पूर्ण ही है। उसमें तबदीली ही क्या हो सकती है ? क्या वह पूर्ण से अपूर्ण होगी ? कदापि नहीं । इसलिये सिद्ध है कि स्वयं ईश्वर में कोई ऐसी त्रुटि नहीं जिससे वह बदल सके। फिर क्या ईश्वर के बदलने का कारण ईश्वर से बाहर किसी और चीज में है ? नहीं ! क्योंकि एक चीज को वही चीज बदल सकती है जो उससे अधिक बलवान हो । ईश्वर से बलवान कोई नहीं । इसलिये उसको कोई चीज नहीं बदल सकती ।
कुछ लोग समझते हैं कि ईश्वर शक्तिमान है इसलिये वह अपने को बदल सकता है, परन्तु वे यह नहीं सोचते कि बदलती वह चीज है जो सर्वशक्तिमान न हो। बदलना शक्तिमत्ता का चिन्ह नहीं है बल्कि निर्बलता का चिन्ह है। सबल वस्तुएं निर्बल वस्तुओं को बदला करती हैं। ईश्वर दूसरी चीजों को बदलता है। वह स्वयं एक रस, अखण्ड, निर्विकार और पूर्ण है। जो चीज बदलती है वह या तो अपने से अच्छी हो जाती या बुरी । ईश्वर इतना अच्छा है कि उससे अच्छी कोई और चीज हो ही नहीं सकती और बुरा वह नहीं हो सकता, जो उन्नति की सबसे उच्च श्रेणी पर है । वह और क्या उन्नति करेगा ! खाली बर्तन भर सकता है । भरा बर्तन और क्या भरेगा ?
३-ईश्वर बिना रूप बदले अवतार नहीं ले सकता
हम ऊपर पढ़ चुके हैं कि ईश्वर रूप नहीं बदलता। इसलिये अवतार भी नहीं ले सकता। ईश्वर के तीनों काम अर्थात् बनाना, स्थिर रखना और बिगाड़ना, उसके बिना रूप बदले हुए ही चल सकते हैं और चल रहे हैं। इसलिये ईश्वर को जन्म लेने की जरूरत नहीं । कुछ लोग कहते हैं कि दुष्टों को मारने और श्रेष्ठों को सुख देने के लिये ईश्वर अवतार लेता है। उनसे पूछो कि क्या वह इतना शक्तिवान नहीं कि जो बिना जन्म लिये दुष्टों को मार सके और श्रेष्ठों को सुख दे सके ।
कंस और रावण को मारना क्या सूर्य, चाँद आदि के बनाने से भी कठिन था ? कंस और रावण को बनाया किसने था ? क्या ईश्वर ने उनको नहीं बनाया था ? जब उनको बनाने के लिये अवतार की जरूरत नहीं पड़ी तो मारने के लिये क्यों पड़ेगी ? जबकि मारना बनाने से सुगम है। तुम घड़ी को बना नहीं सकते पर तोड़ सकते हो। फिर यह तो कहो कि आजकल ईश्वर दुष्टों को मारता नहीं ? यदि ऐसा होता तो आज सब दुष्ट अमर हो जाते ।
कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर भक्तों के हाथ में है। भक्त जिस रूप में उसके दर्शन करना चाहते हैं ईश्वर उसी रूप में उनको दर्शन दे देता है। यह बड़ी भारी भूल है। ईश्वर के नियम के अनुकूल चलना ही सच्ची भक्ति है, ईश्वर को नाच नचाने की इच्छा भक्ति नहीं । सेवक वह है जो मालिक के अनुकूल चले, न कि वह जो मालिक को अपने अनुकूल चलाना चाहे । इसलिये ईश्वर को अवतार लेने की अथवा रूप बदलने की कभी जरूरत नहीं पड़ती ।
४-क्या ईश्वर अवतार नहीं ले सकता ?
यह कहना कि ईश्वर अवतार ले सकता है, उसका अपमान करना है । ईश्वर कौशल्या या देवकी के गर्भ से पहले मौजूद था, क्योंकि वह सर्वव्यापक है और हमेशा ही व्यापक रहा। फिर यह कहना कि वह गर्भ में आया, गर्भ से बाहर आया आदि सब भ्रममूलक अथवा भ्रम में डालने की बातें हैं ।
कुछ लोग समझते हैं कि कोई ऐसा काम नहीं जो ईश्वर न कर सके। वह सर्वशक्तिमान है। परन्तु, वह यह नहीं जानते बहुत सी बातों का कर सकना निर्बलता है, सबलता नहीं । मैं कहता हूँ कि “ईश्वर निर्बल नहीं हो सकता । ईश्वर अन्याय नहीं कर सकता । ईश्वर दूसरा ईश्वर अपने समान नहीं बना सकता"। ऐसा कहने से कौन इन्कार कर सकता है ? और इसमें पाप ही क्या है ? सर्वशक्तिमान का अर्थ यह है कि जितने प्रकार की शक्तियाँ हैं वह सब ईश्वर में हैं। सर्वशक्तिमान का अर्थ सर्वकार्यमान नहीं है । जब ईश्वर राम और कृष्ण का शरीर धारण किये हुए थे तो उन शरीरों से बाहर अन्य स्थानों पर कौन बनाता -बिगाड़ता होगा ?
५-क्या राम और कृष्ण ईश्वर के अवतार थे ?
राम, कृष्ण आदि महापुरुष अवश्य थे। उनमें असाधारण चातुर्य व अद्भुत शक्ति थी । परन्तु उनमें कोई ऐसी बात नहीं मिलती जो उनको ईश्वर सिद्ध कर सके। योग दर्शन में कहा है। क्लेश कर्म विपाकाशयैरपराभ्रष्टः पुरुष विशेष ईश्वरःअर्थात् ईश्वर में क्लेश और कर्मों का फल भोगना न पाया जाये। राम और कृष्ण के जीवन में उत्तम मनुष्यों की बातें तो पाई जाती हैं जैसे धर्मभाव, वीरता आदि। परन्तु, उन्होंने एक चींटी को भी कभी नहीं बनाया । न कोई दूसरी सृष्टी रची । अन्य पुरुषों की भाँति वह भी भोजन करते थे, पानी पीते थे, सोते थे, पढ़ते थे, विवाह किया, युद्ध में शस्त्र चलाते थे ।
यह सब चिन्ह मनुष्यों के हैं ईश्वर के नहीं। उन्होंने सीता के हरे जाने पर विलाप किया। उनमें कौन-सी बात ईश्वर होने की है ? कुछ लोग कहते हैं कि वह थे तो ईश्वर, परन्तु मनुष्य लीला करते थे। यह भी भूल है। क्या ईश्वर मनुष्य लीला करने के लिये अवतार लेता है ? मनुष्य लीला करने के लिये तो मनुष्य मौजूद ही हैं। संसार के सभी मनुष्य लीला किया करते हैं और जब तुम्हीं अपने मुँह से कहते हो कि वह मनुष्य लीला करते थे तो तुम मानते हो कि उनमें मनुष्य से बढ़कर ईश्वर के कोई गुण नहीं पाये जाते थे। फिर वह ईश्वर कैसे हुए ?
कुछ लोग रामचन्द्र जी के चाँद खिलौना मांगने, ठुमक ठुमक कर चलने, धनुष बाण लेने, श्रीकृष्ण के माखन चुराने, मुरली बजाने आदि पर खुश होकर झूठी भक्ति दिखाते हैं और समझते हैं कि यह ईश्वर की उपासना और ईश्वर का भजन है ।
ईसाई लोग भी ईसा के विषय में ऐसी ही बातें मानते हैं जैसे सूली पर चढ़ना आदि । परन्तु इन भोले भाइयों को सोचना चाहिये कि यह सब साधारण मनुष्यों के कर्म हैं। इनमें ईश्वरपन की कौन-सी ऐसी विचित्र बात है ? सभी बालक ठुमक ठुमक कर चलते हैं । कुछ चपल बालक माखन चुराते हैं। सूली मनुष्यों को ही लगती है ईश्वर को नहीं। इसलिये इनका ईश्वर होना किसी भी दृष्टि से सिद्ध नहीं होता ।
६- अवतार मानने से मानव जीवन पर प्रभाव
राम कृष्ण आदि को ईश्वर मानने से हिन्दू जाति के आचार, व्यवहार पर बुरा प्रभाव पड़ा है। प्रथम तो वह ईश्वर की उपासना न करके मूर्ति पूजक हो गये हैं। केवल राम-राम, सीता-राम, राधाकृष्ण जपने को ही ईश्वर पूजा समझते हैं। दूसरे वह राम और कृष्ण के जीवन का अनुकरण नहीं करते। वह समझते हैं कि राम कृष्ण तो ईश्वर थे, उनके जैसे आचरण हम साधारण मनुष्य नहीं कर सकते। यही कारण है कि हिन्दू जाति पतन की ओर गिरती जाती है। हिन्दुओं में इतनी निर्बलता आ गई है कि वह अपने दुःखों को दूर करने का उपाय न करके ईश्वर-अवतार का इन्तजार करते हैं। वह यह समझते हैं कि जब ईश्वर अवतार लेगा। तो हमारे कष्टों को दूर करेगा। उनको यह विश्वास नहीं हो रहा कि अब भी यदि वह परिश्रम करें तो ईश्वर उनकी सहायता कर सकता है। कोई मैत्रेयी अवतार की ओर आँख लगाये हैं। कोई निष्कलंक बाट जोह रहा है। यदि उनको विश्वास हो जाये कि राम और कृष्ण ने मनुष्य होते हुए ऐसे उत्तम काम किये तो वह स्वयं भी उन्नति करने के लिये तत्पर हो जायें।
७-क्या वेदों में राम और कृष्ण का वर्णन है ?
अब प्रश्न यह है कि क्या वेदों में राम और कृष्ण के अवतारों का वर्णन है ? इसमें संदेह नहीं कि राम और कृष्ण आदि शब्द वेदों में बहुत स्थानों पर आये हैं। परन्तु वेदों में राम और कृष्ण के अवतारों का कहीं वर्णन नहीं होता । होता भी कैसे ? राम त्रेता में और कृष्ण द्वापर के अन्त में हुए। वेद सृष्टि के आदि से चले आते हैं जिसको सैंकड़ों चतुर्युगी बीत चुकी हैं। राम और कृष्ण के दादे और परदादे भी वेदों को पढ़ते और मानते थे ।
वेदों में कहीं दशरथ के पुत्र रामचन्द्र या वसुदेव के पुत्र कृष्णचन्द्र के जीवन का वर्णन नहीं । जो केवल शब्द देखकर ले उड़ते हैं कि देखो वेदों से अवतारवाद सिद्ध है वह अपने को और दूसरों को धोखा देते हैं । उनको जानना चाहिये कि दशरथ और वसुदेव ने अपने पुत्रों के नये नाम नहीं गढ़े। किन्तु जो प्रचलित शब्द थे उन्हीं को ले लिया जैसे आजकल के पिता-माता किया करते हैं। मोहन नाम बहुत पुराना है और इसका अर्थ 'लुभाने वाला' या 'मोहने वाला' होता है। अब यदि किसी का नाम मोहन हो और वह किसी प्राचीन कोष या पुस्तक में मोहन नाम देखकर कहने लगे कि अमुक पुस्तक में मेरा वर्णन है तो यह उसकी मूर्खता ही होगी। इसी प्रकार राम और कृष्ण आदि नामों का हाल है। संसार में जिस आदमी का नाम संस्कृत भाषा के शब्दों में है उसका नाम अवश्य ही किसी न किसी रूप में वेदों में मिलेगा। परन्तु ऐसा कहने से वेदों में उस आदमी का वर्णन नहीं हो सकता ।
वेद के किसी मन्त्र से ऐसा नहीं पाया जाता कि अयोध्या के राजा दशरथ के घर ईश्वर ने अवतार* लिया और उसका नाम राम हुआ। उन्होंने जनक की लड़की सीता से विवाह किया और रावण को मारा। सायणाचार्य आदि पुराने या मध्यकालीन भाष्यकारों ने भी इस बात को स्वीकार नहीं किया। हाँ आजकल के कुछ पण्डित अवतारों को सिद्ध करने के लिये कुछ मन्त्रों की खींचातानी कर रहे हैं। परन्तु उनको सफलता नहीं मिली। हो भी कैसे ? हम यहाँ एक मन्त्र देते हैं जिसमें राम नाम आया है
भ॒द्रो भ॒द्रया॒ सच॑मान॒ आगा॒त्स्वसा॑रं जा॒रो अ॒भ्ये॑ति प॒श्चात् ।
सु॒प्र॒के॒तैर्द्युभि॑र॒ग्निर्वि॒तिष्ठ॒न्रुश॑द्भि॒र्वर्णै॑र॒भि रा॒मम॑स्थात् ॥-ऋग्वेद १०.३.३
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*इस विषय पर अनेकों शास्त्रार्थ हो चुके हैं, जिनका प्रकाशन हमारे . द्वारा 'निर्णय के तट पर' नामक ग्रन्थ में किया गया है, जिनके अध्ययन से आपकी इस विषय पर सभी शंकाओं का समाधान निश्चित रूप से हो जायेगा। आप अवश्य मंगा कर पढ़ें ।
'कर्मयोगी लाजपत राय अग्रवाल
प्रतिष्ठाता - अमर स्वामी प्रकाशन विभाग
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यहाँ 'राम' शब्द आया है। सायणाचार्य इसका अर्थ करते हैं “राम कृष्ण शार्वर तमः" । अर्थात् राम कहते हैं रात के काले अंधेरे को। इससे मालूम होता है कि सायण के समय में भी कोई यह नहीं मानता था कि वेदों में ईश्वर का अवतार है। यह सम्भव है कि राम को पहले लोग राजा के अर्थ में ईश्वर कहते हों क्योंकि ईश्वर का अर्थ राजा भी है और परमात्मा भी ।
ब्रह्ममुनि भावार्थभाषाः -सूर्य प्रकाशरूप शक्ति से सङ्गत है। वह जब आगे-आगे भागनेवाली रात्रि को प्राप्त होता है, तो क्षीण-जीर्ण होनेवाली वह उस-उस स्थान से क्षीण होती चली जाती है। जब उषा-प्रकाश शक्ति के पीछे प्रकाशमान सूर्य ऊपर चढ़ता जाता है, उसके ऊपर चढ़ने से पृथिवी आदि लोकों के पृष्ठ पर सुपात्र होकर दिन होते हैं। प्रकाशमय रंगों से अन्धकार में सूर्य घुस बैठता है। ऐसे ही विद्यासूर्य विद्वान् अपनी ज्ञानज्योति से युक्त-ज्ञान-ज्योतिष्मान् बना हुआ अविद्या भ्रान्ति को हटाता है। ज्ञान प्रकाशों से अज्ञानान्धकारवाले स्थानों में घुसकर उसे भगा देता है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -(भद्रया सचमानः-भद्रः-अग्निः-स्वसारम्) भासा द्रवणशीलया खलूषसा समवेतः सङ्गच्छमानो भासा द्रवणः सूर्यः सुगमतया क्षेपणीयां रात्रिम् “स्वसा सु-असा” [निरु० ११।३२] (आगात्) प्राप्नोति, रात्रेरपरे काले (जारः पश्चात्-अभ्येति) स रात्रेर्जरयिता नाशयिता सूर्यः-उषसमग्रे कृत्वा प्रभाते-आगच्छति (सुप्रकेतैः-द्युभिः-वितिष्ठन्) सुगमतया ज्ञातव्यैः सुप्रसिद्धैर्दिनैः “द्यु-अहर्नाम” [निघं० १।९] विशेषेण तिष्ठन् प्रभुत्वमाप्नुवन् (उशद्भिः-वर्णैः-रामम् अभि-अस्थात्) शुभ्रवर्णैः स्वप्रकाशधर्मैः तमः-तमसि-अन्धकारे अभि-अस्थात्-विराजते-अन्धकारम् आत्मसात्करोति निवर्तयतीत्यर्थः ॥
प्रश्न ईश्वर शब्द अकेला राजा के अर्थ में कभी नहीं आता। केवल समास में आता है । उत्तर यह गलत है। तुमने पढ़ा नहीं हम प्रमाण देते हैं।
अपि त्वामीश्वरं प्राप्य कामवृतं निरंकुशम् ।
न विनश्येत् पुरी लंका त्वया सह मराक्षसा ।।
- यह बाल्मीकीय रामायण का श्लोक है। मारीच रावण से कहता है कि कहीं ऐसा न हो कि तुम निरंकुश और काम वृत राजा को पाकर लंका राक्षसों और तेरे सहित नाश न हो जाये । और देखिये
ईश्वरस्य विशाटनां विलोक्य निखिलापुरीं ।
कुशलो ऽन्वेषणस्य ऽहनायुक्तो दूतं कर्मणि ।-(भट्टीकाव्य सर्ग श्लोक ११५)
अर्थ हनुमान जी कहते हैं कि मैं निशाचरों के स्वामी रावण की समस्त पुरी को देखकर सीता के अन्वेषण के लिये दूत कर्म में नियुक्त हूँ ।
इन दोनों श्लोकों में समास न होता हुआ भी ईश्वर शब्द केवल राजा के लिये आया है। सम्भव है पहले राम को भी कहीं-कहीं ईश्वर शब्द से सम्बोधित किया हो फिर भूल से लोग राम को परमात्मा समझने लगे हों ।
वस्तुतः राम और कृष्ण दोनों ईश्वर के भक्त थे। उनके संध्या करने का वर्णन भी मौजूद है। देखिये गोस्वामी तुलसीदास जी की रामायण के अयोध्या काण्ड में भी कई स्थानों पर वर्णन है ● जब राम और लक्ष्मण ने सन्ध्या की ।
● सन्ध्या करन चले दोउ भाई ।
तथा रघुवर सन्ध्या करन सिधाये ॥
यदि रामचन्द्र जी ईश्वर के अवतार होते तो उनको सन्ध्या करने की आवश्यकता ही क्यों होती ? यदि सन्ध्या की तो किसकी की ? क्या कोई अपनी ही सन्ध्या कर सकता है ? यह तो भूल है। यदि राम ने सन्ध्या की तो क्या उनको अवतार होने का ध्यान ही नहीं था, या वे भूल गये थे। यह सब भोलेपन की बातें हैं ।
यदि ईश्वर होते तो अपनी ही सन्ध्या कैसे करते ? पीछे से लोगों ने उनके विषय में बहुत सी झूठी बातें जोड़ ली हैं। उनकी मूर्तियाँ बनवाकर पूजते हैं और उनके चढ़ावे से अपनी आजीविका चलाते हैं। यह लज्जा की बात ईश्वर अवतार नहीं लेते हैं। चींटी, हाथी, कुत्ता, बिल्ली आदि मनुष्य यह सब जीव के अवतार हैं। क्योंकि जीव निर्बल है । इनको अपने काम के लिये शरीर की जरूरत होती है। इसलिये जीव उस समय तक अवतार लिया करता है जब तक उसकी मुक्ति नहीं होती । जीव के कर्म जितने बुरे होते हैं उतना ही नीचा अवतार होता है। क्योंकि अवतार का अर्थ ही उतरना या नीचे गिरना है अभौतिक चेतन जीव जब जड़ शरीर में उतरता है तब इसी को जीव का अवतार कहते हैं। परन्तु जीव का यह अवतार उपासना के योग्य नहीं है। उपासना के योग्य केवल परमात्मा है. जो निराकार, निर्विकार और अजन्मा है उसी की उपासना करनी चाहिये । राम, कृष्ण को ऐतिहासिक महापुरुष समझ कर उनका जीवन चरित्र पढ़ो और उनके आचरणों को अनुसरण करो। परन्तु उनकी मूर्ति बनाकर उनको ईश्वर के स्थान में मत पूजो क्योंकि ईश्वर के स्थान पर अन्य का पूजना पाप है।
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