ऋषि: - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसःदेवता - इन्द्र:छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्स्वरः - धैवतः
ऋषि: - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसःदेवता - इन्द्र:छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्स्वरः - धैवतः
বধীর্হি দস্যুম্ ধনিনম্ ঘনেনঁ একশ্চরন্নুপশাকেভিরিন্দ্র।
ধনোরধি বিষুণক্তে ব্যায়ন্নয়জ্বানঃ সনকা প্রেতিমীয়ুঃ।।-(ঋঃ ১|৩৩|৪)
वधी॒र्हि दस्युं॑ ध॒निनं॑ घ॒नेनँ॒ एक॒श्चर॑न्नुपशा॒केभि॑रिन्द्र ।
धनो॒रधि॑ विषु॒णक्ते व्या॑य॒न्नय॑ज्वानः सन॒काः प्रेति॑मीयुः ॥
स्वर सहित पद पाठवधीः॑ । हि । दस्यु॑म् । ध॒निन॑म् । घ॒नेन॑ । एकः॑ । चर॑न् । उ॒प॒ऽशा॒केभिः॑ । इ॒न्द्र॒ । धनोः॑ । अधि॑ । वि॒षु॒णक् । ते॒ । वि । आ॒य॒न् । अय॑ज्वानः । स॒न॒काः । प्रऽइ॑तिम् । ई॒युः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र । धनोरधि विषुणक्ते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ॥
स्वर रहित पद पाठवधीः । हि । दस्युम् । धनिनम् । घनेन । एकः । चरन् । उपशाकेभिः । इन्द्र । धनोः । अधि । विषुणक् । ते । वि । आयन् । अयज्वानः । सनकाः । प्रइतिम् । ईयुः॥
विषय - अगले मन्त्र में इन्द्रशब्द से उसीके गुणों का उपदेश किया है।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्ययुक्त शूरवीर ! एकाकी आप। जैसे ईश्वर वा सूर्य्यलोक (उपशाकेभिः) सामर्थ्यरूपी कर्मों से (एकः) एक ही (चरन्) जानता हुआ दुष्टों को मारता है वैसे (घनेन) वज्ररूपी शस्त्र से (दस्युम्) बल और अन्याय से दूसरे के धन को हरनेवाले दुष्ट को (वधीः) नाश कीजिये और (विषुणक्) अधर्म से धर्मात्माओं को दुःख देनेवालों के नाश करनेवाले आप (धनोः) धनुष् के (अधि) ऊपर बाणों को निकाल कर दुष्टों को निवारण करके (धनिनम्) धार्मिक धनाढ्य की वृद्धि कीजिये जैसे ईश्वर की निन्दा करनेवाले तथा सूर्यलोक के शत्रु मेघावयव (घनेन) सामर्थ्य वा किरण समूह से नाश को (व्यायन्) प्राप्त होते हैं वैसे (हि) निश्चय करके (ते) तुम्हारे (अयज्वानः) यज्ञ को न करने तथा (सनकाः) अधर्म से औरों के पदार्थों का सेवन करनेवाले मनुष्य (प्रेतिम्) मरण को (ईयुः) प्राप्त हों वैसा यत्न कीजिये ॥४॥
भावार्थ - इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर शत्रुओं से रहित तथा सूर्यलोक भी मेघ से निवृत्त हो जाता है वैसे ही मनुष्यों को चोर, डाकू, वा शत्रुओं को मार और धनवाले धर्मात्माओं की रक्षा करके शत्रुओं से रहित होना अवश्य चाहिये ॥४॥
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