ऋग्वेद 10/86/16 व 17 - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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12 August, 2022

ऋग्वेद 10/86/16 व 17

 1.  न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या३कपृत्।

सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥

2.  न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते।

सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या३कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥

(ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 86 मंत्र संख्या 16 व 17)

मेरी (आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी की) भूमिका व इन मंत्रों की पृष्ठभूमि

मेरी (आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी की) दृष्टि मे वेद उन छन्दों का समूह है जो सृष्टि प्रक्रिया में कम्पन के रूप में समय-2 पर उत्पन्न होते हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द विभिन्न प्रकार के प्राण होते हैं, जिनकी उत्पत्ति के कारण ही व जिनके विकृत होने से अग्नि, वायु आदि सभी तत्वों का निर्माण होता है। सूर्य, तारे, पृथिव्यादि सभी लोक इन छन्द प्राणों के ही विकार हैं। सृष्टि प्रक्रिया में उत्पन्न विभिन्न छन्द Vibrations के रूप में इस समय भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। इन्हीं प्राणों को अग्नि आदि चार ऋषियों ने सृष्टि की आदि में सविचार समाज्ञात समाधि की अवस्था में ईश्वरीय कृपा से ग्रहण किया था और फिर ईश्वरीय कृपा से ही उनके अर्थ का भी साक्षात् किया था। यही वेदोत्पत्ति की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वेद मंत्रों के ऊपर उल्लेखित विभिन्न ऋषि जहाँ उपकार स्मरणार्थ उन मानव ऋषियो के नाम है, जिन्होंने अग्नि आदि ऋषियो के पश्चात् सर्वप्रथम उस -2 मंत्र का अर्थ साक्षात् करके संसार में प्रचार प्रसार किया था, वहीं वे ऋषि सृष्टि में सूक्ष्म प्राण के रूप में उस समय जन्मे थे , जब उस छन्द रूपी प्राण (मंत्र) की उत्पत्ति सर्गप्रक्रिया में हुई थी। आज भी वे ऋषि रूपी सूक्ष्म प्राण इस प्रहा में व्याप्त हैं, जबकि ऐतिहासिक मानव ऋषि अब नहीं रहे। वेद का अर्थ करने में ऐतिहासिक मानव ऋषि के ज्ञान की आवश्यकता नही परन्तु देवता का ज्ञान होना अनिवार्य है। हाँ, उस वेदमंत्र का सृष्टि प्रक्रिया पर क्या प्रभाव होता है, यह जानने हेतु देवता के साथ ऋषि व छन्द का ज्ञान भी अनिवार्य होता है। इस दृष्टि के अनुसार इन दो मंत्रो की पृष्ठभूमि लिखते हैं-

इन ऋक् अर्थात् प्राणों की उत्पत्ति वृषाकपिइन्द्र व उसकी शक्ति से हुआ करती है। इसका तात्पर्य है कि विद्युद्वायु युक्त तीव्र बलवान सूर्य लोक के भीतरी भाग में स्थित इन प्राथमिक ऋषि प्राणों से इन दो मंत्र रूपी प्राणों (छन्दों) की उत्पत्ति होती है। इनके उद्गम ऋषि प्राण बहुत बलवान होने से इन प्राण छन्दों में भी बहुत बल होता है अर्थात् बलों को उत्पन्न करने वाले होते हैं। इनका देवता इन्द्र है। इसका तात्पर्य है कि इन ऋक प्राणों (मत्रों) के द्वारा सूर्य के मध्य विभिन्न विद्युद बलों की उत्पत्ति होती है तथा इन मंत्रों में सूर्य का ही वर्णन है। इनका छन्द निचृत् पंक्ति छन्द है। इनके छान्दस प्रभाव से सूर्य के बहिर्भाग से विभिन्न परमाणुओं को सूर्य के केन्द्रीय भाग में ले जाया जाता है और ऐसा करते हुए बाहरी व आन्तरिक भाग मे भारी क्षोभ उत्पन्न होता है। परस्पर संघर्षण, टकराव समृद्ध होते हुए एक दूसरे को अपने बन्धन बलों द्वारा बांधने का कार्य होता है।

ऋग्वेद 10/86/16


अत्र प्रमाणानि :-

1. आधिदैविक पक्ष में-

इन्द्रः = कालविभागकर्तासूर्यलोकः (भाष्य ऋग्वेद १.१५.१), विद्युदाख्योभौतिकाऽग्निः (भाष्य ऋग्वेद १.१६.३), महाबलवान वायुः (महर्षि कृत भाष्य ऋग्वेद १.७ .१), इन्द्राणी = इन्द्रस्य सूर्यस्य वायोर्वा शक्तिः (भाष्य ऋग्वेद १.२२.१२)। वृषा वीर्यकारी (भाष्य ऋग्वेद ३.२.११), वेगवान (भाष्य ऋग्वेद २.१६.६), परशक्तिबन्धक (भाष्य ऋग्वेद २.१६.४), वृषाकपिः = वृषा चाऽसौकपिः। कपिः = कम्पतेऽसौ (उणादि कोषः), आदित्यः (गोपथ ब्राह्मण)। कपृत् = क + पृत्, 'पदादिषु मास्पृत्स्नूनामुपसंख्यानम्' (वा. अष्टाध्यायी ६.१.६३) से पृतना को पृत आदेश। पृतना = सेना (आप्टे शब्दकोष) संग्रामः (महर्षि दयानन्द), कः = प्राणः (प्राणो वाव कः - जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण)। सक्थि = सजतीति (उणादि कोषः), षजसंगे आलिंगन करना, सटे रहना, सक्थिक्या क्रौञ्चौ (अजायेताम्) (जै. २.२६७), क्रौञ्चः = रज्जुः (ता.बा.) , रज्जुः = रश्मिः, अत्र प्रमाणानि - रश्मयः = रज्जवः किरणा वा (भाष्य यजुर्वेद २६.४२), रश्मेव = (रश्मा + इव) = किरणवद रज्जुवद् वा (भाष्य ऋग्वेद ६.६७.१), प्राणाः रश्मयः ( तै.सं. )। रोमशः = लोमशः (रेफस्य लत्वम्), लोमाः = छन्दांसि (शतपथ ब्रा.), पशवः (तां. ब्रा.), प्राणा = छन्दांसि (मै. ३.१.६)। रम्बते लम्बते (रेफस्य लत्वम् ) क्वचित् रम्बते भी रहेगा। निषेदुः = निषण्णाः (निरुक्त १३.१०), नितरां दृढस्थित, विश्रान्त, नतमुख, रिवन्न, कष्टग्रस्त। ऋषयः = ज्ञापका प्राणाः (भाष्य यजुर्वेद १५.११), प्रापका वायवः (भाष्य यजुर्वेद १५.१०), बलवन्त प्राणाः (भाष्य यजुर्वेद १५.१३), प्राणा वा ऋषयः (ऐतरेय ब्रा. शतपथ ब्रा.), धनजयादयः सूक्ष्मस्थूल वायवः प्राणाः (भाष्य यजुर्वेद १५.१४)।


2 आध्यात्मिक एवं आधिभौतिक पक्ष में-

इन्द्रः = राजा (भाष्य ऋग्वेद ६.२९.६) , विद्वन्मनुष्यः (भाष्य यजुर्वेद २६.४), जीवः (भाष्य ऋग्वेद ३.३२.१०)। कपृत् = कम् सुखनाम (निघटु) , अन्ननाम ( निघंटु ), उदकनाम (निघंटु), सुखस्वरूप परमेश्वरः (भाष्य यजुर्वेद ५.१८)। पृत् = संग्रामनाम (निघंटु), सेना = सिन्वन्ति बध्नन्ति शत्रून याभिस्ता (भाष्य यजुर्वेद १७.३३), बलम् = (भाष्य ऋग्वेद २.३३.११), सेश्वरा समानगतिर्वा (निरुक्त २.११)। क्रौञ्चम् = वाक् (तां.) , रश्मिः = ज्योतिः, यमनात् (निरुक्त २.१५), अन्नम् (शत.), विश्वेदेवाः (शत.), देवः = धनं कामयमानः (भाष्य ऋग्वेद ७.१.२५)। लोम = अनुकूलवचनम् (भाष्य यजुर्वेद २३.३६), रोमा रोमाणि औषध्यादीनि (भाष्य ऋग्वेद १.६५ .४)


आधिदैविक भाष्य :-

1. जब सूर्य के अन्दर (कपृत) विभिन्न प्रकार के प्राणों की सेना अर्थात् धारा stream एवं उनका संघर्षण interaction उस सूर्य की (अन्तरा सक्थ्या) सूर्य के केन्द्रीय व बहिर्भाग को जोड़ने वाले उत्तरी व दक्षिणी दृढ़ भागों जिनसे विभिन्न प्रकार के विकिरणों व प्राणों vibrations की धाराये streams उत्पन्न होती रहती हैं, के बीच (रम्बते = लम्बते) पिछड़ कर ठहर सी जाती है अथवा फैलकर मन्द पड़ जाती हैं। उस समय (न स ईशे) वह इन्द्रतत्व अर्थात् सूर्य में स्थित बलवान् वैद्युत वायु समस्त सूर्य किंवा दोनों भागों के बीच की गति व संगति में तालमेल - सामंजस्य रखने में असमर्थ हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य के दोनों भागों अर्थात् नाभिकीय संलयन युक्त केन्द्रीय भाग जिसमें सतत अपार ऊर्जा उत्पन्न होती रहती है, जिसे सूर्य की भट्टी कह सकते हैं एवं बहिर्भाग की जो पृथक-2 घूर्णन गति होती है और दोनों के मध्य जो एक ऐसा संधि क्षेत्र होता है , जिसके सिरे उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की ओर होते हैं , के बीच सन्तुलन खोने लगता है। इस कारण समस्त सूर्य पर संकट आ सकता है। अब इसी मंत्र में आगे कहते हैं कि ऐसी अनिष्ट स्थिति कब नहीं बनती और कब यह सूर्य सन्तुलित व अनुकूलन की स्थिति में होता है? (यस्य निषेदुषः) जिस निरंतर दृढ तेजस्वी उपर्युक्त इन्द्र के प्राणों की सेना अर्थात् vibrations की streams (रोमशम् = लोमशम्) विभिन्न छन्द रूपी प्राणों तथा मरुत् अर्थात् सूक्ष्म पवनों से अच्छी प्रकार सम्पन्न होकर (विजृम्भते) विशेष रूपेण जागकर अर्थात् सक्रिय होकर अपने बल व तेज से सम्पन्न होती है, (स इत् ईशे) तब यह इन्द्र अर्थात् विद्युदग्नियुक्त वायु सूर्य के दोनों भागों की गति व स्थिति को नियंत्रण में रखने में समर्थ होता है। यह प्राण सेना stream उपर्युक्त सक्थि अर्थात् सूर्य के दोनों भागों को मिलाने वाले उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों की ओर स्थित संधि भागस्थ दृढ भागों के बीच ही उत्पन्न व सक्रिय होती है । (विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः) यह इन्द्र तत्व अर्थात् विद्युदग्नियुक्त तेजस्वी बलवान वायु अन्य तेजस्वी पदार्थों की अपेक्षा उत्कृष्ट व बलवत्तम है। यही बलपति है तथा सृष्टि यज्ञ को उत्कृष्टता से तारने वाला है।

भावार्थ - जब सूर्य के केन्द्रीय भाग व बहिर्भाग को जोड़ने वाली दृढ़ स्तम्भ रूपी उत्तरी व दक्षिणी प्राण धाराये मन्द हो जाती हैं, तब सूर्य के दोनों भागों में संतुलन खोकर सूर्य का अस्तित्व संकटग्रस्त हो सकता है और जब वे दोनों धारायें विशेष रूप से सक्रिय व सशक्त होती हैं, तब सूर्य का सन्तुलन उचित प्रकार से बना रहता है।

2. जब सूर्य के अन्दर (कपृत) विद्युदग्नियुक्त वायु के विभिन्न प्राणों की सेना stream उसके (अन्तरा सक्थ्या) सूर्य के केन्द्रीय व बहिर्भाग के मध्य स्थित उनको जोड़ने वाले उत्तरी व दक्षिणी दृढ़ भागों जिनमें विभिन्न प्रकार के प्राणों vibrations की धारायें उत्पन्न होती रहती हैं, के बीच (रम्बते = लम्बते) चिपक कर, उनको अपने नियंत्रण में लेकर ऊपरी भाग को ऊपर ही लटकाने, धारण करने में समर्थ होती है, तब (स इत् ईश) वैद्युत अग्नि युक्त वायु रूपी इन्द्र इन्हें अर्थात् सूर्य के दोनों भागों को सन्तुलित रखने में समर्थ होता है अर्थात् उस समय सूर्य का बहिर्भाग उसके केन्द्रीय भाग जिसमें नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया सतत चलती है, के ऊपर सन्तुलन बनाये रखते हुए सतत फिसलता रहता है परन्तु यदि (रोमशम् = लोमशम्) प्रशस्त बल युक्त छन्द प्राण vibrations व मरुत् अर्थात सूक्ष्म पवन (विजृम्भते) खुलकर फैल जाते हैं, जिससे उनका प्रभाव मंद पड़ जाता है। जैसे किसी पानी की धारा को जब तीव्र दाब से फेंका जाता है तो उसमें भारक क्षमता तेज होती है। वह पत्थर को भी छेद सकती है, किसी प्राणी को मार सकती है परन्तु जब वही धारा बड़े छिद्र में से प्रवाहित कर दी जाये तो वह खुलकर फैल जायेगी और उसका मारक वा छेदक प्रभाव मंद वा बंद पड़ जाता है। उसी मंदता की यहाँ चर्चा है। (न स ईशे) उस समय वह इन्द्र तत्व अर्थात विद्युदग्नियुक्त वायु सूर्य के उन दोनों मार्गों पर सन्तुलन - सामंजस्य खो सकता है, जिससे सूर्य का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है। (विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः) यह इन्द्र तत्व ही अखिल उत्पन्न पदार्थ समूह रूपी संसार में सबसे श्रेष्ठतम व बलवत्तम है तथा यह समस्त अन्न अर्थात् संयोज्य परमाणुओं को उत्कृष्टता से तारते हुए जगद्रचना में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

भावार्थ - जब सूर्य के केन्द्रीय व बहिर्भाग के बीच प्रवाहित उत्तरी व दक्षिणी प्राण धारायें तीव्र बलवती होती हैं, तब दोनों भागों के बीच की गति व अवकाश का सन्तुलन व सामंजस्य बना रहता है परन्तु जब वे धाराये इधर उधर बिखर कर दुर्बल हो जाती हैं तब दोनों भागों के मध्य असतुलन उत्पन्न होकर सूर्य के अस्तित्व पर सकट आ सकता है।


आधिभौतिक भाष्य :-

1. (यस्य) जिस राजा का (कपृत्) सेनाबल अथवा उसका अन्नधन का भण्डार (सक्थ्या) (अन्तरा) सभी विद्वानों वा धन की कामना करने वाले प्रजाजनों के मध्य उभरते रागद्वेष रूप संघर्ष के मध्य (रम्बते) पिछड़ जाता है अथवा उनकी विशेष आसक्ति का कारण बन जाता है। (स न ईशे) वह ऐश्वर्यहीन राजा अपने देशवासियों पर शासन नहीं कर सकता है अर्थात उसके राष्ट्र में अराजकता उत्पन्न हो जाती है परन्तु (निषेदुषः) निरन्तर स्थिरता में आश्रित जिस राजा का सेनाबल अथवा अन्नधन संसाधन (रोमशम्) जब प्रशस्त रूपेण सब प्रजाजनों के लिए अनुकूल वचनयुक्त एवं प्रचुर औषधि, पशु आदि से सम्पन्न होता है तथा (विजृम्भते) सब प्रजाजनों के लिए यथायोग्य रीति से वितरित किया जाता है तथा यह वितरण व्यवस्था सदा सुचारू रूपेण चलती रहती है, (स इत् ईशे) वही राजा अपने राष्ट्र पर सब ऐश्वयों से युक्त होकर शासन कर सकता है। (विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः) वह ऐसे समग्र ऐश्वर्य सम्पन्न राजा का शासन अन्य सभी व्यवस्थाओं से श्रेष्ठ होता है।

भावार्थ - राजा को चाहिए कि वह सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए अनुकूल वचनों से युक्त होकर अपनी प्रजा के मध्य पनप रहे रागद्वेषजन्य असन्तोष एवं संघर्ष को दूर करने का सतत प्रयत्न करे, साथ ही अपने बल व धन का सम्पूर्ण प्रजा के हित में यथायोग्य नियोजन करे।

2. (यस्य) (निषेदुषः) जिस विश्रान्त एवं कष्टग्रस्त राजा का (रोमशम) प्रशस्त अन्न औषधि व पश्वादि संसाधन (विजृम्भते) अव्यवस्थितरूपेण खुला रहता है अर्थात् जिसके राज्य में अपव्ययता व वितरण की अव्यवस्था होती है। (न स ईशे) वह ऐश्वर्यहीन राजा अपने राष्ट्र पर शासन करने में समर्थ नहीं होता है। (स इत् ईशे) वही राजा ऐश्वर्यवान् होकर अपने राष्ट्र पर समुचित रीति से शासन कर सकता है (यस्य कपृत्) जिसका सेनाबल तथा अन्नधन भण्डार (सक्थ्या अन्तरा) सभी विद्वानों व प्रजाजनों के मध्य उत्पन्न रागद्वेषजन्य संघर्ष के मध्य (रम्बते) उस रागद्वेष की भावना को हराकर अर्थात् दूरकर प्रजाजनों को उससे ऊपर उठाता है। फिर वह राजा सभी प्रजाजनों में उस बल व धनादि पालन सामग्री का दृढ़ता से यथायोग्य वितरण करता हुआ अपने पालन कर्म से सभी प्रजाजनो के हृदय में बस जाता है। (विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः) ऐसा ऐश्वर्यवान् राजा अपने प्रजाजनों को अपने अन्नादि पदार्थों के द्वारा सर्व दुःखों से तारने वाला होता है।

भावार्थ - ऐश्वर्य के इच्छुक राजा को चाहिए कि वह अपने राष्ट्र को बाहरी आक्रमणादि कष्टों से सुरक्षित रखते हुए पूर्ण पुरुषार्थ के साथ अपने अन्न - धन आदि पालन सामग्री का अपव्यय वा अव्यवस्थित वितरण कदापि न होने दे बल्कि अपने प्रजाजनो के अन्दर पनप रहे रागद्वेषजन्य असन्तोष एवं संघर्ष को उचित पालनादि क्रियाओ व आवश्यक होने पर उचित दण्ड का आश्रय लेकर दूर करके सबका हित करने की सदैव चेष्टा करता रहे, जिससे वह सबका पितृवत् प्रिय बना रहे।


आध्यात्मिक भाष्य :-

1. (यस्य) जिस विद्वान पुरुष का (कपृत्) मन एवं सुखकारी प्राणों का समूह (सक्थ्या अन्तरा) रागद्वेषादि द्वन्द्वों में आसक्ति एवं कोलाहल के मध्य (रम्बते) चिपकाया रहता है अर्थात उन्हीं में रत रहता है, (न स ईशे) वह अपनी इन्द्रियों पर शासन नहीं कर सकता, बल्कि (यस्य निषेदुषः रोमशम्) दृढ व ब्रह्मवर्चस से तेजस्वी होकर अपने अन्तः करण को प्रणव तथा गायत्यादि छन्दरूप वेद की पवित्र ऋचाओं में प्रशस्त रूप से रमण करते हुए (विजृम्भते) स्वयं को परमपिता सुखस्वरूप परमेश्वर के आनन्द में विस्तृत कर देता है (स इत् ईशे) वही योगी पुरुष अपनी इन्द्रियों पर शासन कर पाता है। (विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः) ऐसा जितेन्द्रिय विद्वान् अन्य प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ होता है।

भावार्थ - विद्वान् पुरुष को चाहिए कि अपने को योगयुक्त करके परमपिता परमात्मा में रमण करने के लिए अपने अन्तःकरण को रागद्वेषादि द्वन्द्वों से हटाकर प्रणव तथा गायत्र्यादि ऋचाओं के विधिपूर्वक जप द्वारा परमेश्वर की उपासना करने हेतु अपनी इन्द्रियों पर जय प्राप्त करे।

2. (यस्य निषेदुषः रोमशम्) जिस निरन्तर विश्रान्त व खिन्न रहते हुए विद्वान् पुरुष का अन्तःकरण विभिन्न गायत्र्यादि ऋचाओं का जप करते समय अर्थात् उपासना का अभ्यास करते समय (विजृम्भते) इधर उधर फैलने लगता है अर्थात् अस्थिर होकर इधर उधर भागता है, (न स ईशे) वह विद्वान अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता है, बल्कि (यस्य कपृत्) जिसका मन तथा सुखकारी प्राण समूह (सक्थ्या अन्तरा) विभिन्न द्वन्द्वों तथा सांसारिक व्यवहार के बीच (रम्बते) स्थिर होकर तपता हुआ एक स्थान पर दृढ़ रहता हुआ निरन्तर परमेश्वर के जप में संलग्न रहता है, (स इत् ईशे) वही विद्वान योगी बनकर अपनी इन्द्रियों पर शासन करके समग्र ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। (विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः) ऐसा योगी स्वयं को सब दुःखों से तारकर अन्य प्राणियों को भी दुःखों से तारने वाला होता है।

भावार्थ - मुमुक्षु विद्वान् पुरुष को चाहिए कि ईश्वरोपासना वा जप करते समय मन को एकाग्र करके निरन्तर परमेश्वर में मग्न रहे तथा ऐसा करते हुए अपने सम्पूर्ण द्वन्द्वों को जीतकर स्वयं मोक्ष को प्राप्त करके दूसरे प्राणियों को भी दुःखों से दूर करने का प्रयत्न करता रहे।

(वेदविज्ञानभाष्यमण्डनम् - आर्यसत्यजिद्भ्रमभञ्जनम् से साभार उद्धृत)

आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

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