यजुर्वेद अध्याय २ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

27 October, 2022

यजुर्वेद अध्याय २

 ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिःदेवता - यज्ञो देवताछन्दः - निचृत् पङ्क्ति,स्वरः - पञ्चमः

कृष्णो॑ऽस्याखरे॒ष्ठोऽग्नये॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॒ वेदि॑रसि ब॒र्हिषे॑ त्वा॒ जुष्टां॒ प्रोक्षा॑मि ब॒र्हिर॑सि स्रु॒ग्भ्यस्त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॒मि॥१॥

स्वर सहित पद पाठ

कृष्णः॑। अ॒सि॒। आ॒ख॒रे॒ष्ठः। आ॒ख॒रे॒स्थ इत्या॑खरे॒ऽस्थः। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। वेदिः॑। अ॒सि॒। ब॒र्हिषे॑। त्वा॒। जुष्टा॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। ब॒र्हिः। अ॒सि॒। स्रु॒ग्भ्य इति स्रु॒क्ऽभ्यः। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒ ॥१॥


स्वर रहित मन्त्र

कृष्णोस्याखरेष्ठोग्नये त्वा जुष्टम्प्रोक्षामि वेदिरसि बर्हिषे त्वा जुष्टांम्प्रोक्षामि बर्हिरसि स्रुग्भ्यस्त्वा जुष्टंम्प्रोक्षामि ॥


स्वर रहित पद पाठ

कृष्णः। असि। आखरेष्ठः। आखरेस्थ इत्याखरेऽस्थः। अग्नये। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। वेदिः। असि। बर्हिषे। त्वा। जुष्टाम्। प्र। उक्षामि। बर्हिः। असि। स्रुग्भ्य इति स्रुक्ऽभ्यः। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि॥१॥

पदार्थ -
जिस कारण यह यज्ञ (आखरेष्ठः) वेदी की रचना से खुदे हुए स्थान में स्थिर होकर (कृष्णः) भौतिक अग्नि से छिन्न अर्थात् सूक्ष्मरूप और पवन के गुणों से आकर्षण को प्राप्त (असि) होता है, इससे मैं (अग्नये) भौतिक अग्नि के बीच में हवन करने के लिये (जुष्टम्) प्रीति के साथ शुद्ध किये हुए (त्वा) उस यज्ञ अर्थात् होम की सामग्री को (प्रोक्षामि) घी आदि पदार्थों से सींचकर शुद्ध करता हूं और जिस कारण यह (वेदिः) वेदी अन्तरिक्ष में स्थित (असि) होती है, इससे मैं (बर्हिषे) होम किये हुए पदार्थों को अन्तरिक्ष में पहुंचाने के लिये (जुष्टाम्) प्रीति से सम्पादन की हुई (त्वा) उस वेदि को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार घी आदि पदार्थों से सींचता हूं तथा जिस कारण यह (बर्हिः) जल अन्तरिक्ष में स्थिर होकर पदार्थों की शुद्धि कराने वाला (असि) होता है, इससे (त्वा) उसकी शुद्धि के लिये जो कि शुद्ध किया हुआ (जुष्टम्) पुष्टि आदि गुणों को उत्पन्न करनेहारा हवि है, उसको मैं (स्रुग्भ्यः) स्रुवा आदि साधनों से अग्नि में डालने के लिये (प्रोक्षामि) शुद्ध करता हूं॥१॥

अन्वयः - यतोऽयं यज्ञ आखरेष्ठः कृष्णो [ऽसि] भवति तस्मात् त्वा तमहमग्नये जुष्टं प्रोक्षामि। यत इयं वेदिरन्तरिक्षस्थासि भवति, तस्मादहं त्वा तामिमां बर्हिषे जुष्टां प्रोक्षामि। यत इदं बर्हिरुदकमन्तरिक्षस्थं सच्छुद्धिकारि [असि] भवति, तस्मात् त्वा तच्छोधितं जुष्टं हविः स्रुग्भ्योऽहं प्रोक्षामि॥१॥

पदार्थः -
(कृष्णः) अग्निना छिन्नो वायुनाऽकर्षितो यज्ञः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (आखरेष्ठः) समन्तात् खनति यं तस्मिन् तिष्ठतीति सः। खनोडडरेकेकवकाः (अष्टा॰३.३.१२५) अनेन वार्तिकेनाऽऽखरः सिध्यति (अग्नये) हवनार्थाय (त्वा) तद्धविः (जुष्टम्) प्रीत्या संशोधितम् (प्रोक्षामि) शोधितेन घृतादिनाऽऽर्द्रीकरोमि (वेदिः) विन्दति सुखान्यनया सा (असि) भवति (बर्हिषे) अन्तरिक्षगमनाय। बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम् (निघं॰१.३) (त्वा) तां वेदिम् (जुष्टाम्) प्रीत्या संपादिताम् (प्रोक्षामि) प्रकृष्टतया घृतादिना सिञ्चामि (बर्हिः) शुद्धमुदकम्। बर्हिरित्युदकनामसु पठितम् (निघं॰१.१२) (असि) भवति (स्रुग्भ्यः) स्रावयन्ति गमयन्ति हर्विर्येभ्यस्तेभ्यः। अत्र स्रु गतावित्यस्मात्। चिक् च (उणा॰२.६१) अनेन चिक् प्रत्ययः (त्वा) तत् (जुष्टम्) पुष्ट्यादिगुणयुक्तं जलं पवनं वा (प्रोक्षामि) शोधयामि॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.३.३.१-३) व्याख्यातः॥१॥

भावार्थ - ईश्वर उपदेश करता है कि सब मनुष्यों को वेदी बनाकर और पात्र आदि होम की सामग्री ले के उस हवि को अच्छी प्रकार शुद्ध कर तथा अग्नि में होम कर के किया हुआ यज्ञ वर्षा के शुद्ध जल से सब ओषधियों को पुष्ट करता है, उस यज्ञ के अनुष्ठान से सब प्राणियों को नित्य सुख देना मनुष्यों का परम धर्म है॥१॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिःदेवता - यज्ञो देवताछन्दः - स्वराट् जगती,स्वरः - निषादः

अदि॑त्यै॒ व्युन्द॑नमसि॒ विष्णो॑ स्तु॒पोऽस्यूर्ण॑म्रदसं त्वा स्तृणामि स्वास॒स्थां दे॒वेभ्यो॒ भुव॑पतये॒ स्वाहा॒ भुवन॑पतये॒ स्वाहा॑ भू॒तानां॒ पत॑ये॒ स्वाहा॑॥२॥

स्वर सहित पद पाठ

अदि॑त्यै। व्युन्द॑न॒मिति॑। वि॒ऽउन्द॑नम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। स्तु॒पः। अ॒सि॒। ऊर्ण॑म्रदस॒मित्यूर्ण॑ऽम्रदसम्। त्वा॒। स्तृ॒णा॒मि॒। स्वा॒स॒स्थामिति॑ सुऽआ॒स॒स्थाम्। दे॒वेभ्यः॑। भुवप॑तय॒ इति॒ भुव॑ऽपतये। स्वाहा॑। भुव॑नपतय॒ इति॒ भुव॑नऽपतये। स्वाहा॑। भू॒ताना॑म्। पत॑ये स्वाहा॑ ॥२॥


स्वर रहित मन्त्र

अदित्यै व्युन्दनमसि विष्णो स्तुपोऽस्यूर्णम्रदसन्त्वा स्तृणामि स्वासस्थां देवेभ्यो भुवपतये स्वाहा भुवनपतये स्वाहा भूतानांम्पतये स्वाहा ॥


स्वर रहित पद पाठ

अदित्यै। व्युन्दनमिति। विऽउन्दनम्। असि। विष्णोः। स्तुपः। असि। ऊर्णम्रदसमित्यूर्णऽम्रदसम्। त्वा। स्तृणामि। स्वासस्थामिति सुऽआसस्थाम्। देवेभ्यः। भुवपतय इति भुवऽपतये। स्वाहा। भुवनपतय इति भुवनऽपतये। स्वाहा। भूतानाम्। पतये स्वाहा॥२॥

अन्वयः - यतोऽयं विष्णुर्यज्ञोऽदित्या व्युन्दनकार्य्यसि भवति, तस्मात् तमहमनुतिष्ठामि। अस्य विष्णोर्यज्ञस्य स्तुपः प्रस्तर उलूखलाख्यः साधकोऽ(स्य)स्ति, तस्मात् तमहमूर्णम्रदसं स्तृणामि। वेदिर्देवेभ्यो हितासि भवति, तस्मात् तामहं स्वासस्थां रचयामि। कस्मै प्रयोजनायेत्यत्राह। यतोऽयं भुवपतिर्भुवनपतिर्भूतानां पतिरीश्वरः प्रसन्नो भवति, भौतिको वा। सुखसाधको भवति, तस्मै भुवपतये स्वाहा विधेया, भुवनपतये स्वाहा वाच्या, भूतानां च पतये स्वाहा प्रयोज्या भवतीत्यस्मै प्रयोजनाय॥२॥

पदार्थः -
(अदित्यै) पृथिव्याः। अत्र ‘चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि’ (अष्टा॰२.३.६२) इति षष्ठ्यर्थे चतुर्थी (व्युन्दनम्) विविधानामोषध्यादीनामुन्दनं क्लेदनं येन तत् (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (विष्णोः) यज्ञस्य (स्तुपः) शिखा। यज्ञो वै विष्णुस्तस्येयमेव शिखा स्तुपः (शत॰१.३.३.५) (असि) अस्ति (ऊर्णम्रदसम्) ऊर्णानि धान्याच्छादनानि तुषाणि म्रदयति येन तं पाषाणमयम् (त्वा) तम् (स्तृणामि) आच्छादयामि (स्वासस्थाम्) सुष्ठु आसाः प्रक्षिप्तास्तिष्ठन्ति यस्यां सा वेदिस्ताम्। अत्र घञर्थे कविधानम् (अष्टा॰३.३.५८) इति वार्त्तिकेन कः प्रत्ययः (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यसुखेभ्यो वा (भुवपतये) भवन्त्युत्पद्यन्ते भूतानि यस्मिन् संसारे तस्य पतिस्तस्मै जगदीश्वराय। आहवनीयाख्याग्नये वा। अत्र बाहुलकाद् भूधातोरौणादिकः कः प्रत्ययः (स्वाहा) सत्यभाषणयुक्ता वाक्। स्वाहेति वाङ्नामसु पठितम् (निघं॰१.११) स्वाहाशब्दस्यार्थं निरुक्तकार एवं समाचष्टे। स्वाहाकृतयः स्वाहेत्येतत् सु आहेति वा, स्वा वागाहेति, वा स्वं प्राहेति वा, स्वाहुतं हविर्जुहोतीति वा (निरु॰८.२०) यत् शोभनं वचनं सत्यकथनं स्वपदार्थान् प्रति ममत्ववचो मन्त्रोच्चारणेन हवनं चेति स्वाहाशब्दार्था विज्ञेयाः (भुवनपतये) भुवनानां सर्वेषां लोकानां पतिः। पालक ईश्वरः। पालनहेतुर्भौतिको वा तस्मै (स्वाहा) उक्तार्थः (भूतानां पतये) भूतान्युत्पन्नानि यावन्ति वस्तूनि सन्ति तेषां यः पतिः स्वामीश्वर ऐश्वर्य्यहेतुर्भौतिको वा तस्मै (स्वाहा) उक्तार्थः। अयं मन्त्रः (शत॰१.३.३.४-२०) व्याख्यातः॥२॥

पदार्थ -
जिस कारण यह यज्ञ (अदित्यै) पृथिवी के (व्युन्दनम्) विविध प्रकार के ओषधि आदि पदार्थों का सींचने वाला (असि) होता है, इससे मैं उसका अनुष्ठान करता हूं और (विष्णोः) इस यज्ञ की सिद्धि कराने हारा (स्तुपः) शिखारूप (ऊर्णम्रदसम्) उलूखल (असि) है, इससे मैं (त्वा) उस अन्न के छिलके दूर करने वाले पत्थर और उलूखल को (स्तृणामि) पदार्थों से ढाँपता हूं तथा वेदी (देवेभ्यः) विद्वान् और दिव्य सुखों के हित कराने के लिये (असि) होती है, इससे उसको मैं (स्वासस्थाम्) ऐसी बनाता हूं कि जिसमें होम किये हुए पदार्थ अच्छी प्रकार स्थिर हों और जिससे संसार का पति, भुवन अर्थात् लोकलोकान्तरों का पति, संसारी पदार्थों का स्वामी और परमेश्वर प्रसन्न होता है तथा भौतिक अग्नि सुखों का सिद्ध कराने वाला होता है, इस कारण (भुवपतये स्वाहा)(भुवनपतये स्वाहा)(भूतानां पतये स्वाहा) उक्त परमेश्वर की प्रसन्नता और आज्ञापालन के लिये उस वेदी के गुणों से जो कि सत्यभाषण अर्थात् अपने पदार्थों को मेरे हैं, यह कहना वा श्रेष्ठवाक्य आदि उत्तम वाणीयुक्त वेद हैं, उसके मन्त्रों के साथ स्वाहा शब्द का अनेक प्रकार उच्चारण करके यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्मों का विधान किया जाता है, इस प्रयोजन के लिये भी वेदी को रचता हूं॥२॥

भावार्थ - परमेश्वर सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! तुमको वेदी आदि यज्ञ के साधनों का सम्पादन करके सब प्राणियों के सुख तथा परमेश्वर की प्रसन्नता के लिये अच्छी प्रकार क्रियायुक्त यज्ञ करना और सदा सत्य ही बोलना चाहिये और जैसे मैं न्याय से सब विश्व का पालन करता हूं, वैसे ही तुम लोगों को भी पक्षपात छोड़कर सब प्राणियों के पालन से सुख सम्पादन करना चाहिये॥२॥

ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिःदेवता - अग्निः सर्वस्यछन्दः - भूरिक् आर्ची त्रिष्टुप्,भूरिक् आर्ची पङ्क्ति,पङ्क्ति,स्वरः - धैवतः, पञ्चम

ग॒न्ध॒र्वस्त्वा॑ वि॒श्वाव॑सुः॒ परि॑दधातु॒ विश्व॒स्यारि॑ष्ट्यै॒ यज॑मानस्य परि॒धिर॑स्य॒ग्निरि॒डऽई॑डि॒तः। इन्द्र॑स्य बा॒हुर॑सि॒ दक्षि॑णो॒ विश्व॒स्यारि॑ष्ट्यै॒ यज॑मानस्य परि॒धिर॑स्य॒ग्निरि॒डऽई॑डि॒तः। मि॒त्रावरु॑णौ त्वोत्तर॒तः परि॑धत्तां ध्रु॒वेण॒ धर्म॑णा॒ विश्व॒स्यारि॑ष्ट्यै॒ यज॑मानस्य परि॒धिर॑स्य॒ग्निरि॒डऽई॑डि॒तः॥३॥

स्वर सहित पद पाठ

ग॒न्ध॒र्वः। त्वा॒। वि॒श्वाव॑सुः॒। वि॒श्व॑वसु॒रिति॑ वि॒श्वऽव॑सुः। परि॑। द॒धा॒तु॒। विश्व॑स्य। अरि॑ष्ट्यै। यज॑मानस्य। प॒रि॒धिरिति॑ परि॒ऽधिः। अ॒सि॒। अ॒ग्निः। इ॒डः। ई॒डि॒तः। इन्द्र॑स्य। बा॒हुः। अ॒सि॒। दक्षि॑णः। विश्व॑स्य। अरि॑ष्ट्यै। यज॑मानस्य। प॒रि॒धिरिति॑ परि॒ऽधिः। अ॒सि॒। अ॒ग्निः। इ॒डः। ई॒डि॒तः। मि॒त्रावरु॑णौ। त्वा॒। उ॒त्त॒र॒तः। परि॑। ध॒त्ता॒म्। ध्रु॒वेण॑। धर्म॑णा। विश्व॑स्य। अरि॑ष्ट्यै। यज॑मानस्य। प॒रि॒धिरिति॑ परि॒ऽधिः। अ॒सि॒। अ॒ग्निः। इ॒डः। ई॒डि॒तः ॥३॥


स्वर रहित मन्त्र

गन्धर्वस्त्वा विश्वावसुः परिदधातु विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्नडऽईडितः । इन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणो विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिड ईडितः । मित्रावरुणौ त्वोत्तरतः परि धत्तान्धु्रवेण धर्मणा विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिडऽईडितः ॥


स्वर रहित पद पाठ

गन्धर्वः। त्वा। विश्वावसुः। विश्ववसुरिति विश्वऽवसुः। परि। दधातु। विश्वस्य। अरिष्ट्यै। यजमानस्य। परिधिरिति परिऽधिः। असि। अग्निः। इडः। ईडितः। इन्द्रस्य। बाहुः। असि। दक्षिणः। विश्वस्य। अरिष्ट्यै। यजमानस्य। परिधिरिति परिऽधिः। असि। अग्निः। इडः। ईडितः। मित्रावरुणौ। त्वा। उत्तरतः। परि। धत्ताम्। ध्रुवेण। धर्मणा। विश्वस्य। अरिष्ट्यै। यजमानस्य। परिधिरिति परिऽधिः। असि। अग्निः। इडः। ईडितः॥३॥

अन्वयः - विद्वद्भिर्योऽयं गन्धर्वो विश्वावसुरिडोऽग्निरीडितोऽ(स्य)स्ति, स विश्वस्य यजमानस्य चारिष्ट्यै यज्ञं परिदधाति, तस्मात् [त्वा] विद्यासिद्ध्यर्थं मनुष्यो यथावत् परिदधातु। विदुषा यो वायुरिन्द्रस्य बाहुर्दक्षिणः परिधिरिड ईडितोऽग्निश्चा(स्य)स्ति, स सम्यक् प्रयोजितो यजमानस्य विश्वस्यारिष्ट्यै [असि] भवति। यौ ब्रह्माण्डस्थौ गमनागमनशीलौ मित्रावरुणौ प्राणापानौ स्तस्तौ ध्रुवेण धर्मणोत्तरतो विश्वस्य यजमानस्यारिष्ट्यै तं यज्ञं परिधत्तां सर्वतो धारयतः। यो विद्वद्भिरिडः परिधिरीडितोऽग्निर्विद्युदस्ति, सोऽपीमं यज्ञं सर्वतः परिदधात्येतान् मनुष्यो यथागुणं सम्यग् दधातु॥३॥

पदार्थः -
(गन्धर्वः) यो गां पृथिवीं वाणीं वा धरति धारयति वा स गन्धर्वः सूर्य्यलोकः (त्वा) तम् (विश्वावसुः) विश्वं वासयति यः सः (परि) सर्वतोभावे (दधातु) दधाति वा। अत्र लडर्थे लोट् (विश्वस्य) सर्वस्य जगतः (अरिष्ट्यै) दुःखनिवारणेन सुखाय (यजमानस्य) यज्ञानुष्ठातुः (परिधिः) परितः सर्वतः सर्वाणि वस्तूनि धीयन्ते येन सः (असि) भवति। अत्र चतुर्षु प्रयोगेषु पुरुषव्यत्ययः (अग्निः) (इडः) स्तोतुमर्हः। अत्र वर्णव्यत्ययेन ह्रस्वादेशः (ईडितः) स्तुतः (इन्द्रस्य) सूर्य्यस्य (बाहुः) बलं बलकारी वा (असि) अस्ति (दक्षिणः) वृष्टेः प्रापकः। दक्षधातोर्गत्यर्थत्वादत्र प्राप्त्यर्थो गृह्यते (विश्वस्य) सर्वप्राणिसमूहस्य। (अरिष्ट्यै) सुखाय (यजमानस्य) शिल्पविद्यां चिकीर्षोः (परिधिः) विद्यापरिधानम् (असि) भवति (अग्निः) विद्युत् (इडः) दाहप्रकाशादिगुणाधिक्येन स्तोतुमर्हः (ईडितः) अध्येषितः। (मित्रावरुणौ) विश्वस्य प्राणापानौ। प्राणो वै मित्रोऽपानो वरुणः। (शत॰८.२.४.६) (त्वा) तम् (उत्तरतः) उत्तरकाले (परिधत्ताम्) सर्वतो धारयतो वा। अत्र लडर्थे लोट् (ध्रुवेण) निश्चलेन (धर्मणा) स्वाभाविकधारणशक्त्या (विश्वस्य) चराचरस्य (अरिष्ट्यै) सुखहेतवे (यजमानस्य) सर्वमित्रस्य (परिधिः) सर्वविद्यावधिः (अग्निः) प्रत्यक्षो भौतिकः (इडः) विद्याप्राप्तये स्तोतुमर्हः (ईडितः) विद्यामीप्सुभिः सम्यगध्येषितव्यः। अयं मन्त्रः (शत॰१.३.४.१-५) व्याख्यातः॥३॥

पदार्थ -
विद्वान् लोगों ने जिस (गन्धर्वः) पृथिवी वा वाणी के धारण करने वाले (विश्वावसुः) विश्व को बसाने वाले [(परिधिः) सब ओर से सब वस्तुओं को धारण करने वाले] (इडः) स्तुति करने योग्य (अग्निः) सूर्य्यरूप अग्नि की (ईडितः) स्तुति (असि) की है, जो (विश्वस्य) संसार के वा विशेष करके (यजमानस्य) यज्ञ करने वाले विद्वान् के (अरिष्ट्यै) दुःखनिवारण से सुख के लिये इस यज्ञ को (परिदधातु) धारण करता है, इससे विद्वान् [त्वा] उसको विद्या की सिद्धि के लिये (परिदधातु) धारण करे और विद्वानों से जो वायु (इन्द्रस्य) सूर्य्य का (बाहुः) बल और (दक्षिणः) वर्षा की प्राप्ति कराने अथवा (परिधिः) शिल्पविद्या का धारण कराने वाला तथा (इडः) दाह प्रकाश आदि गुणवाला होने से स्तुति के योग्य (ईडितः) खोजा हुआ और (अग्निः) प्रत्यक्ष अग्नि (असि) है। वे वायु वा अग्नि अच्छी प्रकार शिल्पविद्या में युक्त किये हुए (यजमानस्य) शिल्पविद्या के चाहने वाले वा (विश्वस्य) सब प्राणियों के (अरिष्ट्यै) सुख के लिये (असि) होते हैं और जो ब्रह्माण्ड में रहने और गमन वा आगमन स्वभाव वाले (मित्रावरुणौ) प्राण और अपान वायु हैं, वे (ध्रुवेण) निश्चल (धर्मणा) अपनी धारण शक्ति से (उत्तरतः) पूर्वोक्त वायु और अग्नि से उत्तर अर्थात् उपरान्त समय में (विश्वस्य) चराचर जगत् वा (यजमानस्य) सब से मित्रभाव में वर्त्तने वाले सज्जन पुरुष के (अरिष्ट्यै) सुख के हेतु (त्वा) उस पूर्वोक्त यज्ञ को (परिधत्ताम्) सब प्रकार से धारण करते हैं तथा जो विद्वानों से (इडः) विद्या की प्राप्ति के लिये प्रशंसा करने के योग्य और (परिधिः) सब शिल्पविद्या की सिद्धि की अवधि तथा (ईडितः) विद्या की इच्छा करने वालों से प्रशंसा को प्राप्त (अग्निः) बिजुलीरूप अग्नि (असि) है, वह भी इस यज्ञ को सब प्रकार से धारण करता है। इन के गुणों को मनुष्य यथावत् जान के उपयोग करे॥३॥

भावार्थ - ईश्वर ने जो सूर्य्य, विद्युत् और प्रत्यक्ष रूप से तीन प्रकार का अग्नि रचा है, वह विद्वानों से शिल्पविद्या के द्वारा यन्त्रादिकों में अच्छी प्रकार युक्त किया हुआ अनेक कार्य्यों को सिद्ध करने वाला होता है॥३॥

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: निचृद् गायत्री, स्वर: षड्जः

वी॒तिहो॑त्रं त्वा कवे द्यु॒मन्त॒ꣳ समि॑धीमहि। अग्ने॑ बृ॒हन्त॑मध्व॒रे ॥४॥

अन्वय:

(वीतिहोत्रम्) वीतयो विज्ञापिता होत्राख्या यज्ञा येनेश्वरेण। यद्वा वीतयः प्राप्तिहेतवो होत्राख्या यज्ञक्रिया भवन्ति यस्मात्, तं परमेश्वरं भौतिकं वा। ‘वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु’ इत्यस्य रूपम् (त्वा) त्वां तं वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः (कवे) सर्वज्ञ क्रान्तप्रज्ञ, कविं क्रान्तदर्शनं भौतिकं वा (द्युमन्तम्) द्यौर्बहुप्रकाशो विद्यते यस्मिँस्तम्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप् (सम्) सम्यगर्थे (इधीमहि) प्रकाशयेमहि। अत्र बहुलं छन्दसि [अष्टा०२.४.७३] इति श्नमो लुक् (अग्ने) ज्ञानस्वरूपेश्वर, प्राप्तिहेतुं भौतिकं वा (बृहन्तम्) सर्वेभ्यो महान्तं सुखवर्धकमीश्वरं बृहतां कार्य्याणां साधकं भौतिकं वा (अध्वरे) मित्रभावेऽहिंसनीये यज्ञे वा। अयं मन्त्रः (शत०१.३.४.६.) व्याख्यातः ॥४॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे कवे अग्ने जगदीश्वर ! वयमध्वरे बृहन्तं द्युमन्तं वीतिहोत्रं त्वां समिधीमहि ॥ इत्येकः ॥ वयमध्वरे वीतिहोत्रं द्युमन्तं बृहन्तं कवे कविं त्वा तमग्ने भौतिकमग्निं समिधीमहि ॥ इति द्वितीयः ॥४॥

अब अग्नि शब्द से अगले मन्त्र में उक्त दो अर्थों का प्रकाश किया है ॥४॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (कवे) सर्वज्ञ तथा हर एक पदार्थ में अनुक्रम से विज्ञानवाले (अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! हम लोग (अध्वरे) मित्रभाव के रहने में (बृहन्तम्) सब के लिये बड़े से बड़े अपार सुख के बढ़ाने और (द्युमन्तम्) अत्यन्त प्रकाशवाले वा (वीतिहोत्रम्) अग्निहोत्र आदि यज्ञों को विदित करानेवाले (त्वा) आप को (समिधीमहि) अच्छी प्रकार प्रकाशित करें ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ ॥ हम लोग (अध्वरे) अहिंसनीय अर्थात् जो कभी परित्याग करने योग्य नहीं, उस उत्तम यज्ञ में जिसमें कि (वीतिहोत्रम्) पदार्थों की प्राप्ति कराने के हेतु अग्निहोत्र आदि क्रिया सिद्ध होती है और (द्युमन्तम्) अत्यन्त प्रचण्ड ज्वालायुक्त (बृहन्तम्) बड़े-बड़े कार्य्यों को सिद्ध कराने तथा (कवे) पदार्थों में अनुक्रम से दृष्टिगोचर होनेवाले (त्वा) उस (अग्ने) भौतिक अग्नि को (समिधीमहि) अच्छी प्रकार प्रज्वलित करें ॥ यह दूसरा अर्थ हुआ ॥४॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। संसार में जितने क्रियाओं के साधन वा क्रियाओं से सिद्ध होनेवाले पदार्थ हैं, उन सबों को ईश्वर ही ने रचकर अच्छी प्रकार धारण किया है। मनुष्यों को उचित है कि उनकी सहायता से, गुण, ज्ञान और उत्तम-उत्तम क्रियाओं की अनुकूलता से अनेक प्रकार के उपकार लेने चाहियें ॥४॥

देवता: यज्ञो देवता ऋषि: परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: निचृद् ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः

स॒मिद॑सि॒ सूर्य्य॑स्त्वा पु॒रस्ता॑त् पातु॒ कस्या॑श्चिद॒भिश॑स्त्यै। 

स॒वि॒तुर्बा॒हू स्थ॒ऽऊर्ण॑म्रदसं त्वा स्तृणामि स्वास॒स्थं दे॒वेभ्य॒ऽआ त्वा॒ वस॑वो रु॒द्राऽआ॑दि॒त्याः स॑दन्तु ॥५॥

पद पाठ

स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। अ॒सि॒। सूर्य्यः॑। त्वा॒। पु॒रस्ता॑त्। पा॒तु॒। कस्याः॑। चि॒त्। अ॒भिश॑स्त्या॒ इत्य॒भिऽश॑स्त्यै। स॒वि॒तुः। बा॒हूऽइति॑ बा॒हू। स्थः॒। उर्ण॑म्रदस॒मित्यूर्ण॑ऽम्रदसम्। त्वा॒। स्तृ॒णा॒मि॒। स्वा॒स॒स्थमिति॑ सुऽआ॒स॒स्थम्। दे॒वेभ्यः॑। आ। त्वा॒। वस॑वः। रु॒द्राः। आ॒दि॒त्याः स॒द॒न्तु॒ ॥५॥


अन्वय:

(समित्) सम्यगिध्यतेऽनयाऽनेन वा सा समिदग्निप्रदीपकं काष्ठादिकं, वसन्त ऋतुर्वा (असि) भवति। अत्र व्यत्ययः (सूर्य्यः) सुवत्यैश्वर्य्यहेतुर्भवति सोऽयं सूर्य्यलोकः (त्वा) तम् (पुरस्तात्) पूर्वस्मादिति पुरस्तात् (पातु) रक्षति। अत्र लडर्थे लोट् (कस्याः) कस्यै सर्वस्यै। अत्र चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि (अष्टा०२.३.६२) इति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी (चित्) चिदित्युपमार्थे (निरु०१.४) (अभिशस्त्यै) आभिमुख्यायै स्तुतये। ‘शंसु स्तुतौ’ इत्यस्य क्तिन् प्रत्ययान्तः प्रयोगः (सवितुः) सूर्य्यलोकस्य (बाहू) बलवीर्य्याख्यौ (स्थः) स्तः। अत्र व्यत्ययः (ऊर्णम्रदसम्) ऊर्णानि सुखाच्छादनानि म्रदयति येन तं यज्ञम् (त्वा) तम् (स्तृणामि) सामग्र्याऽऽच्छादयामि (स्वासस्थम्) शोभने आसे उपवेशने तिष्ठतीति तम् (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः (आ) समन्तात् क्रियायोगे (त्वा) तम् (वसवः) अग्न्यादयोऽष्टौ (रुद्राः) प्राणापानव्यानोदानसमाननागकूर्म-कृकलदेवदत्तधनञ्जयाख्या दश प्राणा एकादशो जीवश्चेत्येकादश रुद्राः (आदित्याः) द्वादश मासाः। कतमे वसव इति। अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदꣳ सर्वं वसु हितमेते हीदꣳ सर्वं वासयन्ते तद्यदिदꣳ सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति ॥ कतमे रुद्रा इति ॥ दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते यदास्मान्मर्त्याच्छरीरादुत्क्रामन्त्यथ रोदयन्ति। तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति। कतम आदित्या इति। द्वादश मासाः संवत्सरस्यैत आदित्या एते हीदꣳसर्वमाददाना यन्ति यद्यदिꣳसर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति (शत०१४.६.९.४-६) (सदन्तु) अवस्थापयन्ति। षद्लृ इत्यस्य स्थाने वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति [अष्टा०१.४.९ भा०] इति सीदादेशाभावो लडर्थे लोट् च ॥ अयं मन्त्र (शत०१.४.१.७-१२) व्याख्यातः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः -चित् यथा कश्चिन्मर्त्यः सुखार्थं क्रियासिद्धानि द्रव्याणि रक्षित्वाऽऽनन्दयते, तथैव योऽयं यज्ञः समिदसि भवति [त्वा] तं सूर्य्यः कस्या अभिशस्त्यै पुरस्तात् पातु पाति, यौ सवितुर्बाहू स्थः स्तो यो याभ्यां नित्यं विस्तार्य्यते [त्वा] तमूर्णम्रदसं स्वासस्थं यज्ञं वसवो रुद्रा आदित्याः सदन्त्ववस्थापयन्ति प्रापयन्ति [त्वा] तं यज्ञमहमपि सुखाय देवेभ्य आस्तृणामि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः -(चित्) जैसे कोई मनुष्य सुख के लिये क्रिया से सिद्ध किये पदार्थों की रक्षा करके आनन्द को प्राप्त होता है, वैसे ही यह यज्ञ (समित्) वसन्त ऋतु के समय के समान अच्छी प्रकार प्रकाशित (असि) होता है (त्वा) उसको (सूर्य्यः) ऐश्वर्य का हेतु सूर्य्यलोक (कस्याः) सब पदार्थों की (अभिशस्त्यै) प्रकटता करने के लिये (पुरस्तात्) पहिले ही से उनकी (पातु) रक्षा करनेवाला होता है तथा जो कि (सवितुः) सूर्य्यलोक के (बाहू) बल और वीर्य्य (स्थः) हैं, जिन से यह यज्ञ विस्तार को प्राप्त होता है (त्वा) उस (ऊर्णम्रदसम्) सुख के विघ्नों के नाश करने (स्वासस्थम्) और श्रेष्ठ अन्तरिक्षरूपी आसन में स्थित होनेवाले यज्ञ को (वसवः) अग्नि आदि आठ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, सूर्य्य, प्रकाश, चन्द्रमा और तारागण ये वसु (रुद्राः) प्राण, अपान, व्यान, उदान, नाग, कूर्म्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा, ये रुद्र (आदित्याः) बारह महीने (सदन्तु) प्राप्त करते हैं। (त्वा) उसी (ऊर्णम्रदसम्) अत्यन्त सुख बढ़ाने (स्वासस्थम्) और अन्तरिक्ष में स्थिर होनेवाले यज्ञ को मैं भी सुख की प्राप्ति वा (देवेभ्यः) दिव्य गुणों को सिद्ध करने के लिये (आस्तृणामि) अच्छी प्रकार सामग्री से आच्छादित करके सिद्ध करता हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता है कि मनुष्यों को वसु, रुद्र और आदित्यसंज्ञक पदार्थों से जो-जो काम सिद्ध हो सकते हैं, सो-सो सब प्राणियों के पालन के निमित्त नित्य सेवन करने योग्य हैं। तथा अग्नि के बीच जिन-जिन पदार्थों का प्रक्षेप अर्थात् हवन किया जाता है, सो-सो सूर्य्य और वायु को प्राप्त होता है। वे ही उन अलग हुए पदार्थों की रक्षा करके फिर उन्हें पृथिवी में छोड़ देते हैं, जिससे कि पृथिवी में दिव्य ओषधि आदि पदार्थ उत्पन्न होते हैं। उनसे जीवों को नित्य सुख होता है, इस कारण सब मनुष्यों को इस यज्ञ का अनुष्ठान सदैव करना चाहिये ॥५॥





यजुर्वेद भाष्य (स्वामी दयानन्द सरस्वती)


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