ऋषि: - शङ्ख ऋषिःदेवता - वरुणो देवताछन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्स्वरः - धैवतः
তদস্য রূপমমৃতং শচীভিস্তিস্রো দধুদেবতাঃ সংররাণাঃ।
লোমানি শম্পৈৰ্বধা ন তোন্নভিৰ্গস্য মাঃসমভন্ন লজাঃ ৷৷ যজুর্বেদ ১৯।৮১।।
तद॑स्य रू॒पम॒मृत॒ꣳ शची॑भिस्ति॒स्रो द॑धु॒र्दे॒वताः॑ सꣳररा॒णाः।
लोमा॑नि॒ शष्पै॑र्बहु॒धा न तोक्म॑भि॒स्त्वग॑स्य माँसम॑भव॒न्न ला॒जाः॥८१॥
स्वर सहित पद पाठतत्। अ॒स्य॒। रू॒पम्। अ॒मृत॑म्। शची॑भिः। ति॒स्रः। द॒धुः॒। दे॒वताः॑। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽररा॒णाः। लोमा॑नि। शष्पैः॑। ब॒हु॒धा। न। तोक्म॑भि॒रिति॒ तोक्म॑ऽभिः। त्वक्। अ॒स्य॒। मा॒सम्। अ॒भ॒व॒त्। न। ला॒जाः ॥८१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदस्य रूपममृतँ शचीभिस्तस्रो दधुर्देवताः सँरराणाः ।
लोमानि शष्पैर्बहुधा न तोक्मभिस्त्वगस्य माँसमभवन्न लाजाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
तत्। अस्य। रूपम्। अमृतम्। शचीभिः। तिस्रः। दधुः। देवताः। सꣳरराणा इति सम्ऽरराणाः। लोमानि। शष्पैः। बहुधा। न। तोक्मभिरिति तोक्मऽभिः। त्वक्। अस्य। मासम्। अभवत्। न। लाजाः॥
अन्वयः - हे मनुष्याः! यं संरराणास्तिस्रो देवताः शचीभिर्बहुधा यं यज्ञं शष्पैः सह लोमानि च दधुस्तदस्यामृतं रूपं यूयं विजानीत। अयं तोक्मभिर्नानुष्ठेयः, अस्य मध्ये त्वङ्मांसं लाजा वा हविर्नाभवदिति च वित्त॥
पदार्थः -
(तत्) पूर्वोक्तं सत्यादिकम् (अस्य) यज्ञस्य (रूपम्) स्वरूपम् (अमृतम्) नाशरहितम् (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (तिस्रः) अध्यापकाऽध्येतृपरीक्षकाः (दधुः) दध्युः (देवताः) देवा विद्वांसः (संरराणाः) सम्यग्दातारः (लोमानि) रोमाणि (शष्पैः) दीर्घैर्लोमभिः (बहुधा) बहुप्रकारैः (न) (तोक्मभिः) बालकैः (त्वक्) (अस्य) (मांसम्) (अभवत्) भवेत् (न) निषेधार्थे (लाजाः)॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! (संरराणाः) अच्छे प्रकार देने (तिस्रः) पढ़ाने, पढ़ने और परीक्षा करनेहारे तीन (देवताः) विद्वान् लोग (शचीभिः) उत्तम प्रज्ञा और कर्मों के साथ (बहुधा) बहुत प्रकारों से जिस यज्ञ को और (शष्पैः) दीर्घ लोमों के साथ (लोमानि) लोमों को (दधुः) धारण करें और (तत्) उस (अस्य) इस यज्ञ के (अमृतम्) नाशरहित (रूपम्) रूप को तुम लोग जानो, यह (तोक्मभिः) बालकों से (न) नहीं अनुष्ठान करने योग्य और (अस्य) इस के मध्य (त्वक्) त्वचा (मांसम्) मांस और (लाजाः) भुंजा हुआ सूखा अन्न आदि होम करने योग्य (न, अभवत्) नहीं होता, इस को भी तुम जानो॥
भावार्थ - जो बहुत काल पर्य्यन्त डाढ़ी-मूंछ धारणपूर्वक ब्रह्मचारी अथवा पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय भद्रजन हैं, वे ही यज धातु के अर्थ को जानने योग्य अर्थात् यज्ञ करने योग्य होते हैं, अन्य बालबुद्धि अविद्वान् नहीं हो सकते। वह हवनरूप ऐसा है कि जिसमें मांस, क्षार, खट्टे से भिन्न पदार्थ वा तीखा आदि गुणरहित; सुगन्धित पुष्ट, मिष्ट तथा रोगनाशकादि गुणों के सहित हों, वही हवन करने योग्य होवे॥
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