ऋषि: - नारायण ऋषिःदेवता - विद्वांसो देवताछन्दः - निचृदष्टिःस्वरः - पञ्चमः
तप॑से कौला॒लं मा॒यायै॑ क॒र्मार॑ꣳ रू॒पाय॑ मणिका॒रꣳ शु॒भे वप॒ꣳ श॑र॒व्यायाऽइषुका॒रꣳ हे॒त्यै ध॑नुष्का॒रं कर्म॑णे ज्याका॒रं दि॒ष्टाय॑ रज्जुस॒र्जं मृ॒त्यवे॑ मृग॒युमन्त॑काय श्व॒निन॑म्॥
তপসে কৌলালং মায়ায়ৈ কর্মারং রূপায় মণিকারং শুভে বপং শরব্যায়াऽইষুকারং হেত্যৈ ধনুষ্কারং কর্মণে জ্যাকারং দিষ্টায় রজ্জুসর্জং মৃত্যবে মৃগয়ুমন্তকায় শ্বনিনম্ ॥
পদার্থঃ-হে জগদীশ্বর বা রাজন্! আপনি (তপসে) মাটি পোড়াইবার তাপকে সহ্য করিবার জন্য (কৌলালম্) কুম্ভকারের পুত্রকে (মায়ায়ৈ) বুদ্ধি বৃদ্ধি করিবার জন্য (কর্মারম্) উত্তম শোভিত কৰ্ম্ম যে করে তাহাকে (রূপায়) সুন্দর স্বরূপ নির্মাণ করিবার জন্য (মণিকারম্) মণি নির্মাণকারীকে (শুভে) শুভ আচরণের জন্য (বপম্) যেমন কৃষক ক্ষেতকে তদ্রূপ বিদ্যাদি শুভ-গুণসকলের বপনকারীকে (শরব্যায়ৈ) বাণ তৈরী করিবার জন্য (ইষুকারম্ বাণকর্তাকে (হেত্যৈ) বজ্ৰাদি শস্ত্র নির্মাণ করিবার জন্য (অনুষ্কারম্) ধনুকাদির কর্তাকে (কর্মণে) ক্রিয়াসিদ্ধির জন্য (জ্যাকারম্) জ্যার কর্তাকে (দিষ্টায়) এবং যদ্দ্বারা অতিরচনা হয় তাহার জন্য (রজ্জুসজম্) রজ্জু নির্মাণকারীকে উৎপন্ন করুন এবং (মৃত্যবে) মৃত্যু করিবার জন্য প্রবৃত্ত (মৃগম্) ব্যাধকে তথা (অন্তকায়) অন্তকারীর হিতকারী (শ্বনিনম্) বহু কুকুর পালকদেরকে পৃথক বাস করিতে দিন্ ॥
ভাবার্থ :-রাজপুরুষদিগের উচিত যে, যেমন পরমেশ্বর সৃষ্টিতে রচনাবিশেষ দেখিয়েছেন তদ্রূপ শিল্পবিদ্যা দ্বারা এবং সৃষ্টির দৃষ্টান্ত দ্বারা বিশেষ রচনা করিতে থাকিবেন এবং হিংসক তথা কুকুর পালক চান্ডালাদিকে দূরে বাস করিতে দিন ॥
स्वर सहित पद पाठ
तप॑से। कौ॒ला॒लम्। मा॒यायै॑। क॒र्मार॑म्। रू॒पा॑य। म॒णि॒का॒रमिति॑ मणिऽका॒रम्। शु॒भे। व॒पम्। श॒र॒व्या᳖यै। इ॒षु॒का॒रमिती॑षुऽका॒रम्। हे॒त्यै। ध॒नु॒ष्का॒रम्। ध॒नुः॒का॒रमिति॑ धनुःऽका॒रम्। कर्म॑णे। ज्या॒का॒रमिति॑ ज्याऽका॒रम्। दि॒ष्टाय॑। र॒ज्जु॒स॒र्जमिति॑ रज्जुऽस॒र्जम्। मृ॒त्यवे॑। मृ॒ग॒युमिति॑ मृग॒ऽयुम्। अन्त॑काय। श्व॒निन॒मिति॑ श्व॒ऽनिन॑म् ॥७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तपसे कौलालम्मायायै कर्मारँ रूपाय मणिकारँ शुभे वपँ शरव्यायाऽइषुकारँ हेत्यै धनुष्कारङ्कर्मणे ज्याकारन्दिष्टाय रज्जुसर्जम्मृत्यवे मृगयुमन्तकाय श्वनिनम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तपसे। कौलालम्। मायायै। कर्मारम्। रूपाय। मणिकारमिति मणिऽकारम्। शुभे। वपम्। शरव्यायै। इषुकारमितीषुऽकारम्। हेत्यै। धनुष्कारम्। धनुःकारमिति धनुःऽकारम्। कर्मणे। ज्याकारमिति ज्याऽकारम्। दिष्टाय। रज्जुसर्जमिति रज्जुऽसर्जम्। मृत्यवे। मृगयुमिति मृगऽयुम्। अन्तकाय। श्वनिनमिति श्वऽनिनम्॥७॥
अन्वयः - हे जगदीश्वर नरेश वा! त्वं तपसे कौलालं, मायायै कर्मारं, रूपाय मणिकारं, शुभे वपं, शरव्यायै इषुकारं, हेत्यै धनुष्कारं, कर्मणे ज्याकारं, दुष्टाय रज्जुसर्जमासुव। मृत्यवे मृगयुमन्तकाय श्वनिनं परासुव॥७॥
पदार्थः -
(तपसे) तपनाय (कौलालम्) कुलालपुत्रम् (मायायै) प्रज्ञावृद्धये। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्॥ (निघ॰३।९) (कर्मारम्) यः कर्माण्यलंकरोति तम् (रूपाय) सुरूपनिर्मापकाय (मणिकारम्) यो मणीन् करोति तम् (शुभे) शुभाचरणाय (वपम्) यो वपति क्षेत्राणि कृषीवल इव विद्यादिशुभान् गुणाँस्तम् (शरव्यायै) शराणां निर्माणाय (इषुकारम्) य इषून् बाणान् करोति तम् (हेत्यै) वज्रादिशस्त्रनिर्माणाय (धनुष्कारम्) यो धनुरादीनि करोति तम् (कर्मणे) क्रियासिद्धये (ज्याकारम्) यो ज्यां प्रत्यञ्चां करोति तम् (दिष्टाय) दिशत्यतिसृजति येन तस्मै (रज्जुसर्जम्) यो रज्जूः सृजति तम् (मृत्यवे) मृत्युकरणाय प्रवृत्तम् (मृगयुम्) य आत्मानो मृगान् हन्तुमिच्छति तं व्याधम् (अन्तकाय) यो अन्तं करोति तस्मै हितकरम् (श्वनिनम्) बहुश्वपालम्॥७॥
पदार्थ -
हे जगदीश्वर वा राजन्! आप (तपसे) वर्त्तन पकाने के ताप को झेलने के अर्थ (कौलालम्) कुम्हार के पुत्र को (मायायै) बुद्धि बढ़ाने के लिए (कर्मारम्) उत्तम शोभित काम करनेहारे को (रूपाय) सुन्दर स्वरूप बनाने के लिए (मणिकारम्) मणि बनाने वाले को (शुभे) शुभ आचरण के अर्थ (वपम्) जैसे किसान खेत को वैसे विद्यादि शुभ गुणों के बोने वाले को (शरव्यायै) बाणों के बनाने के लिए (इषुकारम्) बाणकर्त्ता को (हेत्यै) वज्र आदि हथियार बनाने के अर्थ (धनुष्कारम्) धनुष् आदि के कर्त्ता को (कर्मणे) क्रियासिद्धि के लिए (ज्याकारम्) प्रत्यञ्चा के कर्त्ता को (दिष्टाय) और जिस से अतिरचना हो उस के लिए (रज्जुसर्जम्) रज्जु बनाने वाले को उत्पन्न कीजिए और (मृत्यवे) मृत्यु करने को प्रवृत्त हुए (मृगयुम्) व्याध को तथा (अन्तकाय) अन्त करनेवाले के हितकारी (श्वनिनम्) बहुत कुत्ते पालने वाले को अलग बसाइये॥७॥
भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिए कि जैसे परमेश्वर ने सृष्टि में रचनाविशेष दिखाये हैं, वैसे शिल्पविद्या से और सृष्टि के दृष्टान्त से विशेष रचना किया करें और हिंसक तथा कुत्तों के पालने वाले चण्डालादि को दूर बसावें॥७॥
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