যজুর্বেদ ১০/২৪ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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30 October, 2022

যজুর্বেদ ১০/২৪

 ऋषि: - वामदेव ऋषिःदेवता - सूर्यो देवताछन्दः - भूरिक आर्षी जगती,स्वरः - निषादः

হꣳসঃ শুচিষদ্ বসুরন্তরিক্ষসদ্ধোতা বেষিদতিথিদুরোণসৎ । 

নূষ রসদৃসদ ব্যোমসব্জা গোজাऽঋজাऽঅদ্রিজাऽঋতং বৃহৎ ৷৷ যজু০ ১০।২৪ ॥ 

পদার্থ ঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমাদের উচিত যে, যে পরমেশ্বর (হংস) সব পদার্থকে স্থূল করেন (শুচিষৎ) পবিত্র পদার্থে স্থিত (বসুঃ) নিবাস করেন এবং করান (অন্তরিক্ষসৎ) শূন্যজনিত স্থানে থাকেন, (হোতাঃ) সর্ব পদার্থের দাতা ও গ্রহণকৰ্ত্তা এবং প্রলয় কৰ্ত্তা, (বেদিষৎ) পৃথিবীতে ব্যাপক্ (অতিথিঃ) অভ্যাগত সম সৎকার করিবার যোগ্য (দুরোণসৎ) গৃহে স্থিত (নৃষৎ) মনুষ্যের ভিতরে থাকেন (বরসৎ) উত্তম পদার্থে বাস করেন (ঋতসৎ) সত্যপ্রকৃতি আদি নামযুক্ত কারণে স্থিত (ব্যোমসৎ) ব্যোমে নিবাস করেন (অৰ্জাঃ) জলকে প্রসিদ্ধ করিয়া (গোজাঃ) পৃথিবী আদি তত্ত্বের উৎপন্ন করেন (ঋতজাঃ) সত্যবিদ্যার পুস্তক বেদকে প্রসিদ্ধ করিয়া (অদ্রিজাঃ) মেঘ, পর্বত ও বৃক্ষাদি রচনা করেন (ঋতম্) সেই সত্যস্বরূপ এবং সর্ববৃহৎ অনন্তের উপাসনা কর ॥২৪ ॥
ভাবার্থ :- মনুষ্যের উচিত যে, সর্বত্র ব্যাপক এবং পদার্থের শুদ্ধিকারক ব্রহ্ম পরমাত্মারই উপাসনা করুক কেননা তাঁহারই উপাসনা ব্যতীত কেহ ধৰ্ম্ম-অর্থ-কাম মোক্ষ হইতে উৎপন্ন পূর্ণ সুখ কখনও হইতে পারে না ॥২৪ ৷৷

ह॒ꣳसः शु॑चि॒षद् वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत्। 

नृ॒षद्व॑र॒सदृ॑त॒सद् व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जाऽऋ॑त॒जाऽअ॑द्रि॒जाऽऋ॒तं बृ॒हत्॥


अन्वयः - हे मनुष्या! भवन्तो यः परमेश्वरो हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसन्नृषद् वरसदृतसद् व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहदस्ति तमेवोपासीरन्॥२४॥

যজুর্বেদ ১০/২৪

पदार्थः -
(हंसः) यः संहन्ति सर्वान् पदार्थान् स जगदीश्वरः (शुचिषत्) यः शुचिषु पवित्रेषु पदार्थेषु सीदति सः (वसुः) वस्ता वासयिता वा (अन्तरिक्षसत्) योऽन्तरिक्षेऽवकाशे सीदति (होता) दाता ग्रहीताऽत्ता वा (वेदिषत्) वेद्यां पृथिव्यां सीदति (अतिथिः) अविद्यमाना तिथिर्यस्य तद्वन्मान्यः (दुरोणसत्) यो दुरोणे गृहे सीदति सः। दुरोण इति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰३.४) (नृषत्) यो नृषु सीदति सः (वरसत्) यो वरेषूत्तमेषु पदार्थेषु सीदति सः (ऋतसत्) य ऋतेषु सत्येषु प्रकृत्यादिषु सीदति सः (व्योमसत्) यो व्योमनि सीदति सः (अब्जाः) योऽपो जनयति (गोजाः) यो गाः पृथिव्यादीन् जनयति (ऋतजाः) यः सत्यविद्यामयं वेदं जनयति (अद्रिजाः) यो मेघपर्वतवृक्षादीन् जनयति सः (ऋतम्) सत्यस्वरूपम् (बृहत्) महद् ब्रह्म॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५.४.३.२२) व्याख्यातः॥२४॥

पदार्थ -
हे मनुष्यो! आप लोगों को चाहिये कि जो परमेश्वर (हंसः) सब पदार्थों को स्थूल करता (शुचिषत्) पवित्र पदार्थों में स्थित (वसुः) निवास करता और कराता (अन्तरिक्षसत्) अवकाश में रहता (होता) सब पदार्थ देता ग्रहण करता और प्रलय करता (वेदिषत्) पृथिवी में व्यापक (अतिथिः) अभ्यागत के समान सत्कार करने योग्य (दुरोणसत्) घर में स्थित (नृषत्) मनुष्यों के भीतर रहता (वरसत्) उत्तम पदार्थों में वसता (ऋतसत्) सत्यप्रकृति आदि नाम वाले कारण में स्थित (व्योमसत्) पोल में रहता (अब्जाः) जलों को प्रसिद्ध करता (गोजाः) पृथिवी आदि तत्त्वों को उत्पन्न करता (ऋतजाः) सत्यविद्याओं के पुस्तक वेदों को प्रसिद्ध करता (अद्रिजाः) मेघ, पर्वत और वृक्ष आदि को रचता (ऋतम्) सत्यास्वरूप और (बृहत्) सब से बड़ा अनन्त है, उसी की उपासना करो॥२४॥









भावार्थ - मनुष्यों को उचित है कि सर्वत्र व्यापक और पदार्थों की शुद्धि करनेहारे ब्रह्म परमात्मा ही की उपासना करें, क्योंकि उस की उपासना के बिना किसी को धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष से होने वाला पूर्ण सुख कभी नहीं हो सकता॥२४॥








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