ऋषि: - नारायण ऋषिःदेवता - पुरुषो देवताछन्दः - निचृदनुष्टुप्स्वरः - गान्धारः
সহস্রশীর্ষা পুরুষঃ সহস্রাক্ষঃ সহস্রপাৎ ।
স ভূমিꣳ সর্বত স্পৃত্বাऽত্যতিষ্ঠদ্দশাঙ্গুলম্ ॥যজু০ ৩১।১
स॒हस्र॑शीर्षा॒ पुरु॑षः सहस्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात्।स भूमि॑ꣳ स॒र्वत॑ स्पृ॒त्वाऽत्य॑तिष्ठद्दशाङ्गु॒लम्॥
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ! যিনি (সহস্ৰশীর্ষা) সকল প্রাণিদিগের সহস্র শির (সহস্রাক্ষঃ) সহস্র নেত্র এবং (সহস্রপাৎ) অসংখ্য পাদ যাহার মধ্যে আছে এমন (পুরুষঃ) সর্বত্র পরিপূর্ণ ব্যাপক জগদীশ্বর (সঃ) তিনি (সর্বতঃ) সকল দেশ হইতে (ভূমিম্) ভূগোলে (স্পৃত্বা) সকল দিক দিয়া ব্যাপ্ত হইয়া (দশাঙ্গুলম্) পঞ্চ স্থূল ভূত, পঞ্চ সূক্ষ্মভূত এই দশ যাহার অবয়ব সেই সকল জগৎকে (অতি, অতিষ্ঠৎ) উল্লঙ্ঘন করিয়া স্থিত হয় অর্থাৎ সকলের হইতে পৃথকও স্থির হয় ৷
ভাবার্থ :- হে মনুষ্যগণ ! যে পূর্ণ পরমাত্মায় আমা মনুষ্যাদির অসংখ্য শির, পদাদি অবয়ব আছে, যিনি ভূমি আদি দ্বারা উপলক্ষিত পঞ্চ স্থূল ও পঞ্চ সূক্ষ্মভূত দ্বারা চক্ষু ও যুক্ত জগৎকে স্বীয় সত্তা দ্বারা পূর্ণ করিয়া যেখানে জগৎ নেই সেখানেও পূর্ণ হইতেছে। সেই সব জগতের নির্মাতা পরিপূর্ণ সচ্চিদানন্দ স্বরূপ নিত্য-শুদ্ধ-বুদ্ধ-মুক্ত স্বভাব পরমেশ্বরকে পরিত্যাগ করিয়া অন্যের উপাসনা তুমি কখনও করিবে না কিন্তু সেই ঈশ্বরের উপাসনা দ্বারা ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষকে প্ৰাপ্ত কর ॥
अन्वयः - हे मनुष्याः! यः सहस्रशीर्षा सहस्राक्षः सहस्रपात् पुरुषोऽस्ति, स सर्वतो भूमिं स्पृत्वा दशाङ्गुलमत्यतिष्ठत् तमेवोपासीध्वम्॥१॥
पदार्थः -
(सहस्रशीर्षा) सहस्राण्यसङ्ख्यातानि शिरांसि यस्मिन् सः (पुरुषः) सर्वत्र पूर्णो जगदीश्वरः, ‘पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभिप्रेत्य। यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति किञ्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वमित्यपि निगमो भवति॥’ (निरु॰२.३) (सहस्राक्षः) सहस्राण्यसंख्यातान्यक्षीणि यस्मिन् सः (सहस्रपात्) सहस्राण्यसंख्याताः पादा यस्मिन् सः (सः) (भूमिम्) भूगोलम् (सर्वतः) सर्वस्माद्देशात् (स्पृत्वा) अभिव्याप्य (अति) उल्लङ्घने (अतिष्ठत्) (दशाङ्गुलम्) पञ्चस्थूलसूक्ष्मभूतानि दशाङ्गुलान्यङ्गानि यस्य तज्जगत्॥१॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (सहस्रशीर्षा) सब प्राणियों के हजारों शिर (सहस्राक्षः) हजारों नेत्र और (सहस्रपात्) असङ्ख्य पाद जिसके बीच में हैं, ऐसा (पुरुषः) सर्वत्र परिपूर्ण व्यापक जगदीश्वर है (सः) वह (सर्वतः) सब देशों से (भूमिम्) भूगोल में (स्पृत्वा) सब ओर से व्याप्त हो के (दशाङ्गुलम्) पांच स्थूलभूत, पांच सूक्ष्मभूत ये दश जिसके अवयव हैं, उस सब जगत् को (अति, अतिष्ठत्) उल्लंघकर स्थित होता अर्थात् सब से पृथक् भी स्थिर होता है॥१॥
भावार्थ - हे मनुष्यो! जिस पूर्ण परमात्मा में हम मनुष्य आदि के असंख्य शिर आंखें और पग आदि अवयव हैं, जो भूमि आदि से उपलक्षित हुए पांच स्थूल और पांच सूक्ष्म भूतों से युक्त जगत् को अपनी सत्ता से पूर्ण कर जहां जगत् नहीं वहां भी पूर्ण हो रहा है, उस सब जगत् के बनाने वाले परिपूर्ण सच्चिदानन्दस्वरूप नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव परमेश्वर को छाæेड के अन्य की उपासना तुम कभी न करो, किन्तु उस ईश्वर की उपासना से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करो॥१॥
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