ऋषि: - अथर्वाङ्गिराःदेवता - इन्द्रःछन्दः - त्रिष्टुप्सूक्तम् - जगद् राजा सूक्त
इन्द्रो॒ राजा॒ जग॑तश्चर्षणी॒नामधि॑ क्षमि॒ विषु॑रूपं॒ यद॑स्ति।
ततो॑ ददाति दा॒शुषे॒ वसू॑नि॒ चोद॒द्राध॒ उप॑स्तुतश्चिद॒र्वाक् ॥
ইন্দ্রো রাজা জগতশ্চর্ষণীনামধি ক্ষমি বিষুরূপং য়দস্তি ।
ততো দদাতি দাশুষে বসূনি চোদদ্ৰাধ উপস্তুতশ্চিদর্বাক্।। ১ ৷৷
विषय - राजा के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ -
(इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् पुरुष (जगतः) जगत् के बीच (चर्षणीनाम्) मनुष्यों का, और (यत्) जो कुछ (अधि क्षमि) पृथिवी पर (विषुरूपम्) नाना रूप [धन आदि] (अस्ति) है, [उस का भी] (राजा) राजा है। (ततः) इसी कारण से वह (दाशुषे) दाता [आत्मदानी राजभक्त] के लिये (वसूनि) धनों को (ददाति) देता है, [तभी] (उपस्तुतः) समीप से प्रशंसित होकर (चित्) अवश्य (राधः) धन को (अर्वाक्) सन्मुख (चोदत्) प्रवृत्त करे [बढ़ावे] ॥१॥-पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
भावार्थ - जो राजा अपनी प्रजा की और उसकी सब सम्पत्ति की सुधि रखकर रक्षा करे, और योग्य राजभक्तों का यथोचित धन आदि से सत्कार करे, वही प्रशंसा पाकर राज्य में धन बढ़ा सकता है ॥१॥
टिप्पणी -
यह मन्त्र ऋग्वेद में है−७।२७।३ ॥ १−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (राजा) शासकः (जगतः) संसारस्य मध्ये (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम्-निघ० २।३। (अधि) उपरि (क्षमि) आतो धातोः। पा० ६।४।१४०। “आतः” इति योगविभागात् क्षमाशब्दात् सप्तम्येकवचन आकारलोपः। क्षमायाम्। भूम्याम् (विषुरूपम्) नानाविधम् (यत्) यत् किमपि धनादिकम्, तस्य च (अस्ति) भवति (ततः) तस्मात् कारणात्, (ददाति) प्रयच्छति (दाशुषे) दात्रे। आत्मसमर्पकाय राजभक्ताय (वसूनि) धनानि (चोदत्) चोदयेत्। प्रेरयत्। प्रवर्तयेत् (राधः) धनम् (उपस्तुतः) समीपे प्रशंसितः (चित्) अवधारणे (अर्वाक्) अभिमुखम् ॥
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