অথর্ববেদ ৩/২৯/১-২ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

14 October, 2022

অথর্ববেদ ৩/২৯/১-২

ऋषि: - उद्दालकःदेवता - शितिपाद् अविःछन्दः - पथ्यापङ्क्तिःसूक्तम् - अवि सूक्त

য়দ্রাজানো বিভজন্ত ইষ্টাপূর্তস্য ষোডশম্ য়মস্যামী সভাসদঃ। 

অবিস্তস্মাত্প্র মুম্চতি দত্তঃশিতিপাত্ স্বধা।। (অথর্বঃ ৩|২৯|১)

पदार्थ -
(यत्) जिस कारण से (यमस्य) नियमकर्त्ता परमेश्वर के (अमी सभासदः) ये सभासद् (राजानः) ऐश्वर्यवाले राजा लोग (इष्टापूर्तस्य) यज्ञ, वेदाध्ययन, अन्न दानादि पुण्यकर्म के [फल], (षोडशम्) सोलहवें पदार्थ मोक्ष को [चार वर्ण, चार आश्रम, सुनना, विचारना, ध्यान करना, अप्राप्त की इच्छा, प्राप्त की रक्षा, रक्षित का बढ़ाना, बढ़े हुए का अच्छे मार्ग में व्यय करना, इन पन्द्रह प्रकार के अनुष्ठान से पाये हुए सोलहवें मोक्ष को] (विभजन्ते) विशेष करके भोगते हैं, (तस्मात्) उसी कारण से [आत्मा को] (दत्तः) दिया हुआ, (शितिपात्) उजियाले और अन्धेरे में गतिवाला, (अविः) प्रभु (स्वधा) हमारे आत्मा को पुष्ट करनेवाला वा धन का देनेवाला अमृतरूप वा अन्न रूप होकर [पुरुषार्थी को] (प्र) अच्छे प्रकार से (मुञ्चति) मुक्त करता है ॥१॥

भावार्थ - धर्मराज परमेश्वर की आज्ञा माननेवाले पुरुषार्थी स्त्री पुरुष मोक्ष सुख भोगते रहते हैं, इसीसे सब लोग उस अन्तर्यामी को हृदय में रखकर पुरुषार्थ से (स्वधा) अमृत अर्थात् आत्मबल और धनधान्य पाकर मोक्ष आनन्द भोगें ॥१॥-अथर्ववेद भाष्य (पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी) 

সর্বান্ কামান্ পূরয়ত্যাভবন্ প্রভবন্ ভবন্।

আকূতিপ্রোऽবির্দত্তঃ শিতিপান্নোপ দস্যতি।।-(অথর্বঃ ৩|২৯|২)

ऋषि: - उद्दालकःदेवता - शितिपाद् अविःछन्दः - अनुष्टुप्सूक्तम् - अवि सूक्त

सर्वा॒न्कामा॑न्पूरयत्या॒भव॑न्प्र॒भव॒न्भव॑न्। 

आ॑कूति॒प्रोऽवि॑र्द॒त्तः शि॑ति॒पान्नोप॑ दस्यति ॥

स्वर सहित पद पाठ

सर्वा॑न् । कामा॑न् । पू॒र॒य॒ति॒ । आ॒ऽभव॑न् । प्र॒ऽभव॑न् । भव॑न् । आ॒कू॒ति॒ऽप्र: । अवि॑: । द॒त्त: । शि॒ति॒ऽपात् । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ ॥२९.२॥


स्वर रहित मन्त्र

सर्वान्कामान्पूरयत्याभवन्प्रभवन्भवन्। आकूतिप्रोऽविर्दत्तः शितिपान्नोप दस्यति ॥

स्वर रहित पद पाठ

सर्वान् । कामान् । पूरयति । आऽभवन् । प्रऽभवन् । भवन् । आकूतिऽप्र: । अवि: । दत्त: । शितिऽपात् । न । उप । दस्यति ॥२९.२॥

অথর্ববেদ ৩/২৯/১

पदार्थ -
(आकूतिप्रः) संकल्पों का पूरा करनेवाला, [आत्मा को] (दत्तः) दिया हुआ, (शितिपात्) प्रकाश और अप्रकाश में गतिवाला (अविः) रक्षक प्रभु (आभवन्) व्यापक, (प्रभवन्) समर्थ और (भवन्) वर्तमान होता हुआ (सर्वान्) कामान् तब सुन्दर कामनाओं को (पूरयति) पूरा करता है, और (न) नहीं (उपदस्यति) घटता है ॥२॥

भावार्थ - उस सर्वशक्तिमान् परमात्मा का इतना बड़ा कोश है कि सब सृष्टि की शुभ कामनाओं को पूरा करते-करते भी भरपूर ही बना रहते हैं ॥२॥ बृहदारण्यकोपनिषद में पाठ है−पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ बृहदा० ५।१।१ ॥ ओ३म्। वह [ब्रह्म] पूर्ण [भरपूर] है, यह [जगत्] पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण उदय होता है, पूर्ण से पूर्ण लेकर पूर्ण ही बच रहता है ॥२॥


অর্থাৎ - রাজার সভা আর সমিতিরূপী দুই কন্যা আমার রক্ষা করুক। এরা উভয়ে নিজেদের মধ্যে সুসম্পর্কিত হোক, যারদ্বারা আমি যে সভাসদের সঙ্গে মিলিত হবো সেটি আমাকে জ্ঞান দিবে, অতঃ হে সভাসদ্! আপনারা সঙ্গতে আর সভাতে সঠিকভাবে বলুন। হে সভা! আমরা তোমার নাম জানি, অতঃ যেসব তোমার সভাসদ্ রয়েছে সেসব আমার সঙ্গে সত্য বচনের বক্তা হোক। রাষ্ট্রপতির যেসব বড়ো-বড়ো রাজে (প্রান্তিক সরকার) সভাসদ্ রয়েছে, সেসব ইষ্টাপূর্ত্তের ষোলভাগ কেন্দ্রীয় সরকারকে ভাগ করে দেয়। সেই বিভাজিত ধন তাদের রক্ষক হয়, তাদের হানি থেকে বাঁচায় আর আত্মনির্ভয়ের জন্য বল দিয়ে দেয়। আর সংকল্পকে পূর্ণ করার সঙ্গে সব কামনাগুলোতে বিজয়ী, প্রভাবশালী আর বৃদ্ধিযুক্ত করে পূর্ণ করে দেয়।

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