वेद उद्गीत - ধর্ম্মতত্ত্ব

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18 November, 2022

वेद उद्गीत

वेद उद्गीत

 अरबों वर्ष पहले समाधि-अवस्था में होकर चार ऋषियों ने अपने अन्तस् में स्फुरित जिस ईश्वरीय ज्ञान को श्रवण किया था उसकी श्रुति संज्ञा है प्रयास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिह्वम्' (ऋग्० ४-५०- १) ।


प्राचीन काल में शिष्य वेदों को गुरुमुख से श्रवण कर कण्ठस्थ कर लिया करते थे इसलिये भी गुरु से सुनने के कारण इसे 'श्रुति' कहा जाता है। 'श्रुति' की रक्षा हमारे मनीषी विद्वानों ने विभिन्न प्रकार के इसके पाठों द्वारा की है और ब्राह्मणेन निष्कारण पडण्णो वेदोऽयेयो शेयश्च' इस पातजल-कथन को सार्थक किया है, ऐसे विप्रों, ऋषियों के चरणों में सादर नमन करने को मन करता है—'अधीतम ध्यापितमर्जितं यशः न शोचनीयं किमपीह विद्यते' ।


सस्वर वेद पाठ का विशेष महत्व है। हमारे संस्कृत साहित्य में विशेषकर धर्मशास्त्र ग्रन्थों में मध्यकाल में स्वार्थी लोगों द्वारा प्रक्षेप किये गये जिस कारण समाज में वैमनस्यता, चीन की दीवार की तरह आज हमारे सम्मुख खड़ी है परन्तु वैदिक संहिताओं में यह प्रक्षेप संभव नहीं हो पाया। इसका जो एक मात्र कारण है वह मन्त्रों का सस्वर वाचन ही है जो विभिन्न विकृति पाठों द्वारा होता है। आधुनिक युग में भी समाज में पनपी कई कुरीतियों, जैसे-सतीप्रथा, मूर्तिपूजा आदि गलत परम्पराओं को भी तथाकथित वेदविद्वानों ने वेद से सिद्ध करने का दुःसाहस किया। जिसका सटीक निराकरण तत्तत् मन्त्रों के विकृतपाठों द्वारा किया गया। ऐसे कुछ उदाहरण है 

१- न तस्य प्रतिमा अस्ति (यजु० ) 

२- पत्नीरविधवा-योनिम (०)


उपर्युक्त उदाहरणों में प्रथम में 'न' उदात्त का 'तस्य' स्वरित के साथ मेलकर 'नतस्य' करने का दुःसाहस किया गया। जबकि उदात्त का स्वरित के साथ मेल नहीं होता है। द्वितीय उदाहरण में 'योनिम् अग्रे' के स्थान पर 'योनिम् अग्ने' और 'पत्नीरविधवा' को पत्नी: विधवा' करने का दुःसाहस किया गया। यदि सस्वर वेदपाठ की परम्परा इस देश में न होती तो यह निश्चित था कि वेदों में भी मिलावट हों गयी होती।


स्वामी दयानन्द जी ने वेदों के तत्कालीन सस्वर वेदपाठियों से सस्वर वेदपाठ का श्रवणकर वेदों की चार संहिताओं को ही प्रामाणिक माना था ।


स्वतन्त्र भारत में आर्य समाजी क्षेत्र में पहलीबार सस्वर वेदपाठ करने के सामान्य नियमों का परिचय देने वाली पुस्तक 'वेद - उद्गीत' को मैंने आद्योपान्त पढ़ा। इसको श्री वीरेन्द्र गुप्तः जी ने बड़ी ही लगन से वर्षों के परिश्रम से लिखा है। स्वयं वेदाङ्गों के विद्वान न होते हुए भी अपने अध्यवसाय से इतना उत्तम ग्रन्थ लिखना निश्चय ही लेखक के स्तुत्य प्रयास को उजागर करता है।


यों तो वीरेन्द्र जी आर्यसमाज के मिशनरी व्यक्ति हैं। इन्होंने अनेक प्रामाणिक पुस्तकें लिखी हैं। जिनमें 'वैदिक विवाह संस्कार पद्धति' से मैं आज तक बहुत प्रभावित था। अब ज्यों-ज्यों इनकी पुस्तकें पढ़ने को मिली त्यों-त्यों मेरी श्रद्धा इनके प्रति बढ़ती गई। परमात्मा से प्रार्थना है कि इन्हें उत्तम स्वास्थ्य मिले और इसी प्रकार समाज की सेवा करते रहें।


प्रस्तुत पुस्तक आर्यसमाज के क्षेत्र में ही नहीं अपितु जहां-जहां भी वेद- ध्वनि गुंजायमान होती है वहाँ सर्वत्र आदर प्राप्त करेगी-ऐसी आशा है। इन्हीं शब्दों के साथ -


हरिद्वार

(ऋपिवोधोत्सव मार्च, २००२)


विदुषां वशंवदः

डा० भारतभूषण विद्यालंकार प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, वेद

एवं

डीन प्राच्यविद्या संकाय गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार- २४९ ४०४


भूमिका


ओ३म् स्वस्तिपन्थामनुचरेम सूर्या चन्द्रमसाविव ।

स्वाध्यायान्मा प्रमदः ।


भारत की प्राचीन परम्परा थी सभी वर्गों के बालक आचार्य के अन्तेवासी बनकर शिक्षा ग्रहण करते थे। दीक्षा के समय उनका उपनयन तथा वेदारम्भ संस्कार होता था। सभी के साथ समान व्यवहार किया जाता। राजा और रंक धनपति या निर्धन की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं होता था। इसके अनेक उदाहरण सामने आते हैं। श्रीकृष्ण और सुदामा ने सद्भाव से सन्दीपन गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की। संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् एवं कवि वाण भट्ट ने अपनी विश्व विख्यात कादम्बरी में उल्लेख किया है कि महाराज तारापीड ने अपने पुत्र चन्द्रापीड के शिक्षा ग्रहण निमित्त | राजधानी से बाहर विद्या मन्दिर बनवाया, जिसमें विभिन्न विषयों के योग्यतम विद्वानों को प्रतिष्ठित किया। जबकी वह राजधानी में ही राजकुमार की शिक्षा की सुन्दर व्यवस्था कर सकते थे। ऐसा क्यों?


१. बालक गुरुकुल में रह कर विद्या, बुद्धि और बल का संचय करते हुए विनय भी ग्रहण करता था। क्योंकि विद्या की सर्वप्रथम देन है विनय । “विद्या ददाति विनयम्" विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता (योग्यता) आती है। पात्रता ही सब गुणों की जननी है।


२. तिर्यग्योनि (पशु-पक्षी) में सहज ज्ञान की प्रबलता होती है किन्तु मानव में संसर्ग ज्ञान प्रमुख रहता है, गाय के ३,४ दिन के बच्चे को नदी या सरोवर में डाल दीजिये-स्वयं तैरने लगेगा किन्तु मानव बड़ा होकर भी बिना अभ्यास के जल में स्वयं नहीं तैर सकता। संसर्गजन्य गुणों की प्राप्ति के लिये बालक को समवयस्क का संसर्ग आवश्यक है।


३. गुरुकुल में रहकर बालक में सुहृद् भाव एवं समभाव बद्ध मूल हो जाता है। इसके लिये कृपया नरोत्तमदास' का 'सुदामा चरित' पढें। मध्य काल युग में गुरुकुल प्रणाली लुप्त प्राय हो गई। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने उसे पुनः प्रतिष्ठित किया। वर्तमान गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त अनेक मेधावी स्नातक समाज को मिले,


जिन्होंने वैदिक दिशा में प्रशस्य कार्य किया। शिक्षा सम्पन्न हो ने पर जब बालक को गृहस्थ आश्रम के योग्य समझते थे तब द्वितीय आश्रम में प्रवेश की अनुमति देते थे।


यह आश्रम बड़ा दायित्व पूर्ण है। यथा नदी नदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् । तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति सं स्थितिम् ।।


जिस प्रकार नदी-नद सागर में आश्रय पाते हैं। उसी प्रकार


सभी आश्रमी गृहस्थ का आश्रय लेते हैं, चारों आश्रमों में केवल यही एक आश्रम उपार्जन करता है शेष तीन इसी पर निर्भर करते हैं। सद् गृहस्थ की यह भावना होती थी। 

कबिरा इतना चाहिये जामे कुटुम्ब समाय ।

मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय ।।


इसी भावना से गृहस्थ सभी आश्रमियों की सेवा करते थे। विद्या, बुद्धि और बल से युक्त अन्तेवासी को आचार्य समावर्तन संस्कार (दीक्षान्त समारोह) के उपदेश देते थे।


सत्यंवद । धर्म चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । सदा सत्यं बोलो। धर्म का आचरण करो। स्वाध्याय में कभी • प्रमाद मत करो। प्रथम दो वाक्यों की यहाँ व्याख्या नहीं कर रहा हूँ। इतना कहकर ही लेखनी को इस विषय में विराम देता हूँ। सत्ये सर्व प्रतिष्ठितम्। धर्मो धारयतिः प्रजाः ।


अब मैं तृतीय वाक्य 'स्वाध्यायान्मा प्रमदः' के विवेचना की ओर ध्यान आकृष्ट करता हूँ। गृहस्थ आश्रम प्रवेश करके भी अन्य कार्य-कलापों की भाँति स्वाध्याय भी परम अपेक्षणीय है। भिन्न रुचि हिलोकः' के अनुसार रुचि या प्रवृत्ति भले ही पृथक् पृथक् हो किन्तु उसकी उपादेयताये किसी को विमति नहीं हमारे भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री माननीय पं० जवाहरलाल नेहरू अपने अति व्यस्त क्षणों में से स्वाध्याय को बराबर समय देते थे, उनके प्रकाशन ही इसके साथी है। यही प्रवृत्ति अन्य नेताओं और राज नेताओं की रही है।


हमारे परम आत्मीय श्री वीरेन्द्र गुप्तः जी स्वाध्याय के कारण ही यहाँ तक पहुँचे हैं। स्वाध्याय के फल स्वरूप उनका व्यक्तित्व जब जनता के सामने आया तो और भी प्रखर हो उठा। कुछ दिन पूर्व उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को लेकर गुणी एवं गुणग्राही महानुभावों ने उनका सार्वजनिक एवं सर्वजनीन अभिनन्दन किया। जिसमें अनेक गणमान्य विद्वान् सहृदय साहित्यिक समाज सेवी नेताओं और राजनेताओं ने समारोह में पधार कर उसे सफल बनाया, जिससे गुप्तः जी के मनोबल को और बल मिला, साथ ही इस दिशा में उनका उत्साह पथ और प्रशस्त बन गया। ईश्वर से प्रार्थना है कि वे अपने ध्येय में सदा सफल रहे।


हमारा भारतीय वाङ्मय दो प्रकार का है--- १- वैदिक वाङ्मय २- लौकिक वाङ्मय दोनों प्रकार के वाङ्मय अत्यन्त समृद्ध तथा सर्वथा मौलिक हैं। चारों वेद (मूल पाठ) ऋग् यजुः, सामं और अथर्व एवं इन वेदों के क्रमशः चार ब्राह्मण प्रन्य, चारों के आरण्यक, उपवेद, गृहासूत्र, स्मृतियाँ, उपांग शास्त्र, और उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के अन्तर्गत आते हैं, शेष सभी वाङ्मय लौकिक वाड्मय माना जाता है। लौकिक वाङ्मय से विविध विषयों का ज्ञान तथा मानसिक सन्तुष्टि मिलती है, किन्तु आध्यात्मिक तृप्ति एवं अन्तश्चेतना वैदिक वाङ्मय से ही मिलती है। प्रायः सभी मनीषी लौकिक को ही अपने स्वाध्याय का विषय बनाते हैं। वैदिक की ओर कम ही आकर्षित होते है। किन्तु हमारे गुप्तः जी का वैदिक स्वाध्याय की ओर अधिक झुकाव रहा है, उसी के फल स्वरूप 'वेद-उद्गीत' नामक ग्रन्थ आपके समक्ष प्रस्तुत है। इस प्रत्य को उपादेयता के बारे में लेखक महोदय ने अपने 'पूर्वावलोकन' में जो लिखा है, उससे आगे अब और लिखना शेष नहीं रह जाता, फिर भी यह ग्रन्थ समीक्षार्थ निबन्धात्मक लघु लेख की अपेक्षा रखता है। इस समय में कुछ अस्वस्थ हूँ, अवस्था भी पर्याप्त आ चुकी है. सामर्थ्य होने पर लिखने का प्रयास करूँगा। इस ग्रन्थ को पाने के लिये गुप्तः जी ने जो लम्बा प्रयास किया वह स्तुत्य है। अन्त में आपने जिन 'खोजा तिन पाइयाँ' सिद्ध कर ही दिया। परम पिता परमात्मा से प्रार्थना. है कि आपका स्वाध्याय सत्र अविरत गति से आगे बढ़ता रहे तथा पाठक वृन्द इसे अपना कर अपनी सहृदयता का परिचय देते रहें।"


द्वितीय आषाढ शुक्लपक्ष चतुर्थी शनिवार सं० २०५३ २०/७/१६

शुभकामनाओं के साथ भगवत सहाय शर्मा आचार्य


वेद उद्गीत


मानव अपनी स्वार्थ सिद्धि की पुष्टि के लिये सर्वोच्च सिद्धान्त में पाठ भेद कर के अर्थों को अपने अनुकूल रचने के लिये किसी भी भावना, विचार धारा और ज्ञान के स्वरूप को बदलने में कुछ भी संकोच नहीं करता और न ही भय का अनुभव करता है। मानव की प्रकृति है कि वह अंकुश में नहीं रहना चाहता, परन्तु इसमें दोष यही है कि वह अंकुश रहित होने पर निरंकुश भी हो जाता है।


हमारे मनीषियों ने मानव की इस प्रकृति को भली प्रकार जान लिया था। तभी उन दिव्य द्रष्टा ऋषियों ने प्रभु की परम पवित्र वेद वाणी की सुरक्षा के लिये एक दुर्ग का निर्माण किया उस दुर्ग का नाम था 'वेद चर्चन दुर्ग'। इस वेद चर्चन विधि दुर्ग में वेद मन्त्रों के विकृति पाठ की आठ रक्षा पंक्तियाँ नियुक्त की गई। कुछ रक्षा पंक्तियों को अधिक सुदृढ़ बनाने के लिये उनके साथ उपरक्षा पंक्तियों को भी सज्जित किया गया था। इस प्रकार की व्यूह रचना से वेद चर्चन दुर्ग को सुदृढ़ बनाया गया। वह किस लिये ? वेद के पवित्र ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिये। यह प्रयास किया गया और इस सुदृढ़ दुर्ग के मध्य में रखा गया वेद । जो १, ९६, ०८, ५३, १०३ वर्ष से आज तक उस दिव्य ज्ञान की पवित्रता बनी हुई है। हालाँकि अनेक बार इस पवित्र ज्ञान को दूषित और भ्रष्ट करने का कुचक्र किया गया, परन्तु वह कभी सफल न हो सके, वेद चर्चन दुर्ग की इन रक्षा पंक्तियाँ ने समय-समय पर उन कुचक्रियों को करारी चोट दी और धराशायी भी कर दिया। इन रक्षा पंक्तियों के नाम इस प्रकार से है। प्रथम की तीन पंक्तियाँ सामान्य कही जाती हैं। १- संहिता पाठ, २- पदपाठ, ३- क्रमपाठ। इसके पश्चात् विकृति पाठों की रक्षा पंक्तियाँ इस प्रकार से है। १- जटापाठ, २- माला पाठ, ३- शिखा पाठ, ४- रेखा पाठ, ५- ध्वजपाठ, ६ दण्ड पाठ, ७- रथ पाठ, ८- घन पाठ।


इन्हीं पाठों ने वेद मन्त्रों में प्रक्षिप्त अंशों की मिलावट करने वालों से वेद मन्त्रों की पवित्रता को सुरक्षित रखा है। तिस पर भी पौराणिक बन्धुओं ने यजुर्वेद ३२।३ के मन्त्र को बिगाड़ने का प्रयत्न किया। उन्होंने "न तस्य प्रतिमा अस्ति" जिसका अर्थ होता है 'उसकी कोई प्रतिमा नहीं' को बदल कर "नतस्य प्रतिमा अस्ति" कर दिया जिसका अर्थ बताया (नतस्य नम्रीभूतस्य तस्य प्रतिमा अस्ति) नम्र रूप को धारण करने वाले, उसकी प्रतिमा है। इस अशुद्ध पाठ के ऊपर क्रान्तिकारी आर्य सन्यासी स्वामी काव्यानन्द सरस्वती जी महाराज का मैसूर में दाक्षिणात्य वेद पाठी विद्वानों के सामने पौराणिक पण्डितों से शास्त्रार्थ हुआ और स्वामी जी ने उपरोक्त पाठों के द्वारा मन्त्र को प्रस्तुत करके सिद्ध कर दिया कि 'न' उदात्त है, 'तस्य' स्वरित है। उदात्त और स्वस्ति की सन्धि नहीं होती। सन्धि उदात्त उदात्त की, अनुदात्त अनुदात्त की और स्वरित-स्वरित की होती है। सवर्णी होने पर तो उदात्त-अनुदात्त की सन्धि हो सकती है और सवर्णी स्वरों में ही होते हैं। परन्तु व्यंजनों में सवर्णी सन्धि नहीं हो सकती। इसलिये यह पाठ "नतस्य" नहीं "न तस्य " ही है। इस घोषणा को दाक्षिणात्य घनान्त वेद पाठी विद्वानों ने भी स्वीकार किया। इसी कारण हमारे धर्म ग्रन्थ चारों वेद सुरक्षित हैं।

बंगाल प्रदेश में सतीदाह प्रथा का ताण्डव भयंकर रूप से छाया हुआ था, इस ताण्डव ने मातृत्व शाक्ति को अपमानित ही नहीं किया वरन् विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था। इस भयंकर ज्वालाओं में ध्वस्त होते हुए समाज को देखकर महामानव राजा राममोहन राय का मन चीत्कार कर उठा, उन्होंने इस प्रथा को समाप्त करने के लिये 'ब्रह्म समाज' की स्थापना की। कट्टरवादी पंडितों ने इस का भरपूर विरोध किया, परन्तु राजा राममोहन राय अपने कार्य में लगे रहे। राजा राममोहन राय ने इस विनाश कारी सतीदाह प्रथा को पूर्ण रूप से समाप्त करने के लिये तथा नियमानुसार प्रतिबन्धित कराने के लिये तत्कालीन भारत के गर्वनर जनरल लार्ड विलियम वैटिक के समय में कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत की। इस का पौराणिक पंडितों ने विरोध किया और अपने पक्ष की पुष्टि में ऋग्वेद के उक्त मन्त्र को प्रस्तुत किया

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