যজুর্বেদ ১৭/৩১ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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13 September, 2022

যজুর্বেদ ১৭/৩১

 

ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिःदेवता - विश्वकर्मा देवताछन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिःस्वरः - पञ्चमः

ন তং বিদাথ য়ऽইমা জজানন্যদ্যুষ্মাকমন্তরং বভূব । 

নীহারেণ প্রাবৃতা জল্প্যা চাসুতৃপऽউক্থশাসশ্চরন্তি ।।  

(যজুর্বেদ ১৭।৩১)
সরলার্থঃ হে মানব! যে পরমাত্মা এই সমস্ত ভুবনের উৎপন্নকারী বিশ্বকর্মা, যিনি এই কার্যকারণরূপ জগৎ ও জীব থেকে পৃথক হয়েও সবার মধ্যে বিরাজমান, সেই ব্রহ্মকে তুমি জানো না। অজ্ঞানরূপ অন্ধকার দ্বারা আচ্ছাদিত, মিথ্যাবাদ ও নাস্তিকতার বৃথাতর্কে লিপ্ত হয়ে নিজ প্রাণ পোষণে সংলগ্ন ব্যক্তিগণ, যারা কেবল শব্দের আবৃত্তি করে, তারা এই জগতে ইতস্তত ভ্রমণ করে, কিন্তু সেই ব্রহ্মকে জানতে পারে না।
যজুর্বেদ ১৭/৩১



स्वर सहित पद पाठ

न। तम्। वि॒दा॒थ॒। यः। इ॒मा। ज॒जान॑। अ॒न्यत्। यु॒ष्माक॑म्। अन्तर॑म्। ब॒भू॒व॒। नी॒हा॒रेण॑। प्रावृ॑ताः। जल्प्या॑। च॒। अ॒सु॒तृप॒ इत्य॑सु॒ऽतृपः॑। उ॒क्थ॒शासः॑। उ॒क्थ॒शस॒ इत्यु॑क्थ॒ऽशसः॑। च॒र॒न्ति॒ ॥३१ ॥


स्वर रहित मन्त्र

न तँविदाथ यऽइमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरम्बभूव । नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृपऽउक्थशासश्चरन्ति ॥


स्वर रहित पद पाठ

न। तम्। विदाथ। यः। इमा। जजान। अन्यत्। युष्माकम्। अन्तरम्। बभूव। नीहारेण। प्रावृताः। जल्प्या। च। असुतृप इत्यसुऽतृपः। उक्थशासः। उक्थशस इत्युक्थऽशसः। चरन्ति॥३१॥

पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे ब्रह्म के न जानने वाले पुरुष (नीहारेण) धूम के आकार कुहर के समान अज्ञानरूप अन्धकार से (प्रावृताः) अच्छे प्रकार ढके हुए (जल्प्या) थोड़े सत्य-असत्य वादानुवाद में स्थिर रहने वाले (असुतृपः) प्राणपोषक (च) और (उक्थशासः) योगाभ्यास को छोड़ शब्द-अर्थ के सम्बन्ध के खण्डन-मण्डन में रमण करते हुए (चरन्ति) विचरते हैं, वैसे तुम लोग (तम्) उस परमात्मा को (न) नहीं (विदाथ) जानते हो (यः) जो (इमा) इन प्रजाओं को (जजान) उत्पन्न करता और जो ब्रह्म (युष्माकम्) तुम अधर्मी अज्ञानियों के सकाश से (अन्यत्) अर्थात् कार्य्यकारणरूप जगत् और जीवों से भिन्न (अन्तरम्) तथा सबों में स्थित भी दूरस्थ (बभूव) होता है, उस अतिसूक्ष्म आत्मा अर्थात् परमात्मा को नहीं जानते हो॥

भावार्थ - जो पुरुष ब्रह्मचर्य्य आदि व्रत, आचार, विद्या, योगाभ्यास, धर्म के अनुष्ठान, सत्संग और पुरुषार्थ से रहित हैं, वे अज्ञानरूप अन्धकार में दबे हुए, ब्रह्म को नहीं जान सकते। जो ब्रह्म जीवों से पृथक्, अन्तर्यामी, सब का नियन्ता और सर्वत्र व्याप्त है, उसके जानने को जिनका आत्मा पवित्र है, वे ही योग्य होते हैं, अन्य नहीं॥

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