ऋषि: - शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिःदेवता - परमेश्वरो देवताछन्दः - निचृत् पङ्क्तिःस्वरः - पञ्चमः
ন ত্বাবী २॥ऽ অন্যো দিব্যো ন পার্থিবো ন জাতো ন জনিষ্যতে ।
অশ্বায়ন্তো মঘবন্নিন্দ্ৰ বাজিনো গব্যন্তস্ত্বা হৰামহে ৷৷
न त्वावाँ॑ २॥ऽ अ॒न्यो दि॒व्यो न पार्थि॑वो॒ न जा॒तो न ज॑निष्यते।
अ॒श्वा॒यन्तो॑ मघवन्निन्द्र वा॒जिनो॑ ग॒व्यन्त॑स्त्वा हवामहे॥
পদার্থ ঃ- হে (মঘবন্) পরমপূজিত ঐশ্বৰ্য্যসম্পন্ন (ইন্দ্র) সকল দুঃখ বিনাশক পরমেশ্বর! (বাজিনঃ) বেগযুক্ত (গব্যন্তঃ) উত্তম বাণী বলিতে থাকিয়া (অশ্বায়ন্তঃ) শীঘ্রতা কামনাকারী আমরা (ত্বা) আপনার (হবামহে) স্তুতি করি কেননা যে কারণে কোন (অন্যঃ ) অন্য পদার্থ (ন) না কেহ (ত্বাবান্) আপনার তুল্য (দিব্যঃ) শুদ্ধ (ন) না কেহ (পার্থিবঃ) পৃথিবীর উপর প্রসিদ্ধ (ন) না কেহ (জাতঃ) উৎপন্ন হইয়াছে এবং (ন) না (জনিষ্যতে) হইবে, এইজন্য আপনিই আমাদের উপাস্যদেব ॥
ভাবার্থঃ- না কেহ পরমেশ্বর তুল্য শুদ্ধ হইয়াছে, না হইবে এবং না আছে। এইজন্য সকল মনুষ্যদিগের উচিত যে, ইহাকে ত্যাগ করিয়া অন্য কাহারও উপাসনা ইহার স্থানে কদাপি করিবে না। এই কর্ম এই লোক পরলোক আনন্দদায়ক জানিবে ॥
अन्वयः - हे मघवन्निन्द्रेश्वर! वाजिनो गव्यन्तोऽश्वायन्तो वयं त्वा हवामहे, यतः कश्चिदन्यः पदार्थो न त्वावान् दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते तस्माद् भवानेवाऽस्माकमुपास्यो देवोऽस्ति॥३६॥
पदार्थः -
(न) (त्वावान्) त्वत्सदृशः (अन्यः) भिन्नः (दिव्यः) शुद्धः (न) (पार्थिवः) पृथिव्यांविदितः (न) (जातः) उत्पन्नः (न) (जनिष्यते) उत्पत्स्यते (अश्वायन्तः) आत्मनोऽश्वमिच्छन्तः (मघवन्) परमपूजितैश्वर्य (इन्द्र) सर्वदुःखविदारक (वाजिनः) वेगवन्तः (गव्यन्तः) गां वाणीं चक्षाणाः (त्वा) (हवामहे) स्तुवीमः॥३६॥
पदार्थ -
हे (मघवन्) पूजित उत्तम ऐश्वर्य से युक्त (इन्द्र) सब दुःखों के विनाशक परमेश्वर! (वाजिनः) वेगवाले (गव्यन्तः) उत्तम वाणी बोलते हुए (अश्वायन्तः) अपने को शीघ्रता चाहते हुए हम लोग (त्वा) आप की (हवामहे) स्तुति करते हैं, क्योंकि जिस कारण कोई (अन्यः) अन्य पदार्थ (न) न कोई (त्वावान्) आप के (दिव्यः) शुद्ध (न) न कोई (पार्थिवः) पृथिवी पर प्रसिद्ध (न) न कोई (जातः) उत्पन्न हुआ और (न) न (जनिष्यते) होगा, इससे आप ही हमारे उपास्यदेव हैं॥३६॥
भावार्थ - न कोई परमेश्वर के तुल्य शुद्ध हुआ, न होगा और न है। इसी से सब मनुष्यों को चाहिये कि इस को छोड़ अन्य किसी की उपासना इस के स्थान में कदापि न करें, यही कर्म इस लोक, परलोक में आनन्ददायक जानें॥३६॥ स्वामी दयानन्द सरस्वती
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