ऋग्वेद की ऋक्संख्या - ধর্ম্মতত্ত্ব

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14 August, 2022

ऋग्वेद की ऋक्संख्या

 वैदिक वाङ् मय से परिचित विद्वान् इस बात से परिचित हैं कि पुराकाल में ऋग्वेद की शाखाओं को मिलाकर २१ संहिताएं थीं। उनमें से इस समय एक ही उपलब्ध है। प्राचीन परम्परा के संरक्षक विद्वानों के जागरूक प्रयत्न से अति प्राचीन काल से इस लगभग साढ़े दश हजार मन्त्रों से युक्त संहिता में एक वर्ण भी विकार को प्राप्त नहीं हुआ, ऋचाओं की न्यूनाधिकता तो दूर की बात है । इस प्रकार परम प्रयत्न से संरक्षित ऋक्संहिता में कितनी ऋचाएं हैं। इस विषय में प्राचीन अर्वाचीन अनेक विद्वानों ने लिखा है, परन्तु यह प्रश्न अभी तक रहस्यमय बना हुआ है। किन्हीं भी दो विद्वानों की ऋग्गणना परस्पर नहीं मिलती । जैसा कि शौनकीय अनुवाकानुक्रमणी - १०५८० और एक पाद । छन्दसंख्या परिशिष्ट - १०४०२ । ऋक्सर्वानुक्रमणी-टीकाकार जगन्नाथ - १०५५२ चरणव्यूह-टोकाकार महिदास - बालखिल्यसहित १०५५२, बाल खिल्य-बिना १०४७२, उसके द्वारा उद्धृत श्लोकानुसार १०४१६ । वेङ्कटमाघव १०४०२, तथा द्विपदापक्ष में १०४८० । स्वामी दयानन्द सरस्वती - १०५८६, परन्तु उनके प्रति मण्डल गिनी गई ऋचाओं का योग १०५२१ प्रो० मंकडानल- १०४४२, द्विपदापक्ष में १०५६६, तथा ८६-१९१६ के पत्रानुसार १०५६५ पं० सत्यव्रत सामश्रमी १०५२२ । पं० हरिप्रसाद वेदिक मुनि १०४४०

ऋग्वेद की ऋचाओं का विवरण

मण्डल - 1 (कुल सूक्त संख्या 191 - कुल मन्त्र संख्या 2006 )

मण्डल - 2 (कुल सूक्त संख्या 43 - कुल मन्त्र संख्या 429 )

मण्डल - 3 (कुल सूक्त संख्या 62 - कुल मन्त्र संख्या 617 )

मण्डल - 4 (कुल सूक्त संख्या 58 - कुल मन्त्र संख्या 589 )

मण्डल - 5 (कुल सूक्त संख्या 87 - कुल मन्त्र संख्या 727 )

मण्डल - 6 (कुल सूक्त संख्या 75 - कुल मन्त्र संख्या 765 )

मण्डल - 7 (कुल सूक्त संख्या 104 - कुल मन्त्र संख्या 841 )

मण्डल - 8 (कुल सूक्त संख्या 103 - कुल मन्त्र संख्या 1716 )

मण्डल - 9 (कुल सूक्त संख्या 114 - कुल मन्त्र संख्या 1108 )

मण्डल - 10 (कुल सूक्त संख्या 191 - कुल मन्त्र संख्या 1754 ) ऋचाओं का योग १०५५२

हमारा मत है कि प्राचीन प्राचार्यों की ऋग्गणना प्रायः ठीक है। परन्तु उनके गणना प्रकार में भेद होने से परस्पर विभिन्नता प्रतीत होती है। आधुनिक विद्वानों ने प्राचीन आचार्यों के गणना प्रकार को भले प्रकार न समझ कर अनेक भयंकर भूल की हैं। इस लेख में उनकी भूलों का निदर्शन और ऋग्वेद की शुद्ध ऋक्संख्या दर्शाने का यत्न किया जायेगा। शतपथ ब्राह्मण १०।४।२।२३ मे लिखा है___________

'स ऋचां व्यौहत द्वादश बृहतीसहस्राणि, एतावत्यो ह्य् चो याः प्रजापतुिष्टाः ।'


अर्थात् प्रजापति ने १२००० बारह सहस्र वृहतो छन्द के परिमाण की ऋचाएं उत्पन्न कीं । इतनी ही प्रजापतिसृष्ट ऋचाएं है।


बारह सहस्र बृत छन्द का १२०००४३६-४३२००० प्रक्षर-परिमाण होता है। शतपब के इस प्रकरण को भले प्रकार देखने से विदित होता है कि यह अक्षर-परिमाण केवल ऋग्वेद की ऋचायों का नहीं है, अपितु वेदष्टवान्तर्गत समस्त ऋचाओं का है। क्योंकि शतपथ के इस प्रकरण में त्रयों विद्या का वर्णन करते हुए ऋक्, यजुः और साम का ही परिमाण दर्शाया है, अथव का नहीं। अतः इस प्रकार के झूकू यजु और साम शब्द ग्रन्थ-विशेष के वाचक न होकर मन्त्रप्रकार के बाचक है। आचार्य जैमिति ने त्रयीविद्या के लिए प्रयुक्त होनेवाले ऋक् यजुः और साम शब्द का अर्थ इस प्रकार दर्शाया है


यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था सा ऋक् । गीतिषु सामाख्या शेष यजुः शब्दः ॥-मीमांसा २।१।३५-३७।।

ऋग्वेद की ऋक्संख्या

अर्थात् चारों वेदों में जितने पादबद्ध (पद्यमय) मन्त्र हैं वे 'ऋक्', गानात्मक 'साम', और गद्य मन्त्र 'यजुः' कहाते हैं।

किन्हीं किन्हीं विद्वानों का विचार है कि अनुवाकानुक्रमणी में लिखा हुआ ४३२००० प्रक्षर परिमाण ऋग्वेद की समस्त शाखाग्रो में पठित १०५६० और १ पाद ऋचाओं का है। हमें यह कल्पना ठोक प्रतीत नहीं होती। क्योंकि बाल खिल्यरहित २०४७२ ऋचाओं का अक्षर-परिमाण ३६४२२१ होत है। अक्षरसंख्या पादपूत्यं किए गए अक्षर-व्यूह को मानकर उपलब्ध होती है । शेष १८० ऋवाओं और १ पाद का लगभग ३८ सहस्र अक्षर-परिमाण किसी प्रकार नहीं हो सकता । इस हेतु से भी शतरथोक्त ४३२००० अक्षर-परिमाण वेदचतुष्टयान्तर्गत समस्त पादवद्ध (पद्य) मन्त्रों का समझना चाहिए। शौनक ने केवल ऋग्वेद का ४३२००० प्रक्षर-परिमाण कैसे लिखा, यह हमें ज्ञात नहीं । ऋग्वेद की विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रदर्शित संख्या पर विचार करते से पूर्व ऋग्वेद में


विशिष्ट माना-पद्धति


की जो विशिष्ट पद्धति है, उसको समझ लेना अत्यावश्यक है। क्योंकि इसको यथार्थतया न समझने के कारण समस्त आधुनिक विद्वानों ने ऋगता में भवङ्कर भूल की हैं।


ऋगणना और द्विपदा ऋचाएं— ऋग्वेद में कुछ मन्त्र ऐसे हैं, जिनको किसी समय दो-दो पाद का एक मन्त्र जानकर गिनते हैं, और किसी समय उन्हें चार-चार पादों का एक मन्त्र मानते हैं, अर्थात् उस समय दो दो द्विपात् मन्त्रों का एक चतुष्पाद मन्त्र माना जाता है। द्विपदा पक्ष में ऋग्वेद में समस्त १५७ द्विपदा ऋचाएं हैं । इनमें से १७ नित्य द्विपदा ऋचाएं हैं, शेष १४० द्विपदा ऋचाएं नैमित्तिक हैं। अर्थात् मे १४० ऋचाएं वस्तुतः द्विपदा नहीं हैं, अपितु १४०÷२= ७० चतुष्पदा ऋचाएं हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में 'द्विपदा शंसति' आदि वाक्यों द्वारा ये ऋचाएं द्विपदा बनाकर यज्ञ में विनियुक्त की जाती हैं। अतएव इन ७० X २ = १४० ऋवाओं को 'नैमित्तिक द्विपदा' कहा जाता है। इनके विषय में ऋसर्वानुक्रमणी के परिभाषा प्रकरण इस प्रकार लिखा है-'द्विद्विपदास्त्वृचः समामनन्ति' ।

इस सूत्र की व्याख्या करता हुआ पहगुरुशिष्य लिखता है ऋचोऽध्ययने'० अर्थात्—ऋचाओं के अध्ययनकाल में अध्येता दो दो द्विपदाओं को एक-एक ऋदा बनाकर अभ्यास करें। 'समामनन्ति' कहने से यज्ञान्तर्गत शसन (स्तुति) काल में दो द्विपदाओं की एक ऋचा नहीं होती है। इसलिये 'पश्वा न तायुम्' (ऋ० १।६५) सूक्त दासनकाल में दश ऋचाओं का माना जाता है, और ये ही दस ऋचाएं अध्ययनकाल में पांच मानी जाती है। 

सायणाचार्य ने ऋ० १।६५ के भाग्य में लिखा है-तत्र पश्वेत्यादि

अर्थात्–'पश्व।'० (ऋ० १।६५-७० ) इत्यादि छः सूक्त द्वैपद हैं। उनमें अध्ययनकाल में दो- दो द्विपदाओं की एक-एक चतुष्पदा ऋचा बनाकर पढ़ी जाती है। जिस सूक्त में विषम संख्या वाली द्विपदाएं हैं, उसमें जो अन्तिम द्विपदा शेष रह जाती है. वह द्विपदा में ही पड़ी जाती है। अर्थ भी प्रायः दो दो द्विपदाओं का एक ही है। प्रयोग अर्थात् यज्ञकाल में उनका पृथक्-पृथक् द्विपदा रूप में ही शंसन होता है । प्राश्वलायन श्रौत (८।१२] में भी 'पश्वान' (ऋ० १।६५) सूक्त द्विपदारूप से विनियुक्त है।

चरव्यूह के टीकाकार महिदास ने भी लिखा है—'हवन एकका अध्ययने द्वे द्वे ग्रामनन्ति । पृष्ठ १६' ।

अर्थात्-हवनकाल में एक-एक द्विपदा पढ़ी जाती है और अध्ययनकाल में दो- दो द्विपदाएं [ एक ऋचा मानी जाती हैं ] । ऋग्वेद में १४० नैमित्तिक द्विपदाएं कौनसी हैं, उनका संग्रह चरणव्यूह के टीकाकार महिदास ने इस प्रकार दर्शाया है-'पश्वा न तायुम्०' आदि [ देखो-संस्कृत भाग ] । इनके अतिरिक्त १७ नित्य द्विपदाओं का उल्लेख उपलेख सूत्र (वर्ग ६।१-२) में मिलता है। इस प्रकार ऋग्वेद में समस्त १७+ १४० = १५७ नित्य नैमित्तिक द्विपदा ऋचाएं हैं। आचार्य कात्यायन ने ऋक्सर्वानुक्रमणी में प्रतिसूक्त जो ऋक्संख्या लिखी है, उसमें इन १४० नैमित्तिक द्विपदाओं को द्विपदा मानकर ही गिना है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं ।


मैक्समूलर का ऋक्संस्करण और दिपदा ऋचाएं


मैक्समूलर ने सं० १६३० (सन् १८७३) में ऋग्वेदमूल का प्रथम संस्करण प्रकाशित किया था। यह संस्करण वस्तुतः उसके महान् परिश्रम का फल है, जो किसी भी सम्पादन-कलाभिज्ञ पाठक से छिपा नहीं है इतना होते हुए भी निःसंकोच कहना पड़ेगा कि मैक्समूलर के ऋक्संस्करण में भयङ्कर दोष रह गए हैं। उनमें सबसे महान् दोष नैमित्तिक द्विपदा ऋचाओं के मुद्रण में हुआ है, जिसके कारण उत्तरवर्ती अनेक विद्वानों से भयङ्कर भूलें हुई हैं। मैक्समूलर ने अपने मूत्र ऋग्वेद के संस्करण में मं० १, सुक्त ६५-७० तक की ६० नैमित्तिक द्विपदा ऋचाओं को ३० चतुष्पदा ऋचा बनाकर छापा है, और प्रत्येक चतुष्पदा ऋचा पर मन्त्र संख्या दी है' पञ्चम मण्डल के २४वें सूक्त को ४ चार द्विपदा ऋचाम्रों को दो-दो चतुष्पदा ऋचा बनाकर छापा है. परन्तु प्रथम के अन्त में १, २ और द्वितीय के अन्त में ३, ४ संख्या छापी है। शेष मण्डलों की अवशिष्ट ७६ नैमित्तिक द्विपदाओं का द्विपदारूप से हो मुद्रण किया है। इस प्रकार मैक्समूलर ने नैमित्तिक द्विपदा ऋचाओं के मुद्रण में तीन प्रकार आश्रित किए हैं। प्रथम पहले मण्डल ६५-७० सूक्त की ६० नैमित्तिक द्विपदाओं को ३० चतुष्पदा बनाकर छापना, और चतुष्पदा के अनुसार मन्त्रसंख्या देन । द्वितीय-पञ्चम मण्डल के २४ व सूक्त की ४ नैमित्तिक द्विपदाओं को २ चतुष्पदा बनाकर छापना, और उन पर द्विगुणित (द्विपदा के अनुसार) मन्त्रसंख्या देना तृतीय शेष मण्डलों की ७६ नैमितिक द्विपदाओं को द्विपदारूप में छापना ।

सम्पादनकला की दृष्टि से यह दोष अक्षम्य है। इससे यह भी विदित होता है कि मैक्समूलर को इन १४० नैमित्तिक द्विपदा ऋचाओं का वास्तविक स्वरूप समझ में नहीं आया था ।

मैक्समूलर की उपर्युक्त यह भूल यदि उसके संस्करण तक ही सीमित रहती, तो कुछ विशेष हानि नहीं थी । परन्तु उसके संस्करण को प्रामाणिक मानकर उत्तरवर्ती अनेक विद्वानों से भयङ्कर भूले हुई हैं (जिनका हम इस लेख में यथास्थान निदर्शन करायेंगे) अतः उसे किसी प्रकार क्षम्य नहीं कहा जा सकता ।

अनुवाकानुक्रमणी और ऋख्या


शौनक ने अपनी अनुवाकानुक्रमणी में दो स्थानों पर ऋक्संख्या का निर्देश किया है। श्लोक ४०, ४१, ४२ में वर्गसंख्या का निर्देश करता हुआ वह लिखता है 'एकचं एकवर्गः'। इन श्लोकों का स्पष्टीकरण ऊपर संस्कृत भाग में दर्शाया है।


तदनुसार ऋग्वेद में २००६ वर्ग और १०४१७ ऋचाएं होती हैं। शौनक के मतानुसार यह ऋक्संख्या शाकल चरणान्तर्गत शैशिरीय शाखा की है। वह लिखता है—'तान् पारणे शाकले शैशिरीये वदन्ति' (३६) । इस संख्या में बालखिल्य ऋचाएं सम्मिलित नही हैं. और नैमित्तिक द्विपदाओं का भी द्विपदारूप में परिगणन नहीं है। वर्तमान ऋग्वेद में बालखिल्य ऋचाओं को छोड़कर वर्गसंख्या २००६ ही है, परन्तु मन्त्र-संख्या १०४०२ है (यह हम प्रागे दर्शायेंगे) । इस प्रकार इसमें जो १५ ऋचाओं की अधिकता है', वह शाखाकृत समझनी चाहिए।


इसके आगे वह पूर्वोद्धृत 'ऋचां दश सहस्राणि' श्लोक पढ़ता है। तदनुसार ऋग्वेद में १०५८० ऋचाएं और एक पाद है। यद्यपि इन दोनों स्थानों पर कही हुई ऋवसंख्याओं में महती भिन्नता है, तथापि इसका समाधान बहुत साधारण है।' ऋचां दश सहस्राणि' श्लोक में 'पारणम्' पद विशेष ध्यान देने योग्य है । शौनक ने 'पारणम्' शब्द-द्वारा १०५६० और १ पाद ऋक्परिमाण ऋग्वेद की समस्त शाखान्तर्गत ऋचाओं को दर्शाया है। यह लौगाक्षिस्मृति के निम्नलिखित श्लोकों के साथ तुलना करने पर स्पष्ट विदित हो जाता है। यथा-'ऋचां दश०'


इन श्लोकों में १०५८० और १ पाद ऋक्परिमाण दर्शाकर स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि यह संख्या सर्वशाखोक्त मन्त्रों की है। यद्यपि इन श्लोकों का पाठ अत्यन्त भ्रष्ट है, तथापि उपयुक्त अभिप्राय सर्वथा स्पष्ट है।

_____________

विषय में लिखा है। उनका समग्र लेख प्रायः पं० सत्यव्रत सामश्रमी के संस्कृत लेख का भाषानुवाद मात्र है। अतः उनके लेख में भी वे समस्त दोष विद्यमान हैं, जो उनमे आधारभूत पं० सत्यव्रत सामश्रमी के लेख में हैं। इसलिये उन पर पुनः लिखना पिष्टपेषणवत् होगा। हां, उनके लेख में जो नये दोष हैं, उनका कुछ निदर्शन हम यहां कराते हैं_

पं० हरिप्रसाद ने 'वेदसर्वस्व' पृष्ठ ६७ पर लिखा है_______

चरणव्यूह के टीकाकार महीदास ने ऋग्वेदमन्त्रों की संख्या दस हजार चार सौ बहत्तर ( १०४७२) लिखी है। परन्तु यह नैमित्तिक द्विपदा ऋचाओं सहित है, जिनकी संख्या एक सो चालीस होती है। यदि वह निकाल दी जाए, तो शेष संख्या दस हजार तीन सौ बत्तीस (१०३३२) रह जाती है।'

इस लेख से विदित होता है कि पं० हरिप्रसाद ने न तो द्विपदा ऋचाओं का स्वरूप ही समझा, और न हि महीदास का ऋगगना-प्रकार । १४० नैमित्तिक द्विपदाओं की ७० चतुष्पदा ऋचाएं बनती हैं। अतः यदि नैमित्तिकद्विपदात्व ही न्यून करना है, तो ७० संख्या न्यून करनी चाहिए। दूरी १४० द्विपदाओं को निकालना किसी प्रकार उचित नहीं है।

conti...>>


उपसंहार

इस ऋक्संख्या-विमर्श से यह स्पष्ट है कि बेटा मैक्समूलर मैकडोनल और सत्यव्रत सामश्रमी प्रभूति लेखकों ने नित्य नैमित्तिक द्विपदाओं के भेद को यथार्थ रूप में नहीं समझः ।

इसी कारण ये लोग ऋग्वेद को ऋक्संख्या को गणना में बहुत प्रकार से भ्रांत हुए हैं, तथा उन्होंने औरों को भी भ्रान्त किया है।

इस प्रकार ऋग्वेदीय ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार नित्य नैमित्तिक उभयविध द्विपदाओं तथा बालखिल्य ऋचाओं सहित ऋग्वेद में १०५५२ दस सहस्र पांच सौ वाचन ऋचाएं हैं। नैमित्तिक १४० द्विपदाओं को अध्ययनकाल में चतुष्पदा बनाकर (७०) गणना करने पर १०४८२ दस सहस्र चार सौ बयासी ऋचाएं होती हैं।

इस ऋक्संहिता में गत सुदीर्घ काल में एक अक्षर वा मात्रा के भेद नहीं हुआ। उस अवस्था में ऋक्संख्या में भेद होना तो उपपन्न ही नहीं होता। इस कारण प्राचीन और अर्वाचीन विद्वानों की ऋक्संख्या में जो भेद उपलब्ध होता है, वह सब ऋगणना के प्रकार भेद से, शाखा भेद से तथा गणक विद्वानों के अज्ञान वा प्रभाव के कारण दिखाई पड़ता है। वास्तव में 'अग्निमीळे' के 'अ' से 'सुसासति' तक कहीं ग्रक्षर वर्ण मात्रा स्वर का भी भेद नहीं है।


अथर्ववेद में 20 काण्ड, 731 सूक्त एवं 5977 मन्त्र हैं।

अथर्ववेद की ऋचाओं का विवरण

काण्ड - 1 (कुल सूक्त संख्या 35 - कुल मन्त्र संख्या 153 )

काण्ड - 2 (कुल सूक्त संख्या 36 - कुल मन्त्र संख्या 207 )

काण्ड - 3 (कुल सूक्त संख्या 31 - कुल मन्त्र संख्या 230 )

काण्ड - 4 (कुल सूक्त संख्या 40 - कुल मन्त्र संख्या 324 )

काण्ड - 5 (कुल सूक्त संख्या 31 - कुल मन्त्र संख्या 376 )

काण्ड - 6 (कुल सूक्त संख्या 142 - कुल मन्त्र संख्या 454 )

काण्ड - 7 (कुल सूक्त संख्या 118 - कुल मन्त्र संख्या 286 )

काण्ड - 8 (कुल सूक्त संख्या 10 - कुल मन्त्र संख्या 293 )

काण्ड - 9 (कुल सूक्त संख्या 10 - कुल मन्त्र संख्या 313 )

काण्ड - 10 (कुल सूक्त संख्या 10 - कुल मन्त्र संख्या 350 )

काण्ड - 11 (कुल सूक्त संख्या 10 - कुल मन्त्र संख्या 313 )

काण्ड - 12 (कुल सूक्त संख्या 5 - कुल मन्त्र संख्या 304 )

काण्ड - 13 (कुल सूक्त संख्या 4 - कुल मन्त्र संख्या 188 )

काण्ड - 14 (कुल सूक्त संख्या 2 - कुल मन्त्र संख्या 139 )

काण्ड - 15 (कुल सूक्त संख्या 18 - कुल मन्त्र संख्या 220 )

काण्ड - 16 (कुल सूक्त संख्या 9 - कुल मन्त्र संख्या 103 )

काण्ड - 17 (कुल सूक्त संख्या 1 - कुल मन्त्र संख्या 30 )

काण्ड - 18 (कुल सूक्त संख्या 4 - कुल मन्त्र संख्या 283 )

काण्ड - 19 (कुल सूक्त संख्या 72 - कुल मन्त्र संख्या 453 )

काण्ड - 20 (कुल सूक्त संख्या 143 - कुल मन्त्र संख्या 958 )

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