ऋषि: - ब्रह्मादेवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यःछन्दः - त्रिष्टुप्सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
रोहि॑तो॒ द्यावा॑पृथि॒वी ज॑जान॒ तत्र॒ तन्तुं॑ परमे॒ष्ठी त॑तान।
तत्र॑ शिश्रिये॒ऽज एक॑पा॒दोऽदृं॑ह॒द्द्यावा॑पृथि॒वी बले॑न ॥
রোহিতো দ্যাবাপৃথিবী জজান তত্র তন্ত্রং পরমেষ্ঠী ততান ।
তত্র শিশ্রিয়েইজ একপাদোই দৃংহদ্দ্যাবাপৃথিবী বলেন । । ৬৷৷
विषय - जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ -
(रोहितः) सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] ने (द्यावापृथिवी) सूर्य्य और पृथिवी को (जजान) उत्पन्न किया, (तत्र) उस में (परमेष्ठी) सबसे ऊँचे पदवाले [उस परमेश्वर] ने (तन्तुम्) तन्तु [सूत्रात्मा वायु] को (ततान) फैलाया। (तत्र) उसमें (अजः) वह अजन्मा (एकपादः) एक डगवाला [सब जगत् में एकरस व्यापक] (शिश्रिये) ठहरा, उसने (द्यावापृथिवी) सूर्य्य और पृथिवी को (बलेन) अपने बल से (अदृंहत्) दृढ़ किया ॥६॥
भावार्थ - जैसे परमात्मा ने सब सूर्य्य पृथ्वी आदि लोकों को उत्पन्न करके, और उनके भीतर सूत्रात्मा वायु वा आकर्षण रखकर सबको नियम में बाँधा है, वैसे ही बलवान् पुरुष अपने इन्द्रियों और सब लोगों को विविध प्रकार अपने वश में रक्खे ॥६॥- पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
टिप्पणी -
६−(रोहितः) म० १। सर्वोत्पादकः (द्यावापृथिवी) सूर्य्यभूमी (जजान) जनयामास (तत्र) तस्मिन् (तन्तुम्) सूत्रम्। सूत्रात्मानं वायुम्। आकर्षणम् (परमेष्ठी) सर्वोत्कृष्टे पदे स्थितः परमेश्वरः (ततान) विस्तारयामास (तत्र) (शिश्रिये) तस्थौ (अजः) अजन्मा (एकपादः) सर्वजगति निरन्तरव्यापकः (अदृंहत्) दृढीकृतवान् (द्यावापृथिवी) (बलेन) सामर्थ्येन ॥
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