ओ३म्
पाप और दुःख से बचने का एक ही उपाय है अर्थात् ईश्वर को जानो, उसका स्मरण करो और उसकी आज्ञा का पालन करो । पूजा तो सभी करते हैं परन्तु जब तक हम यह न जानें कि ईश्वर क्या है, और उसको हमारे लिये क्या आज्ञा है, हम उसका कैसे ध्यान करें उस समय तक हमारे परिश्रम का कोई फल नहीं निकल सकता । जिस पुत्र पिता को आज्ञा जानने का यत्न नहीं किया, जिसे यह नहीं मालूम कि मेरा पिता कैसी बातों से प्रसन्न होता है और किस प्रकार के काम उसको भले लगते हैं, वह अपने पिता को कैसे संतुष्ट करेगा। इसलिये प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वेद-शास्त्रों में ईश्वर के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है उस पर विचार करें और सच्चिदानन्द परमेश्वर की भक्ति किया करें। यों तो सभी चाहते हैं कि हमको ईश्वर का दर्शन हो जाय, हम पापों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त कर सकें परन्तु सच और झूठ का ज्ञान प्राप्त करने का यत्न करने वाले बिरले ही हैं।
सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :
'समाधिनिर्धूत मलस्य चेतमो निवेशितस्यात्मनि यत्मुखं भवेत् ।
न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते ॥
यह उपनिषद् का वचन है । जिस पुरुष के समाधियोग से विद्यादि मल नष्ट हो गए हैं। आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त जिसने लगाया उसको जो परमात्मा के योगा सुख होता है वाणी से कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अंतःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है । अष्टांग योग से परमात्मा के समोपस्थ होने और उसको सर्वव्यापी सर्वान्तर्यामी रूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो जो काम करना होता है वह सब करना चाहिये
तत्नाहिसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥-[ योगशा० साधनपादे | सू० ३० । ]
इत्यादि सूत्र पातञ्जन योग शास्त्र के हैं । जो उपासना आरम्भ करना चाहे उसके लिए यही आरम्भ है कि वह किसी से बैर न रक्खे, सर्वदा सबसे प्रीति करे, सत्य बोले, मिथ्या कभी न बोले, चोरी न करे, सत्य व्यवहार करे, जितेन्द्रिय हो लंपट न हो और निरभिमानी हो, अभिमान कभी न करे । ये पाँच प्रकार के नियम मिल के उपासना योग का प्रथ्म अंग है ।
शौच सन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥-[ योगशा० साधनपादे सू० ३२ ॥ ]
राग द्वेष छोड़ भीतर और जलादि से बाहर पवित्र रहे, धर्म से पुरुषार्थ करने से लाभ में न प्रसन्नता और न हानि में अप्रसन्नता करे। प्रसन्न होकर आलस्य छोड़ सदा पुरुषार्थ किया करे, सदा सुख दुःखों का सहन और धर्म हो का अनुष्ठान करे। अधर्म का नहीं, सर्वदा सत्य शास्त्रों को पढ़े पढ़ावे, सत्पुरुषों का संग करें और "ओ३म्" इस एक परमात्मा के नाम का अर्थ विचार कर नित्यप्रति जप करे, अपने आत्मा को परमेश्वर के कर देवे। इन पाँच प्रकार के नियमों को मिला के उपासनायोग अनुकूल समर्पित का दूसरा अंग कहाता है। इसके आगे छः अंग योगशास्त्र व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में देख लेवे । जब उपासना करना चाहे तब एकान्तं शुद्ध देश में जा कर आसन लगा प्राणायाम कर वाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक मन को नाभि, प्रदेश में व हृदय कण्ठ, नेत्र, शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विज्ञान करके परमात्मा में मग्न हो जाने से संयमी होवे । जब इन साधनों को करता है तब उसका आत्मा और अन्तःकरण पवित्र
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