भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम में आर्यसमाज का योगदान - ধর্ম্মতত্ত্ব

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12 August, 2022

भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम में आर्यसमाज का योगदान

भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम में आर्यसमाज का योगदान

आर्यजाति के जीवन में वह सबसे बड़ा भारी दुर्दिन था. जबकि राजर्षि श्रीकृष्ण के लाख समझाने पर भी भरे दरबार में "सूच्यां जैव दास्यामि बिना युद्ध्येन केशव" की घोषणा करके राष्ट्रद्रोही कुपथगामी दुर्योधन ने इस देश के लिये प्रलयंकर महाभारत के युद्ध की चिंगारियों को हवा दी थी। आर्यजाति के जीवन में उसका परिणाम पतन, ह्रास, निर्बलता एवं शताब्दियों की दासता के रूप में सामने आया, अपना विश्वविमोहक गौरव, प्रभुत्व, समस्त ब्राह्मणत्व तथा राष्ट्र के अदम्य एवं अप्रतिहितत्व का प्रतीक समस्त क्षात्रबल उस युद्धाग्नि की भेंट हो गया। शक्ति के अभाव में विजातीय तत्त्वों ने आर्य जाति को कुचलना आरम्भ कर दिया। शारीरिक दासता के साथ-साथ सच्ची वेदविद्या के ज्ञाता ब्राह्मणों के अभाव मे राष्ट्र का अध्यात्मपथ भी घोर अज्ञान अन्धकार से परिपूर्ण हो गया। जिसके कारण आर्यावर्तीय नागरिकों के नानाविध दुर्गुण, दुर्व्यसन एवं कुरीतियों ने पदार्पण किया। जो आर्यजाति तप, त्याग, सदाचार, शक्ति, विज्ञान, राजनीति एवं आर्थिक दृष्टि से कभी सारे विश्व का नेतृत्व करती थी, वही जाति आज इन सब बातों के लिए संसार के सामने झोली पसारे भिक्षुक के रूप में खड़ी दिखाई देने लगी। सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य छिनकर दासता की दीनतामयी तथा दयनीय घडी आरम्भ हुई संसार से पाखण्ड, गुरुडम, कुरीतियों तथा रूढ़िवाद के भूत को भगानेवाली इस जाति के अपने ही जीवन में इन सभी कुकृत्यों का बोलबाला हुआ। संसार का अन्नदाता इस देश का किसान अन्न के एक-एक दाने के लिये तरसने पर मजबूर हो गया। अनाथों की करुण कराहें, बाल विधवाओ का हृदयविदारक करुणक्रन्दन, एवं वेद के सत्पथ से विचलित मानव का आर्तनाद ही सुनने को मिला था. इसके साथ ही भारतीयों के दुर्भाग्य से अस्पृश्य समझे जानेवाले निम्नवर्ग को ईसाई पादरी तथा मुस्लिम मुल्ला तो अपनी पकी खेती जानकर दोनों हाथों से काटने में संलग्न थे।

ऐसी असहाय दशा में पड़ा भारत किसी उद्धारक, अपने मृतप्राय तन में संजीवनी संचारक कुशल वैद्य की प्रतीक्षा मे था, जो कि उसके समस्त दु-खो, क्लेशों का पूर्ण निदान कर के सर्वविध स्वास्थ्यलाभ करा सके और उसके यथार्थस्वरूप को दर्शा सके, ऐसे सर्वथा विपदाच्छन्न कराल काल में भारत के कार्यक्षेत्र में ऋषिवर दयानन्द सरस्वती का आगमन हुआ। पूर्व इसके कि कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होने के अनन्तर भारत के उद्धारार्थ किये गये महर्षि दयानन्द सरस्वती के गौरवपूर्ण कार्यों का वर्णन किया जाये उससे पूर्व ही सन् 1857 ईथ्वी के स्वाधीनता संग्राम के सम्बन्ध में ऋषि के द्वारा किये गये कार्यो विषयक कुछ तथ्यों को उपस्थित कर देना उचित तथा प्रसंगानुकूल जान पड़ता है अतः तद्विषयक कुछ तथ्य उपस्थित किये जा रहे हैं।


1857 का स्वाधीनता संग्राम और महर्षि दयानन्द सरस्वती


तत्कालीन विदेशी ब्रिटिश सरकार, जिसके सुदृढ दासता के लोहे के शिकंजे में पड़ा यह देश शताब्दियों से स्वतन्त्रता के लिए छटपटा रहा था कि घातक चालों के परिणामस्वरुप यहा की जनता में उस समय उस शासन के विरुद्ध सर्वप्रथम जो शक्तिशाली महान विस्फोट हुआ था वह यही स्वाधीनता का प्रथम महान् संग्राम था, जिसे उन विदेशी शासको ने प्रखर देशभक्त तत्वों को बदनाम कर असफल करने के लिये गदरसंज्ञा प्रदान की। इसमें भारत के अटक से लेकर कटक तक तथा कशमीर से लेकर कन्याकुमारी तक के विभिन्न मतवादी निवासियों ने पारस्परिक सभी मतभेदों को भुलाकर एकता के सूत्र में संगठित हो स्वाधीनता के पावन उद्देश्य से अंग्रेजों के दासत्व के चोले को अपने कंधों से उतार फेंकने का दृढ निश्चय कर लिया था। अंग्रेजों को भारत से उनके घर भेजने की यह एक पूर्वनिश्चित गुप्त योजना थी, जिसको भारत के विभिन्न प्रान्तों के प्रभावशाली व्यक्तियो ने मिलकर तैयार किया का यह योजना तैयार कर उसे सफलता की ओर ले जानेवालों में ऋषिवर दयानन्द सरस्वती, उनके विद्यादाता गुरु विरजानन्द दण्डी तथा उनके गुरु स्वामी पूर्णानन्द जी भी सम्मिलित थे, इसी तथ्य की पुष्टि करते हुये एक महान् लेखक लिखता है - 'विरजानन्द ने अपने प्रज्ञानेत्रों से साक्षात् कर लिया था कि भारत की दुर्दशा के दो प्रधान कारण हैं, एक अनार्ष ग्रन्थप्रसार तथा दूसरा विदेशी राज्य । आज ऐतिहासिक मुक्तकण्ठ से कहते हैं कि विरजानन्द तथा उनके गुरु पूर्णानन्द सरस्वती ने इस संग्राम का आरम्भ कराया था, इसके लिए वे दो हेतु प्रस्तुत करते हैं, संवत् 1914 वि0 1857 ई० स्वतन्त्रता संग्राम में जिन राजाओं की जैसी प्रवृत्ति हो रही थी उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है समर में जूझने की भावना उनकी अपनी न थी, वह किसी दूसरे की प्रेरणा से प्रसूत थी। स्वभावत. ही यह मानना पड़ता है कि वह किसी ऐसे व्यक्ति की थी, जिसकी बात टालने का उन्हें साहस न होता था। 


भारतीय संस्कृति मे गुरु ही उच्च पदस्थ एक ऐसा व्यक्ति है जिसकी आज्ञा का उल्लंधन करने की कल्पना भी मस्तिष्क में आ ही नहीं सकती। दूसरा प्रमाण वे यह प्रस्तुत करते हैं कि जिज्ञासु दयानन्द 1855 ईस्वी में कनखल में विरजानन्द के गुरुदेव स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती की सेवा में विद्याप्राप्ति के निमित्त पहुँचते हैं। पूर्णानन्द जी उन्हें कहते हैं कि हम बहुत वृद्ध हो चुके हैं. हम आपका मनोरथ पूर्ण करने में असमर्थ हैं, आप मथुरा जाइये, वहां विरजानन्द सरस्वती हमारे योग्य शिष्य रहते हैं, वे आपकी मनोकामना पूर्ण करेंगे। व्यय दयानन्द कनखल से सीधे मथुरा नहीं जाते हैं। वे उत्तराखण्ड की ओर चलकर कानपुर तथा नर्मदा के परिसर में पहुँचते हैं। यह वह क्षेत्र है जहां स्वतन्त्रता संग्राम का आयोजन किया जा रहा था, तो क्या यह समझना उचित न होगा कि वृद्ध पूर्णानन्द ने युवा बलिष्ठ दयानन्द को उस ओर प्रेरित किया हो ? भले ही कुछ लोगों को ये तर्क न जर्चे, किन्तु ये ऐसे दुर्बल व हीन भी नहीं हैं कि उनकी उपेक्षा की जा सके। (विरजानन्द चरित पृ० 118, 119, लेखक- स्वामी वेदानन्द जी सरस्वती) इसी तथ्य को पुष्टि करते हुए एक और विख्यात इतिहासकार लिखता है कि अप्रैल 1855 से जबकि उसका दूसरा समवयस्क (नाना धोधोपन्तराव) भारत के पेशवा बनने के बाद क्रान्ति यज्ञ के समारम्भ में दीक्षित होने जा रहा था, मार्च, 1857 तक वह प्रायः गंगा के साथ गंगोतरी और बद्रीनाथ से बनारस तक गढ़वाल, रूहेलखण्ड दोआब और काशी के प्रदेशों में घूमता रहा, तब क्रान्ति की तैयारियां जनता में भीतर ही भीतर जोरों से की जा रही थीं। 

1856 के मई मास में वह नाना के नगर कानपुर और आगे पांच मास तक कानपुर इलाहाबाद के बीच ही चक्कर काटता रहा, फिर बनारस मिर्जापुर चुनार होकर मार्च 1857 में जब क्रान्ति की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी थीं, और नाना साहब के सैकड़ों सन्देशवाहक साधु फकीरों आदि के रूप में पूरब पश्चिम, उत्तर, दक्षिण देश के हर कोने में क्रान्ति का सन्देश लेकर रवाना हुए और स्वयं नाना साहब और उनके मन्त्रदाता अजीमुल्ला की क्रान्ति आरम्भ करने की तारीख निश्चित कर उसकी सारी तैयारी अपनी आंखों से देख लेने को तीर्थयात्रा करने निकले तब दयानन्द भी बनारस से मिर्ज़ापुर, चुनार होकर नर्मदा के स्रोतों के दक्षिण की ओर निकल पड़ा अपने आरम्भिक जीवन का परिचय 1 देने के लिए दयानन्द की स्वलिखित जीवनी का यहा यकायक अन्त हो जाता है, आगे तीन वर्ष क्रान्ति युद्ध के दिनो वह कहां रहा और क्या करता रहा ? इसकी कोई विगत उसने कभी नहीं दी, यह कहना तो कठिन है कि क्रान्ति युद्ध या उसके संगठन के प्रति उसका क्या रुख रहा, और उसने भी उसमें कोई भाग लिया या नहीं, तो भी उसकी जीवन-घटनाओं की विधियों का जो संक्षिप्त सा विवरण ऊपर दिया गया है, उससे यह बात तो स्पष्ट हो ही सकती है कि क्रान्ति की तैयारियों आदि से उसे निकट परिचय करने का अवसर अवश्य मिला, यह बात मान लेना आसान नहीं कि दयानन्द के सदृश भावनाप्रवल और चेतनावान् हृदय और मस्तिष्क का युवक उसके प्रभाव से अछूता बचा है ? 

और उस युद्ध की सफलता, विफलता की उस पर कोई प्रतिक्रिया न हो, अतः उसकी उन तीन वर्षों के बारे मे यह पूरी चुप्पी भी कम अर्थभरी प्रतीत नहीं होती। (हमारा राजस्थान पृ० 367-368, ले० पृथ्वीसिंह महता विद्यालंकार)


दयानन्द को विरजानन्द के पास पढ़ने की प्रेरणा विरजानन्द के गुरु पूर्णानन्द ने 1855 में ही दी थी, परन्तु क्रान्ति आन्दोलन के शीघ्र छिड जाने की सम्भावना के कारण प्रतीत होता है कि उनकी मनःस्थिति तब गम्भीर अध्ययन की ओर न थी, किन्तु उसकी विफलता ने 1860 में वह मनःस्थिति पैदा कर दी, (हमारा राजस्थान पृ० 260) स्वामी दयानन्द सरस्वती नाना साहब पेशवा के गुरु थे, 1857 के युद्ध के बाद स्वामी दयानन्द का कार्य इतने महत्व का रहा कि उसके विवरण के लिए तो पूरे एक लेख की आवश्यकता पडेगी, पर यहां इतना कहना ही काफी होगा कि अगर स्वामी दयानन्द न होते तो नाना साहब पेशवा ने 1857 की हार के बाद आत्महत्या कर ली होती, स्वामी जी ने उन्हें आत्महत्या करने से रोका, और उन्हें आदेश दिया कि अवसर आने पर वे दूसरा युद्ध लड़ें, तब तक के लिए उन्होंने नाना साहब को सन्यासी बनकर धर्म जागृति करने का गुरुमन्त्र दिया, और यह सब हुआ कन्याकुमारी के मन्दिर के सामने सागर तीर पर, सूर्य को साक्षी मानकर यह सारा चमत्कार स्वामी दयानन्द ने कैसे किया ? 

यह उन्हीं के शब्दों में पढ़ें, भारत की पश्चिम सीमा की तरफ मठ मन्दिर में रहकर आप जनसेवा के लिए जीवनदान कीजिए, मनुष्यों को पारमार्थिक कल्याण के लिए उपदेश कीजिए, ऐहिक कल्याण के लिए रोगियों को बिना मूल्य वृक्षों के मूल और पत्तियों से औषध बनवाकर वितरण करते रहिये, मृत्यु तक शान्ति और आनन्द के साथ शेष जीवन बिता सकेंगे, आप आत्महत्या कभी न करें, हमारे इस उपदेश को तीनों ने ही (नाना साहब, उनके साथी दुर्जनराव और सेनापति तात्या टोपे) समान रूप से ग्रहण किया, और तीनों के वहां से चलने के पहले मैंने नाना साहब को सन्यास देकर उनका नाम दिव्यानन्द सरस्वती रख दिया था, शेष दोनों ने सन्यास लेने का साहस नहीं किया, दिव्यानन्द ने ऐसा ही होगा, भगवान की इच्छा पूर्ण हो, कहा और तीनों वहां से चल दिये, मेरे पास कल्याण जी की जो डायरी है, उसमे नाना साहब का नाम दिव्यानन्द ही मिलता है, 1957 मे जब दत्तो वामन पोतदार सिहोर गये थे, तब उन्होने वहां नाना साहब की औषधियों के संग्रह की वही खुद देखी थी, और उसे स्वीकार किया था, नाना साहब के काग़ज़ात व कल्याण जी की डायरी उस समय उपलब्ध नहीं थी, इसलिए उस समय कोई ऐसा प्रमाण नहीं था कि निश्चित रूप से कहा जा सके कि नाना साहब कहां रहे थे ? धर्मयुग साप्ताहिक में 9 से 15 मई 1976 का पृ० 8


बनारस के उदासी मठ के सत्यस्वरूप शास्त्री के कथनानुसार साधु सम्प्रदाय में तो बराबर यह अनुश्रुति चली आती है कि दयानन्द ने 1857 के संघर्ष में महत्त्वपूर्ण भाग लिया था। (राष्ट्रीय इतिहास का अनुशीलन, ले० जयचन्द्र विद्यालंकार)


कुछ आर्य भाई राजकोट जाने के लिए हमारे साथ बैठे, उनमें एक रेल कर्मचारी है, उन्होंने बताया कि 1857 ई0 के समय नाना घोन्यू पन्त को सुरक्षित रहने के लिए मौरवी के सामन्त के नाम ऋषि दयानन्द ने पत्र देकर भेजा था, सुना है कि वह पत्र किसी सेठ के पास सुरक्षित रहा, 2-9-1965 के आर्योदय साप्ताहिक दिल्ली में स्व० जगदेवसिंह जी सिद्धान्ती, सदस्य लोकसभा का मेरी दक्षिण भारत यात्रा नाम लेख पृ० कालम 2 

इतिहास के नये अनुसन्धान


आज के अनुसन्धान एवं जागृति के युग में तो सत्य जिज्ञासु जागरूक इतिहासकार सचेत होने लगे हैं, निम्न तथ्य इस बात के मुंह बोलते चित्र हैं 'ब्रिटिश सत्ता के उन्मूलन के लिए 1857 ई० में जो राज्य क्रान्ति हुई थी, उसमें ऋषि दयानन्द ने भूमिका अदा की थी. इतिहास की इस नवीन स्थापना पर आज वहां गोष्टी में महत्त्वपूर्ण चर्चा हुई लाहौर के वयोवृद्ध पत्रकार तथा समाजसेवी श्री वासुदेव वर्मा ने इस विषय पर अपना निबन्ध पढ़ते हुए अनेक नवीन तथ्यों पर प्रकाश डाला, स्वामी पूर्णानन्द से ब्रिटिश अत्याचारों की हृदयविदारक कथा सुनकर किस प्रकार ऋषि दयानन्द ने तात्या टोपे और नाना साहब से निकट सम्पर्क स्थापित किया, और किस प्रकार योजनाबद्ध रूप से क्रान्ति के इन नेताओ ने विभिन्न रियासतों तथा आम जनता को संगठित करने का प्रयत्न किया, यह इतिहास का एक रोचक किन्तु अलिखित अध्याय है, भारतीय साहित्यकार संघ की इतिहास परिषद् की ओर से आयोजित इस गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए श्री क्षितीश वेदालंकार ने कुछ नये प्रमाण प्रस्तुत करते हुए इस धारणा को मिथ्या सिद्ध किया कि नाना साहब पेशवा सन् 1857 की राज्यक्रान्ति विफल हो जाने के पश्चात नेपाल चले गये थे, उन्होंने कहा कि नाना साहब पेशवा गुप्त रूप से भावनगर (सौराष्ट्र) के पास सिहोर नामक स्थान में साधु के रूप में रहते रहे, और मोरनी में उनका स्वर्गवास हुआ, जहां उनकी समाधि बनी हुई हैं, नाना साहब पेशवा ने अपनी मृत्यु से पहले स्वयं इस रहस्य को जिन लोगों के सामने उद्घाटित किया था उनमें से कुछ लोग अभी जीवित है, और उन्हीं से इतिहास के इस नवीन पहलू पर प्रकाश पड़ा है। दैनिक हिन्दुस्तान, दिल्ली, 12-8-69 के पृ० 3 कालम 3 पर देखें।


उक्त कथन में नाना साहब का मोरखी मे शरीरान्त होने का उल्लेख है, इसी सम्बन्ध में यह प्रमाण भी देखने योग्य है।

नाना साहब की छतरी श्री भगवान्देव (वर्तमान संसद सदस्य) टंकारा वाले ने आर्यनेता पं० रामगोपाल वैद्य को बताया कि नाना साहब की छतरी मोरवी नगर में मछू नदी के किनारे रेलवे लाइन के पास 'शकर आश्रम' में बनी हुई है, वैद्य जी ने यह बात पं० युधिष्ठिर मीमांसक को बताई, उन्होंने अपने परिचित श्री इन्दूलाल पटेल (मोरवी) को पत्र लिखकर इसकी जानकारी गांगी. उनसे निम्न पत्र भी मीमांसक जी को प्राप्त हुआ____

'मोरवी आर्यसमाज के प्रमुख श्री पानाचन्द देवचन्द (अब अति वृद्ध और सुनने-समझने की अति कमी) छोटे थे तब नदी पर स्नान करने जाते थे, तो आते-जाते शीतला माता के मन्दिर के पास नये ठहरे सन्यासी के दर्शन करते थे, प्रसादादि रूप मे शक्कर को देते थे। कुछ समय बाद नगर में अपने गृह लाये और ठहराये, सन्यासी ये ने गृहिणी का असाध्य रोग मिटाया। सन्यासी ने कांच के ऊपर कुछ चित्र बनाये, जो 1857 के वीरों के थे, सन्यासी के लिए किया खर्च चौपडे (बही) में लिखा मिलता है। मरण समय सन्यासी बोले-मैं नाना साहब पेशवा हूं, यह मेरी लकड़ी है, यह लो, आधी सोने की मोहर से भरी है, ठाकुर बाघ जी को दे देना और मेरा उचित अग्नि संस्कार करने को कहना इत्यादि उनकी समाधि शंकर आश्रम शिवमन्दिर रूप में है, कांच के फोटो नगर रोड के घर में मौजूद हैं, दो-तीन टूट गई हैं।


वर्तमान नगर रोड का नाम 'चन्द्रकान्त' है। उनके दादा के समय की बात है, गुजराती साहिक पत्रिका 'साधना' रेडक्रास रोड, अहमदाबाद में लेखमाला नाना साहब के विषय पर आयी थी, उसमें उनके बारे में कुछ नवीन बातें थीं, मोरवी के नगर रोड के घर पर जो चित्र हैं, मैंने अम्बालाल बावा के साथ देखें हैं। चित्र वाटर कलर के है, तिथि नहीं है। (इन्दूलाल पटेल)


इस प्रमाण से नाना साहब का मोरवी में साधुवेश में निवास तथा देहान्त सिद्ध है। इस पर प्रश्न यह है कि वे जीवन के अन्तिम है समय में जबकि तत्कालीन शासकों की दृष्टि में सबसे बड़े विद्रोही थे और अंग्रेज सरकार का सारा ही तन्त्र उन्हें पकड़ने को उद्यत था, तब उनका परिचय मोरवी में कैसे हो गया कि जिससे वे अपने को सुरक्षित करने में समर्थ हो सके। निश्चय ही ऋषि दयानन्द से उनका सम्पर्क हुआ होगा और ऋषि दयानन्द के माध्यम से उन्हें मोरवी में सिर छिपाने के लिए विश्वस्त स्थान प्राप्त हो सका। इसका अर्थ है कि उनके कार्य में न्यूनाधिक ऋषि दयानन्द का भी कुछ न कुछ योगदान रहा होगा जिससे कि अपने सहकारी मित्र को मुसीबत से बचाने के हेतु ऋषि दयानन्द को नैतिकता के जाते कम से कम इतना तो करना पड़ा होगा।


सन् 1856 बमुताबिक सम्वत् 1913 को एक पंचायत भरा के तीर्थगाह पर मुन आविद हुई। उसमें हिन्दू, मुसलमान और दूसरे मज़हब के लोगों ने शिरकत की थी। इस पंचायत में एक नाबीना हिन्दू दरवेश को लाया गया था। एक पालकी में बिठाकर, उनके आने पर सब लोगों ने उनका अदब किया। जब वह एक चौकी पर बैठ गया तब हिन्दू-मुसलमान फकीरों ने उनकी कदमबोसी की। इसके बाद सब हाज़रीन पंचायत के लोगों ने उनका अदब किया। सबके अदब के बाद नाना साहब पेशवा, मौलवी अजीमुल्लाखान, रंगू बाबू और शहनशाह बहादुरशाह का शहजादा इन सबने इनके अदब में कुछ सोने की अशर्फियां पेश कीं। इसके बाद एक हिन्दू और एक मुसलमान फकीर ने यह कहा कि हमारे उस्ताद साहिबान की जबान सुबारिक से जो तकरीर होगी. उसे तसल्ली के साथ-साथ साहिबान सुनें और वह इस मुल्क के लिए बहुत मुफिद साबित होगी और वह वली अल्लाह साधु बहुत जवानों का आलिम और हमारा और हमारे मुल्क का बुजुर्ग है। ख़ुदा की मेहरबानी से ऐसे बुजुर्ग हमें मिलें, यह ख़ुदा का हम पर बड़ा अहसान है।


दरवेश की तकरीर का आग़ाज़ 

सबसे पहले उन्होंने ख़ुदा की तारीफ की, और फिर उर्दू में उसका तर्जुमा किया। इस बुजुर्ग ने यह कहा कि आज़ादी जन्नत है और गुलामी दोज़ख है। अपने मुल्क की हकूमत गैरमुल्क की हकूमत के मुकाबले में हजार दर्जे बेहतर है। दूसरों की गुलामी हमेशा बेइज्जती और बेशर्मी का बायस है, इसमें किसी कौम से और किसी मुल्क से कोई नफरत नहीं हैं। हम तो खुल्केखुदा की महबूबी के लिए खुदा से रोज़ दुआ मांगते हैं, मगर हुक्मरां कौन खासकर फिरंगी जिस मुल्क में हकूमत करते हैं, उस मुल्क के बाशिन्दों के साथ इन्सानियत का बरताव नहीं करते और कितनी ही अपनी अच्छाई की तारीफ करे, मगर उस मुल्क के बाशिन्दों के साथ मवेशियों से भी गिरा हुआ बर्ताव करते हैं। खुदा की खलकत में सब इन्सान भाई-भाई हैं। मगर वगैर मुल्की हुक्मरां कौम उन्हें भाई न समझकर गुलाम समझती है। किसी भी मज़हब की किताब में ऐसा हुक्म नहीं है, कि अशरफ मखलुकात के साथ दगा की जाये और अल्लाह के हुक्म की खिलाफबरजी की जाये। इस वास्ते मातहत लोगों का न कोई ईमान है और न कोई उनकी शान है। फिरंगियों में बहुत सी अच्छी बाते भी हैं, मगर सियासी मसले में आकर वह अपने कौल-फैल को न समझकर फौरन बदल जाते हैं और हमारी अच्छाई और नेकसलाह को फौरन ठुकरा देते हैं। इसकी असल बजूहात यह कि हमारे मुल्क को अपना वतन नहीं समझते। हमारे मुल्क का बच्चा-बच्चा उनकी खैरवाही का दम भरे फिर भी अपने वतन की बायस है इन्हें अपने ही वतन से मुहब्बत है इसलिए ये सब बाशिन्दगान हिन्द से इलतजा करते हैं कि जितना वह अपने मजहब से मुहब्बत करते हैं, उनता ही इस मुल्क के हर इन्सान का फर्ज है कि वह वतनपरस्त बने और मुल्क के हर इंसान को भाई-भाई जैसी मुहब्बत करे तब तुम्हारे दिलों के अन्दर वतनपरस्ती आ जायेगी तो इस मुल्क की गुलामी खुद-ब-खुद जुदा हो जायेगी। हिन्द के रहनेवाले सब आपस में हिन्दी भाई हैं और बहादुरशाह हमारा शंहशाह है (तसनीफ करदह मीर कासिद सर्वखाप पंचायत) । मुश्ताक मीरासी


नोट - इस सन्यासी का नाम मालूम किया तो इसका नाम बिरजानन्द था और बहुत समय से मथुरा में रहते हैं और संस्कृत की तालीम देते हैं और अल्लाताला के मोहतविद हैं।


'सम्वत् 1913 विक्रमी में यह पंचायत दूरदराज जंगल में की गई और शुरु भार्दो का माह था। यह पंचायत चार रोज तक मतवातर होती रही। पहले दिन आने वाले सब मेहमानों की एक-दूसरे से मुलाकात कराई गई थी। दूसरे दिन हज़रत आदम से लेकर हज़रत मुहम्मद अलरसूल सलै अल्लाह अलैह व सलम तक सवाने उमरी •सुनाई गई। तीसरे दिन राम, कृष्ण और महात्मा बुद्ध और शंकराचार्य, महावीर स्वामी अनेक ऋषि-मुनि और राजा-महाराजाओं के जिन्दगी...Cont>>

  लेखक

आचार्य सत्यप्रिय शास्त्री

(सिद्धात शिरोमणि, हिसार)

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