ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिःदेवता - सविता देवताछन्दः - गायत्रीस्वरः - षड्जः
सु॒ष्टु॒तिꣳ सु॑मती॒वृधो॑ रा॒तिꣳ स॑वि॒तुरी॑महे। प्र दे॒वाय॑ मती॒विदे॑॥
সুষ্টুতিং সুমতীবৃদ্ধে রাতিং সবিতুরীমহে ।
প্ৰ দেবায় মতীবিদে ৷৷
পদার্থ ঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন আমরা (সুমতীবৃধঃ) যাহা উত্তম মতিকে বৃদ্ধি করায় (সবিতুঃ) সকলকে উৎপন্ন করে সেই ঈশ্বরের (সুষ্টুতিম্) সুন্দর ভাবে স্তুতি কর ইহার দ্বারা (মতীবিদে) যে জ্ঞানপ্রাপ্ত করে সেই (দেবায়) বিদ্যাদি গুণসমূহের কাম
মনুষ্যের জন্য (রাতিম্) দিবার জন্য (প্রেমহে) ভালমত যাচনা করেন সেইরূপ এই দিবার প্রক্রিয়াকে এই ঈশ্বরের নিকট তোমরাও যাচনা কর ॥১২ ৷৷
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যখন যখন পরমেশ্বরের প্রার্থনা করিতে ইচ্ছা হয় তখন তখন নিজের জন্য বা অন্যদের জন্য সমস্ত শাস্ত্রের বিজ্ঞানযুক্ত উত্তম বুদ্ধিই চাওয়া উচিত যাহা প্রাপ্ত হইলে সমস্ত সুখের সাধনকে জীব প্রাপ্ত করে ॥
अन्वयः - हे मनुष्याः! यथा वयं सुमतीवृधः सवितुरीश्वरस्य सुष्टुतिं कृत्वैतस्मान्मतीविदे देवाय राति प्रेमहे तथैतामस्माद् यूयमपि याचध्वम्॥१२॥
पदार्थः -
(सुष्टुतिम्) शोभनां स्तुतिम् (सुमतीवृधः) यः सुमतिं वर्द्धयति तस्य। अत्र संहितायाम् [अ॰६.३.११४] इति दीर्घः। (रातिम्) दानम् (सवितुः) सर्वोत्पादकस्य (ईमहे) याचामहे (प्र) (देवाय) विद्यां कामयमानाय (मतीविदे) यो मतिं ज्ञानं विन्दति तस्मै। अत्र संहितायाम् [अ॰६.३.११४] इति दीर्घः॥१२॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (सुमतीवृधः) जो उत्तम मति को बढ़ाता (सवितुः) सब को उत्पन्न करता, उस ईश्वर की (सुष्टुतिम्) सुन्दर स्तुति कर इससे (मतीविदे) जो ज्ञान को प्राप्त होता है, उस (देवाय) विद्या आदि गुणों की कामना करने वाले मनुष्य के लिये (रातिम्) देने को (प्रेमहे) भलीभांति मांगते हैं, वैसे इस देने की क्रिया को इस ईश्वर से तुम लोग भी मांगो॥१२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब-जब परमेश्वर की प्रार्थना करनी योग्य हो, तब-तब अपने लिये वा और के लिये समस्त शास्त्र के विज्ञान से युक्त उत्तम बुद्धि ही मांगनी चाहिये, जिसके पाने पर समस्त सुखों के साधनों को जीव प्राप्त होते हैं॥१२॥
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