ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिःदेवता - सविता देवताछन्दः - निचृदगायत्रीस्वरः - षड्जः
रा॒तिꣳ सत्प॑तिं म॒हे स॑वि॒तार॒मुप॑ ह्वये। आ॒स॒वं दे॒ववी॑तये॥१
রাতিꣳ সৎপতিং মুহে সবিতারমুপ হয়ে ।
আসবং দেবীতয়ে ৷৷
পদার্থ ঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন আমি (মহে) মহতী (দেববীতয়ে) দিব্যগুণ ও বিদ্বান সকলের প্রাপ্তি হেতু (রাতিম্) দাতা (আসবম্) সব দিক দিয়া ঐশ্বৰ্য্যযুক্ত (সৎপতিম্) সত্য বা নিত্য বিদ্যমান জীব অথবা পদার্থ সমূহের পালনকারী এবং (সবিতারম্) সমস্ত সংসারকে উৎপন্ন কারী জগদীশ্বরকে (উপহৄয়ে) ধ্যান-যোগ দ্বারা সমীপে স্তুতি করি সেইরূপ তোমরাও ইহার প্রশংসা করিবে ॥১৩ ৷
ভাবার্থ :- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে। যদি মনুষ্য ধর্ম, অর্থ ও কামের সিদ্ধি লাভ করিতে চাহে তাহা হইলে পরমাত্মারই উপাসনা করিয়া ঈশ্বরের আজ্ঞা পালন করিবে ॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे मैं (महे) बड़ी (देववीतये) दिव्यगुण और विद्वानों की प्राप्ति के लिये (रातिम्) देने हारे (आसवम्) सब ओर से ऐश्वर्ययुक्त (सत्पतिम्) सत्य वा नित्य विद्यमान जीव वा पदार्थों की पालना करने और (सवितारम्) समस्त संसार को उत्पन्न करने हारे जगदीश्वर की (उपह्वये) ध्यानयोग से समीप में स्तुति करूं, वैसे तुम भी इसकी प्रशंसा करो॥१३॥
अन्वयः - हे मनुष्याः! यथाऽहं महे देववीतये रातिमासवं सत्पतिं सवितारमुपह्वये तथा यूथमप्येनं प्रशंसत॥१३॥
पदार्थः -
(रातिम्) दाताराम् (सत्पतिम्) सतां जीवानां पदार्थानां वा पालकम् (महे) महत्यै (सवितारम्) सकलजगदुत्पादकम् (उप) (ह्वये) उपस्तुयाम् (आसवम्) समन्तादैश्वर्ययुक्तम् (देववीतये) दिव्यानां गुणानां विदुषां वा प्राप्तये॥१३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यदि मनुष्य धर्म अर्थ और काम की सिद्धि को चाहें तो परमात्मा की ही उपासना कर उस ईश्वर की आज्ञा में वर्त्तें॥१३॥
No comments:
Post a Comment
ধন্যবাদ