ऋषि: - दीर्घतमा औचथ्यःदेवता - विष्णुःछन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्स्वरः - धैवतः
প্র বঃ পাস্তমন্ধসো ধিয়ায়তে মহে শূরায় বিষ্ণবে চার্চত।
যা সানুনি পর্বতানামদাভ্যা মহস্তস্থতুরর্বতেব সাধুনা॥
ঋগ্বেদ ১।১৫৫।১
ভাবার্থঃ এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে। যারা বিদ্যাদান, উত্তম শিক্ষা এবং বিজ্ঞান দ্বারা অপরকে জ্ঞান প্রদান করেন তাঁরা মহাত্মা হন ॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो ! (धियायते) प्रज्ञा और धारण की इच्छा करनेवाले (महे) बड़े और (शूराय) शूरता आदि गुणों से युक्त (विष्णवे, च) और शुभ गुणों में व्याप्त महात्मा के लिये (वः) तुम्हारे (अन्धसः) गीले अन्न आदि पदार्थ के (पान्तम्) पान को तुम (प्र, अर्चत) उत्तमता से सत्कार के साथ देओ। तथा (या) जो (अदाभ्या) हिंसा न करने योग्य मित्र और वरुण अर्थात् अध्यापक और उपदेशक (पर्वतानाम्) पर्वतों के (सानुनि) शिखर पर (अर्वतेव) जानेवाले घोड़े के समान (साधुना) उत्तम सिखाये हुए शिष्य से (महः) बड़ा जैसे हो वैसे (तस्थतुः) स्थित होते अर्थात् जैसे घोड़ा से ऊँचे स्थान पर पहुँच जावें वैसे विद्या पढ़ाकर कीर्त्ति के शिखर पर चढ़ जाते हैं, उनका भी उत्तम सत्कार करो ॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्यादान, उत्तम शिक्षा और विज्ञान से जनों को वृद्धि देते हैं, वे महात्मा होते हैं ॥
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