ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
য়ুজে বাং ব্ৰহ্ম পূৰ্য্যং নমোডিবি শ্লোকऽএতু পথ্যের সূরেঃ।
শৃণ্বন্ত্র বিশ্বেऽঅমৃতস্য পুত্রাऽআ য়ে ধামানি দ্ৰিব্যানি স্তুঃ ॥ যজুর্বেদ ১১।৫।।
पदार्थ -
हे योगशास्त्र के ज्ञान की इच्छा करने वाले मनुष्यो! आप लोग जैसे (श्लोकः) सत्य वाणी से संयुक्त मैं (नमोभिः) सत्कारों से जिस (पूर्व्यम्) पूर्व के योगियों ने प्रत्यक्ष किये (ब्रह्म) सब से बड़े व्यापक ईश्वर को (युजे) अपने आत्मा में युक्त करता हूँ, वह ईश्वर (वाम्) तुम योग के अनुष्ठान और उपदेश करने हारे दोनों को (सूरेः) विद्वान् का (पथ्येव) उत्तम गति के अर्थ मार्ग प्राप्त होता है, वैसे (व्येतु) विविध प्रकार से प्राप्त होवे। जैसे (विश्वे) सब (पुत्राः) अच्छे सन्तानों के तुल्य आज्ञाकारी मोक्ष को प्राप्त हुए विद्वान् लोग (अमृतस्य) अविनाशी ईश्वर के योग से (दिव्यानि) सुख के प्रकाश में होने वाले (धामानि) स्थानों को (आतस्थुः) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं, वैसे मैं भी उनको प्राप्त होऊं॥५॥
अन्वयः - हे योगजिज्ञासवो जनाः! भवन्तो यथा श्लोकोऽहं नमोभिर्यत्पूर्व्यं ब्रह्म युजे, तद्वां सूरेः पथ्येव व्येतु। यथा विश्वे पुत्राः प्राप्तमोक्षा विद्वांसोऽमृतस्य योगेन दिव्यानि धामान्यातस्थुस्तेभ्य एतां योगविद्यां शृण्वन्तु॥५॥
पदार्थः -
(युजे) आत्मनि समादधे (वाम्) युवयोर्योगानुष्ठात्रुपदेशकयोः सकाशाच्छ्रुतवन्तौ (ब्रह्म) बृहद् व्यापकम् (पूर्व्यम्) पूर्वैर्योगिभिः प्रत्यक्षीकृतम् (नमोभिः) सत्कारैः (वि) विविधेऽर्थे (श्लोकः) सत्यवाक्संयुक्तः (एतु) प्राप्नोतु (पथ्येव) यथा पथि साध्वी गतिः (सूरेः) विदुषः (शृण्वन्तु) (विश्वे) सर्वे (अमृतस्य) अविनाशिनो जगदीश्वरस्य (पुत्राः) सुसन्ताना आज्ञापालका इव (आ) (ये) (धामानि) स्थानानि (दिव्यानि) दिवि सुखप्रकाशे भवानि (तस्थुः) आस्थितवन्तः। [अयं मन्त्रः शत॰६.३.१.१७ व्याख्यातः]॥५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। योगाभ्यास के ज्ञान को चाहने वाले मनुष्यों को चाहिये कि योग में कुशल विद्वानों का सङ्ग करें। उन के सङ्ग से योग की विधि को जान के ब्रह्मज्ञान का अभ्यास करें। जैसे विद्वान् का प्रकाशित किया हुआ धर्म मार्ग सब को सुख से प्राप्त होता है, वैसे ही योगभ्यासियों के सङ्ग से योगविधि सहज में प्राप्त होती है। कोई भी जीवात्मा इस सङ्ग और ब्रह्मज्ञान के अभ्यास के विना पवित्र होकर सब सुखों को प्राप्त नहीं हो सकता, इसीलिये उस योगविधि के साथ ही सब मनुष्य परब्रह्म की उपासना करें॥५॥
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