Yajurveda 38/28 - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

সাম্প্রতিক প্রবন্ধ

Post Top Ad

স্বাগতম

07 August, 2020

Yajurveda 38/28

 ऋषि: - दीर्घतमा ऋषिःदेवता - यज्ञो देवताछन्दः - स्वराड्धृतिःस्वरः - ऋषभः

पय॑सो॒ रेत॒ऽआभृ॑तं॒ तस्य॒ दोह॑मशीम॒ह्युत्त॑रामुत्तरा॒ समा॑म्।त्विषः॑ सं॒वृक् क्रत्वे॒ दक्ष॑स्य ते सुषु॒म्णस्य॑ ते सुषुम्णाग्निहु॒तः।इन्द्र॑पीतस्य प्र॒जाप॑तिभक्षितस्य॒ मधु॑मत॒ऽ उप॑हूत॒ऽ उप॑हूतस्य भक्षयामि॥२८॥

स्वर सहित पद पाठ

पय॑सः। रेतः॑। आभृ॑त॒मित्याऽभृ॑तम्। तस्य॑। दोह॑म्। अ॒शी॒म॒हि॒। उत्त॑रामुत्तरा॒मित्युत्त॑राम्ऽउत्त॑राम्। समा॑म्। त्विषः॑। सं॒वृगिति॑ स॒म्ऽवृक्। क्रत्वे॑। दक्ष॑स्य। ते॒। सु॒षु॒म्णस्य॑। सु॒सु॒म्नस्येति॑ सुऽसु॒म्नस्य॑। ते॒। सु॒षु॒म्ण॒। सु॒सु॒म्नेति॑ सुऽसुम्न। अ॒ग्नि॒हु॒त इत्य॑ग्निऽहु॒तः ॥ इन्द्र॑पीत॒स्येतीन्द्रऽपीतस्य। प्र॒जाप॑तिभक्षित॒स्येति॑ प्र॒जाप॑तिऽभक्षितस्य। मधु॑मत॒ इति॒ मधु॑ऽमतः। उप॑हूत॒ इत्युप॑ऽहूतः। उप॑हूत॒स्येत्युप॑ऽहूतस्य। भ॒क्ष॒या॒मि॒ ॥२८ ॥


स्वर रहित मन्त्र

पयसो रेतऽआभृतन्तस्य दोहमशीमह्युत्तरामुत्तराँ समाम् । त्विषः सँवृक्क्रत्वे दक्षस्य ते सुषुवाणस्य ते सुषुम्णाग्निहुतः । इन्द्रपीतस्य प्रजापतिभक्षितस्य मधुमतऽउपहूतऽउपहूतस्य भक्षयामि ॥


स्वर रहित पद पाठ

पयसः। रेतः। आभृतमित्याऽभृतम्। तस्य। दोहम्। अशीमहि। उत्तरामुत्तरामित्युत्तराम्ऽउत्तराम्। समाम्। त्विषः। संवृगिति सम्ऽवृक्। क्रत्वे। दक्षस्य। ते। सुषुम्णस्य। सुसुम्नस्येति सुऽसुम्नस्य। ते। सुषुम्ण। सुसुम्नेति सुऽसुम्न। अग्निहुत इत्यग्निऽहुतः॥ इन्द्रपीतस्येतीन्द्रऽपीतस्य। प्रजापतिभक्षितस्येति प्रजापतिऽभक्षितस्य। मधुमत इति मधुऽमतः। उपहूत इत्युपऽहूतः। उपहूतस्येत्युपऽहूतस्य। भक्षयामि॥२८॥

पदार्थ -
हे (सुषुम्ण) शोभन सुखयुक्त जन! जैसे आपने जिस (पयसः) जल वा दूध के (रेतः) पराक्रम को (आभृतम्) पुष्ट वा धारण किया (तस्य) उसकी (दोहम्) पूर्णता तथा (उत्तरामुत्तराम्) उत्तर-उत्तर (समाम्) समय को (अशीमहि) प्राप्त होवें। उस (ते) आपकी (क्रत्वे) बुद्धि के लिये (त्विषः) प्रकाशित (दक्षस्य) बल के और (ते) आपकी पुष्टि वा धारण को प्राप्त होवें (सुषुम्णस्य) सुन्दर सुख देनेवाले (इन्द्रपीतस्य) सूर्य्य वा जीव ने ग्रहण किये (प्रजापतिभक्षितस्य) प्रजारक्षक ईश्वर ने सेवन वा जीव ने भोजन किये (उपहूतस्य) समीप लाये हुए (मधुमतः) दूध वा जल के दोषों को (संवृक्) सम्यक् अलग करनेवाला (उपहूतः) समीप बुलाया गया और (अग्निहुतः) अग्नि में होम करनेवाला मैं (भक्षयामि) भोजन वा सेवन करूं॥२८॥

भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि सदा वीर्य बढ़ावें, विद्यादि शुभगुणों का धारण करें, प्रतिदिन सुख बढ़ावें। जैसे अपना सुख चाहें, वैसे औरों के लिये भी सुख की आकाङ्क्षा किया करें॥२८॥

No comments:

Post a Comment

ধন্যবাদ

বৈশিষ্ট্যযুক্ত পোস্ট

বৈদিক রশ্মি বিজ্ঞানম্

  বে দ ছন্দ রূপ ! ছন্দ বিষয়ে মহর্ষি যাস্ক বলেছেন- "ছন্দাংসি ছাদনাত্" (নিরুক্ত ৭।১২) এই বিষয়ে দৈবত ব্রাহ্মণ ৩।১২ তে বলা হয়েছে "...

Post Top Ad

ধন্যবাদ